Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक तड़-तड़ शब्द करते हुए हजारों उल्काएं छोड़ते हुए, हजारों अग्निज्वालाओं को छोड़ते हए, हजारों अंगारों को बिखेरते हए, हजारों स्फुलिंगों की ज्वालाओं से उस पर दृष्टि फैंकते ही आँखों के आगे पकाचौंध के कारण रुकावट डालने वाले, अग्नि से अधिक तेज से देदीप्यमान, अत्यन्त वेगवान् खिले हुए किंशुक के फूल के समान लाल-लाल, महाभयावह एवं भयंकर वज्र को असुरेन्द्र असुरराज चमरेन्द्र के वध के लिए छोड़ा।
तत्पश्चात् उस असुरेन्द्र असुरराज चमर ने जब उस जाज्वल्यमान, यावत् भयंकर वज्र को अपने सामने आता हुआ देखा, तब उसे देखकर चिन्तन करने लगा, फिर (अपने स्थान पर चले जाने की इच्छा करने लगा, अथवा (वज्र को देखते ही उसने अपनी दोनों आँखें मूंद लीं और (वहाँ से चले जाने का पुनः) पुनः विचार करने लगा । चिन्तन करके वह ज्यों ही स्पृहा करने लगा त्यों ही उसके मुकुट का छोगा टूट गया, हाथों के आभूषण नीचे लटक गए; तथा पैर ऊपर और सिर नीचा करके एवं कांखों में पसीना-सा टपकाता हुआ, वह असुरेन्द्र चमर उस उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से तीरछे असंख्य द्वीपसमुद्रों के बीचोंबीच होता हआ, जहाँ जम्बूद्वीप था, जहाँ भारतवर्ष था, यावत जहाँ श्रेष्ठ अशोकवृक्ष था, वहाँ पृथ्वीशिलापट्टक पर जहाँ मैं (श्री महावीरस्वामी), वहाँ आया । मेरे निकट आकर भयभीत एवं भय से गद्गद स्वरयुक्त चमरेन्द्र भगवन् ! आप ही मेरे लिए शरण हैं इस प्रकार बोलता हुआ मेरे दोनों पैरों के बीच में शीघ्रता से वेगपूर्वक गिर पड़ा। सूत्र-१७३
उसी समय देवेन्द्र शक्र को इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि असुरेन्द्र असुरराज चमर इतनी शक्ति वाला नहीं है, न असुरेन्द्र असुरराज चमर इतना समर्थ है, और न ही असुरेन्द्र असुरराज चमर का इतना विषय है कि वह अरिहंत भगवंतों, अर्हन्त भगवान के चैत्यों अथवा भावितात्मा अनगार का आश्रय लिए बिना स्वयं अपने आश्रय से इतना ऊंचा (उठ) कर यावत् सौधर्मकल्प तक आ सके । अतः वह असुरेन्द्र अवश्य अरिहंत भगवंतों यावत् किसी भावितात्मा अनगार के आश्रय से ही इतना ऊपर यावत् सौधर्मकल्प तक आया है। यदि ऐसा है तो उन तथारूप अर्हन्त भगवंतों एवं अनगारों की (मेरे द्वारा फैंके हुए वज्र से) अत्यन्त आशातना होने से मुझे महादुःख होगा । ऐसा विचार करके शक्रेन्द्र ने अवधिज्ञान के प्रयोग से उसने मुझे देखा । मुझे देखते ही हा ! हा! अरे रे ! मैं मारा गया। इस प्रकार (पश्चात्ताप) करके उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से वज्र के पीछे-पीछे दोड़ा । वह शक्रेन्द्र तिरछी असंख्यात दीप-समद्रों के बीचोंबीच होता हआ यावत उस श्रेष्ठ अशोक वक्ष के नीचे जहाँ मैं था. वहाँ आया और वहाँ मुझसे सिर्फ चार अंगुल दूर रहे हुए उस वज्र को उसने पकड़ लिया। सूत्र-१७४
हे गौतम ! (जिस समय शक्रेन्द्र ने वज्र को पकड़ा, उस समय उसने अपनी मुट्ठी इतनी जोर से बन्द की कि) उस मुट्ठी की हवा से मेरे केशाग्र हिलने लगे । तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र ने वज्र को लेकर दाहिनी ओर से मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की और मुझे वन्दन-नमस्कार किया । वन्दन-नमस्कार करके कहा-भगवन् ! आपका ही आश्रय लेकर स्वयं असुरेन्द्र असुरराज चमर मुझे अपनी श्री से भ्रष्ट करने आया था । तब मैंने परिकुपित होकर उस असुरेन्द्र असुरराज चमर के वध के लिए वज्र फैंका था । इसके पश्चात् मुझे तत्काल इस प्रकार का आन्तरिक यावत् मनोगत विचार उत्पन्न हुआ कि असुरेन्द्र असुरराज चमर स्वयं इतना समर्थ नहीं है कि अपने ही आश्रय से इतना ऊंचासौधर्मकल्प तक आ सके, इत्यादि पूर्वोक्त सब बातें शक्रेन्द्र ने कह सूनाई यावत् शक्रेन्द्र ने आगे कहा
भगवन् ! फिर मैंने अवधिज्ञान का योग किया । अवधिज्ञान द्वारा आपको देखा । आपको देखते ही- हा हा अरे रे ! मैं मारा गया। ये उद्गार मेरे मुख से नीकल पड़े । फिर मैं उत्कृष्ट यावत् दिव्य देवगति से जहाँ आप देवानुप्रिय विराजमान हैं, वहाँ आया; और आप देवानुप्रिय से सिर्फ चार अंगुल दूर रहे हुए वज्र को मैंने पकड़ लिया। मैं वज्र को वापस लेने के लिए ही यहाँ सुंसुमारपुर में और इस उद्यान में आया हूँ और अभी यहाँ हूँ । अतः भगवन् ! मैं आप देवानुप्रिय से क्षमा माँगता हूँ | आप देवानुप्रिय मुझे क्षमा करें । आप देवानुप्रिय क्षमा करने योग्य हैं । मैं ऐसा (अपराध) पुनः नहीं करूँगा । यों कहकर शक्रेन्द्र मुझे वन्दन-नमस्कार करके ईशानकोण में चला गया। वहाँ जाकर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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