Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक इसके पश्चात् उस असुरेन्द्र असुरराज चमर ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया । अवधिज्ञान के प्रयोग से उसने मुझे देखा । मुझे देखकर चमरेन्द्र को इस प्रकार आन्तरिक स्फुरणा यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि श्रमण भगवान महावीर जम्बूद्वीप में, भारतवर्ष में, सुंसुमारपुर नगर में, अशोकवनषण्ड नामक उद्यान में, श्रेष्ठ अशोकवृक्ष के नीचे पृथ्वीशिलापट्टक पर अट्ठमभक्त तप स्वीकार कर एकरात्रिकी महाप्रतिमा अंगीकार करके स्थित हैं । अतः मेरे लिए यह श्रेयस्कर होगा कि मैं श्रमण भगवान महावीर के आश्रय से देवेन्द्र देवराज शक्र को स्वयमेव श्रीभ्रष्ट करूँ| वह चमरेन्द्र अपनी शय्या से उठा और उठकर उसने देवदूष्य वस्त्र पहना । फिर, उपपातसभा के पूर्वीद्वार से होकर नीकला । और जहाँ सुधर्मासभा थी, तथा जहाँ चतुष्पाल नामक शस्त्रभण्डार था, वहाँ आया । एक परिघ-रत्न उठाया । फिर वह किसी को साथ लिए बिना अकेला ही उस परिघरत्न को लेकर अत्यन्त रोषाविष्ट होता हुआ चमरचंचा राजधानी के बीचोंबीच होकर नीकला और तिगिच्छकूट नामक उपपातपर्वत के निकट आया । वहाँ उसने वैक्रिय समदघात द्वारा समवहत होकर संख्येय योजनपर्यन्त का उत्तरवैक्रियरूप बनाया। फिर वह उस उत्कष्ट यावत दिव्य देवगति से यावत् जहाँ पृथ्वीशिलापट्टक था, वहाँ मेरे पास आया । मेरे पास उसने दाहिनी ओर से मेरी तीन बार प्रदक्षिणा की, मुझे वन्दन-नमस्कार किया और बोला-भगवन् ! मैं आपके आश्रय से स्वयमेव देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी शोभा से भ्रष्ट करना चाहता हूँ।
वह वहाँ से सीधा ईशानकोण में चला गया । फिर उसने वैक्रियसमुद्घात किया; यावत् वह दूसरी बार भी वैक्रियसमुद्घात से समवहत हआ । उसने एक महाघोर, घोराकृतियुक्त, भयंकर, भयंकर आकार वाला, भास्वर, भयानक, गम्भीर, त्रासदायक, काली कृष्णपक्षीय अर्धरात्रि एवं काले उड़दों की राशि के समान काला, एक लाख योजन का ऊंचा, महाकाय शरीर बनाया । वह अपने हाथों को पछाड़ने लगा, पैर पछाड़ने लगा, गर्जना करने लगा, घोड़े की तरह हिनहिनाने लगा, हाथी की तरह किलकिलाहट करने लगा, रथ की तरह घनघनाहट करने लगा, पैरों को जमीन पर जोर से पटकने लगा, भूमि पर जोर से थप्पड़ मारने लगा, सिंहनाद करने लगा, उछलने लगा, पछाड़ मारने लगा, त्रिपदी को छेदने लगा; बाईं भूजा ऊंची करने लगा, फिर दाहिने हाथ की तर्जनी अंगुली और अंगूठे के नख द्वारा अपने मुख को तिरछा फाड़ कर विडम्बित करने लगा और बड़े जोर-जोर से कलकल शब्द करने लगा । यों करता हुआ वह चमरेन्द्र स्वयं अकेला, परिघरत्न लेकर ऊपर आकाश में उड़ा । वह मानो अधोलोक क्षुब्ध करता हुआ, पृथ्वीतल को मानो कंपाता हुआ, तिरछे लोक को खींचता हुआ-सा, गगनतल को मानो फोड़ता हुआ, कहीं गर्जना करता हुआ, कहीं विद्युत् की तरह चमकता हुआ, कहीं वर्षा के समान बरसता हुआ, कहीं धूल का ढ़ेर उड़ाता हुआ, कहीं गाढान्धकार का दृश्य उपस्थित करता हुआ, तथा वाणव्यन्तर देवों को त्रास पहुँचाता हुआ, ज्योतिषीदेवों को दो भागों में विभक्त करता हुआ एवं आत्मरक्षक देवों को भगाता हुआ, परिघरत्न को आकाश में घूमाता हुआ, उसे विशेष रूप से चमकाता हुआ, उस उत्कृष्ट दिव्य देवगति से यावत् तीरछे असंख्येय द्वीपसमुद्रों के बीचोंबीच होकर नीकला । जिस और सौधर्मकल्प था, सौधर्मावतंसक विमान था, और जहाँ सुधर्मासभा थी, उसके निकट पहुँचा । उसने एक पैर पद्मवरवेदिका पर रखा, और दूसरा पैर सुधर्मासभामें रखा । फिर बड़े जोर से हुंकार करके परिघरत्न से तीन बार इन्द्रकील को पीटा और कहा-अरे ! वह देवेन्द्र देवराज शक्र कहाँ है ? कहाँ है उसके वे ८४००० सामानिक देव ? यावत् कहाँ है उसके वे ३३६००० आत्मरक्षक देव ? कहाँ गई वे अनेक करोड़ अप्सराएं ? आज ही मैं उन सबको मार डालता हूँ, आज ही उनका मैं वध कर डालता हूँ । जो अप्सराएं मेरे अधीन नहीं है, वे अभी मेरी वशवर्तिनी हो जाएं। ऐसा करके चमरेन्द्र ने वे अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमोनज्ञ, अमनोहर और कठोर उद्गार नीकले।
तदनन्तर देवेन्द्र देवराज शक्र (चमरेन्द्र के) इस अनिष्ट, यावत् अमोनज्ञ और अश्रुतपूर्व कर्णकटु वचन सूनसमझ करके एकदम कोपायमान हो गया । यावत् क्रोध से बड़बड़ाने लगा तथा ललाट पर तीन सल पड़े, इस प्रकार से भृकुटि चढ़ाकर शक्रेन्द्र असुरेन्द्र असुरराज चमर से यों बोला-हे ! अप्रार्थित (अनिष्ट-मरण) के प्रार्थक (इच्छुक) ! यावत् हीनपुण्या चतुर्दशी के जन्मे हुए असुरेन्द्र ! असुरराज ! चमर ! आज तू नहीं रहेगा; आज तेरी खैर नहीं है। यों कहकर अपने श्रेष्ठ सिंहासन पर बैठे-बैठे ही शक्रेन्द्र ने अपना वज्र उठाया और उस जाज्वल्यमान, विस्फोट करते हुए,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 71