Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1
शतक/शतकशतक /उद्देशक/ सूत्रांक प्रवृत्ति करने वाले अनगार को ऐापथिकी क्रिया लगती है और उत्सूत्र प्रवृत्ति करने वाले अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगती है । उपयोगरहित गमनादि प्रवृत्ति करने वाला अनगार, सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति करता है । हे गौतम ! इस कारण से उसे साम्परायिकी क्रिया लगती है। सूत्र-३३६
भगवन् ! अंगारदोष, धूमदोष और संयोजनादोष से दूषित पान भोजन का क्या अर्थ कहा गया है ? गौतम! जो निर्ग्रन्थ अथवा निर्ग्रन्थी प्रासुक और एषणीय अशन-पान-खादिम-स्वादिमरूप आहार ग्रहण करके उसमें मूर्च्छित, गद्ध, ग्रथित और आसक्त होकर आहार करते हैं, हे गौतम ! यह अंगारदोष से दषित आहार-पानी हैं । जो निर्ग्रन्थ
पासुक और एषणीय अशन-पान-खादिम-स्वादिम रूप आहार ग्रहण करके, उसके प्रति अत्यन्त अप्रीतिपूर्वक, क्रोध से खिन्नता करते हुए आहार करते हैं, तो हे गौतम ! यह धूमदोष में दूषित आहार-पानी हैं । जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी प्रासुक यावत् आहार ग्रहण करके गुण उत्पन्न करने हेतु दूसरे पदार्थों के साथ संयोग करके आहार-पानी करते हैं, हे गौतम ! वह आहार-पानी संयोजना दोष से दूषित हैं । हे गौतम ! यह अंगारदोष, धूमदोष और संयोजनादोष से दूषित पान-भोजन का अर्थ है।
भगवन् ! अंगार, धूम और संयोजना, इन तीन दोषों से मुक्त पानी-भोजन का क्या अर्थ कहा गया है ? गौतम ! जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी यावत् अत्यन्त आसक्ति एवं मूर्छा रहित आहार करते हैं तो यह अंगारदोष रहित पान भोजन है, अशनादि को ग्रहण करके अत्यन्त अप्रीतिपूर्वक यावत् आहार नहीं करता है, हे गौतम ! यह धूम-दोषरहित पानभोजन है । जैसा मिला है, वैसा ही आहार कर लेते हैं, तो हे गौतम ! यह संयोजनादोषरहित पान-भोजन कहलाता है। हे गौतम ! यह अंगारदोषरहित, धूमदोषरहित एवं संयोजनादोषविमुक्त पान-भोजन का अर्थ कहा गया है। सूत्र - ३३७
भगवन् ! क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त पान-भोजन का क्या अर्थ है ? गौतम ! जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी, प्रासुक और एषणीय अशन-पान-खादिम-स्वादिमरूप चतुर्विध आहार को सूर्योदय से पूर्व ग्रहण करके सूर्योदय के पश्चात् उस आहार को करते हैं, तो हे गौतम ! यह क्षेत्रातिक्रान्त पान-भोजन है । जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी यावत् चतुर्विध आहार को प्रथम प्रहर में ग्रहण करके अन्तिम प्रहर तक रखकर सेवन करते हैं, तो हे गौतम ! यह कालातिक्रान्त पान-भोजन है । जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी यावत् चतुर्विध आहार को ग्रहण करके आधे योजन की मर्यादा का उल्लंघन करके खाते हैं, तो हे गौतम! यह मार्गातिक्रान्त पान-भोजन है। जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी प्रासुक एवं एषणीय यावत् आहार को ग्रहण करके कुक्कुटीअण्डक प्रमाण बत्तीस कवल की मात्रा से अधिक आहार करता है, तो हे गौतम ! यह प्रमाणातिक्रान्त पान-भोजन है।
कुक्कुटी-अण्डकप्रमाण आठ कवल की मात्रा में आहार करने वाला साधु अल्पाहारी है । कुक्कुटीअण्डकप्रमाण बारह कवल की मात्रा में आहार करने वाला साधु अपार्द्ध अवमोदरिका वाला है । कुक्कुटी-अण्डकप्रमाण सोलह कवल की मात्रा में आहार करने वाला साधु द्विभागप्राप्त आहार वाला है । कुक्कुटी-अण्डकप्रमाण चौबीस कवल की मात्रा में आहार करने वाला साधु ऊनोदरिका वाला है । कुक्कुटी-अण्डकप्रमाण बत्तीस कवल की मात्रा में आहार करने वाला साधु प्रमाणप्राप्त आहारी है । इस से एक भी ग्रास कम आहार करने वाला श्रमण निर्ग्रन्थ प्रकामरसभोजी नहीं है, यह कहा जा सकता है । हे गौतम ! यह क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गाति-क्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त पान-भोजन का अर्थ है। सूत्र-३३८
भगवन् ! शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणामित, एषित, व्येषित, सामुदायिक भिक्षारूप पान-भोजन का क्या अर्थ है? गौतम ! जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी शस्त्र और मूसलादि का त्याग किये हुए हैं, पुष्प-माला और विलेपन से रहित हैं, वे यदि उस आहार को करते हैं, जो कृमि आदि जन्तुओं से रहित, जीवच्युत और जीवविमुक्त है, जो साधु के लिए नहीं बनाया गया है, न बनवाया गया है, जो असंकल्पित है, अनाहूत है, अक्रीतकृत है, अनुद्दिष्ट है, नवकोटि-विशुद्ध है, दस दोषों से
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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