Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/सूत्रांक जीव यावत् वैमानिक तक अप्रत्याख्यानी हैं।
भगवन् ! इन प्रत्याख्यानी आदि जीवों में कौन किनसे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे अल्प जीव प्रत्याख्यानी हैं, उनसे प्रत्याख्याना-प्रत्याख्यानी असंख्येयगुणे हैं और उनसे अप्रत्याख्यानी अनन्तगुणे हैं । पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों में प्रत्याख्याना-प्रत्याख्यानी जीव सबसे थोड़े हैं, और उनसे असंख्यातगुणे अप्रत्याख्यानी हैं। मनुष्यों में प्रत्याख्यानी मनुष्य सबसे थोड़े हैं, उनसे संख्येयगुणे प्रत्याख्याना-प्रत्याख्यानी हैं और उनसे भी असंख्येय गुणे अप्रत्याख्यानी हैं। सूत्र-३४४
भगवन् ! क्या जीव शाश्वत हैं या अशाश्वत हैं ? गौतम ! जीव कथंचित् शाश्वत हैं और कथंचित अशाश्वत हैं। भगवन ! यह किस कारण से कहा जाता है ? गौतम ! द्रव्य की दृष्टि से जीव शाश्वत है और भाव की दृष्टि से जीव अशाश्वत हैं । इस कारण कहा गया है कि जीव कथंचित् शाश्वत हैं, कथंचित अशाश्वत हैं।
भगवन् ! क्या नैरयिक जीव शाश्वत हैं या अशाश्वत हैं ? जिस प्रकार (औधिक) जीवों का कथन किया गया, उसी प्रकार नैरयिकों का कथन करना चाहिए । इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त चौबीस ही दण्डकों के विषय में कथन करना चाहिए कि वे जीव कथंचित् शाश्वत हैं, कथंचित अशाश्वत हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है
शतक-७ - उद्देशक-३ सूत्र - ३४५
भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव किस काल में सर्वाल्पाहारी होते और किस काल में सर्वमहाहारी होते हैं ? गौतम ! प्रावृट्-ऋतु (श्रावण और भाद्रपद मास) में तथा वर्षाऋतु (आश्विन और कार्तिक मास) में वनस्पतिकायिक जीव सर्वमहाहारी होते हैं । इसके पश्चात् शरदऋतु में, तदनन्तर हेमन्तऋतु में इसके बाद वसन्तऋतु में और तत्पश्चात् ग्रीष्मऋतु में वनस्पतिकायिक जीव क्रमशः अल्पाहारी होते हैं । ग्रीष्मऋतु में वे सर्वाल्पाहारी होते हैं।
भगवन् ! यदि ग्रीष्मऋतु में वनस्पतिकायिक जीव सर्वाल्पाहारी होते हैं, तो बहुत-से वनस्पतिकायिक ग्रीष्म ऋतु में पत्तों वाले, फूलों वाले, फलों वाले, हरियाली से देदीप्यमान एवं श्री से अतीव सुशोभित कैसे होते हैं ? हे गौतम! ग्रीष्मऋतु में बहुत-से उष्णयोनि वाले जीव और पुद्गल वनस्पतिकाय के रूप में उत्पन्न हो, विशेषरूप से उत्पन्न होते हैं, वृद्धि को प्राप्त होते हैं और विशेषरूप से वृद्धि को प्राप्त होते हैं । हे गौतम ! इस कारण ग्रीष्मऋतु में बहुत-से वनस्पतिकायिक पत्तों वाले, फूलों वाले यावत् सुशोभित होते हैं। सूत्र-३४६
भगवन् ! क्या वनस्पतिकायिक के मूल, निश्चय ही मूल के जीवों से स्पृष्ट होते हैं, कन्द, कन्द के जीवों से स्पृष्ट, यावत् बीज, बीज के जीवों से स्पृष्ट होते हैं? हाँ, गौतम ! मूल, मूल के जीवों से स्पृष्ट होते हैं यावत् बीज, बीज के जीवों से स्पृष्ट होते हैं।
भगवन् ! यदि मूल, मूल के जीवों से स्पृष्ट होते हैं यावत् बीज, बीज के जीवों से स्पृष्ट होते हैं, तो फिर भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव किस प्रकार से आहार करते हैं और किस तरह से उसे परिणमाते हैं ? गौतम ! मूल, मूल के जीवों से व्याप्त हैं और वे पृथ्वी के जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं, इस तरह से वनस्पतिकायिक जीव आहार करते हैं और उसे परिणमाते हैं । इसी प्रकार कन्द, कन्द के जीवों के साथ स्पृष्ट होते हैं और मूल के जीवों से सम्बद्ध रहते हैं; इसी प्रकार यावत् बीज, बीज के जीवों से व्याप्त होते हैं और फल के जीवों के साथ सम्बद्ध रहते हैं; इससे वे आहार करते और उसे परिणमाते हैं। सूत्र - ३४७
अब प्रश्न यह है भगवन् ! आलू, मूला, शृंगबेर, हिरिली, सिरिली, सिस्सिरिली, किट्रिका, छिरिया, छीरविदारिका, वज्रकन्द, सूरणकन्द, खिलूड़ा, भद्रमोथा, पिंडहरिद्रा, रोहिणी, हुथीहू, थिरुगा, मुद्गकर्णी, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सिहण्डी, मुसुण्ढी, ये और इसी प्रकार की जितनी भी दूसरी वनस्पतियाँ हैं, क्या वे सब अनन्तजीववाली
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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