Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक सूत्र-३६९
भगवन् ! क्या वास्तव में हाथी और कुन्थुए के जीव को समान रूप में अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगती है ? हाँ, गौतम ! हाथी और कुन्थुए के जीव को अप्रत्याख्यानिकी क्रिया समान लगती है । भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि हाथी और कुन्थुए के यावत् क्रिया समान लगती है ? गौतम ! अविरति की अपेक्षा समान लगती है। सूत्र - ३७०
भगवन् ! आधाकर्म का उपयोग करने वाला साधु क्या बाँधता है ? क्या करता है ? किसका चय करता है और किसका उपचय करता है ? गौतम । इस विषय का सारा वर्णन प्रथम शतक के नौंवे उद्देशक में कहे शाश्वत है और पण्डितत्व अशाश्वत है यहाँ तक कहना चाहिए । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-७- उद्देशक-९ सूत्र - ३७१
भगवन् ! क्या असंवृत अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक वर्ण वाले, एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! क्या असंवृत अनगार बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके एक वर्ण वाले एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ हैं ? हाँ, गौतम ! वह ऐसा करने में समर्थ हैं।
भगवन् ! वह असंवृत अनगार यहाँ (मनुष्य-लोक में) रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, या वहाँ रहे हए पुदगलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है, अथवा अन्यत्र रहे पदगलों को ग्रहण करके विकर्वणा करता है ? गौतम ! वह यहाँ (मनुष्यलोक में) रहे हए पदगलों को ग्रहण करके विकर्वणा करता है, किन्त न तो वहाँ रहे हए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है और न ही अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है।
इस प्रकार एकवर्ण, एकरूप, एकवर्ण अनेकरूप, अनेकवर्ण एकरूप और अनेकवर्ण अनेकरूप, यों चौंभगी का कथन जिस प्रकार छठे शतक के नौंवे उद्देशक में किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिए। किन्तु इतना विशेष है कि यहाँ रहा हुआ मुनि यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विकुर्वणा करता है । शेष सारा वर्णन पूर्ववत् यावत् भगवन् ! क्या रूक्ष पुद्गलों को स्निग्ध पुद्गलों के रूप में परिणित करने में समर्थ है ?' (उ.) हाँ, गौतम ! समर्थ है । (प्र.) भगवन् ! क्या वह यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके यावत् अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण किए बिना विकुर्वणा करता है? तक कहना। सूत्र-३७२
अर्हन्त भगवान ने यह जाना है, अर्हन्त भगवान ने यह सूना है-तथा अर्हन्त भगवान को यह विशेष रूप से ज्ञात है कि महाशिलाकण्टक संग्राम महाशिलाकण्टक संग्राम ही है । (अतः) भगवन् ! जब महाशिलाकण्टक संग्राम चल रहा था, तब उसमें कौन जीता और कौन हारा? गौतम ! वज्जी विदेहपुत्र कूणिक राजा जीते, नौ मल्लकी और नौ लेच्छकी, जो कि काश और कौशलदेश के १८ गणराजा थे, वे पराजित हुए।
उस समय में महाशिलाकण्टक-संग्राम उपस्थित हुआ जानकर कूणिक राजा ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया । उनसे कहा-हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही उदायी नामक हिस्तराज को तैयार करो और अश्व, हाथी, रथ और योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना सन्नद्ध करो और ये सब करके यावत् शीघ्र ही मेरी आज्ञा मुझे वापिस सौंपो।।
तत्पश्चात् कूणिक राजा द्वारा इस प्रकार कहे जान पर वे कौटुम्बिक पुरुष हृष्ट-तुष्ट हुए, यावत् मस्तक पर अंजलि करके-हे स्वामिन्! ऐसा ही होगा, जैसी आज्ञा; यों कहकर उन्होंने विनयपूर्वक वचन स्वीकार किया। निपुण आचार्यों के उपदेश से प्रशिक्षित एवं तीक्ष्ण बुद्धि-कल्पना के सुनिपुण विकल्पों से युक्त तथा औपपातिकसूत्र में कहे गए विशेषणों से युक्त यावत् भीम संग्राम के योग्य उदार उदायी नामक हस्तीराज को सुसज्जित किया । साथ ही घोड़े, हाथी, रथ और योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना भी सुसज्जित की । जहाँ कूणिक राजा था, वहाँ उसके पास आए और करबद्ध होकर उन्होंने कूणिक राजा को आज्ञा वापिस सौंपी। तत्पश्चात् कूणिक राजा जहाँ स्नानगृह था, वहाँ आया, उसने स्नानगृह में प्रवेश किया । फिर स्नान किया, स्नान से सम्बन्धित मर्दनादि बलिकर्म किया, फिर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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