Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक ही नष्ट हों, और न ही वे शीघ्र दुर्गन्धित हों । इसके पश्चात् उस पल्य में सौ-सौ वर्ष में एक-एक बालाग्र को नीकाला जाए । इस क्रम से तब तक नीकाला जाए, जब तक कि वह पल्य क्षीण हो, नीरज हो, निर्मल हो, पूर्ण हो जाए, निर्लेप हो, अपहृत हो और विशुद्ध हो जाए । उतने काल को एक पल्योपमकाल कहते हैं। सूत्र -३१०
इस पल्योपम काल का जो परिमाण ऊपर बतलाया गया है, वैसे दस कोटाकोटि पल्योपमों का एक सागरोपम-कालपरिमाण होता है। सूत्र-३११
___ इस सागरोपम-परिमाण के अनुसार (अवसर्पिणीकाल में) चार कोटाकोटि सागरोपमकाल का एक सुषमसुषमा आरा होता है; तीन कोटाकोटि सागरोपम-काल का एक सुषमा आरा होता है; दो कोटाकोटि सागरोपम-काल का एक सुषमदःषमा आरा होता है; बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम-काल का एक दुःषम सुषमा आरा होता है; इक्कीस हजार वर्ष का एक दुःषम आरा होता है और इक्कीस हजार वर्ष का एक दुःषम-दुःषमा आरा होता है। इसी प्रकार उत्सर्पिणीकाल में पुनः इक्कीस हजार वर्ष परिमित काल का प्रथम दुःषमदुःषमा आरा होता है। इक्कीस हजार वर्ष का द्वीतिय दुःषम आरा होता है, बयालीस हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम-काल का तीसरा दुःषम-दुषमा आरा होता है यावत् चार कोटाकोटि सागरोपम-काल का छठा सुषम-सुषमा आरा होता है । इस दस कोटाकोटि सागरोपम-काल का एक अवसर्पिणीकाल होता है और दस कोटाकोटि सागरोपम-काल का ही उत्सर्पिणीकाल होता है । यों बीस कोटाकोटि सागरोपमकाल का एक अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी-कालचक्र होता है। सूत्र - ३१२
भगवन् ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप में उत्तमार्थ-प्राप्त इस अवसर्पिणीकाल के सुषम-सुषमा नामक आरे में भरतक्षेत्र के आकार, भाव-प्रत्यवतार किस प्रकार के थे? गौतम ! भूमिभाग बहत सम होने से अत्यन्त रमणीय था। जैसे कोई मुरज नामक वाद्य का चर्मचण्डित मुखपट हो, वैसा बहुत ही सम भरतक्षेत्र का भूभाग था । इस प्रकार उस समय के भरतक्षेत्र के लिए उत्तरकुरु की वक्तव्यता के समान, यावत् बैठते हैं, सोते हैं, यहाँ तक वक्तव्यता कहनी चाहिए । उस काल में भारतवर्ष में उन-उन देशों के उन-उन स्थलों में उदार एवं कुद्दालक यावत् कुश और विकुश से विशुद्ध वृक्षमूल थे; यावत् छह प्रकार के मनुष्य थे । यथा-पद्मगन्ध वाले, मृगगन्ध वाले, ममत्व रहित, तेजस्वी एवं रूपवान, सहा और शनैश्चर थे। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यह इसी प्रकार है।
शतक-६- उद्देशक-८ सूत्र -३१३
भगवन् ! कितनी पृथ्वीयाँ कही गई हैं ? गौतम ! आठ । -रत्नप्रभा यावत् ईषत्प्राग्भारा | भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे गृह अथवा गृहापण हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे ग्राम यावत् सन्निवेश हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे महान् मेघ संस्वेद को प्राप्त होते हैं, सम्मूर्च्छित होते हैं और वर्षा बरसाते हैं ? हाँ, गौतम! हैं, ये सब कार्य-देव भी करते हैं, असुर भी करते हैं और नाग भी करते हैं । भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वीमें बादर स्तनितशब्द है ? हाँ, गौतम ! है, जिसे (उपर्युक्त) तीनों करते हैं
भगवन ! क्या इस रत्नप्रभापथ्वी के नीचे बादर अग्निकाय है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। यह निषेध विग्रहगतिसमापन्नक जीवों के सिवाय (दूसरे जीवों के लिए समझना चाहिए ।) भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे क्या चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारारूप हैं ? (गौतम !) यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी में चन्द्रभा, सूर्याभा आदि हैं ? (गौतम !) यह अर्थ समर्थ नहीं है।
इसी प्रकार दूसरी पृथ्वी के लिए भी कहना चाहिए । इसी प्रकार तीसरी पृथ्वी के लिए भी कहना चाहिए। इतना विशेष है कि वहाँ देव भी करते हैं, असुर भी करते हैं, किन्तु नाग (कुमार) नहीं करते । चौथी पृथ्वी में भी इसी प्रकार सब बातें कहनी चाहिए । इतना विशेष है कि वहाँ देव ही अकेले करते हैं, किन्तु असुर और नाग नहीं करते ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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