Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/शतकशतक /उद्देशक/ सूत्रांक अनुपयुक्त आत्मा द्वारा, अविशुद्ध लेश्या वाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? विशुद्ध लेश्या वाला देव अनुपयुक्त आत्मा द्वारा विशुद्ध लेश्या वाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? [आठों प्रश्नों का उत्तर] गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
भगवन् ! विशुद्ध लेश्या वाला देव क्या उपयुक्त आत्मा से अविशुद्ध लेश्या वाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? हाँ, गौतम ! ऐसा देव जानता-देखता है। इसी प्रकार क्या विशुद्ध लेश्या वाला देव उपयुक्त आत्मा से विशुद्ध लेश्या वाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? हाँ, गौतम ! वह जानता-देखता है । विशुद्ध लेश्या वाला देव उपयुक्तानुपयुक्त आत्मा से अविशुद्ध लेश्या वाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? विशुद्ध लेश्या वाला देव, उपयुक्तानुपयुक्त आत्मा से, विशुद्ध लेश्या वाले देव, देवी या अन्यतर को जानता-देखता है ? हाँ, गौतम ! वह जानता-देखता है । यों पहले कहे गए आठ भंगों वाले देव नहीं जानते-देखते । किन्तु पीछे कहे गए चार भंगों वाले देव जानते-देखते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-६- उद्देशक-१० सूत्र-३२०
भगवन् ! अन्यतीर्थिक कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि राजगृह नगर में जितने जीव हैं, उन सबके दुःख या सुख को बेर की गुठली जितना भी, बाल (एक धान्य) जितना भी, कलाय जितना भी, उड़द जितना भी, मूंगप्रमाण, यूका प्रमाण, लिक्षा प्रमाण भी बाहर नीकाल कर नहीं दिखा सकता । भगवन् ! यह बात यों कैसे हो सकती है ? गौतम ! जो अन्यतीर्थिक कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं, वे मिथ्या कहते हैं । हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि सम्पूर्ण लोक में रहे हुए सर्व जीवों के सुख या दुःख को कोई भी पुरुष यावत् किसी भी प्रमाण में बाहर नीकालकर नहीं दिखा सकता । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है? गौतम ! यह जम्बूद्वीप एक लाख योजन का लम्बा-चौड़ा है। इसकी परिधि ३ लाख १६ हजार दो सौ २७ योजन, ३ कोश, १२८ धनुष और १३ अंगुल से कुछ अधिक है । कोई महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव एक बड़े विलेपन वाले गन्धद्रव्य के डिब्बे को लेकर उघाड़े और उघाड़कर तीन चुटकी बजाए, उतने समय में उप जम्बू द्वीप की २१ बार परिक्रमा करके वापस शीघ्र आए तो हे गौतम ! उस देव की इस प्रकार की शीघ्र गति से गन्ध पुद्गलों के स्पर्श से यह सम्पूर्ण जम्बूद्वीप स्पृष्ट हुआ या नहीं? हाँ, भगवन् ! वह स्पृष्ट हो गया । हे गौतम ! कोई पुरुष उन गन्धपुद्गलों को बेर की गुठली जितना भी, यावत् लिक्षा जितना भी दिखलाने में समर्थ है ? भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । हे गौतम ! इसी प्रकार जीव के सुख-दुःख को भी बाहर नीकालकर बतलाने में, यावत् कोई भी व्यक्ति समर्थ नहीं है। सूत्र - ३२१
भगवन् ! क्या जीव चैतन्य है या चैतन्य जीव है ? गौतम ! जीव तो नियमतः चैतन्य स्वरूप है और चैतन्य भी निश्चितरूप से जीवरूप है । भगवन् ! क्या जीव नैरयिक है या नैरयिक जीव है ? गौतम ! नैरयिक तो नियमतः जीव है
और जीव तो कदाचित् नैरयिक भी हो सकता है, कदाचित् नैरयिक से भिन्न भी हो सकता है। भगवन् ! क्या जीव, असुरकुमार है या असुरकुमार जीव है ? गौतम ! असुरकुमार तो नियमतः जीव है, किन्तु जीव तो कदाचित् असुरकुमार भी होता है, कदाचित् असुरकुमार नहीं भी होता । इसी प्रकार यावत् वैमानिक तक सभी दण्डक (आलापक) कहने चाहिए।
भगवन् ! जो जीता-प्राण धारण करता है, वह जीव कहलाता है, या जो जीव है, वह जीता-प्राण धारण करता है ? गौतम ! जो जीता- है, वह तो नियमतः जीव कहलाता है, किन्तु जो जीव होता है, वह प्राण धारण करता भी है और नहीं भी करता । भगवन् ! जो जीता है, वह नैरयिक कहलाता है, या जो नैरयिक होता है, वह जीता है ? गौतम! नैरयिक तो नियमतः जीता है, किन्तु जो जीता है, वह नैरयिक भी होता है और अनैरयिक भी होता है । इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिए।
भगवन् ! जो भवसिद्धिक होता है, वह नैरयिक होता है, या जो नैरयिक होता है, वह भवसिद्धिक होता है?
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 127