Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक पुद्गलों का बन्ध होता है ? सर्वतः पुद्गलों का चय होता है ? सर्वतः पुद्गलों का उपचय होता है ? सदा सतत पुद्गलों का चय होता है ? सदा सतत पुद्गलों का उपचय होता है ? क्या सदा निरन्तर उसका आत्मा दुरूपता में, दुर्वर्णता में, दुर्गन्धता में, दुःरसता में, दुःस्पर्शता में, अनिष्टता में, अकान्तता, अप्रियता, अशुभता, अमनोज्ञता और अमनोगमता में, अनिच्छनीयता में, अनभिध्यितता में, अधमता में, अनुलता में, दुःखरूप में,-असुखरूप में बार-बार परिणत होता है ? हाँ, गौतम ! महाकर्म वाले जीव के...यावत् ऊपर कहे अनुसार...यावत् परिणत होता है।
(भगवन् !) किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! जैसे कोई अहत (जो पहना गया न हो), धौत, तन्तुगत वस्त्र हो, वह वस्त्र जब क्रमशः उपयोग में लिया जाता है, तो उसके पुद्गल सब ओर से बंधते हैं, सब ओर से चय होते हैं, यावत् कालान्तर में वह वस्त्र अत्यन्त मैला और दुर्गन्धित रूप में परिणत हो जाता है, इसी प्रकार महाकर्म वाला जीव उपर्युक्त रूप से यावत् असुखरूप में बार-बार परिणत होता है।
भगवन् ! क्या निश्चय ही अल्पकर्म वाले, अल्पक्रिया वाले, अल्प आश्रव वाले और अल्पवेदना वाले जीव के सर्वतः पुद्गल भिन्न हो जाते हैं ? सर्वतः पुद्गल छिन्न होते जाते हैं ? सर्वतः पुद्गल विध्वस्त होते जाते हैं ? सर्वतः पुद् गल समग्ररूप से ध्वस्त हो जाते हैं ? क्या सदा सतत पुद्गल भिन्न, छिन्न, विध्वस्त और परिविध्वस्त होते हैं ? क्या उसका आत्मा सदा सतत सुरूपता में यावत् सुखरूप में और अदुःखरूप में बार-बार परिणत होता है ? हाँ, गौतम ! अल्पकर्म वाले जीव का...यावत् ऊपर कहे अनुसार ही...यावत् परिणत होता है । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! जैसे कोई मैला, पंकित, मैलसहित अथवा धूल से भरा वस्त्र हो और उसे शुद्ध करने का क्रमशः उपक्रम किया जाए, उसे पानी से धोया जाए तो उस पर लगे हुए मैले-अशुभ पुद्गल सब ओर से भिन्न होने लगते हैं, यावत् उसके पुद्गल शुभरूप में परिणत हो जाते हैं, इसी कारण (हे गौतम ! अल्पकर्म वाले जीव के लिए कहा गया है कि वह...यावत् बारबार परिणत होता है।) सूत्र - २८१
भगवन् ! वस्त्र में जो पुद्गलों का उपचय होता है, वह क्या प्रयोग (पुरुष-प्रयत्न) से होता है, अथवा स्वाभाविक रूप से ? गौतम ! वह प्रयोग से भी होता है, स्वाभाविक रूप से भी होता है । भगवन् ! जिस प्रकार वस्त्र में पुद्गलों का उपचय प्रयोग से और स्वाभाविक रूप से होता है, तो क्या उसी प्रकार जीवों के कर्मपुद्गलों का उपचय भी प्रयोग से और स्वभाव से होता है ? गौतम ! जीवों के कर्मपुदगलों का उपचय प्रयोग से होता है, किन्तु स्वाभाविक रूप से नहीं होता।
भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? गौतम ! जीवों के तीन प्रकार के प्रयोग कहे गए हैं-मनः प्रयोग, वचनप्रयोग और कायप्रयोग । इन तीन प्रयोग के प्रयोगों से जीवों के कर्मों का उपचय कहा गया है । इस प्रकार समस्त पंचेन्द्रिय जीवों के तीन प्रकार का प्रयोग कहना चाहिए । पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक जीवों तक के एक प्रकार के (काय) प्रयोग से (कर्मपुद्गलोपचय होता है) । विकलेन्द्रिय जीवों के दो प्रकार के प्रयोग होते हैं, यथा-वचनप्रयोग और काय-प्रयोग । इस प्रकार उनके इन दो प्रयोगों से कर्म (पुद्गलों) का उपचय होता है । अतः समस्त जीवों के कर्मोपचय प्रयोग से होता है, स्वाभाविक-रूप से नहीं। इसी कारण से कहा गया है कि...यावत् स्वाभाविक रूप से नहीं होता । इस प्रकार जिस जीव का जो प्रयोग हो, वह कहना चाहिए । यावत् वैमानिक तक प्रयोगों से कर्मोपचय का कथन करना चाहिए। सूत्र - २८२
भगवन् ! वस्त्र में पुद्गलों का जो उपचय होता है, वह सादि-सान्त है, सादिअनन्त है, अनादि-सान्त है, अथवा अनादि-अनन्त है ? गौतम ! वस्त्र में पुद्गलों का जो उपचय होता है, वह सादि-सान्त होता है, किन्तु न तो वह सादिअनन्त होता है, न अनादि-सान्त होता है और न अनादि-अनन्त होता है।
हे भगवन् ! जिस प्रकार वस्त्र में पुद्गलोपचय सादि-सान्त है, किन्तु सादि-अनन्त, अनादि-सान्त और अनादि-अनन्त नहीं है, क्या उसी प्रकार जीवों का कर्मोपचय भी सादि-सान्त है, सादि-अनन्त है, अनादि-सान्त है,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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