Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/शतकशतक /उद्देशक/ सूत्रांक जिन प्राण, भूत, जीव और सत्त्व को सामने आते हुए मारे उन्हें सिकोड़ दे, अथवा उन्हें ढक दे, उन्हें परस्पर चिपका दे,
रस्पर संहत करे, उनका संघद्रा-जोर से स्पर्श करे, उनको परिताप-संताप दे, उन्हें क्लान्त करे-थकाए, हैरान करे, एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकाए, एवं उन्हें जीवन से रहित कर दे, तो हे भगवन् ! उस पुरुष को कितनी क्रियाएं लगती हैं ? गौतम ! यावत् वह पुरुष धनुष को ग्रहण करता यावत् बाण को फेंकता है, तावत् वह पुरुष कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादेषिकी, पारितापनिकी, और प्राणातिपातिकी, इन पाँच क्रियाओं से स्पृष्ट होता है । जिन जीवों के शरीरों से वह धनुष बना है, वे जीव भी पाँच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं । इसी प्रकार धनुष की पीठ, जीवा (डोरी), स्नायु एवं बाण पाँच क्रियाओं से तथा शर, पत्र, फल और दारू भी पाँच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। सूत्र-२४७ हे भगवन् ! जब वह बाण अपनी गुरुता से, अपने भारीपन से, अपने गुरुसंभारता से स्वाभाविकरूप से नीचे
वह (बाण) प्राण, भत, जीव और सत्व को यावत जीवन से रहित कर देता है, तब उस बाण फैंकने वाले पुरुष को कितनी क्रियाएं लगती हैं ? गौतम ! जब वह बाण अपनी गुरुता आदि से नीचे गिरता हआ, यावत् जीवों को जीवन रहित कर देता है, तब वह बाण फैंकने वाला पुरुष कायिकी आदि चार क्रियाओं से स्पृष्ट होता है। जिन जीवों के शरीर से धनुष बना है, वे जीव भी चार क्रियाओं से, धनुष की पीठ चार क्रियाओं से, जीवा और हारू चार क्रियाओं से, बाण तथा शर, पत्र, फल और ण्हारू पाँच क्रियाओं से स्पृष्ट होते हैं। नीचे गिरते हए बाण के अवग्रह में जो जीव आते हैं, वे जीव भी कायिकी आदि पाँच क्रियाओं से स्पष्ट होते हैं। सूत्र-२४८
भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि जैसे कोई युवक अपने हाथ से युवती का हाथ पकड़े हए हो, अथवा जैसे आरों से एकदम सटी (जकड़ी) हई चक्र की नाभि हो, इसी प्रकार यावत् चार सौपाँच सौ योजन तक यह मनुष्यलोक मनुष्यों से ठसाठस भरा हुआ है । भगवन् ! यह सिद्धान्त प्ररूपण कैसे है ? हे गौतम ! अन्यतीर्थियों का यह कथन मिथ्या है । मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि चार-सौ, पाँच सौ योजन तक नरकलोक, नैरयिक जीवों से ठसाठस भरा हआ है। सूत्र - २४९
भगवन् ! क्या नैरयिक जीव, एक रूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है, अथवा बहुत से रूपों की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? गौतम ! इस विषय में जीवाभिगमसूत्र के समान आलापक यहाँ भी दुरहियास शब्द तक कहना। सूत्र - २५०
'आधाकर्म अनवद्य-निर्दोष हैइस प्रकार जो साधु मन में समझता है, वह यदि उस आधाकर्म-स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है, तो उसके आराधना नहीं होती। वह यदि उस (आधाकर्म) स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है।
आधाकर्म के आलापकद्वय के अनुसार ही क्रीतकृत, स्थापित रचितक, कान्तारभक्त, दुर्भिक्षभक्त, वर्दलिकाभक्त, ग्लानभक्त, शय्यातरपिण्ड, राजपिण्ड, इन सब दोषों से युक्त आहारादि के विषय में प्रत्येक के दो-दो आलापक कहने चाहिए । आधाकर्म अनवद्य है, इस प्रकार जो साधु बहुत-से मनुष्यों के बीच में कहकर, स्वयं ही उस आधाकर्म-आहारादि का सेवन करता है, यदि वह उस स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाता है तो उसके आराधना नहीं होती, यावत् यदि वह उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है । आधाकर्मसम्बन्धी इस प्रकार के आलापकद्वय के समान क्रीतकृत से लेकर राजपिण्डदोष तक पूर्वोक्त प्रकार से प्रत्येक के दो-दो आलापक समझ लेने चाहिए।
आधाकर्म अनवद्य है, इस प्रकार कहकर, जो साधु स्वयं परस्पर (भोजन करता है) दूसरे साधुओं को दिलाता है, किन्तु उस आधाकर्म दोष स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना काल करता है तो उसके अनाराधना तथा यावत् आलोचनादि करके काल करता है तो उसके आराधना होती है । इसी प्रकार क्रीतकृत से लेकर
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 100