Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1
शतक/शतकशतक /उद्देशक/ सूत्रांक अन्धकार भी है। भगवन् ! किस कारण से चतुरिन्दिय जीवों के उद्योत भी है, अन्धकार भी है ? गौतम ! चतु-रिन्द्रिय जीवों के शुभ और अशुभ (दोनों प्रकार के) पुद्गल होते हैं, तथा शुभ और अशुभ पुद्गल परिणाम होते हैं, इसलिए ऐसा कहा जाता है कि उनके उद्योत भी है और अन्धकार भी है। इसी प्रकार यावत् मनुष्यों तक के लिए कहना चाहिए । जिस प्रकार असुरकुमारों के (उद्योत-अन्धकार) के विषय में कहा, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के विषय में भी कहना चाहिए। सूत्र-२६६
भगवन ! क्या वहाँ (नरकक्षेत्र में रहे हए नैरयिकों को इस प्रकार का प्रज्ञान होता है, जैसे कि समय, आवलिका, यावत् उत्सर्पिणी काल (या) अवसर्पिणी काल ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! किस कारण
थ नैरयिकों को काल का प्रज्ञान नहीं होता ? गौतम ! यहाँ (मनुष्यलोक में) समयादि का मान है, यहाँ उनका प्रमाण है, इसलिए यहाँ ऐसा प्रज्ञान होता है कि यह समय है, यावत् यह उत्सर्पिणीकाल है, (किन्तु नरक में न तो समयादि का मान है, न प्रमाण है और न ही प्रज्ञान है। इस कारण से कहा जाता है कि नरकस्थित नैरयिकों को इस प्रकार से यावत् उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल का प्रज्ञान नहीं होता । जिस प्रकार नरकस्थित नैरयिकों के विषय में कहा गया है; उसी प्रकार यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों तक कहना ।
भगवन् ! क्या यहाँ (मनुष्यलोक में) रहे हुए मनुष्यों को इस प्रकार का प्रज्ञान होता है, कि समय (है), अथवा यावत् (यह) उत्सर्पिणीकाल (है)? हाँ, गौतम ! होता है। भगवन् ! किस कारण से (ऐसा कहा जाता है)? गौतम ! यहाँ (मनुष्यलोक में) उनका (समयादि का) मान है, यहाँ उनका प्रमाण है, इसलिए यहाँ उनको उनका (समयादि का) इस प्रकार से प्रज्ञान होता है, यथा यह समय है, या यावत् यह उत्सर्पिणीकाल है । इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि यहाँ रहे हुए मनुष्यों को समयादि का प्रज्ञान होता है।
जिस प्रकार नैरयिक जीवों के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों के (समयादिप्रज्ञान के विषय में कहना चाहिए। सूत्र - २६७
उस काल और उस समय में पापित्य स्थविर भगवंत, जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आए । वहाँ आकर वे श्रमण भगवान महावीर से अदूरसामन्त खड़े रहकर इस प्रकार पूछने लगे-भगवन् ! असंख्य लोक में क्या अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे; तथा नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं और नष्ट होंगे ? अथवा परिमित रात्रि-दिवस उत्पन्न हए हैं, उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न होंगे; तथा नष्ट हए हैं, नष्ट होते हैं और नष्ट होंगे? हाँ, आर्यो ! असंख्य लोक में अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न हुए हैं, उत्पन्न होते हैं, यावत् उपर्युक्त रूप सारा पाठ कहना चाहिए। भगवन् ! किस कारण से असंख्य लोक में अनन्त रात्रि-दिवस उत्पन्न यावत् नष्ट होंगे? हे आर्यो ! यह निश्चित है कि आपके (गुरुस्वरूप) पुरुषादानीय, अर्हत् पार्श्वनाथ ने लोक को शाश्वत कहा है । इसी प्रकार लोक को अनादि, अनन्त, परिमित, अलोक से परिवृत, नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और उपर विशाल, तथा नीचे पल्यंकाकार, बीच में उत्तम वज्राकार और ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकार कहा है । उस प्रकार के शाश्वत, अनादि, अनन्त, परित्त, परिवृत्त, नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, तथा नीचे पल्यंकाकार, मध्य में उत्तमवज्राकार और ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकारसंस्थित लोक में अनन्त जीवघन उत्पन्न हो-हो कर नष्ट होते हैं और परित्त जीवघन भी उत्पन्न हो-हो कर विनष्ट होते हैं । इसलिए ही तो यह लोक भूत है, उत्पन्न है, विगत है, परिणत है । यह, अजीवों से लोकित-निश्चित होता है, तथा यह (भूत आदि धर्म वाला लोक) विशेषरूप से लोकित-निश्चित होता है । जो (प्रमाण से) लोकितअवलोकित होता है, वही लोक है न ? (पापित्य स्थविर-) हाँ, भगवन् ! (वही लोक है) इसी कारण से, हे आर्यो ! ऐसा कहा जाता है कि असंख्य लोक में इत्यादि सब पूर्ववत् कहना । तब से वे पापित्य स्थविर भगवंत श्रमण भगवान महावीर को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी जानने लगे।
इसके पश्चात् उन (पार्वापत्य) स्थविर भगवंतों ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन-नमस्कार किया । वे
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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