Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक सूत्र - १८३
गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार करके पूछा-भगवन् ! लवणसमुद्र; चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या और पूर्णमासी; इन चार तिथियों में क्यों अधिक बढ़ता या घटता है ? हे गौतम ! जीवाभिगमसूत्र में लवणसमुद्र के सम्बन्ध में जैसा कहा है, वैसा यावत् लोकस्थिति से लोकानुभावः शब्द तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
शतक-३ - उद्देशक-४ सूत्र-१८४
भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुए और यानरूप से जाते हुए देव को जानता देखता है ? गौतम ! (१) कोई (भावितात्मा अनगार) देव को तो देखता है, किन्तु यान को नहीं देखता; (२) कोई यान को देखता है, किन्तु देव को नहीं देखता; (३) कोई देव को भी देखता है और यान को भी देखता है; (४) कोई न देव को देखता है और न यान को देखता है।
भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुद्घात से समवहत हुई और यानरूप से जाती हुई देवी को जानता-देखता है? गौतम ! जैसा देव के विषय में कहा, वैसा ही देवी के विषय में भी जानना चाहिए | भगवन् ! भावितात्मा अनगार, वैक्रिय समुद्घात से समवहत तथा यानरूप से जाते हुए, देवीसहित देव को जानता-देखता है? गौतम! कोई देवीसहित देव को तो देखता है, किन्तु यान को नहीं देखता; इत्यादि चार भंग पूर्ववत् जानना।
भगवन् ! भावितात्मा अनगार क्या वृक्ष के आन्तरिक भाग को (भी) देखता है अथवा बाह्य भाग को देखता है? (हे गौतम!) यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से चार भंग कहना । इसी तरह पच्छा की-क्या वह मल को देख कन्द को (भी) देखता है ? तथा क्या वह मूल को देखता है, अथवा स्कन्ध को (भी) देखता है ? हे गौतम ! चार-चार भंग पूर्ववत् कहने चाहिए । इसी प्रकार मूल के साथ बीज के चार भंग कहने चाहिए । तथा कन्द के साथ यावत् बीज तक का संयोजन कर लेना चाहिए । इसी तरह यावत् पुष्प के साथ बीज का संयोजन कर लेना चाहिए।
भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार वृक्ष के फल को देखता है, अथवा बीज को (भी) देखता है ? गौतम ! (यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से) चार भंग कहने चाहिए। सूत्र - १८५
भगवन् ! क्या वायुकाय एक बड़ा स्त्रीरूप, पुरुषरूप, हस्तिरूप, यानरूप, तथा युग्य, गिल्ली, थिल्ली, शिविका, स्यन्दमानिका, इन सबके रूपों की विकुर्वणा कर सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । किन्तु वायुकाय एक बड़ी पताका के आकार के रूप की विकुर्वणा कर सकता है। भगवन् ! क्या वायुकाय एक बड़ी पताका के आकार की विकुर्वणा करके अनेक योजन तक गमन करने में समर्थ है?
भगवन् ! क्या वह (वायुकाय) अपनी ही ऋद्धि से गति करता है अथवा पर की ऋद्धि से गति करता है ? गौतम ! वह अपनी ऋद्धि से गति करता है, पर की ऋद्धि से गति नहीं करता । जैसे वायुकाय आत्मऋद्धि से गति करता है, वैसे वह आत्मकर्म से एवं आत्मप्रयोग से भी गति करता है, यह कहना चाहिए।
गवन! क्या वह वायकाय उच्छितपताका के आकार से गति करता है, या पतित-पताका के आकार से गति करता है ? गौतम ! वह उच्छितपताका और पतित-पताका, इन दोनों के आकार से गति करता है। भगवन् ! क्या वायुकाय एक दिशा में एक पताका के समान रूप बनाकर गति करता है अथवा दो दिशाओं में दो पताकाओं के समान रूप बनाकर गति करता है ? गौतम ! वह एक पताका समान रूप बनाकर गति करता है, किन्तु दो दिशाओं में दो पताकाओं के समान रूप बनाकर गति नहीं करता।
भगवन् ! उस समय क्या वह वायुकाय, पताका है ? गौतम ! वह वायुकाय है, किन्तु पताका नहीं है। सूत्र - १८६
भगवन् ! क्या बलाहक (मेघ) एक बड़ा स्त्रीरूप यावत् स्यन्दमानिका (म्याने) रूप में परिणत होने में समर्थ है?
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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