Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक ईषत्पुरोवात आदि हवाएं होती हैं ? हाँ, गौतम ! होती हैं।
भगवन् ! जब द्वीप में ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती है, तब क्या सामुद्रिक ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती है? और जब सामुद्रिक ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती है, तब क्या द्वीपीय ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । हवाएं बहती हैं, तब सामुद्रिक ईषत्पुरोवात आदि हवाएं नहीं बहतीं, और जब सामुद्रिक ईषत्पुरोवात आदि हवाएं बहती हैं, तब द्वीपीय ईषत्पुरोवात आदि हवाएं नहीं बहती ? गौतम ! ये सब वायु परस्पर व्यत्यासरूप से एवं पृथक्-पृथक् बहती हैं । साथ ही, वे वायु लवणसमुद्र की वेला का उल्लंघन नहीं करती । इस कारण यावत् वे वायु पूर्वोक्त रूप से बहती हैं।
भगवन् ! क्या ईषत्पुरोवात, पथ्यवात, मन्दवात और महावात बहती हैं ? हाँ, गौतम ! (ये सब) बहती हैं । भगवन् ! ईषत्पुरोवात आदि वायु कब बहती हैं ? गौतम ! जब वायुकाय अपने स्वभावपूर्वक गति करता है, तब ईषत्पुरोवात आदि वाय यावत बहती हैं । भगवन ! क्या ईषत्पुरोवात आदि वाय हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन ! ईषत्पुरोवात आदि वायु (और भी) कभी चलती (बहती) हैं ? हे गौतम ! जब वायुकाय उत्तरक्रियापूर्वक (वैक्रिय शरीर बनाकर) गति करता है, तब (भी) ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती (चलती) हैं।
भगवन् ! ईषत्पुरोवात आदि वायु (ही) हैं ? हाँ, गौतम ! वे (सब वायु ही) हैं । भगवन् ! ईषत्पुरोवात, पथ्यवात आदि (और) कब (किस समय में) चलती हैं ? गौतम ! जब वायुकुमार देव और वायुकुमार देवियाँ, अपने लिए, दूसरों के लिए या दोनों के लिए वायुकाय की उदीरणा करते हैं, तब ईषत्पुरोवात आदि वायु यावत् चलती (बहती) हैं।
भगवन् ! क्या वायुकाय, वायुकाय को ही श्वासरूप में ग्रहण करता है और निःश्वासरूप में छोड़ता है ? गौतम! इस सम्बन्धमें स्कन्दक परिव्राजक के उद्देशकमें कहे अनुसार चार आलापक जानना चाहिए-यावत् (१) अनेक लाख बार मरकर, (२) स्पृष्ट होकर, (३) मरता है और (४) शरीर-सहित नीकलता है। सूत्र-२२१
भगवन् ! अब यह बताएं कि ओदन, उड़द और सुरा, इन तीनों द्रव्यों को किन जीवों का शरीर कहना चाहिए? गौतम ! ओदन, कुल्माष और सुरा में जो घन द्रव्य हैं, वे पूर्वभाव-प्रज्ञापना की अपेक्षा से वनस्पतिजीव के शरीर हैं । उसके पश्चात् जब वे (ओदनादि द्रव्य) शस्त्रातीत हो जाते हैं, शस्त्रपरिणत हो जाते हैं; आग से जलाये अग्नि अग्निसेवित और अग्निपरिणामित हो जाते हैं, तब वे द्रव्य अग्नि के शरीर कहलाते हैं। तथा सुरा में जो तरल पदार्थ हैं, वह पूर्वभाव प्रज्ञापना की अपेक्षा से अप्कायिक जीवों का शरीर है, और जब वह तरल पदार्थ (पूर्वोक्त प्रकार से) शस्त्रातीत यावत् अग्निपरिणामित हो जाता है, तब वह भाग, अग्निकाय-शरीर कहा जा सकता है।
भगवन् ! लोहा, ताँबा, त्रपुष्, शीशा, उपल, कोयला और लोहे का काट, ये सब द्रव्य किन (जीवों के) शरीर कहलाते हैं ? गौतम ! ये सब द्रव्य पूर्वप्रज्ञापना की अपेक्षा से पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं, और उसके बाद शस्त्रातीत यावत् शस्त्रपरिणामित होने पर ये अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं।
भगवन् ! ये हड्डी, अस्थिध्याम (अग्नि से पर्यायान्तर को प्राप्त हड्डी और उसका जला हुआ भाग), चमड़ा, चमड़े का जला हुआ स्वरूपान्तरप्राप्त भाग, रोम, अग्निज्वलित रोम, सींग, अग्नि प्रज्वलित विकृत सींग, खुर, अग्निप्रज्वलित खुर, नख और अग्निप्रज्वलित नख, ये सब किन (जीवों) के शरीर कहे जा सकते हैं ? गौतम ! हड्डी, चमड़ा, रोम, सींग, खुर और नख ये सब त्रसजीवों के शरीर कहे जा सकते हैं, और जली हुई हड्डी, प्रज्वलित विकृत चमड़ा, जले हुए रोम, प्रज्वलित-रूपान्तरप्राप्त सींग, प्रज्वलित खुर और प्रज्वलित नख; ये सब पूर्वभाव-प्रज्ञापना की अपेक्षा से तो त्रसजीवों के शरीर हैं किन्तु उसके पश्चात् शस्त्रातीत यावत् अग्निपरिणामित होने पर ये अग्निकायिक जीवों के शरीर कहे जा सकते हैं।
भगवन् ! अंगार, राख, भूसा और गोबर, इन सबको किन जीवों के शरीर कहे जाएं ? गौतम ! अंगार, राख,
गोबर ये सब पर्व-भाव प्रज्ञापना की अपेक्षा से एकेन्द्रियजीवों द्वारा अपने शरीर रूप से प्रयोगों से अपने साथ परिणामित एकेन्द्रिय शरीर हैं, यावत् पंचेन्द्रिय जीवों तक के शरीर भी कहे जा सकते हैं, और तत्पश्चात्
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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