Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक
भगवन् ! जैसे कोई पुरुष एक तरफ पर्यंकासन करके बैठे, उसी तरह क्या भावितात्मा अनगार भी उस पुरुष के समान रूप-विकुर्वणा करके आकाश में उड़ सकता है ? (गौतम !) पहले कहे अनुसार जानना चाहिए । यावत्इतने रूप कभी विकुर्वित किये नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं । इसी तरह दोनों तरफ पर्यंकासन करके बैठे हुए पुरुष के समान रूप-विकुर्वणा करने के सम्बन्ध में जान लेना चाहिए।
भगवन् ! भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक बड़े अश्व के रूप को, हाथी के रूप को, सिंह, बाघ, भेड़िये, चीते, रीछ, छोटे व्याघ्र अथवा पराशर के रूप का अभियोग करने में समर्थ है ? गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है । वह बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके (पूर्वोक्त रूपों का अभियोग करने में समर्थ है।
भगवन् ! भावितात्मा अनगार, एक बड़े अश्व के रूप का अभियोजन करके अनेक योजन तक जा सकता है ? हाँ, गौतम ! वह वैसा करने में समर्थ है । भगवन् ! क्या वह (इतने योजन तक) आत्मऋद्धि से जाता है या पर-ऋद्धि से जाता है ? गौतम ! वह आत्मऋद्धि से जाता है, परऋद्धि से नहीं जाता । इसी प्रकार वह अपनी क्रिया (स्वकर्म) से जाता है, परकर्म से नहीं; आत्मप्रयोग से जाता है, किन्तु परप्रयोग से नहीं । वह उच्छितोदय (सीधे खड़े) रूप भी जा सकता है और पतितोदय (प र) रूप में भी जा सकता है। वह अश्वरूपधारी भावितात्मा अनगार, क्या अश्व है ? गौतम ! वह अनगार है, अश्व नहीं । इसी प्रकार पराशर तक के रूपों के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए।
भगवन् ! क्या मायी अनगार, विकुर्वणा करता है, या अमायी अनगार करता है ? गौतम ! मायी अनगार विकुर्वणा करता है, अमायी अनगार विकुर्वणा नहीं करता । मायी अनगार उस-उस प्रकार की विकुर्वणा करने के पश्चात् उस स्थान की आलोचना एवं प्रतिक्रमण किये बिना ही काल करता है, इस प्रकार वह मृत्यु पाकर आभियोगिक देवलोकों में से किसी एक देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होता है । किन्तु अमायी अनगार उस प्रकार की विकुर्वणाक्रिया करने के पश्चात् पश्चात्तापपूर्वक उक्त प्रमादरूप दोष-स्थान का आलोचन-प्रतिक्रमण करके काल करता है, और वह मरकर अनाभियोगिक देवलोकों में से किसी देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होता है । हे भगवन ! यह इसी प्रकार है। सूत्र - १९०
स्त्री, तलवार, पताका, यज्ञोपवित, पल्हथी, पर्यंकासन इन सब रूपों के अभियोग और विकुर्वणा-सम्बन्धी वर्णन इस उद्देशक में हैं। तथा ऐसा कार्य मायी करता है।
शतक-३ - उद्देशक-६ सूत्र-१९१
भगवन् ! राजगृह नगर में रहा हुआ मिथ्यादृष्टि और मायी भावितात्मा अनगार वीर्यलब्धि से, वैक्रियलब्धि से और विभंगज्ञानलब्धि से वाराणसी नगरी की विकुर्वणा करके क्या तद्गत रूपों को जानता-देखता है ? हाँ, गौतम ! वह जानता और देखता है।
भगवन् ! क्या वह (उन रूपों को) यथार्थरूप से जानता-देखता है, अथवा अन्यथाभाव से जानता-देखता है ? गौतम ! वह तथाभाव से नहीं जानता-देखता, किन्तु अन्यथाभाव से जानता-देखता है। भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? गौतम ! उस (तथाकथित अनगार) के मन में इस प्रकार का विचार होता है कि वाराणसी नगरी में रहे हुए मैंने राजगृहनगर की विकुर्वणा की है और विकुर्वणा करके मैं तद्गत रूपों को जानता-देखता हूँ । इस प्रकार उसका दर्शन विपरीत होता है। इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि वह तथाभाव से नहीं जानता-देखता, किन्तु अन्यथा भाव से जानता-देखता है।
भगवन् ! वाराणसी में रहा हुआ मायी मिथ्यादृष्टि भावितात्मा अनगार, यावत् राजगृहनगर की विकुर्वणा करके वाराणसी के रूपों को जानता और देखता है ? हाँ, गौतम ! वह उन रूपों को जानता और देखता है । यावत्उस साधु के मन में इस प्रकार का विचार होता है कि राजगृह नगर में रहा हुआ मैं वाराणसी नगरी की विकुर्वणा करके तद्गत रूपों को जानता और देखता हूँ । इस प्रकार उसका दर्शन विपरीत होता है । इस कारण से, यावत्-वह
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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