Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक हाँ, गौतम ! समर्थ है । भगवन् ! क्या बलाहक एक बड़े स्त्रीरूप में परिणत होकर अनेक योजन तक जाने में समर्थ है? हाँ, गौतम ! समर्थ है।
भगवन् ! क्या वह बलाहक आत्मऋद्धि से गति करता है या परऋद्धि से? गौतम ! वह आत्मऋद्धि से गति नहीं करता, परऋद्धि से गति करता है । वह आत्मकर्म से और आत्मप्रयोग से गति नहीं करता, किन्तु परकर्म से और परप्रयोग से गति करता है । वह उच्छितपताका या पतित-पताका दोनों में से किसी एक के आकार से गति करता है।
भगवन् ! उस समय क्या वह बलाहक स्त्री है ? हे गौतम ! वह बलाहक (मेघ) है, वह स्त्री नहीं है । इसी तरह बलाहक पुरुष, अश्व या हाथी नहीं है; भगवन् ! क्या वह बलाहक, एक बड़े यान के रूप में परिणत होकर अनेक योजन तक जा सकता है ? हे गौतम ! जैसे स्त्री के सम्बन्ध में कहा, उसी तरह यान के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। परन्तु इतनी विशेषता है कि वह, यान के एक ओर चक्र वाला होकर भी चल सकता है और दोनों ओर चक्र वाला होकर भी चल सकता है। इसी तरह युग्य, गिल्ली, थिल्लि, शिविका और स्यन्दमानिका के रूपों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। सूत्र- १८७
भगवन् ! जो जीव, नैरयिकों में उत्पन्न होने वाला है, वह कौन-सी लेश्या वालों में उत्पन्न होता है ? गौतम ! वह जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता है, उसी लेश्या वाले नारकों में उत्पन्न होता है । यथाकृष्णलेश्या वालों में, नीललेश्या वालों में, अथवा कापोतलेश्या वालों में । इस प्रकार जो जिसकी लेश्या हो, उसकी वह लेश्या कहनी चाहिए । यावत् व्यन्तरदेवों तक कहना चाहिए।
भगवन् ! जो जीव ज्योतिष्कों में उत्पन्न होने योग्य है, वह किन लेश्याओं में उत्पन्न होता है ? गौतम ! जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव काल करता है, वैसी लेश्यावालोंमें उत्पन्न होता है । जैसे कि-तेजोलेश्या वालोंमें
भगवन् ! जो जीव वैमानिक देवों में उत्पन्न होने योग्य है, वह किस लेश्या वालों में उत्पन्न होता है ? गौतम! जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव काल करता है, उसी लेश्या वालों में उत्पन्न होता है। जैसे कि-तेजो-लेश्या, पद्मलेश्या अथवा शुक्ललेश्या में । सूत्र - १८८
भगवन् ! क्या भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किए बिना वैभारगिरि को उल्लंघ सकता है, अथवा प्रलंघ सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! भावितात्मा अनगार बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके क्या वैभारगिरि को उल्लंघन या प्रलंघन करने में समर्थ है ? हाँ, गौतम ! वह वैसा करने में समर्थ है।
भगवन् ! भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किए बिना राजगृह नगर में जितने भी (पशु पुरुषादि) रूप हैं, उतने रूपों की विकुर्वणा करके तथा वैभार पर्वत में प्रवेश करके क्या सम पर्वत को विषम कर सकता है ? अथवा विषमपर्वत को सम कर सकता है ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी तरह दूसरा आलापक भी कहना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि वह (भावितात्मा अनगार) बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके पूर्वोक्त प्रकार से (रूपों की विकुर्वणा आदि) करने में समर्थ है।
भगवन् ! क्या मायी मनुष्य विकुर्वणा करता है, अथवा अमायी मनुष्य विकुर्वणा करता है ? गौतम ! मायी मनुष्य विकुर्वणा करता है, अमायी मनुष्य विकुर्वणा नहीं करता।
भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? गौतम ! मायी अनगार प्रणीत पान और भोजन करता है । इस प्रकार बार-बार प्रणीत पान-भोजन करके वह वमन करता है। उस प्रणीत पान-भोजन से उसकी हड्डियाँ और हड्डियों में रही हुई मज्जा सघन हो जाती है; उसका रक्त और मांस पतला हो जाता है । उस भोजन के जो यथा बादर पुद्गल होते हैं, उनका उस-उस रूप में परिणमन होता है । यथा-श्रोत्रेन्द्रिय रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रिय रूप में तथा हड्डियों,
यों की मज्जा, केश, श्मश्रु, रोम, नख, वीर्य और रक्त के रूप में वे परिणत होते हैं । अमायी मनुष्य तो रूक्ष पानभोजन का सेवन करता है और ऐसे रूक्ष पान-भोजन का उपभोग करके वह वमन नहीं करता। उस रूक्ष पान-भोजन
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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