Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/ शतकशतक /उद्देशक/ सूत्रांक था, ऐसा नहीं, यावत् वह नित्य है । भाव की अपेक्षा-जीवास्तिकाय में वर्ण नहीं, गन्ध नहीं, रस नहीं और स्पर्श नहीं है। गुण की अपेक्षा-जीवास्तिकाय उपयोगगुण वाला है।
भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय में कितने वर्ण, कितने गन्ध, कितने रस और कितने स्पर्श हैं ? गौतम ! पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श हैं । वह रूपी है, अजीव है, शाश्वत और अवस्थित लोकद्रव्य है । संक्षेप में उसके पाँच प्रकार कहे हैं; यथा-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण से । द्रव्य की अपेक्षा-पुद्गलास्तिकाय अनन्तद्रव्यरूप है; क्षेत्र की अपेक्षा-पुद्गलास्तिकाय लोक-प्रमाण है, काल की अपेक्षा-वह कभी नहीं था ऐसा नहीं, यावत् नित्य है। भाव की अपेक्षा-वह वर्णवाला, गन्धवाला, रसवाला, स्पर्शवाला है । गुण की अपेक्षा-वह ग्रहण गुणवाला है। सूत्र-१४३
न ! क्या धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! क्या धर्मास्तिकाय के दो प्रदेशों, तीन प्रदेशों, चार प्रदेशों, पाँच प्रदेशों, छह प्रदेशों, सात प्रदेशों, आठ प्रदेशों, नौ प्रदेशों, दस प्रदेशों, संख्यात प्रदेशों तथा असंख्येय प्रदेशों को धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! एक प्रदेश से कम धर्मास्तिकाय को क्या धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है ? गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं; भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को यावत् एक प्रदेश कम हो, वहाँ तक उसे धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता ? गौतम ! चक्र का खण्ड चक्र कहलाता है या सम्पूर्ण चक्र कहलाता है ? (गौतम-) भगवन् ! चक्र का खण्ड चक्र नहीं कहलाता, किन्तु सम्पूर्ण चक्र, चक्र कहलाता है। (भगवान) इस प्रकार छत्र, चर्म, दण्ड, वस्त्र, शस्त्र और मोदक के विषय में भी जानना चाहिए । इसी कारण से, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि धर्मास्तिकाय के एक प्रदेश को, यावत् जब तक उसमें एक प्रदेश भी कम हो, तब तक उसे, धर्मास्तिकाय नहीं कहा जा सकता । भगवन् ! तब धर्मास्तिकाय किसे कहा जा सकता है ? हे गौतम ! धर्मास्तिकाय में असंख्येय प्रदेश हैं, जब वे सब कृत्स्न, परिपूर्ण, निरवशेष तथा एक शब्द से कहने योग्य हो जाएं, तब उसको धर्मास्तिकाय कहा जा सकता है । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के विषय में जानना चाहिए । इसी तरह आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय के विषय में भी जानना चाहिए । विशेष बात यह है कि इन तीनों द्रव्यों के अनन्त प्रदेश कहना चाहिए । बाकी पूर्ववत् । सूत्र-१४४
भगवन् ! उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम वाला जीव आत्मभाव से जीवभाव को प्रदर्शित प्रकट करता है; क्या ऐसा कहा जा सकता है ? हाँ, गौतम ! भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा है ? गौतम ! जीव आभिनिबोधिक ज्ञान के अनन्त पर्यायों, श्रुतज्ञान के अनन्त पर्यायों, अवधिज्ञान के अनन्त पर्यायों, मनःपर्यवज्ञान के अनन्त पर्यायों एवं केवलज्ञान के अनन्त पर्यायों के तथा मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंग अज्ञान के अनन्तपर्यायों के, एवं चक्षु-दर्शन, अचक्षु-दर्शन, अवधि-दर्शन और केवलदर्शन के अनन्तपर्यायों के उपयोग को प्राप्त करता है, क्योंकि जीव का लक्षण उपयोग है । इसी कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकारपराक्रम वाला जीव, आत्मभाव से जीवभाव को प्रदर्शित करता है। सूत्र-१४५
भगवन् ! आकाश कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! आकाश दो प्रकार का कहा गया है । यथालोकाकाश और अलोकाकाश ।
भगवन् ! क्या लोकाकाश में जीव हैं ? जीव के देश हैं ? जीव के प्रदेश हैं ? क्या अजीव हैं ? अजीव के देश हैं? अजीव के प्रदेश हैं ? गौतम ! लोकाकाश में जीव भी हैं, जीव के देश भी हैं, जीव के प्रदेश भी हैं; अजीव भी हैं, अजीव के देश भी हैं और अजीव के प्रदेश भी हैं । जो जीव हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय हैं, द्वीन्द्रिय हैं, त्रीन्द्रिय हैं, चतुरिन्द्रिय हैं, पंचेन्द्रिय हैं और अनिन्द्रिय हैं। जो जीव के देश हैं. वे नियमतः एकेन्द्रिय के देश हैं. यावत अनि-न्द्रिय के देश हैं । जो जीव के प्रदेश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं, यावत् अनिन्द्रिय के प्रदेश हैं । जो अजीव हैं, वे दो प्रकार के कहे
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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