Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1' शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक शक्रेन्द्र, ईशानेन्द्र के पास जाने में समर्थ है । भगवन् ! क्या वह आदर करता हुआ जाता है, या अनादर करता हुआ जाता है ? हे गौतम ! वह ईशानेन्द्र का आदर करता हुआ जाता है, किन्तु अनादर करता हुआ नहीं।
भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान, क्या देवेन्द्र देवराज शक्र के पास प्रकट होने (जाने) में समर्थ हैं ? हाँ, गौतम ! हैं । भगवन् ! क्या वह आदर करता हुआ जाता है, या अनादर करता हुआ जाता है ? गौतम ! वह आदर करता हुआ भी जा सकता है, और अनादर करता हुआ भी जा सकता है।
भगवन् ! क्या देवेन्द्र देवराज शक्र, देवेन्द्र देवराज ईशान के समक्ष (चारों दिशाओं में) तथा चारों कोनों में देखने में समर्थ है? गौतम। प्रादर्भत होने के समान देखने के सम्बन्धमें भी दो आलापक कहने चाहिए देवेन्द्र देवराज शक्र, देवेन्द्र देवराज ईशान के साथ आलाप या संलाप करने में समर्थ है ? हाँ, गौतम ! वह आलापसंलाप करने में समर्थ है। पास जाने के दो आलापक के समान आलाप-संलाप के भी दो आलापक कहने चाहिए। सूत्र-१६६
भगवन् ! उन देवेन्द्र देवराज शक्र और देवेन्द्र देवराज ईशान के बीच में परस्पर कोई कृत्य और करणीय समुत्पन्न होते हैं ? हाँ, गौतम ! समुत्पन्न होते हैं।
भगवन् ! जब इन दोनों के कोई कृत्य या करणीय होते हैं, तब वे कैसे व्यवहार (कार्य) करते हैं ? गौतम ! जब देवेन्द्र देवराज शक्र को कार्य होता है, तब वह देवेन्द्र देवराज ईशान के समीप प्रकट होता है, और जब देवेन्द्र देवराज ईशान को कार्य होता है, तब वह देवेन्द्र देवराज शक्र के निकट जाता है । उनके परस्पर सम्बोधित करने का तरीका यह है-ऐसा है, हे दक्षिणार्द्ध लोकाधिपति देवेन्द्र देवराज शक्र । ऐसा है, हे उत्तरार्द्ध लोकाधिपति देवेन्द्र देवराज ईशान (यहाँ), दोनों ओर से सम्बोधित करके वे एक दूसरे के कृत्यों और करणीयों को अनुभव करते हुए विचरते हैं।
(भगवन् ! जब उन दोनों इन्द्रों में परस्पर विवाद उत्पन्न हो जाता है;) तब वे क्या करते हैं ? गौतम ! वे दोनों, देवेन्द्र देवराज सनत्कुमारेन्द्र का मन में स्मरण करते हैं । देवेन्द्र देवराज शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र द्वारा स्मरण करने पर शीघ्र ही सनत्कुमारेन्द्र देवराज, शक्रेन्द्र और ईशानेन्द्र के निकट प्रकट होता है । वह जो भी कहना है, (उसे ये दोनों इन्द्र मान्य करते हैं ।) ये दोनों इन्द्र उसकी आज्ञा, सेवा, आदेश और निर्देश में रहते हैं। सूत्र - १६७
हे भगवन् ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार क्या भवसिद्धिक हैं या अभवसिद्धिक हैं ?; सम्यग्दृष्टि हैं, या मिथ्यादृष्टि हैं? परित्त संसारी हैं या अनन्त संसारी? सुलभबोधि हैं, या दुर्लभबोधि?; आराधक है, अथवा विराधक ? चरम है अथवा अचरम ? गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार, भवसिद्धिक है, अभवसिद्धिक नहीं; इसी तरह वह सम्यग्दृष्टि है, परित्तसंसारी है, सुलभबोधि है, आराधक है, चरम है, प्रशस्त पद ग्रहण करने चाहिए । भगवन् ! किस कारण से (ऐसा कहा जाता है) ? गौतम ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार बहुत-से श्रमणी, बहुत-सी श्रमणियाँ, बहुत-से श्रावकों और बहुतसी श्राविकाओं का हितकामी, सुखकामी, पथ्यकामी, अनुकम्पिक, निश्रेयसिक है । वह उनका हित, सुख और निःश्रेयस का कामी है । इसी कारण, गौतम ! सनत्कुमारेन्द्र भवसिद्धिक है, यावत् (चरम है, किन्तु) अचरम नहीं । भगवन् ! देवेन्द्र देवराज सनत्कुमार की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! (उत्कृष्ट) सात सागरोपम । भगवन् ! वह (सनत्कुमारेन्द्र) उस देवलोक से आयु क्षय के बाद, यावत् कहाँ उत्पन्न होगा? हे गौतम ! सनत्कुमारेन्द्र उस देवलोक से च्यवकर महाविदेह वर्ष(क्षेत्र)में, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होगा, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा। भगवन् ! यह इसी प्रकार है सूत्र - १६८
तिष्यक श्रमण का तप छट्ठ-छट्ठ था और उसका अनशन एक मास का था । कुरुदत्तपुत्र श्रमण का तप अट्ठमअट्रम का था और उसका अनशन था-अर्द्ध मासिक । तिष्यक श्रमण की दीक्षापर्याय आठ वर्ष की थी, और कुरुदत्तपुत्र श्रमण की थी-छह मास की। सूत्र-१६९
इसके अतिरिक्त दो इन्द्रों के विमानो की ऊंचाई, एक इन्द्र का दूसरे के पास आगमन, परस्पर प्रेक्षण, उनका
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 67