Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक को भरने की विकुर्वणाशक्ति रखते हैं। महाशुक्र के विषय में इसी प्रकार समझना चाहिए, किन्तु विशेषता इतनी है कि वे सम्पूर्ण सोलह जम्बूद्वीपों को भरने की वैक्रियशक्ति रखते हैं । सहस्त्रार के विषय में भी यही बात है । विशेषता इतनी है कि वे सम्पूर्ण सोलह जम्बूद्वीपों से कुछ अधिक स्थल को भरने का वैक्रिय-सामर्थ्य रखते हैं । इसी प्रकार प्राणत के विषय में भी जानना चाहिए, इतनी विशेषता है कि वे सम्पूर्ण बत्तीस जम्बूद्वीपों की वैक्रियशक्ति वाले हैं। इसी तरह अच्युत के विषय में भी जानना । विशेषता इतनी है कि वे सम्पूर्ण बत्तीस जम्बूद्वीपों से कुछ अधिक क्षेत्र को भरने का वैक्रिय-सामर्थ्य रखते हैं। शेष सब वर्णन पूर्ववत् । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है।
इसके पश्चात् किसी एक दिन श्रमण भगवान महावीर स्वामी मोका नगरी के नन्दन नामक उद्यान से बाहर नीकलकर (अन्य) जनपद में विचरण करने लगे। सूत्र-१६०
उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था । यावत् परीषद् भगवान की पर्युपासना करने लगी । उस काल उस समय में देवेन्द्र देवराज, शूलपाणि वृषभ-वाहन लोक के उत्तरार्द्ध का स्वामी, अट्ठाईस लाख विमानों का अधिपति, आकाश के समान रजरहित निर्मल वस्त्रधारक, सिर पर माला से सुशोभित मुकुटधारी, नवीनस्वर्ण निर्मित सुन्दर, विचित्र एवं चंचल कुण्डलों से कपोल को जगमगाता हुआ यावत् दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करता हआ ईशानेन्द्र, ईशानकल्प में ईशानावतंसक विमान में यावत् दिव्य देवऋद्धि का अनुभव करता हआ और यावत् जिस दिशा से आया था उसी दिशा में वापस चला गया।
हे भगवन् !' इस प्रकार सम्बोधित करके भगवान गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दननमस्कार करके इस प्रकार कहा-अहो, भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान इतनी महाऋद्धि वाला है । भगवन् ! ईशानेन्द्र की वह दिव्य देवऋद्धि कहाँ चली गई ? कहाँ प्रविष्ट हो गई ? गौतम ! वह दिव्य देवऋद्धि (उसके) शरीर में चली गई, शरीर में प्रविष्ट हो गई है। भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है ? गौतम ! जैसे कोई कूटाकार शाला हो, जो दोनों तरफ से लीपी हुई हो, गुप्त हो, गुप्त-द्वार वाली हो, निर्यात हो, वायुप्रवेश से रहित गम्भीर हो, यावत् ऐसी कूटाकार शाला का दृष्टान्त कहना चाहिए।
भगवन् ! देवेन्द्र देवराज ईशान ने वह दिव्य देवऋद्धि, दिव्य देवद्युति और दिव्य देवप्रभाव किस कारण से उपलब्ध किया, किस कारण से प्राप्त किया और किस हेतु से अभिमुख किया? यह ईशानेन्द्र पूर्वभव में कौन था ? इसका क्या नाम था, क्या गोत्र था ? यह किस ग्राम, नगर अथवा यावत् किस सन्निवेश में रहता था ? इसने क्या सूनकर, क्या देकर, क्या खाकर, क्या करके, क्या सम्यक् आचरण करके, अथवा किस तथारूप श्रमण या माहन के पास से एक भी आर्य एवं धार्मिक सुवचन सूनकर तथा हृदय में धारण करके जिस से देवेन्द्र देवराज ईशानेन्द्र ने वह दिव्य देवऋद्धि यावत् उपलब्ध की है, प्राप्त की है और अभिमुख की है ? हे गौतम ! उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष में ताम्रलिप्ती नगरी थी । उस नगरी में तामली नामका मौर्यपुत्र गृहपति रहता था। वह धनाढ्य था, दीप्तिमान था, और बहुत-से मनुष्यों द्वारा अपराभवनीय था।
तत्पश्चात् किसी एक दिन पूर्वरात्रि व्यतीत होने पर पीछली रात्रि-काल के समय कुटुम्ब जागरिका जागते हुए उस मौर्यपुत्र तामली गाथापति को इस प्रकार का यह अध्यवसाय यावत् मन में संकल्प उत्पन्न हुआ कि-मेरे द्वारा पूर्वकत, पुरातन सम्यक आचरित, सपराक्रमयक्त, शुभ और कल्याणरूप कतकर्मों का कल्याणफलरूप प्रभाव अभी तक तो विद्यमान है; जिसके कारण मैं हिरण्य से बढ़ रहा हूँ, सुवर्ण से, धन से, धान्य से, पुत्रों से, पशुओं से बढ़ रहा हूँ, तथा विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, चन्द्रकान्त वगैर शैलज मणिरूप पथ्थर, प्रवाल (मूंगा) रक्तरत्न तथा माणिक्यरूप सारभूत धन से अधिकाधिक बढ़ रहा हूँ; तो क्या मैं पूर्वकृत, पुरातन, समाचरित यावत् पूर्वकृतकर्मों का एकान्तरूप से क्षय हो रहा है, इसे अपने सामने देखता रहूँ इस क्षय की उपेक्षा करता रहूँ ? अतः जब तक मैं चाँदीसोने यावत् माणिक्य आदि सारभूत पदार्थों के रूप में सुखसामग्री द्वारा दिनानुदिन अतीत-अतीव अभिवृद्धि पा रहा हूँ और जब तक मेरे मित्र, ज्ञातिजन, स्वगोत्रीय कुटुम्बीजन, मातृपक्षीय या श्वसुरपक्षीय सम्बन्धी एवं परिजन, मेरा
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
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