Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-1 ' सूत्र - १३२
शतक/ शतकशतक / उद्देशक / सूत्रांक
तदनन्तर तुंगिकानगरी के शृंगाटक मार्गमें, त्रिक रास्तोंमें, चतुष्क पथोंमें तथा अनेक मार्ग मिलते हैं, ऐसे मार्गों में, राजमार्गों में एवं सामान्य मार्गों में यह बात फैल गई। परीषद् एक ही दिशामें उन्हें वन्दन करने के लिए जाने लगी । जब यह बात तुंगिकानगरी के श्रमणोपासकों को ज्ञात हुई तो वे अत्यन्त हर्षित और सन्तुष्ट हुए, यावत् परस्पर एक दूसरे को बुलाकर इस प्रकार कहने लगे- हे देवानुप्रियो ! (सूना है कि) भगवान पार्श्वनाथ के शिष्यानु-शिष्य स्थविर भगवंत, जो कि जातिसम्पन्न आदि विशेषण विशिष्ट हैं, यावत् (यहाँ पधारे हैं) और यथाप्रतिरूप अवग्रह ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विहरण करते हैं । हे देवानुप्रियो ! तथारूप स्थविर भगवंतों के नामगोत्र के श्रवण से भी महाफल होता है, तब फिर उनके सामने जाना, वन्दन- नमस्कार करना, उनका कुशल-मंगल पूछना और उनकी पर्युपासना करना, यावत्... उनसे प्रश्न पूछकर अर्थ-ग्रहण करना, इत्यादि बार्तो के फल का तो कहना ही क्या ? अतः हे देवानुप्रियो ! हम सब उन स्थविर भगवंतों के पास चलें और उन्हें वन्दन - नमस्कार करें यावत् उनकी पर्युपासना करें। ऐसा करना अपने लिए इस भव में तथा परभव में हितरूप होगा; यावत् परम्परा से अनुगामी होगा।
इस प्रकार बातचीत करके उन्होंने उस बात को एक दूसरे के सामने स्वीकार किया। स्वीकार करके वे सब श्रमणोपासक अपने-अपने घर गए । घर जाकर स्नान किया, फिर बलिकर्म किया। तदनन्तर कौतुक और मंगल रूप प्रायश्चित्त किया। फिर शुद्ध तथा धर्मसभा आदि में प्रवेश करने योग्य एवं श्रेष्ठ वस्त्र पहने थोड़े-से, किन्तु बहुमूल्य आभरणों से शरीर को विभूषित किया। फिर वे अपने-अपने घरों से नीकले और एक जगह मिले। (तत्पश्चात्) वे सम्मिलित होकर पैदल चलते हुए तुंगिका नगरी के बीचोबीच होकर नीकले और जहाँ पुष्पवतिक चैत्य था, वहाँ आए। स्थविर भगवंतों के पास पाँच प्रकार के अभिगम करके गए। वे इस प्रकार हैं- (१) सचित्त द्रव्यों का त्याग करना, (२) अचित्त द्रव्यों का त्याग न करना- साथ में रखना; (३) एकशाटिक उत्तरासंग करना, (४) स्थविर-भगवंतों को देखते ही दोनों हाथ जोड़ना, तथा (५) मन को एकाग्र करना ।
यों पाँच प्रकार का अभिगम करके वे श्रमणोपासक स्थविर भगवंतों के निकट आकर उन्होंने दाहिनी ओर से तीन बार उनकी प्रदक्षिणा की, वन्दन- नमस्कार किया यावत् कायिक, वाचिक और मानसिक, इन तीनों प्रकार से उनकी पर्युपासना करने लगे। वे हाथ-पैरों को सिकोड़कर शुश्रूषा करते हुए. नमस्कार करते हुए उनके सम्मुख विनय से हाथ जोड़कर काया से पर्युपासना करते हैं । जो-जो बातें स्थविर भगवान फरमा रहे थे, उसे सूनकर भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह तथ्य है, यही सत्य है, भगवन् ! यह असंदिग्ध है, भगवन् ! यह इष्ट है, यह प्रतीष्ट है, है भगवन् ! यही इष्ट और विशेष इष्ट है, इस प्रकार वाणी से अप्रतिकूल होकर विनयपूर्वक वाणी से पर्युपासना करते हैं तथा मन से संवेगभाव उत्पन्न करते हुए तीव्र धर्मानुराग में रंगे हुए विग्रह और प्रतिकूलता से रहित बुद्धि होकर मन को अन्यत्र कहीं न लगाते हुए विनयपूर्वक उपासना करते हैं ।
सूत्र - १३३
तत्पश्चात् उन स्थविर भगवंतों ने उन श्रमणोपासकों तथा उस महती परीषद् (धर्मसभा) को केशी श्रमण की तरह चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया। यावत्... वे श्रमणोपासक अपनी श्रमणोपासकता द्वारा आज्ञा के आराधक हुए। यावत् धर्म-कथा पूर्ण हुई।
तदनन्तर वे श्रमणोपासक स्थविर भगवंतों से धर्मोपदेश सूनकर एवं हृदयंगम करके बड़े हर्षित और सन्तुष्ट हुए, यावत् उनका हृदय खिल उठा और उन्होंने स्थविर भगवंतों की दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा की, यावत् उनकी पर्युपासना की और फिर इस प्रकार पूछा-भगवन् ! संयम का क्या फल है ? भगवन् ! तप का क्या फल है? इस पर उन स्थविर भगवंतों ने उन श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा- 'हे आर्यो ! संयम का फल आश्रवरहितता है। तप का फल व्यवदान (कर्मपंक से मलिन आत्मा को शुद्ध करना) है।
श्रमणोपासकों ने उन स्थविर भगवंतों से इस प्रकार पूछा भगवन् यदि संयम का फल अनाश्रवता है और
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मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती )" आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद”
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