Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
View full book text
________________
आगम सूत्र ५, अंगसूत्र-५, 'भगवती/व्याख्याप्रज्ञप्ति-1'
शतक/ शतकशतक/उद्देशक/ सूत्रांक अथवा तीन जीव और उत्कृष्ट लक्षपृथक्त्व जीव पुत्ररूप में (उत्पन्न हो सकते हैं। भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ? हे गौतम ! कर्मकृत योनि में स्त्री और पुरुष का जब मैथुनवृत्तिक संयोग निष्पन्न होता है, तब उन दोनों के स्नेह सम्बन्ध होता है, फिर उसमें से जघन्य एक, दो अथवा तीन और उत्कृष्ट लक्षपृथक्त्व जीव पुत्ररूप में उत्पन्न होते हैं । हे गौतम ! इसीलिए पूर्वोक्त कथन किया गया है। सूत्र - १२९
भगवन् ! मैथुनसेवन करते हुए जीव के किस प्रकार का असंयम होता है ? गौतम ! जैसे कोई पुरुष तपी हुई सोने की (या लोहे की सलाई (डालकर. उस से बाँस की रूई से भरी हई नली या बर नामक वनस्पतिसे जला डालता है. हे गौतम ! ऐसा ही असंयम मैथुन सेवन करते हुए जीव के होता है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। सूत्र-१३०
इसके पश्चात (एकदा) श्रमण भगवान महावीर राजगह नगर के गणशील उद्यान से नीकलकर बाहर जनपदों में विहार करने लगे। उस काल उस समय में तुंगिका नामकी नगरी थी। उस तुंगिका नगरी के बाहर ईशान कोण में पुष्पवतिक नामका चैत्य था । उस तुंगिकानगरी में बहुत-से श्रमणोपासक रहते थे । वे आढ्य और दीप्त थे। उनके विस्तीर्ण निपल भवन थे। तथा वे शयनों, आसनों, यानों तथा वाहनों से सम्पन्न थे । उनके पास प्रचुर धन, बहत-सा सोना-चाँदी आदि था । वे आयोग और प्रयोग करने में कुशल थे। उनके यहाँ विपुल भात-पानी तैयार होता था, और वह अनेक लोगों को वितरित किया जाता था। उनके यहाँ बहुत-सी दासियाँ और दास थे; तथा बहुत-सी गायें, भैंसे, भेड़ें और बकरीयाँ आदि थीं । वे बहुत-से मनुष्यों द्वारा भी अपरिभूत थे । वे जीव और अजीव के स्वरूप को भलीभाँति जानते थे । उन्होंने पुण्य और पाप का तत्त्व उपलब्ध कर लिया था । वे आश्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बन्ध और मोक्ष के विषय में कुशल थे । वे सहायता की अपेक्षा नहीं रखते थे । (वे निर्ग्रन्थ प्रवचन में इतने दृढ़ थे कि) देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किम्पुरुष, गरुड़, गन्धर्व, महोरग आदि देवगणों के द्वारा निर्ग्रन्थप्रवचन से अनतिक्रमणीय थे । वे निर्ग्रन्थप्रवचन के प्रति निःशंकित थे, निष्कांक्षित थे, तथा विचिकि-त्सारहित थे। उन्होंने शास्त्रों के अर्थों को भलीभाँति उपलब्ध कर लिया था, शास्त्रों के अर्थों को ग्रहण कर लिया था । पूछकर उन्होंने यथार्थ निर्णय कर लिया था । उन्होंने शास्त्रों के अर्थों और उनके रहस्यों को निर्णयपूर्वक जान लिया था। उनकी हड्डियाँ और मज्जाएं (निर्ग्रन्थप्रवचन के प्रति) प्रेमानुराग से रंगी हुई थी। (इसलिए वे कहते थे कि-)।
मान बन्धओ! यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ (सार्थक) है, यही परमार्थ है, शेष सब निरर्थक है। वे इतने उदार थे कि उनके घरों में दरवाजों के पीछे रहने वाली अर्गला सदैव ऊंची रहती थी। उनके घर के द्वार सदा खुले रहते थे । उनका अन्तःपुर तथा परगृह में प्रवेश विश्वसनीय होता था । वे शीलव्रत, गुणव्रत, विरमणव्रत, प्रत्या-ख्यान, पौषधोपवास आदि का सम्यक् आचरण करते थे, तथा चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या और पूर्णिमा, इन पर्व तिथियों में प्रतिपूर्ण पौषक का सम्यक् अनुपालन करते थे । वे श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक और एषणीय अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कम्बल, रजोहरण, पीठ फलक, शय्या, संस्तारक, औषध और भेषज आदि प्रतिलाभित करते थे;
और यथाप्रतिगृहीत तपःकर्मों से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरते थे। सूत्र - १३१
उस काल और उस समय में पार्थापत्यीय स्थविर भगवान पाँच सौ अनगारों के साथ यथाक्रम से चर्या करते हुए, ग्रामानुग्राम जाते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए तुंगिका नगरी के पुष्पवतिकचैत्य पधारे । यथारूप अवग्रह लेकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए वहाँ विहरण करने लगे । वे स्थविर भगवंत जाति-सम्पन्न, कुलसम्पन्न, बलसम्पन्न, रूपसम्पन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसम्पन्न, दर्शनसम्पन्न, चारित्रसम्पन्न, लज्जासम्पन्न, लाघवसम्पन्न, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी और यशस्वी थे । उन्होंने क्रोध, मान, माया, लोभ, निद्रा, इन्द्रियों और परीषहों को जीत लिया था । वे जीवन की आशा और मरण के भय से विमुक्त थे, यावत् वे कुत्रिकापण-भूत थे । वे बहुश्रुत और बहुपरिवार वाले थे।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् "(भगवती) आगमसूत्र-हिन्द-अनुवाद"
Page 49