Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-1 ' शतक/ शतकशतक / उद्देशक / सूत्रांक के सम्मुख मुख रखकर आतापनाभूमि में सूर्य की आतापना लेना, रात्रि में अपावृत होकर वीरासन से बैठकर शीत सहन करना । इसी प्रकार तीसरे मास में उपर्युक्त विधि के अनुसार निरन्तर तेले-तेले पारणा करना । इसी विधि के अनुसार चौथे मास में निरन्तर चौले चौले पारणा करना । पाँचवे मास में पचौले पचौले पारणा करना। छठे मास में निरन्तर छह-छह उपवास करना। सातवे मास में निरन्तर सात-सात उपवास करना। आठवे मास में निरन्तर आठआठ उपवास करना । नौवें मास में निरन्तर नौ-नौ उपवास करना । दसवे मास में निरन्तर दस-दस उपवास करना । ग्यारहवे मास में निरन्तर ग्यारह - ग्यारह उपवास करना । बारहवे मास में निरन्तर बारह-बारह उपवास करना । तेरहवे मास में निरन्तर तेरह-तेरह उपवास करना । निरन्तर चौदहवे मास में चौदह-चौदह उपवास करना । पन्द्रहवें मास में निरन्तर पन्द्रह-पन्द्रह उपवास करना और सोलहवें मास में निरन्तर सोलह-सोलह उपवास करना । इन सभी में दिन में उत्कटुक आसन से बैठकर सूर्य के सम्मुख मुख करके आतापनाभूमि में आतापना लेना, रात्रि के समय अपावृत होकर वीरासन से बैठकर शीत सहन करना ।
तदनन्तर स्कन्दक अनगार ने गुणरत्नसंवत्सर नामक तपश्चरण की सूत्रानुसार, कल्पानुसार यावत् आराधना की । इसके पश्चात् जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ वे आए और उन्हें वन्दना - नमस्कार किया । और फिर अनेक उपवास, बेला, तेला, चौला, पचीला, मासखमण, अर्द्ध मासखमण इत्यादि विविध प्रकार के तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे । इसके पश्चात् वे स्कन्दक अनगार उस उदार, विपुल, प्रदत्त, प्रगृहीत, कल्याणरूप, शिवरूप, धन्यरूप, मंगलरूप, श्रीयुक्त, उत्तम, उदग्र, उदात्त, सुन्दर, उदार और महा-प्रभावशाली तपःकर्म से शुष्क हो गए, रूक्ष हो गए, मांसरहित हो गए, वह केवल हड्डी और चमड़ी से ढका हुआ रह गया । च समय हड्डियाँ खड़खड़ करने लगीं, वे कृश दुर्बल हो गए, उनकी नाड़ियाँ सामने दिखाई देने लगीं, अब वे केवल जीव के बल से चलते थे, जीव के बल से खड़े रहते थे, तथा वे इतने दुर्बल हो गए थे कि भाषा बोलने के बाद, भाषा बोलतेबोलते भी और भाषा बोलूँगा, इस विचार से भी ग्लानि को प्राप्त होते थे, जैसे कोई सूखी लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी हो, पत्तों से भरी हुई गाड़ी हो, पत्ते, तिल और अन्य सूखे सामान से भरी हुई गाड़ी हो, एरण्ड की लकड़ियों से भरी हुई गाड़ी हो, या कोयले से भरी हुई गाड़ी हो, सभी गाड़ियाँ धूप में अच्छी तरह सूखाई हुई हों और फिर चलाई जाएं तो खड़-खड़ आवाज करती हुई चलती हैं और आवाज करती हुई खड़ी रहती है, इसी प्रकार जब स्कन्दक अनगार चलते थे, खड़े रहते थे, तब खड़-खड़ आवाज होती थी । यद्यपि वे शरीर से दुर्बल हो गए थे, तथापि वे तप से पुष्ट थे । उनका मांस और रक्त क्षीण हो गए थे, किन्तु राख के ढेर में दबी हुई अग्नि की तरह वे तप और तेज से तथा तप-तेज की शोभा से अतीव-अतीव सुशोभित हो रहे थे ।
सूत्र - ११५
उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर में पधारे। समवसरण की रचना हुई । यावत् जनता धर्मोपदेश सूनकर वापिस लौट गई।
तदनन्तर किसी एक दिन रात्रि के पीछले प्रहर में धर्म- जागरणा करते हुए स्कन्दक अनगार के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि मैं इस प्रकार के उदार यावत् महाप्रभावशाली तपःकर्म द्वारा शुष्क, रूक्ष यावत् कृश हो गया हूँ। यावत् मेरा शारीरिक बल क्षीण हो गया, मैं केवल आत्मबल से चलता हूँ और खड़ा रहता हूँ । यहाँ तक की बोलने के बाद, बोलते समय और बोलने से पूर्व भी मुझे ग्लानि खिन्नता होती है यावत् पूर्वोक्त गाड़ियों की तरह चलते और खड़े रहते हुए मेरी हड्डियों से खड़-खड़ आवाज होती है । अतः जब तक मुझमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार, पराक्रम है, जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर सुहस्ती की तरह विचरण कर रहे हैं, तब तक मेरे लिए श्रेयस्कर है कि इस रात्रि के व्यतीत हो जाने पर कल प्रातःकाल कोमल उत्पलकमलों को विकसित करने वाले, क्रमशः पाण्डुरप्रभा से रक्त अशोक के समान प्रकाशमान, टेसू के फूल, तोते की चोंच, गुंजा के अर्द्ध भाग जैसे लाल, कमलवनों को विकसित करने वाले, सहस्त्ररश्मि, तथा तेज से जाज्वल्यमान दिनकर सूर्य के उदय होने पर मैं श्रमण भगवान महावीर को वन्दना - नमस्कार यावत् पर्युपासना करके,
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती )" आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद”
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