Book Title: Agam 05 Bhagwati Sutra Part 01 Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ५, अंगसूत्र- ५, 'भगवती / व्याख्याप्रज्ञप्ति-1 '
शतक/ शतकशतक / उद्देशक / सूत्रांक निर्हारिम और अनिर्हारिम । यह दोनों प्रकार का पादपोपगमन-मरण नियम से अप्रतिकर्म है । भक्तप्रत्याख्यान (मरण) क्या है ? भक्तप्रत्याख्यान मरण दो प्रकार का है। निर्धारिम और अनिर्हारिम। यह दोनों प्रकार का भक्त प्रत्याख्यान मरण नियम से सप्रतिकर्म होता है ।
हे स्कन्दक इन दोनों प्रकार के पण्डितमरणों से मरता हुआ जीव नारकादि अनन्त भवों को प्राप्त नहीं करता; यावत्... संसाररूपी अटवी को उल्लंघन कर जाता है। इस प्रकार इन दोनों प्रकार के पण्डितमरणों से मरते हुए जीव का संसार घटता है । हे स्कन्दक ! इन दो प्रकार के मरणों से मरते हुए जीव का संसार बढ़ता और घटता है । सूत्र - ११३
(भगवान महावीर से समाधान पाकर ) कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को सम्बोध प्राप्त हुआ। उसने श्रमण भगवान महावीर को वन्दना नमस्कार करके यों कहा- भगवन्। में आपके पास केवलिप्ररूपित धर्म सूनना चाहता हूँ। हे देवानुप्रिय जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो, शुभकार्य में विलम्ब मत करो। पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामीने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को और उस बहुत बड़ी परीषद् को धर्मकथा कही तत्पश्चात् वह कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक भगवान महावीर के श्रीमुख से धर्मकथा सुनकर एवं हृदयमें अवधारण करके अत्यन्त हर्षित हुआ, सन्तुष्ट हुआ, यावत् उसका हृदय हर्ष से विकसित हो गया। तदनन्तर खड़े होकर और श्रमण भगवान महावीर को दाहिनी ओर से तीन बार प्रदक्षिणा करके स्कन्दक परिव्राजक ने इस प्रकार कहा भगवन् निर्ग्रन्थप्रवचन पर मैं श्रद्धा करता हूँ, निर्ग्रन्थप्रवचन पर मैं प्रतीति करता हूँ, भगवन् ! निर्ग्रन्थ-प्रवचनमें मुझे रुचि है, भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन में अभ्युद्यत होता हूँ । हे भगवन् ! यह (निर्ग्रन्थ प्रवचन) इसी प्रकार है, यह तथ्य है, यह सत्य है, यह असंदिग्ध है, भगवन् ! यह मुझे इष्ट है, प्रतीष्ट है, इष्ट-प्रतीष्ट है । हे भगवन् ! जैसा आप फरमाते हैं, वैसा ही है । यों कहकर स्कन्दक ने श्रमण भगवान महावीर को वन्दन नमस्कार किया। ऐसा करके उसने ईशानकोण में जाकर त्रिदण्ड, कुण्डिका यावत् गेरुए वस्त्र आदि परिव्राजक के उपकरण एकान्त में छोड़ दिए । फिर जहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ आकर भगवान महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा करके यावत् नमस्कार करके इस प्रकार कहा- भगवन् । वृद्धावस्था और मृत्युरूपी अग्नि से यह लोक आदीप्त प्रदीप्त है, वह एकदम जल रहा है और विशेष जल रहा है। जैसे किसी गृहस्थ के घर में आग लग गई हो और वह घर जल रहा हो, तब वह उस जलते घर में से बहुमूल्य और अल्प भार वाले सामान को पहले बाहर नीकालता है, और उसे लेकर वह एकान्त में
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है । वह यह सोचता है- बाहर नीकाला हुआ यह सामान भविष्य में आगे-पीछे मेरे लिए हितरूप, सुखरूप, क्षेमकुशलरूप, कल्याणरूप एवं साथ चलने वाला होगा। इसी तरह हे देवानुप्रिय भगवन् । मेरा आत्मा भी एक भाण्ड रूप है । यह मुझे इष्ट, कान्त, प्रिय, सुन्दर, मनोज्ञ, मनोरम, स्थिरता वाला, विश्वासपात्र, सम्मत, अनुमत, बहुमत और रत्नों के पिटारे के समान है। इसलिए इसे ठंड न लगे, गर्मी न लगे, यह भूख-प्यास से पीड़ित न हो, इसे चोर, सिंह और सर्प हानि न पहुँचाए, इसे डॉस और मच्छर न सताएं, तथा वात, पित्त, कफ, सन्निपात आदि विविध रोग और आतंक परीषह और उपसर्ग इसे स्पर्श न करें, इस प्रकार मैं इनसे इसकी बराबर रक्षा करता हूँ । मेरा आत्मा मुझे परलोक में हितरूप, सुखरूप, कुशलरूप, कल्याणरूप और अनुगामीरूप होगा। इसलिए भगवन्! मैं आपके पास स्वयं प्रव्रजित होना, स्वयं मुण्डित होना चाहता हूँ। मेरी ईच्छा है कि आप स्वयं मुझे प्रव्रजित करें, मुण्डित करें, आप स्वयं मुझे प्रतिलेखनादि क्रियाएं सिखाएं, सूत्र और अर्थ पढ़ाएं। मैं चाहता हूँ कि आप मुझे ज्ञानादि आचार, गोचर, विनय, विनय का फल, चारित्र और पिण्ड - विशुद्धि आदि करण तथा संयम यात्रा और संयमयात्रा के निर्वाहक आहारादि की मात्रा के ग्रहणरूप धर्म को कहें।
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तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने स्वयमेव कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को प्रव्रजित किया, यावत् स्वयमेव धर्म की शिक्षा दी कि हे देवानुप्रिय ! इस प्रकार (यतना) से चलना चाहिए, इस तरह से खड़ा रहना चाहिए, इस तरह से बैठना चाहिए, इस तरह से सोना चाहिए, इस तरह से खाना चाहिए, इस तरह से बोलना चाहिए, इस प्रकार से उठकर सावधानतापूर्वक प्राण, भूत, जीव और सत्त्व के प्रति संयमपूर्वक वर्ताव करना चाहिए।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " ( भगवती )" आगमसूत्र - हिन्द-अनुवाद”
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