Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे
क्षेत्रोपपन्ना: ' तत्थ णं जेसे विग्गहगइसमावन्नए नेरइए, से णं अगणिकायस्स मज्झं मज्झेणं वीएज्जा' तत्र तयोर्मध्ये खलु योऽसौ विग्रहगतिसमापन्न कःकार्मण सूक्ष्मशरीरप्राप्तः नैरयिको भत्रति स खलु अनिकायस्य मध्यमध्येन, व्यतिव्रजेत् - उल्लंघ्य गच्छेत् । गौतमः पृच्छति से णं तत्थ झियाएज्जा ? ' हे भदन्त ! स खलु विग्रहगतिसमापनको नैरयिकस्तत्र - अग्निकायस्य मध्ये किं धमायेत् ? दहयेत ? भस्मसात् भवेत् ? भगवानाह - ' णो इणट्ठे समट्ठे, णो खलु तत्थ सत्यं कमइ' हे गौतम! नायमर्थः समर्थः विग्रहगतिसमापन्नकस्य नैरयिकस्य कार्मणसूक्ष्मशरीरत्वेन तस्य दह्यत्वासंभवत्वात्, अतएव तत्र विग्रहगतिहगति समापन्नक का तात्पर्य है सूक्ष्म शरीरवाले-सूक्ष्मकार्मणशरीर से युक्त होना - विग्रहगति में यही शरीर होता है । औदारिकादि स्थूलशरीर नहीं होते हैं । अविग्रहगतिसमापन्नक का तात्पर्य है उत्पत्ति क्षेत्र में प्राप्त होना, 'तत्थ णं जे से विग्गहगहसमावन्नए नेरइए, से णं अगणिकायस्स मज्झ मज्झेणं वीइवएज्जा' इनमें जो नारक विग्रहगति समापन्नक - विग्रहगति में प्राप्त हुआ है, वह नारक अग्निकाय के बीचों बीच से होकर निकल जाता है।
अब गौतम प्रभु से इस पर यों पूछते हैं-'से णं तस्थ झियाएज्जा' हे भदन्त ! जब वह उस अग्निकाय के बीचों बीच से होकर निकलता है - तो क्या वह उसमें जल नहीं जाता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं'नो इण समट्टे' हे गौतम ! यह अर्थसमर्थ नहीं है। अर्थात् वह उससे नहीं जलता है क्यों कि 'तत्थ' विग्रहगतिसमापन्नक जीव पर - 'णो खलु વિગ્રહગતિસમાપન્નક એટલે સૂક્ષ્મશરીરવાળા-સૂક્ષ્મ કાણુશરીરવાળા વિગ્રહગતિમાં સૂક્ષ્મ કામણુ શરીરને જ સદ્ભાવ રહે છે, ઔદારિક આદિ સ્થૂલ શરીર હાતાં નથી,
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અવિગ્રહગતિસમાપન્નક એટલે ઉત્પત્તિ ક્ષેત્રમાં પહેોંચી ગયેલાં, तत्थ जे से विहग समावन्नए नेरइए, से ण अगणिकायरस मज्झ मज्झेण वीइवएज्जा આ એ પ્રકારના નારકમાંથી જે નારક વિગ્રહગતિસમાપન્નક (વિગ્રહગતિમાં રહેલાં) છે, તે નારકા અગ્નિકાયની વચ્ચે થઈને નીકળી જઈ શકે છે.
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गौतम स्वामीनी प्रश्न- " से णं तत्थ झियाएज्जा ?" डे भगवन् ! જ્યારે તે અગ્નિકાયની વચ્ચે થઈને નીકળે છે, ત્યારે શુ તેમાં મળી જતા નથી? भडावीर अलुना उत्तर- " णो इणट्टे समट्टे" हे गौतम! वुमनतु નથી, તે એમાંથી નીકળતાં બળી જતા નથી, કારણ 3.6 तत्थ णो खलु
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧