Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 849
________________ प्रमेयन्द्रिका टीका श० १५ उ० १ सू० २१ गोशालकगतिवर्णनम् ८३५ मर्थम्-पूर्वोक्तानुचितार्थम् प्रतिशृण्वन्ति-स्वीकुर्वन्ति, 'पडिमुगित्ता जेणेव विमल. वाहणे राया तेणेव उवगच्छंति' प्रतिश्रुत्य,-स्वीकृत्य, यत्रैव विमलवाहनो राजा आसीत् तत्रैव उपागच्छति, 'आगच्छित्ला करयलपरिणहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कडु विमलवाहणं रायं जएणं विजएणं बद्धावें ति' उपागत्य, करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत मस्तके अञ्जलिं कृत्वा विभलवाहनं रानानाम् जयेन-जयशब्दोच्चारणेन, विजयेन विजयशब्दोच्चारणेन च वर्द्धयन्ति 'बद्धा. वित्ता एवं वयंति'-वर्द्धयित्वा एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदन्ति-'एवं खलु देवाणुपिया ! समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छं विपडिपन्ना-अप्पेगइए आउसंति, जाव अप्पेगइए निधिसए करेंति' भो देवानुपियाः ! एवं खलु-पूर्वोक्तरीत्या भवन्तः श्रमणैः निम्रन्यैः सह, मिथ्यात्वम्-अविनयत्वं विप्रतिपन्ना:-तद् विरुद्धाचरणं -इस प्रकार की परस्पर की इस विचारधारा को उन लोगों ने स्वीकार कर लिया-'पडिसुणित्ता जेणेव विमलवाहणे राया तेणेव उवागच्छंति' स्वीकार करके फिर वे लोग जहां विमलवाहन राजा थे वहाँ पर आये। 'उवागच्छित्ता करयल परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मधए अंजलिं. कह विमलवाहणं रायं जएणं विजएणं वद्धावेंति' वहां जाकर उन्होंने दशों अंगुलियों के नख जिसमें मिल जाते हैं ऐसी दोनों हाथों की अंजुलि बनाकर और उसे मस्तक पर धारग करके विमलवाहन राजा को जयविजय शब्दों का उच्चारण करते हुए पहिले बधाई दी । 'वद्धावित्ता एवं वयंति' वधाई देकर फिर वे इस प्रकार कहने लगे। 'एवं खलु देवाणुप्पिया! समणेहिं निग्गंथेहि मिच्छं विपडिवना-अप्पेगइए आउस्संति, जाव अप्पेगइए निधिलए करेंति' हे देवानुप्रिय ! आप मटावी. सारनी भन्योन्यनी पातनात २१।२ ४२री. “पडि. सुणेत्ता जेणेव विमलवाहणे राया तेणेव उवागच्छंति" त्या२ मा तेमा विभसवाहन नी पासे . 'उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं दूसनहं सिरसावत्त मत्थए अंजलि कटु विमलबाहणं रायं जएण विजएणं वद्धावे ति" त्यां ने તેઓ દસે આંગળીઓના નખ જેમાં મળી જાય છે એવી બન્ને હાથની અંજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તક પર ધારણ કરીને “વિમલવાહન રાજાનો જય હે ! વિમલવાહન રાજાને વિજય હો !” એવા શબ્દોના ઉચ્ચારણ द्वारा विमलाउन २ने यावे. 'वद्धावित्ता एवं वयासी" qावाने ॥ प्रमाणे असे -“एवं खलु देवाणुप्पिया! समणेहि निगंथेहि मिच्छं विप्पडिवना -अगइए आउत्सति जाव अप्पेगइए निधिसए करें ति" उ हेवानुप्रिय! माय શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧

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