Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रमैयचन्द्रिका टीका श० १५ उ० १ सू० ५ गोशालकवृत्तान्तनिरूपणम् ५२३ वेश्यायनं बालतपस्विनं पश्यसि-दृष्टवानसि, दृष्ट्वा मम अन्तिकात-समीपात् तूष्णीकं तूष्णीकं भत्पवयष्कसे-प्रत्यपसर्पसि, 'जेणेव वेसियायणे वालतवस्सी तेणेव आगच्छसि' यत्रैव वेश्यायनो बालतपस्थी आसीत्, तत्रैव उपागच्छसि, 'उवागच्छिता वेसियायणं बालतबस्ति एवं बयासी'-उपागत्य वेश्यायनं बालतपस्विनम् एवं -वक्ष्यमाणपकारेण अवादी:-'किं भवं मुणी, मुणिए, उदाहु जूया सेज्जायरए ?' किं भगवान् वेश्यायनो मुनिः वर्तते ? उत मुनिका-कुत्सितो मुनिग्रंहगृहीतो वर्तते ? उताहो यूका शय्यातरकः ? इति, 'तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी तव एयम8 नो आढाइ, नो परिजाणाइ, तुसिणीए संचिटइ' ततः खलु स वेश्यायनो बालतपस्वी तब एतमर्थम्-पूर्वोक्तार्थम् , नो आद्रियते, नो परिजानाति, किन्तु तूष्णोकः संतिष्ठते, 'तएणं तुमं गोसाला ! वेसियारणं सीणियं पच्चोसकलि' हे गोशाल ! बोलतपस्वी वेश्यायन को तुमने ज्यों ही देखा, वैसे ही तुम उसे देखकर मेरे पास से चुपचाप चले गये और 'जेणेव वेसियायणे बालतबस्सी तेणेव उवागच्छसि' वहां पहुंचे जहां वह बालतपस्वी वेश्यायन था 'उवागच्छित्ता वेसियायणं बालतवस्सि एवं वयासी' वहाँ जाकर तुमने उस घालतपस्वी वेश्यायन से ऐसा पूछा-'किं भवं मुणी, मुणिए, उदाहु सेज्जायरए' क्या आप वेश्यायन -मुनि हो ? या कुत्सित मुनि-ग्रहग्रहीत हो ? या यूकाशय्यातरक हो ? 'तए णं से वेसियायणे बालतवस्ती तव एयम8 नो आढाइ, नो परिजाणाइ, तुमिणीए सचिट्ठ' तब उस बालतपस्वी वेश्यायन ने तुम्हारे इस पूछे गये अर्थ को आदर की दृष्टि से नहीं देखा और उसे अनसुना सा कर दिया, और चुपचाप रहा 'तएणं तुमं गोसाला! वेसियायणं णीय२ पच्चोसकनि" mue ! मात५२वी वेश्यायन नछन, तु. भारी पासेथी युपया५ स२४ी गयी. “जेणेव वेसियायणे बालतवस्ती वेणेव उबागच्छसि" भारी पासेथी सीन तु त्यो गये है न्यो मासतपस्वी वेश्यायन मातापनाभि ५२ मातापना २wो उता. “उवागच्छित्ता वेसियायण' बालतवस्सिं एवं वयासी"
त्याने ते भासतपस्वी वेश्यायनने या प्रमाणे ५ यु-" कि भवं मुणी, उदाहु सेज्जायरए" शु. सा५ મુનિ છે? કે કૃત્સિતમુનિ-ગ્રહગ્રહીત-છે? કે આપ જૂઓની શય્યારૂપ છે? "तए णं से वेसियायणे बालतवस्सी तव एयम नो आढाइ, नो परिजाणार, तुसिणीए संचिह" त्यारे त मासतपस्वी वेश्यायन तात प्रये આદરની દષ્ટિથી જોયું નહી, જાણે તે પ્રશ્ન સાંભળ્યું જ ન હોય તેમ તે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧