Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे
निरवयवी कृतो भवति-भवेत् , तत्-अथ, एतत्-तावत्कालखंडं सर:-सरः संज्ञ भवति मानससंज्ञ सरः इत्यर्थः, सरः प्रमागम्-सर एव उक्तलक्षणम्-प्रमाणं वक्ष्यमाणमहाकल्पादेमानं सरःप्रमाणम् उच्यते, 'एए णं सरप्पमाणेणं तिभि सर सयसाहस्सीओ से एगे महाकप्पे चउरासीइ महाकप्पसयसहस्साई से एगे महामाणसे' एतेन-उक्तलक्षणेन, सरः प्रमाणेन, त्रीणि सरः शतसहस्राणि-सरो ल. क्षाणि स एको महाकल्पो भवति, चतुरशीतिः महाकल्पशतसहस्राणि-महाकल्पलक्षाणि तत् एकं महामानसं मानसोत्तरम् भवति, अथ सप्तदिव्यानां प्ररूपणायाह'अणंताओ संजूहाओ जीवे चयं चइत्ता उरिल्ले माणसे संजूहे देवे उववज्जई' अनन्तात् संयूथात्-अनन्तदेवनिकायरूपात् जीवः चयं देहं त्यक्त्वा, उपरितने मानसे उपरितनसरममाणमानसायुष्येण संयूथे देवनिकायविशेषे देव उपपद्यते 'से णं तत्थ दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ' स खलु जीवस्तत्र-संयूथदेवभूमि में या भीतमें उसकी एक भी रजाकण का संश्लेष न रहे, सर्वथा खाली हो जावे-इतने काल का नाम एक सर है। इसका दूसरा नाम मानस है। महाकल्पादि का जो प्रमाण है वही सरः प्रमाण कहा गया है 'एएणं सरप्पमाणं तिनि सरसयसाहस्सीओ से एगे महाकप्पे चउरा सीइ महाकप्पसयसहस्साई से एगे महामाणसे' जितना सर का प्रमाण कहा गया है ऐसे तीन लाख सर जब हो जाते हैं तप एक महाकल्प होता है, ८४ लाख महाकल्पों का एक महामानस-मानसोत्तर होता है। 'अणंताओ संजूहाओ जीवे चयं चइत्ता उरिल्ले माणसे संजूहे देवे उव. वजई अनंत संयूथ से-अनन्त देवनिकाय से जीव चय को-शरीर को छोडकर ऊपर मे वर्णित सर: प्रमाण आयु को लेकर संयूथ में देवनिका. અથવા પટમાં તેના એક પણ રજકણને સંલેષ ન રહે, સર્વથા ખાલી
5 तय, मेट गर्नु नाम 'स२' तेनु' भी नाम भानस छे. महाBानि.२ प्रमाण छ तर स२:प्रभा उपामा मा०यु छ. " एएणं सरप्पमाणेणं तिन्नि सरसयसाहस्सीओ से एगे महाकप्पे, चउरासीइ महाकप्पसयसहस्साई से एगे महामाणसे" रेट सरनु प्रमाण घुछ मेटल प्रभाવાળાં ત્રણ લાખ સરને એક મહાક૯પ થાય છે. ૮૪ લાખ મહાકલને मे भडमानस-मानसोत्तर' थाय छे. “ अणंताओ संजूहाओ जीवे चयं चइत्ता उवरिल्ले माणसे संजूहे देवे उववज्ज" मनत संयूथमाथी-मानत દેવનિકાયમાંથી–જીવ ચય પામીને-શરીરને છોડીને, ઉપર દર્શાવેલા સરપ્રમાણ (કલ્પપ્રમાણ) આયુસ્થિતિ સાથે સંપૂથમાં-દેવનિકા વિશેષમાં, દેવરૂપે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧