Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्र पृच्छति-हे भदन्त ! एवं खलु-पूर्वोक्तरीत्या, देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासी कुशिष्यो गोशालो नाम मङ्खलिपुत्र आसीत् ‘से गं भंते ! गोसाले मंखलिपुत्ते कालमासे कालं किच्चा कहिं गए कहिं उववन्ने ?' हे भदन्त ! स खलु गोशालो मङ्खलिपुत्रः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गतः ? कुत्र उपपन्नः ? भगवानाह-एवं खलु गोयमा ! मम अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नाम मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छउमाथे चेव कालमा से कालं किचा उडूंचंदिम जाव अच्चुए कप्पे देवताए उवबन्ने' हे गौतम ! एवं खलु-पूक्तिरीत्या निश्चयेन, मम अन्ते शसी कुशिष्यो गोशालो नाम मङ्खलिपुत्रः श्रमणघातको यावत् श्रमणमारकः श्रमणप्रत्यनीकः इत्यादि पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टश्छद्मस्थ एव, कालमासे कालं कृत्वा ऊर्ध्वम्-ऊर्ध्वलोके चन्द्र यावत् , अच्युते कल्पे, देवत्वेन उत्पन्ना, 'तत्थ णं अत्थे का कुशिष्य जो मंखलिपुत्र गोशाल था । ‘से णं भंते ! गोसाले मंख. लिपुत्ते कालमासे कालं किच्चा कहिं गए कहिं उववन्ने' वह मंखलि. पुत्र गोशाल हे भदन्त ! कालनात में-काल अवसर काल कर कहां गया है, कहां उत्पन्न हुआ है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी कुसिस्से गोताले नाम मंखलिपुत्ते समणघायए जाव छ उमत्थे चेव कालमासे कालं किच्चा उड़ चंदिम जाव अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववन्ने' हे गौतम! मेरा अंतेवाली कुशिष्य जो श्रमण घातक मंखलिपुत्र गोशाल था वह यावत् छद्मस्थावस्था में ही कालमास में कालकर ऊचलोक में चन्द्रमा यावत् अच्युतकल्प में देव की पर्याय से उत्पन्न हुआ है । यहाँ पहिले यावत् पद से 'श्रमणमारक, श्रम
प्रत्यनीक' इत्यादि पूर्वोक्त विशेषणों का ग्रहण हुआ है। 'तस्थ णं मान् ! भा५ हैवानुप्रियना शिष्य २ भमति शास तो, “से गं भंते ! गोसाले मखलिपुत्ते कालमासे कालं किच्चा कहिंगर कहिं उववन्ने " ते કાળને અસર આવતા કળ કરીને ક્યાં ગયે ? કયાં ઉત્પન્ન થયે છે? આ प्रश्न उत्तर आता महावीर प्रभु ड छ -“ एवं खलु गोयमा ! मम अंतेवासी कुसिस्से गोसाले नाम मखलिपुत्ते समणघायए जाव छ उमत्थे चेव कालमासे कालं किच्चा उड्ड चंदिमं जाव अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववन्ने" है ગૌતમ! મારે અંતેવાસી કુશિષ્ય જે શ્રમણઘાતક, શ્રમણમારક, શ્રમણુપ્રત્યનીક આદિ વિશેષવાળે મખલિપુત્ર ગોશાલ હતું, તે છત્વસ્થ અવસ્થામાં જ કાળને અવસર આવતાં કાળધર્મ પામીને, ઉqલેકમાં ચદ્રસૂર્યથી લઈને આર પર્યન્તના કપનું ઉલ્લંઘન કરીને બારમાં અશ્રુતક૯૫માં દેવરૂપે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧