Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे
अंतरे पण्णत्ते ? ' गौतमः पृच्छति - हे भदन्त । अस्याः खलु रत्नप्रभायाः पृथिव्याः शर्करामभायाश्च पृथिव्याः परस्परम् कियद् अबाधया अन्तरं - व्यवधानं प्रज्ञप्तम् ? अत्र अवाधा शब्दार्थस्तु - बाधा - परस्पर संश्लेषात् पीडनम् न बाधा अवाधा, तया अवायेति । अन्तरशब्दस्याने कार्यकत्वेऽपि प्रकृते व्यवधानार्थे एव तात्पर्य ग्राहकतयावाचा शब्दः - उक्त इति बोध्यम्, भगवानाह - ' गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई अवाहाए अंनरे पण्णत्ते ' हे गौतम ! असंख्येयानि योजन सहत्राणि रत्नममा पृथिव्याः शर्कराप्रमापृथिव्याश्च परस्परम् अबाधया अन्तरं व्यवधानं प्रज्ञप्तम् । गौतमः पृच्छति - सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए वालुरही है। इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है - 'हमी से णं भंते । रयrogare पुढवीए सक्करप्पनाए य पुढवीए केवइए अबाहाए अंतरे पण्णसे' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में और शर्कराप्रमापृथिवी में परस्पर में बीच में कितना अन्तर कहा गया है ? परस्पर में संश्लेष होने से जो पीड़न होता है उसका नाम बाधा है इस बाधा का नहीं होना इसका नाम अबाधा है । अन्तर शब्द अनेक अर्थरूप कहा गया है । फिर भी यहां प्राकृत में उसका अर्थ व्यवधान लिया गया है । जहां अबाधा दूरी होता है वहीं पर व्यवधान होता है। तात्पर्य पूछने का यह है कि रत्नप्रमापृथिवी और शर्कराभापृथिवी में जो दरी है वह कितना है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! असंखेज्जा इं जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णन्ते' हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथिवी मैं और शर्कराप्रमापृथिवी में जो परस्पर में दूरी को लेकर अन्तर कहा गया है वह असंख्यात हजार योजन का कहा गया है।
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गौतम स्वाभीनो प्रश्न- " इमी से णं भंते! रयणनभाए पुढवीए सकरप्प भाय पुढate hare अवाहाए अंतरे पण्णत्ते ?” डे लगवन् ! या रत्नयला નરક પૃથ્વી અને શર્કરાપ્રભા નરક પૃથ્વીની વચ્ચે-પરસ્પરની વચ્ચે-કેલું' 'તર કહ્યુ છે ? (પરસ્પરમાં સશ્લેષ હાવાથી જે પીડન થાય છે, તેનું નામ ખાષા છે. આ બાધા ન ચાવી તેનું નામ અખાધા છે. અંતર શબ્દના ઘણા અથ થાય છે, પરન્તુ અહીં તેને અ યંત્રધાન લેવામાં આવ્યા છે.) પ્રશ્નનું તાત્પર્ય એ છે કે રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી શક`રાપ્રભા પૃથ્વી કેટલે દૂર રહેલી છે ? महावीर अलुना उत्तर- " गोयमा ! असंखेज्जाई
जोयणाई अवाहाए अतरे पण्णत्ते " हे गौतम! रत्नग्रमा भने शर्माशयला, या मे नर पृथ्वी આની વચ્ચે કુવ રૂપ અંતર અસખ્યાત હજાર ચેાજનનુ` કહ્યુ છે,
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧