Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसूत्रे खलु ईषत्प्राग्भारां पृथिवीम् ईषत्माग्भारा पृथिवी इति रूपेण किं जानाति, पश्यति ? भगवानाह-'एवमेव' हे गौतम ! एवञ्चैव-पूर्वोक्तरीत्यैव, केवली पुरुषः ईषस्मारभारां पृथिवीम् ईषत्माग्मारा पृथिवीरूपेण जानाति, पश्यति, गौतमः पृच्छति-'केवली णं भंते ! परमाणुपोग्गलं परमाणुगोग्गले त्ति जाणइ, पासइ ?' हे भदन्त ! केवलो खलु पुरुषः परमाणुपुद्गलं परमाणुपुद्गल इति रूपेण कि जानाति, पश्यति ? भगवानाह-' एवं चेव, एवं दुप्पएसियं खंध ' हे गौतम ! एवमेव-पूर्वोक्तरीत्यैव केवली परमाणुपुद्गलं परमाणुपुद्गलरूपेण जानाति, पश्यति, एवं तथैव-पूर्वोक्तरीत्येव द्विपदेशिकं स्कन्धं द्विपदेशिकस्कन्धरूपेण केवली जानाति, पश्यति, ‘एवं जाव' एवं-रीत्या यावत् त्रिमदेशिकं स्कन्धं त्रिपदेशिकस्कन्धरूपेण, चतुष्पदेशिकं स्कन्धं चतुष्पदेशिकस्कन्धरूपेण, पश्चमदेपृथ्वी को ईषत्प्राग्भारा पृथिवीरूप से जानते हैं, देखते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-एवंचेव' हां गौतम ! केवली ईषत्प्रारभापृथिवी को ईषत्प्रारभारापृथिवीरूप से जानते हैं और देखते है । __ अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'केवली णं भंते ! परमाणु पोग्गले परमाणुपोग्गलेत्ति जाणइ पासई' हे भदन्त ! केवली क्या परमाणुपदलों को 'ये परमाणुपुद्गल है" इसरूप से जानते हैं और देखते हैं उत्तर में प्रभु कहते हैं - एवं चेव, एवं दुप्पएसियं खं,' हां, गौतम ! परमाणुपुद्गलको परमाणु पुद्गलरूप से केवलि भगवान् जानते हैं और देखते हैं। इसी प्रकार से वे विप्रदेशीस्कंधको द्विप्रदेशीस्कन्धरूप से जानते हैं और देखते हैं । 'एवं जार' तथा इसी प्रकार वे यावत्-त्रिप्रदेशीस्कन्ध को त्रिप्रदेशीस्कन्धरूप से, चतुष्प्रदेशी स्कन्ध को चतुष्प्रदेशीस्कन्धरूप से,
महावीर प्रभुन। उत्तर-" एवंचेव" , गौतम ! उजी पप्रामा। પૃથ્વીને ઈષ~ાભાર પૃથ્વી રૂપે જાણે છે અને દેખે છે.
गौतम स्वामीन। प्रश्न-" केवली णं भंते ! परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गत्ति जाणइ, पासइ" मगवन् ! शु पक्षी सपान परमाणु पुरसने પરમાણુ પુદ્ગલ રૂપે જાણે છે અને દેખે છે? તેને ઉત્તર આપતા મહાવીર प्रभु ४३४-" एवं चेव, एवं दुपएसिय खंधं " , गौतम ! जी પરમાણુ યુગલને પરમાણુ પુદ્ગલ રૂપે જાણે છે અને દેખે છે. એ જ પ્રમાણે तसा द्विशी २४ घने द्विप्रदेश ४ ३ त छे मन मे छे." एवं जाव" मे प्रमाणे ती त्रि . २४ घन बिहे २४५ ३५, यार પ્રદેશી રઘને ચાર પ્રદેશી રકધ રૂપે, પાંચ પ્રદેશી કંધને પાંચ પ્રદેશી
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧