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आओ संस्कृत सीखें
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वेट् धातु धू गण 5, 9, 10 (युजादि) सू गण 2, 4, स्वृ व्रश्च मृज् गण 2, 10 (युजादि) अङ्ग्, तज्ञ, स्यन्द, क्लिद् रध्, सिध् गण 1 (परस्मैपदी) शास्त्राज्ञा करना व मंगल कार्य करना,
इन दो अर्थों में) तृप् दृप् त्रप् कृप् गुप् क्षम् नश् अश् गण 5 क्लिश् अक्ष् तक्ष् त्वक्ष् मुह द्रुह् स्नु स्निह् गुह् गाह् ग्ला तृह् तुंह वृह स्तृह् स्तूंह
भविष्यकृदन्त परस्मैपदी धातु से स्यत् (स्य + अत् (शत) और आत्मनेपदी धातु से स्यमान (स्य + म् + आन (आनश्) प्रत्यय लगकर भविष्यकृदन्त बनता है । उदा. या का यास्यत् - तीनों लिंग में विशत् की तरह रूप होंगे। आत्मनेपद - शी का शयिष्यमाण: कर्मणि व भावे प्रयोग : किसी भी धातु को आत्मनेपद के प्रत्यय लगने से कर्मणि और भावे रूप बनते हैं । उदा. लप्स्यते, नेष्यते, जेष्यते, अजेष्यत
लविता, लविष्यते, भविष्यते कृदन्त :- यास्यमानः। लप्स्यमानः। नेष्यमाणः। भविष्यमाणम् । 6. ग्रह धातु से आया इ (इट्) दीर्घ होता है, परंतु परोक्षा में दीर्घ नहीं होता है।
उदा. ग्रहीता, ग्रहीष्यति, अग्रहीष्यत् ग्रहीतुम् गृहीत्वा, गृहीतः 7. भविष्यकाल में धातु से भविष्यन्ती प्रत्यय होते हैं ।
उदा. भोक्ष्यते । 8. आज सिवाय के भविष्य में श्वस्तनी के प्रत्यय होते हैं ।