Book Title: Aao Sanskrit Sikhe Part 02
Author(s): Shivlal Nemchand Shah, Vijayratnasensuri
Publisher: Divya Sandesh Prakashan

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Page 360
________________ आओ संस्कृत सीखें 334 चाणक्य:- सुंदर! वत्स, मणिआर शेठ चन्दनदास को अभी देखने की इच्छा करता हूँ। शिष्यः- वैसा ही करता हूँ। (बाहर निकलकर चन्दनदास के साथ प्रवेश करके) श्रेष्ठी ! इधर-इधर । चन्दनदास (अपने मन में सोचता है) दयाहीन चाणक्य के विषय में, अचानक बुलाए हुए निर्दोष व्यक्ति को भी शंका पैदा होती है तो दोषयुक्त मुझे शंका क्यों न हो? इसलिए मैंने अपने घर रहे धनसेन आदि को कहा है - कदाचित् वह दुष्ट चाणक्य घर की छानबीन कराए, तो मालिक अमात्यराक्षस के गृहजनों को संभालना, मेरा जो होना हो सो हो ।' शिष्यः (पास में आकर) उपाध्याय, ये श्रेष्ठी चन्दनदास ! चन्दनदासः ‘आपकी जय हो!' चाणक्यः (देखने का नाटक करके) श्रेष्ठी ! भले पधारो । इस आसन पर बैठो। चन्दनदासः (प्रणाम करके) क्या आप नहीं जानते हो कि अनुचित उपचार (सन्मान) हृदय को पराभव से भी अधिक दुःख पैदा करता है, इस कारण यहीं पर उचित भूमि पर बैठता हूँ। चाणक्यः हे श्रेष्ठी ! ऐसा नहीं है, ऐसा नहीं है, हमारे द्वारा यह संभवित ही है, अतः आप इस आसन पर बैठो । चन्दनदासः (अपने मन में सोचता है) इस दुष्ट द्वारा कुछ बाहर लाया गया। (प्रगट बोलता है) आप जैसी आज्ञा करते हैं, ऐसा कहकर बैठ गए। चाणक्यः हे श्रेष्ठी चन्दनदास! क्या व्यापार में वृद्धि और लाभ मिल रहा है? चन्दनदासः (मन में सोचता है) अति आदर शंका के पात्र है। (प्रगट बोलता है) हाँ ! आपकी मेहरबानी से मेरा व्यापार अखंडित है। चाणक्य: चंद्रगुप्त राजा के दोष क्या याद अतिक्रांत राजा के गुणों की याद नहीं दिलाते हैं? चन्दनदासः (कान बंद करके) पाप शांत हो, ऐसा न बोलो। शरद ऋतु की रात्रि में उदय पाए हुए पूर्णिमा के चंद्र समान चंद्रगुप्त राजा से प्रजा अधिक खुश हैं।

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