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आओ संस्कृत सीखें
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परिशिष्ट ___ संस्कृत का हिन्दी में अनुवाद महासत्त्वशाली, तत्त्वज्ञ, सद्बुद्धिवाले, विद्याधर के स्वामी शतबल राजा एक दिन यह विचार कर रहे थे।
स्वाभाविक अपवित्र ऐसे इस शरीर को संस्कारों द्वारा पवित्र करके, खेद की बात है कि कितने समय रखेंगे?
वास्तव में खल की तरह यह काया, अनेक बार संस्कार करने पर भी जब संस्कार नहीं करते हैं, तब विकृत हो जाता है ।
आश्चर्य है कि बाहर गिरे हुए विष्ठा, मूत्र और कफ आदि से प्राणी लज्जित होते हैं परंतु काया के भीतर रही विष्ठा आदि से लज्जित नहीं होते हैं ।
जीर्ण होते वृक्ष के छिद्रों में क्रूर सर्प उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार इस शरीर में अत्यंत पीडादायी रोग पैदा होते हैं ।
शरद ऋतु के मेघ की तरह यह काया स्वभाव से ही नष्ट हो जानेवाली है और उसमें पहले देखी गई और नष्ट हुई (क्षणिक) यौवन की शोभा बिजली की तरह है ।
आयुष्य ध्वजा के समान चपल है, लक्ष्मी तरंग की तरह अस्थिर है, भोग साँप के फण समान हैं और संगम स्वप्न तुल्य है।
काम-क्रोध-आदि ताप से रात दिन तपाता हुआ शरीर के भीतर रही आत्मा, पुटपाक की तरह पकाया जाता है।
जिस प्रकार अशुचि में सुख माननेवाला विष्ठा का कीड़ा लेश भी वैराग्य नहीं पाता है, उसी प्रकार अतिदुःखदायी विषयों में सुख माननेवाला मनुष्य, आश्चर्य है कि वह लेश भी वैराग्य नहीं पाता है ।
जिस प्रकार अंधा व्यक्ति अपने पांव के सामने रहे कुए को नहीं देखता है, उसी प्रकार खराब परिणामवाले विषयों के आस्वाद में मनवाला मनुष्य अपने पाँव के आगे रही मृत्यु को नहीं देखता है ।
प्रारंभ में ही मधुर ऐसे विष समान विषयों से आत्मा मूर्च्छित ही रहती है, वह स्वहित के लिए जागृत नहीं होती है।
चारों का पुरुषार्थ समान होने पर भी खेद की बात है कि पापी ऐसे अर्थ-काम में आत्मा प्रवृत्ति करती है, परंतु धर्म और मोक्ष में प्रवृत्ति नहीं करती है ।