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तैत्तिरीयोपनिषद्
गीताप्रेस, गोरखपुर
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तैत्तिरीयोपनिषद्
सानुवाद शाङ्करभाष्यसहित
प्रकाश क
गीताप्रेस, गोरखपुर
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मुद्रक तथा प्रकाशक धनश्यामदास जालाना गीताप्रेस, गोरखपुर
सं० १९९३ प्रथम संस्करण
३२५०
मूल्य ||-) तेरह आना
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निवेदन
कृष्णयजुर्वेदीय तैत्तिरीयारण्यकके प्रपाठक ७, ८ और ९ का नाम तैत्तिरीयोपनिषद् है । इनमें सप्तम प्रपाठक, जिसे तैत्तिरीयोपनिषद्की शीक्षावल्ली कहते हैं, सांहिती उपनिषद् कही जाती है और अष्टम तथा नवम प्रपाठक, जो इस उपनिषद्की ब्रह्मानन्दवल्ली और भृगुवल्ली हैं, वारुणी उपनिषद् कहलाती हैं। इनके आगे जो दशम प्रपाठक है उसे नारायणोपनिषद् कहते हैं, वह याज्ञिकी उपनिषद् है । इनमें महत्त्वकी दृष्टिसे वारुणी उपनिषद् प्रधान है; उसमें विशुद्ध ब्रह्मविद्याका ही निरूपणं किया गया है । किन्तु उसकी उपलब्धिके लिये चित्तकी एकाग्रता एवं गुरुकृपाकी आवश्यकता है । इसके लिये शीक्षावल्लीमें कई प्रकारकी उपासना तथा शिष्य एवं आचार्यसम्बन्धी शिष्टाचारका निरूपण किया गया है । अतः औपनिपद सिद्धान्तको हृदयंगम करनेके लिये पहले शीक्षावल्ल्युक्त उपासनादिका ही आश्रय लेना चाहिये । इसके आगे ब्रह्मानन्दबल्ली तथा भृगुवल्लीमें जिस ब्रह्मविधाका निरूपण है उसके सम्प्रदायप्रवर्त्तक वरुण हैं; इसलिये वे दोनों वल्लियाँ वारुणी विद्या अथवा वारुणी उपनिषद् कहलाती हैं ।
इस उपनिषद्पर भगवान् शङ्कराचार्यने जो भाष्य लिखा है वह वहुत ही विचारपूर्ण और युक्तियुक्त है । उसके आरम्भ में ग्रन्थका
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[२] उपोद्घात करते हुए भगवान्ने यह बतलाया है कि मोक्षरूप परमनिःश्रेयसकी प्राप्तिका एकमात्र हेतु ज्ञान ही है। इसके लिये कोई अन्य साधन नहीं है। मीमांसकोंके मतमें 'स्वर्ग' शब्दवाच्य निरतिशय प्रीति (प्रेय) ही मोक्ष है और उसकी प्राप्तिका साधन कर्म है। इस मतका आचार्यने अनेकों युक्तियोंसे खण्डन किया है और स्वर्ग तथा कर्म दोनोंहीकी अनित्यता सिद्ध की है ।
इस प्रकार आरम्भ करके फिर इस चल्लीमें बतलायी हुई भिन्न-भिन्न उपासनादिकी संक्षिप्त व्याख्या करते हुए इसके उपसंहारमें भी भगवान् भाष्यकारने कुछ विशद विचार किया है । एकादश अनुवाकमें शिष्यको वेदका स्वाध्याय करानेके अनन्तर आचार्य सत्यभापण एवं धर्माचरणादिका उपदेश करता है तथा समावर्तन संस्कारके लिये आदेश देते हुए उसे गृहस्थोचित कर्मोकी भी शिक्षा देता है । वहाँ यह बतलाया गया है कि देवकर्म, पितृकर्म तथा अतिथिपूजनमें कभी प्रमाद न होना चाहिये; दान और खाध्याय में भी कभी भूल न होनी चाहिये, सदाचारकी रक्षाके लिये गुरुजनोंके प्रति श्रद्धा रखते हुए उन्हींके आचरणोंका अनुकरण करना चाहिये-किन्तु वह अनुकरण केवल उनके सुकृतोंका हो, दुष्कृतोंका नहीं । इस प्रकार समस्त वल्लीमें उपासना एवं गृहस्थजनोचित सदाचारका ही निरूपण होनेके कारण किसीको यह आशंका न हो जाय कि ये ही मोक्षके प्रधान साधन हैं इसलिये आचार्य फिर मोक्षके साक्षात् साधनका निर्णय करनेके लिये पाँच विकल्प करते हैं--(१) क्या परम श्रेयकी प्राप्ति केवल कर्मसे हो सकती है ? (२) अथवा विद्याकी अपेक्षायुक्त कर्मसे (३) किंवा कर्म और ज्ञानके समुच्चयसे (४) या कर्मकी अपेक्षावाले ज्ञानसे (५) अथवा केवल ज्ञानसे ? इनमेंसे अन्य सब पक्षोंको सदोष सिद्ध करते हुए आचार्यने यही निश्चय किया है कि केवल ज्ञान ही मोक्षका साक्षात् साधन है ।
इस प्रकार शीक्षावल्लीमें संहितादिविषयक उपासनाओंका निरूपण कर फिर ब्रह्मानन्दवल्लीमें ब्रह्मविद्याका वर्णन किया गया है। इसका पहला
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[३] वाक्य है-'ब्रह्मविदामाति परम्' । यदि गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो यह सूत्रभूत वाक्य ही सम्पूर्ण ब्रह्मविद्याका बीज है । ब्रह्म और ब्रह्मवित्के स्वरूपका विचार ही तो ब्रह्मविद्या है और ब्रह्मवेत्ताकी परप्राप्ति ही उसका फल है; अतः निःसन्देह यह वाक्य फलसहित ब्रह्मविद्याका निरूपण करनेवाला है। आगेका समस्त ग्रन्य इस सूत्रभूत मन्त्रकी ही व्याख्या है । उसमें सबसे पहले 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' इस वाक्यद्वारा श्रुति ब्रह्मका लक्षण करती है । इससे ब्रह्मके स्वरूपका निश्चय हो जानेपर उसकी उपलब्धिके लिये पञ्चकोशका विवेक करनेके अभिप्रायसे उसने पक्षीके रूपकद्वारा पाँचों कोशोंका वर्णन किया है और उन सबके आधाररूपसे सर्वान्तरतम परब्रह्मका 'ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा' इस वाक्यद्वारा निर्णय किया है । इसके पश्चात् ब्रह्मकी असत्ता माननेवाले पुरुषकी निन्दा करते हुए उसका अस्तित्व स्वीकार करनेवाले पुरुपकी प्रशंसा की है और उसे 'सत्' बतलाया है। फिर ब्रह्मका सात्म्यि प्रतिपादन करनेके लिये 'सोऽकामयत । बहु स्यां प्रजायेय' इत्यादि वाक्यद्वारा उसीको जगत्का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण बतलाया है ।
इस प्रकार सत्संज्ञक ब्रह्मसे जगत्की उत्पत्ति दिखलाकर फिर सप्तम अनुवाकमें असत्से ही सत्की उत्पत्ति बतलायी है। किन्तु यहाँ 'असत्' का अर्थ अभाव न समझकर अव्याकृत ब्रह्म समझना चाहिये और 'सत्' का व्याकृत जगत् , क्योंकि अत्यन्ताभावसे किसी भावपदार्थकी उत्पत्ति नहीं हो सकती और उत्पत्तिसे पूर्व सारे पदार्थ अव्यक्त थे ही । इसलिये 'असत्' शब्द अव्याकृत ब्रह्मका ही वाचक है । वह ब्रह्म रसस्वरूप है; उस रसकी प्राप्ति होनेपर यह जीव रसमय-आनन्दमय हो जाता है । उस रसके लेशसे ही सारा संसार सजीव देखा जाता है। जिस समय साधनाका परिपाक होनेपर पुरुप इस अदृश्य अशरीर अनिर्वाच्य और अनाश्रय परमात्मामें स्थिति लाभ करता है उस समय वह सर्वथा निर्भय हो जाता है; और जो उसमें थोड़ा-सा भी अन्तर करता है उसे भय प्राप्त होता है।
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[ ४ ]
अतः ब्रह्ममें स्थित होना हो जीवकी अभयस्थिति है, क्योंकि वहाँ भेदका सर्वथा अभाव है और भय भेदमें ही होता है 'द्वितीयाद्वै भयं भवति' ।
इस प्रकार ब्रह्मनिष्टको अभयप्राप्तिका निरूपण कर ब्रह्मके सर्वान्तर्यामित्व और सर्वशासत्वका वर्णन करते हुए ब्रह्मवेत्ताके आनन्दको सर्वोत्कृष्टता दिखलायी है । वहाँ मनुष्य, मनुष्यगन्धर्व, देवगन्धर्व, पितृगण, आजानजदेव, कर्मदेव, देव, इन्द्र, वृहस्पति, प्रजापति और ब्रह्मा इन सबके आनन्दोको उत्तरोत्तर शतगुण बतलाते हुए यह दिखलाया है कि निष्काम ब्रहावेत्ताको वे सभी आनन्द प्राप्त हैं । क्यों न हों ? सबके अधिष्टानभूत परब्रह्मसे अभिन्न होनेके कारण क्या वह इन सभीचा आत्मा नहीं है । अतः सर्वरूपसे वहो तो सारे आनन्दोंका भोक्ता है । भोक्ता ही क्यों, सर्व-आनन्दस्वरूप भी तो वही है, सारे आनन्द उसीके स्वरूपभूत आनन्द - महोदधिके क्षुद्रातिशुद्र कण हो तो हैं ।
इसके पश्चात् हृदयपुण्डरीकस्थ पुरुषका आदित्यमण्डलस्थ पुरुनके साथ अभेद करते हुए यह बतलाया है कि जो इन दोनोंका अभेद जानता है यह इस लोक अर्थात् दृष्ट और अदृष्ट त्रिपयसमूहसे निवृत्त होकर इस समष्टि अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमय आत्माको प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार सारा प्रपञ्च उसका अपना शरीर हो जाता है --- उसके लिये अपनेसे भिन्न कुछ भी नहीं रहता । उस निर्भय और अनिर्वाच्य स्वात्मतत्त्वको जिसे प्राप्ति हो जाती है । उसे न तो किसीका भय रहता है और न किसी कृत या अकृतका अनुताप ही । जब अपनेसे भिन्न कुछ है ही नहीं तो भय किसका और क्रिया कैसी ? क्रिया तो देश, काल या वस्तुका परिच्छेद होनेपर ही होती है; उस एक, अखण्ड, अमर्यादित, अद्वितीय वस्तुमें किसी प्रकारकी क्रियाका प्रवेश कैसे हो सकता है ?
- इस प्रकार ब्रह्मानन्दवल्लीमें ब्रह्मविद्याका निरूपण कर भृगुवल्लीमें उसको प्राप्तिका मुख्य साधन पञ्चकोश -विवेक दिखलानेके लिये वरुण और भृगुका आख्यान दिया गया है । आत्मतत्वका जिज्ञासु भृगु अपने
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पिता वरुणके पास जाता है और उससे प्रश्न करता है कि जिससे ये सब भूत उत्पन्न हुए हैं, जिससे उत्पन्न होकर, जीवित रहते हैं और अन्तमें जिसमें ये लीन हो जाते हैं उस तत्त्वका मुझे उपदेश कीजिये । इसपर वरुणने अन्न, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, मन और वाणी ये ब्रह्मोपलब्धिके छ: मार्ग बतलाकर उसे तप करनेका आदेश किया और कहा कि 'तपसा ब्रह्म विजिज्ञास्व । तपो ब्रह्म'-तपसे ब्रह्मको जाननेकी इच्छा कर, तप ही ब्रह्म है। भूगुने जाकर मनःसमाधानरूप तप किया और इन सबमें अन्नको ही ब्रह्म जाना । किन्तु फिर उसमें सन्देह हो जानेपर उसने फिर वरुणके पास आकर वही प्रश्न किया और वरुणने भी फिर वही उत्तर दिया। इसके पश्चात् उसने प्राणको ब्रह्म जाना और इसी प्रकार पुनः-पुनः सन्देह होने और पुनः-पुनः वरुणके वही आदेश देनेपर अन्तमें उसने आनन्दको हो ब्रह्म निश्चय किया ।
यहाँ ब्रह्मज्ञानका प्रथम द्वार अन्न था। इसीसे श्रुति यह आदेश करती है कि अन्नकी निन्दा न करे-यह नियम है, अन्नका तिरस्कार न करे-यह नियम है और खूब अन्नसंग्रह करे—यह भी नियम है । यदि कोई अपने निवासस्थानपर आवे तो उसकी उपेक्षा न करे सामर्थ्यानुसार अन्न, जल एवं आसनादिसे उसका अवश्य सत्कार करे । ऐसा करनेसे वह अन्नवान्, कीर्तिमान् तथा प्रजा, पशु और ब्रह्मतेजसे सम्पन्न होता है। इस प्रकार अन्नकी महिमाका वर्णन कर भिन्न-भिन्न आश्रयोंमें भिन्न-भिन्नरूपसे उसकी उपासनाका विधान किया गया है। उस उपासनाके द्वारा जब उसे अपने सात्म्यिका अनुभव होता है उस समय उस लोकोत्तर आनन्दसे उन्मत्त होकर वह अपनी कृतकृत्यताको व्यक्त करते हुए अत्यन्त विस्मयपूर्वक गा उठता है.--'अहमन्नमहमनमहमन्नम् । अहमन्नादोऽहमन्नादो३ऽहमन्त्रादः ! अहर श्लोककृदहश्लोककृदह श्लोककृत्' इत्यादि । उसकी यह उन्मत्तोक्ति उसके कृतकृत्य हृदयका उद्गार है, यह उसका अनुभव है, और यही है उसके आध्यात्मिक संग्रामके अयत्नसाध्य भगवत्कृपालभ्य विजयका उद्घोष ।
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[६] इस प्रकार हम देखते हैं कि इस उपनिपद्का प्रधान लक्ष्य ब्रह्मज्ञान ही है। इसकी वर्णन-शैली बड़ी ही मर्मस्पर्शिनी और शृङ्गलाबद्ध है । भगवान् शङ्कराचार्यने इसके ऊपर जो भाप्य लिखा है वह भी बहुत विचारपूर्ण है। आशा है, विज्ञजन उससे यथेष्ट लाभ उठानेका प्रयत्न करेंगे।
इस उपनिषद्के प्रकाशनके साथ प्रथम आठ उपनिपदोंके प्रकाशनका कार्य समाप्त हो जाता है। हमें इनके अनुवादमें श्रीविष्णुवापटशास्त्रीकृत मराठी-अनुवाद, श्रीदुर्गाचरण मजूमदारकृत बँगलाअनुवाद, ब्रह्मनिष्ठ पं० श्रीपीताम्बरजीकृत हिन्दी-अनुवाद और महामहोपाध्याय डा० श्रीगंगानाथजी झा एवं पं० श्रीसीतारामजी शास्त्रीकृत अंग्रेजी अनुवादसे यथेष्ट सहायता मिली है । अतः हम इन सभी महानुभावोंके अत्यन्त कृतज्ञ हैं। फिर भी हमारी अल्पज्ञताके कारण इनमें बहुत-सी त्रुटियाँ रह जानी खाभाविक हैं । उनके लिये हम कृपालु पाठकोंसे सविनय क्षमाप्रार्थना करते हैं और आशा करते हैं कि वे उनकी सूचना देकर हमें अनुगृहीत करेंगे, जिससे कि हम अगले संस्करणमें उनके संशोधनका प्रयत्न कर सकें। हमारी इच्छा है कि हम शीघ्र ही छान्दोग्य और बृहदारण्यक भी हिन्दीसंसारके सामने रख सकें। यदि विचारशील वाचकवृन्दने हमें प्रोत्साहित किया तो बहुत सम्भव है कि हम इस सेवामें शीघ्र ही सफल हो सकें।
अनुवादक
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श्रीहरिः
विषय-सूची GKidsween
विषय १. शान्तिपाठ
शीक्षावल्ली प्रथम अनुवाक २. सम्बन्ध-भाष्य ३. शीक्षावल्लीका शान्तिपाठ
द्वितीय अनुचाक ४. शीक्षाकी व्याख्या
तृतीय अनुवाक ५. पाँच प्रकारकी संहितोपासना
चतुर्थ अनुवाक ६. श्री और बुद्धिकी कामनावालोंके लिये जप और होम-सम्बन्धी मन्त्र
पञ्चम अनुवाक ७. व्याहृतिरूप ब्रह्मकी उपासना ...
षष्ठ अनुवाक । ८. ब्रह्मके साक्षात् उपलब्धिस्थान हृदयाकाशका वर्णन
सप्तम अनुवाक ९. पाक्तरूपसे ब्रह्मकी उपासना
अष्टम अनुवाक १०. ओङ्कारोपासनाका विधान
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लवम अनुवाक ११. अत्तादि शुभ कर्मोकी अवश्यकर्त्तव्यताका विधान
दशम अनुवाक १२. त्रिशङ्कुका वेदानुवचन
एकादश अनुवाक १३. वेदाध्ययनके अनन्तर शिष्यको आचार्यका उपदेश १४. मोक्ष-साधनकी मीमांसा द्वादश अनुवाक
ब्रह्मानन्दवल्ली प्रथम अनुवाक १५. ब्रह्मानन्दवल्लीका शान्तिपाठ .....
... ८२ १६. ब्रह्मज्ञानके फल, सृष्टिक्रम और अन्नमय कोशरूप पक्षीका वर्णन ... ८४
द्वितीय अनुवाक १७. अन्नकी महिमा तथा प्राणमय कोशका वर्णन
... ११२ तृतीय अनुवाक १८. प्राणकी महिमा और मनोमय कोशका वर्णन ... ११८
चतुर्थ अनुवाक . १९. मनोमय कोशकी महिमा तथा विज्ञानमय कोशका वर्णन ... १२६
पञ्चम अनुवाक २०. विज्ञानकी महिमा तथा आनन्दमय कोशका वर्णन . ... १२९
...पष्ठ अनुवाक २१. ब्रह्मको सत् और असत् जाननेवालोंका भेद, ब्रह्मज्ञ और अनाशकी
ब्रह्मप्राप्तिके विषयमें शङ्का तथा सम्पूर्ण प्रपञ्चरूपसे ब्रह्मके स्थित होनेका निरूपण
... १३८ सप्तम अनुवाक २२. ब्रह्मकी सुकृतता एवं आनन्दरूपताका तथा ब्रह्मवेत्ताकी अभयप्राप्तिका वर्णन
अष्टम अनुवाक २३. ब्रह्मानन्दके निरतिशयत्वकी मीमांसा २४. ब्रह्मात्मैक्य-दृष्टिका उपसंहार
नवम अनुवाक २५. ब्रह्मानन्दका अनुभव करनेवाले विद्वान्की अभयप्राप्ति
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( ३ )
भृगुवल्ली
प्रथम अनुवाक
२६. भृगुका अपने पिता वरुणके पास जाकर ब्रह्मविद्याविषयक प्रश्न
करना तथा वरुणका ब्रह्मोपदेश
...
द्वितीय अनुवाक
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२७. अन्न ही ब्रहा है - ऐसा जानकर और उसमें ब्रह्मके लक्षण घटाकर भृगुका पुनः वरुणके पास आना और उसके उपदेश से पुनः
तप करना
तृतीय अनुवाक
२८. प्राण ही ब्रह्म है--ऐसा जानकर और उसीमें ब्रह्मके लक्षण घटाकर भृगुका पुनः वरुणके पास आना और उसके उपदेशसे पुनः तप करना
चतुर्थ अनुवाक
२९. मन ही ब्रह्म है - ऐसा जानकर और उसमें ब्रह्मके लक्षण घटाकर भृगुका पुनः वरुण के पास आना और उसके उपदेशसे पुनः
तप करना
पश्ञ्चम अनुवाक
३०. विज्ञान ही ब्रह्म है - ऐसा जानकर और उसमें ब्रह्मके लक्षण घटाकर भृगुका पुनः वरुणके पास आना और उसके उपदेशसे पुनः तप करना
पष्ठ अनुवाक
३१. आनन्द ही ब्रह्म है - ऐसा भृगुका निश्चय करना, तथा इस भार्गवी वारुणी विद्याका महत्व और फल
***
...
नवम अनुवाक
३४. अन्नसञ्चयरूप व्रत तथा पृथिवी और आकाशरूप अन्नब्राके उपासकको प्राप्त होनेवाले फलका वर्णन
...
...
सप्तमं अनुवाक
४ ३२. अन्नकी निन्दा न करनारूप व्रत तथा शरीर और प्राणरूप अन्नब्रह्मके उपासकको प्राप्त होनेवाले फलका वर्णन
अष्टम अनुवाक
३३. अन्नका त्याग न करनारूप व्रत तथा जल और ज्योतिरूप अन्नब्रह्मके उपासकको प्राप्त होनेवाले फलका वर्णन
...
...
...
२०१
२०६
२०८
२०९
२१०
२११
२१४
२१६
२१७
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दशम अनुवाक ३५. गृहागत अतिथिको आश्रय और अन्न देनेका विधान एवं उससे
प्राप्त होनेवाला फल, तथा प्रकारान्तरसे ब्रह्मकी उपासनाका । वर्णन
.. २१८ . ३६. आदित्य और देहोपाधिक चेतनकी एकता जाननेवाले उपासकको मिलनेवाला फल . ....
.: २२९. '३७. ब्रह्मवेत्ताद्वारा गाया जानेवाला साम ३८. शान्तिपाठ
:
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वरुण और भृगु
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ॐ
तत्सहलणे नमः
तैत्तिरीयोपनिषद्
मन्त्रार्थ, शाङ्करभाप्य और भाष्यार्थसहित
सर्वाशध्यान्तनिर्मुक्तं सर्वाशाभास्करं परम् । चिदाकाशावतंसं तं सद्गुरुं प्रणमाम्यहम् ॥
शान्तिपाठ ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् । अवतु वक्तारम् ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
१-२
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धम अनुकाक
सम्वन्ध-भाप्य
यस्माजातं जगत्सर्व यस्मिन्नेव प्रलीयते ।
येनेदं धार्यते चैव तस्मै ज्ञानात्मने नमः ॥१॥ जिससे सारा जगत् उत्पन्न हुआ है, जिसमें ही वह लीन होता है और जिसके द्वारा वह धारण भी किया जाता है उस ज्ञानस्वरूपको मेगा नमस्कार है।
यैरिमे गुरुभिः पूर्व पदवाक्यप्रमाणतः । व्याख्याता सर्ववेदान्तास्तानित्यं प्रणतोऽस्म्यहम् ॥ २॥ पूर्वकालमें जिन गुरुजनोंने पद, वाक्य और प्रमाणोंके विवेचनपूर्वक इन सम्पूर्ण वेदान्तों (उपनिपदों) की व्याख्या की है उन्हें मैं सर्वदा नमस्कार करता हूँ।
तैत्तिरीयकसारस्य मयाचार्यप्रसादतः । विस्पष्टार्थरुचीनां हि व्याख्येयं संप्रणीयते ॥३॥
जो स्पष्ट अर्थ जाननेके इच्छुक हैं उन पुरुषोंके लिये मैं श्रीआचार्यकी कृपासे तैत्तिरीयशाखाके सारभूत इस उपनिपद्की व्याख्या करता हूँ।
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अनु० १ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
उपक्रमः
नित्यान्यधिगतानि कर्माण्यु
सचित पापका क्षय ही जिनका
पात्तदुरितक्षयार्था- | मुख्य प्रयोजन है ऐसे नित्यकर्मोका तथा सकाम पुरुषोंके लिये विहित काम्यकर्मो का इससे पूर्ववर्ती ग्रन्थ में
नि, काम्यानि च
फलार्थिनां पूर्वस्मिन्ग्रन्थे । इदानीं कर्मोपादान हेतुपरिहाराय ब्रह्म -
विद्या प्रस्तूयते ।
कर्महेतुः कामः स्यात् । आत्मविदेवाप्त- प्रवर्तकत्वात् । आ कामो भवति तकामानां हि कामा
भावे स्वात्मन्यवस्थानात् प्रवृत्य - नुपपत्तिः । आत्मकामित्वे चास
कामता; आत्मा हि ब्रह्म; तद्विदो हि परप्राप्तिं वक्ष्यति ।
अतोऽविद्यानिवृत्तौ स्वात्मन्य
वस्थानं परप्राप्तिः । " अभयं ।
प्रतिष्ठां विन्दते" ( तै० उ० २
|
७ । १) “ एतमानन्दमयमात्मा -
नमुपसंक्रामति" ( तै० उ० २।
८ । १२ ) इत्यादिश्रुतेः ।
[
अर्थात् कर्मकाण्डमें ] परिज्ञान हो चुका है । अब कर्मानुष्ठानके
कारणकी निवृत्तिके लिये ब्रह्मविद्याका आरम्भ किया जाता है ।
·
कामना ही कर्मकी कारण हो सकती है, क्योंकि वही उसकी प्रवर्तक है । जो लोग पूर्णकाम हैं T उनकी कामनाओं का अभाव होनेपर खरूपमें स्थिति हो जानेसे कर्ममें प्रवृत्ति होना असम्भव है । आत्मदर्शनकी कामना पूर्ण होनेपर ही पूर्णकामता [ की सिद्धि] होती है; क्योंकि आत्मा ही ब्रह्म है और ब्रह्मवेत्ताको ही परमात्माकी प्राप्ति होती है ऐसा आगे [ श्रुति ] बतलायेगी । अतः अविद्याकी निवृत्ति होनेपर अपने आत्मामें स्थित हो जाना ही परमात्माकी प्राप्ति है; जैसा कि “ अभय पद प्राप्त करं लेता है” “[ उस समय ] इस आनन्दमय आत्माको प्राप्त हो जाता है" इत्यादि श्रुतियोंसे प्रमाणित होता है ।
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तैत्तिरीयोपनिपट
[ वल्ली १
काम्यप्रतिपिद्धयोरनारम्भा- पूर्व-काम्य और निषिद्ध कर्मो
| का आरम्भ न करनेसे, प्रारब्ध कमोंमीमांतकमत- दारब्धस्य चोप
का भोगद्वारा क्षय हो जानेसे तथा समीक्षा भोगेन क्षयान्नित्या-नित्यकर्मकि अनुष्टानसे प्रत्यवायर्याका नुष्ठानेन प्रत्यवायाभावादयत्नत | | अभाव हो जानसे अनायास ही
अपने आत्मामें स्थित होनारूप मोक्ष एव स्वात्मन्यवस्थानं मोक्षः।
प्राप्त हो जायगा; अथवा 'स्वर्ग' अथवा निरतिशयायाः प्रीतेः शब्दवाच्य आत्यन्तिक प्रीति कर्मस्वर्गशब्दवाच्यायाः कर्महेतु
| जनित होनेके कारण कमसे ही
| मोक्ष हो सकता है यदि ऐसा माना त्वात्कर्मभ्य एव मोक्ष इति चेत् । जाय तो? न; कर्मानेकत्वात् । अने- सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि कर्म
तो बहुत-से हैं। अनेकों जन्मान्तरों में कानि ह्यारब्धफलान्यनारब्ध
किये हुए ऐसे अनेकों विरुद्ध फलवाले फलानि चानेकजन्मान्तरकृतानि | कर्म हो सकते हैं जिनमेंसे कुछ तो विरुद्धफलानि कर्माणि सम्भवन्ति। फलोन्मुख हो गये हैं और कुछ अभी
फलोन्मुख नहीं हुए हैं। अतः उनमें अतस्तेष्वनारब्धफलानामेकसि
जो कर्म अभी फलोन्मुख नहीं हुए ञ्जन्मन्युपभोगक्षयासंभवाच्छेप- | हैं उनका एक जन्ममें होक्षय होना कर्मनिमित्तशरीरारम्भोपपत्तिः। असा
| असम्भव होनेके कारण उन अवशिष्ट
कोंके कारण दूसरे शरीरका कर्मशेषसद्भावसिद्धिश्च "तद्य इह ! आरम्भ होना सम्भव ही है । रमणीयचरणा" (छा० उ०
| "इस लोकमें जो शुभ कर्म करनेवाले ५। १०१७) "ततः शेपेण" [उपभोग किये कमोंसे ] बचे हुए
हैं [उन्हें शुभयोनि प्राप्त होती है ]" (आ०५० २।२।२।३, गो० | कर्मोद्वारा [जीवको आगेका शरीर
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अनु०१]
शाङ्करभाष्यार्थ
स्मृ० ११) इत्यादिश्रुतिस्मृति- प्राप्त होता है ]" इत्यादि सैकड़ों शतेभ्यः ।..
श्रुति-स्मृतियोंसे अवशिष्ट कर्मके
सद्भावकी सिद्धि होती ही है। इष्टानिष्टफलानामनारब्धानां पूर्व०-इष्ट और अनिष्ट दोनों
प्रकारके फल देनेवाले सञ्चित कर्मोंक्षयार्थानि नित्यानीति चेत् १ का क्षय करनेके लिये ही नित्यकर्म
हैं-ऐसी बात हो तो? नअकरणे प्रत्यवायश्रव- सिद्धान्ती नहीं, क्योंकि उन्हें
न करनेपर प्रत्यवाय होता है-ऐसा णात् । प्रत्यवायशब्दो ह्यनिष्ट- सुना गया है । 'प्रत्यवाय' शब्द
अनिष्टका ही सूचक है। नित्यविपयः। नित्याकरणनिमित्तस्य कर्मोके न करनेके कारण जो
आगामी दुःखरूप प्रत्यवाय होता है प्रत्यवायस्य दुःखरूपस्यागामिनः |
उसका नाश करनेके लिये ही परिहारार्थानि नित्यानीत्यभ्युप- नित्यकर्म हैं-ऐसा माना जानेके
कारण वे सञ्चित कोंके क्षयके लिये गमान्नानारब्धफलकर्मक्षयार्थानि नहीं हो सकते । यदि नामानारब्धकर्मक्षया- और यदि नित्यकर्म, जिनका
फल अभी आरम्भ नहीं हुआ है उन र्थानि नित्यानि कर्माणि तथा- | कर्मोके क्षयके लिये हों भी तो भी प्यशुद्धमेव क्षपयेयुर्न शुद्धम् ।
| वे अशुद्ध कर्मका ही क्षय करेंगे;
शुद्धका नहीं; क्योंकि उनसे तो विरोधाभावात् । न हीएफलस्य उनका विरोध ही नहीं है । जिनका
फल इष्ट है उन कर्मोंका तो शुद्धकर्मणः शुद्धरूपत्वान्नित्यैर्विरोध होने के कारण नित्यकर्मोंसे
विरोध होना सम्भव ही नहीं है। उपपद्यते । शुद्धाशुद्धयोहि विरो
विरोध तो शुद्ध और अशुद्ध कर्मोका धो युक्तः।
। ही होना उचित है।
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तैत्तिरीयोपनिपद्
[ वल्ली १
न च कर्महेतूनां कामानां | इसके सिवा कर्मकी हेतुभूत
कामनाओंकी निवृत्ति भी ज्ञानके ज्ञानाभावे निवृत्त्यसंभवादशेप- अभावमें असम्भव होनेके कारण
उन (नित्य कर्मों) के द्वारा सम्पूर्ण कर्मक्षयोपपत्तिः । अनात्मविदो
कर्मोका क्षय होना सम्भव नहीं है, हि कामोऽनात्मफलविषयत्वात् ।
क्योंकि अनात्मफलविषयिणी होनेके
कारण कामना अनात्मवेत्ताको ही खात्मनि च कामानुपपत्तिनित्य- हुआ करती है। आत्मामें तो कामना
का होना सर्वथा असम्भव है, क्योंकि प्राप्सत्वात् । स्वयं चात्मा परं।
। वह नित्यप्राप्त है। और यह तो कहा
ही जा चुका है कि स्वयं आत्मा ही ब्रह्मत्युक्तम् ।
.परब्रह्म है। नित्यानांचाकरणमभावस्ततः तथा नित्यकर्मोका न करना तो
अभावरूप है, उससे प्रत्यवाय होना प्रत्यवायानुपपत्तिरिति । अतः असम्भव है । अतः नित्यकर्मोका न पूर्वोपचितदुरितेभ्यःप्राप्यमाणा- करना यह पूर्वसञ्चित पापोंसे प्राप्त
होनेवाली प्रत्यवायक्रियाका ही याःप्रत्यवायक्रियायानित्याकरण, लक्षण है । इसलिये "अकुर्वन् लक्षणमिति "अकुर्वन्विहितं कर्म"
विहितं कर्म' इस वाक्यके
'अकुर्वन्' पदमें 'शत' प्रत्ययका (मनु० ११ । ४४) इति शतु- होना अनुचित नहीं है । अन्यथा र्नानुपपत्तिः । अन्यथाभावाद्भा
अभावसे भावकी उत्पत्ति सिद्ध होने
| के कारण सभी प्रमाणोंसे विरोध हो वोत्पत्तिरिति सर्वप्रमाणव्याकोप जायगा । अतः ऐसा मानना सर्वथा इति । अतोऽयत्नतः स्वात्मन्य
अयुक्त है कि [ कर्मानुष्ठानसे ]
अनायास ही आत्मस्वरूपमें स्थिति वस्थानमित्यनुपपन्नम् । हो जाती है।
.:
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अनु० १]
. शाङ्करभाष्यार्थ
- यच्चोक्तंनिरतिशयप्रीतेः स्वर्ग- और यह जो कहा कि 'स्वर्ग' शब्दवाच्यायाः कर्मनिमित्तत्वा
____ शब्दसे कही जानेवाली निरतिशय
प्रीति कर्मनिमित्तंक होनेके कारण स्कारब्ध एव मोक्ष इति, तन्नः | मोक्ष कर्मसे ही आरम्भ होनेवाला है, नित्यत्वान्मोक्षस्य । न हि नित्यं
सो ऐसी बात नहीं है, क्योंकि
| मोक्ष नित्य है और किसी भी नित्य किञ्चिदारभ्यते । लोके यदारब्धं । वस्तुका आरम्भ नहीं किया जाता;
लोकमें जिस वस्तुका भी आरम्भ तदनित्यमिति । अतो न कर्मा
होता है वह अनित्य हुआ करती रब्धो मोक्षः।
है; इसलिये मोक्ष कारब्ध नहीं है । विद्यासहितानां कर्मणां नि- पूर्व०-ज्ञानसहित कोंमें तो त्यारम्भसामर्थ्यमिति चेत् ?
| नित्य मोक्षके आरम्भ करनेकी भी
सामर्थ्य है ही? न; विरोधात् । नित्यं चा- सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि ऐसा
माननेसे विरोध आता है; मोक्ष नित्य रम्यत इति विरुद्धम् ।
है और उसका आरम्भ किया जाता
है-ऐसा कहना तो परस्परविरुद्ध है। यद्विनष्टं तदेव नोत्पद्यत इति । पूर्व०-जो वस्तु नष्ट हो जाती
है वही फिर उत्पन्न नहीं हुआ प्रध्वंसाभाववन्नित्योऽपि मोक्ष करती, अतः प्रध्वंसाभावके समान
| नित्य होनेपर भी मोक्षका आरम्भ आरभ्य एवेति चेत् ?
किया ही जाता है। ऐसा मानें तो? न; मोक्षस्य भावरूपत्वात । सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि मोक्ष
| तो भावरूप है । प्रध्वंसाभाव भी प्रध्वंसाभावोऽप्यारभ्यत इति आरम्भ किया जाता है यह न न
संभवति ; संभवत .
अभावस्य |
संभव नहीं; क्योंकि अभावमें
लकोई विशेषता न होनेके कारण यह विशेपाभावाद्विकल्पमात्रमेतत् । तो केवल विकल्प ही है । भावका
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ 'वल्ली १
भावप्रतियोगी ह्यभावः यथा भिन्नोऽपि भावो घटपटादिभिर्विशेष्यते भिन्न इव
घटभावः पटभाव इति एवं
। प्रतियोगी ही 'अभाव' कहलाता है । जिस प्रकार भाव वस्तुतः अभिन्न होनेपर भी घट-पट आदि विशेषणोंसे भिन्नके समान घटभाव, पटभाव आदि रूप से विशेषित किया जाता है इसी प्रकार अभाव निर्विशेषोऽप्यभावः क्रिया- | निर्विशेप होनेपर भी क्रिया और गुणके योगसे द्रव्यादिके समान त्रिकल्पित होता है । कमल आदि न भाव उत्पलादिवद्विशेषण- पदार्थों के समान अभाव विशेषण के सहित रहनेवाला नहीं है । विशेषणयुक्त होनेपर तो वह भाव ही हो
गुणयोगाद्द्रव्यादिवद्विकल्प्यते ।
सहभावी । विशेषणवच्चे भाव
एव स्यात् ।
जायगा ।
विद्याकर्मकर्तृनित्यत्वाद्विद्या
कर्मसन्तान जनितमोक्षनित्यत्व
मिति चेत् ?
नः गङ्गास्रोतोवत्कर्तृत्वस्य
सिद्धान्ती नहीं, गङ्गाप्रवाहके समान जो कर्तृत्व है वह तो दुःखरूप है। [ अतः उससे मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती, और यदि उसीसे मोक्ष माना जाय तो भी ] कर्तृत्व की निवृत्ति होनेपर मोक्षका विच्छेद हो जायगा । अतः अविद्या, कामना
कामकर्मोपादानहेतुनिवृत्तौ स्वा और कर्म - इनके उपादान कारणकी
पूर्व० - विद्या और कर्म इनका कर्ता नित्य होनेके कारण विद्या और कर्मके अविच्छिन्न प्रवाहसे होनेवाला मोक्ष नित्य ही होना चाहिये । ऐसा मानें तो ?
दुःखरूपत्वात् | कर्तृत्वोपरमे च
मोक्षविच्छेदात् । तस्मादविद्या
निवृत्ति होनेपर आत्मखरूपमें स्थित त्मन्यवस्थानं मोक्ष इति । स्वयं हो जाना ही मोक्ष है- यह सिद्ध
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अनु० १ ]
चात्मा ब्रह्म । तद्विज्ञानादविद्या
निवृत्तिरिति ब्रह्मविद्यार्थोपनिप
दारभ्यते ।
शाङ्करभाष्यार्थं
उपनिपदिति विद्योच्यतेः
उपनिपच्छन्द्र- तच्छीलिनां गर्भजनिरुक्तिः न्मजरादिनिशातनात्तदवसादनाद्वा ब्रह्मणो वोप
निगमयितृत्वादुपनिषण्णं वाम्यां
परं श्रेय इति । तदर्थत्वाद् -
ग्रन्थोऽप्युपनिषत् |
होता है । तथा स्वयं आत्मा हो ब्रह्म है और उसके ज्ञानसे ही अविद्याकी निवृत्ति होती है; अतः अब ब्रह्मज्ञानके लिये उपनिपद्का आरम्भ किया जाता है ।
अपना सेवन करनेवाले पुरुषोंके गर्भ, जन्म और जरा आदिका निशातन ( उच्छेद) करने या उनका अवसादन ( नाश) करनेके कारण 'उपनिषद्' शब्दसे विद्या ही कही जाती है। अथवा ब्रह्मके समीप ले जानेवाली होनेसे या इसमें परम श्रेय ब्राह्म उपस्थित है इसलिये [ यह चिया 'उपनिपद्' है ] | उस विद्याके ही लिये होनेके कारण ग्रन्थ भी 'उपनिषद्' है ।
शfrasia शान्तिपाठ
ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो वृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं वदिष्यामि । सत्यं वदिष्यामि । तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु । अवतु माम् । अवतु वक्तारम् ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ १ ॥
[ प्राणवृत्ति और दिनका अभिमानी देवता ] मित्र ( सूर्यदेव ) हमारे लिये सुखकर हो । [ अपानवृत्ति और रात्रिका अभिमानी ] वरुण
1
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तैत्तिरीयोपनिपद्
[चल्ली १
हमारे लिये सुखावह हो । [ नेत्र और सूर्यका अभिमानी देवता ] अर्यमा हमारे लिये सुखप्रद हो । बलका अभिमानी इन्द्र तथा [ वाक् और बुद्धिका अभिमानी देवता] वृहस्पति हमारे लिये शान्तिदायक हो। तथा जिसका पादविक्षेप ( डग ) बहुत विस्तृत है वह [ पादाभिमानी देवता] विष्णु हमारे लिये सुखदायक हो । ब्रह्म [ रूप वायु ] को . नमस्कार है । हे वायो ! तुम्हें नमस्कार है । तुम ही प्रत्यक्ष ना हो । अतः तुम्हींको मैं प्रत्यक्ष ब्रह्म कहूँगा | तुम्हींको ऋत ( शास्त्रोक्त निश्चित अर्थ ) कहूँगा और [ क्योंकि वाक् और शरीरसे सम्पन्न होनेवाले कार्य भी तुम्हारे ही अधीन हैं इसलिये ] तुम्हींको मैं सत्य कहूँगा । अतः तुम [विद्यादानके द्वारा ] मेरी रक्षा करो तथा ब्रह्मका निरूपण करनेवाले आचार्यकी भी [ उन्हें वक्तृत्व-सामर्थ्य देकर ] रक्षा करो। मेरी रक्षा करो और वक्ताकी रक्षा करो । आधिभौतिक, आध्यात्मिक और आधिदैविक तीनों प्रकारके तार्पोकी शान्ति हो ॥ १ ॥
शं सुखं प्राणवृत्तेरहश्चाभि- प्राणवृत्ति और दिनका अभिमानी मानी देवतात्मा मित्रो नोऽस्माकं |
| देवता मित्र हमारे लिये शं-सुखरूप
हो । इसी प्रकार अपानवृत्ति और भवतु। तथैवापानवृत्ते रात्रेश्चाभि- | रात्रिका अभिमानी देवता वरुण, मानी देवतात्मा वरुणः । चक्ष- नेत्र और सूर्यमें अभिमान करनेवाला प्यादित्ये चाभिमान्यर्यमा ।
अर्यमा, वलमें अभिमान करनेवाला
इन्द्र, वाणी और बुद्धिका अभिमानी बल इन्द्रः। वाचि बुद्धौ च बृहस्पति तथा उरुक्रम अर्थात् वृहस्पतिः। विष्णुरुरुक्रमो वि- | विस्तीर्ण पादविक्षेपवाला पादाभिमानी स्तीर्णक्रमः पादयोरभिमानी ।
देवता विष्णु-इत्यादि सभी अध्यात्म
देवता हमारे लिये सुखदायक हों। एवमाद्याध्यात्मदेवताः शं नः।।
'भवतु' (हों) इस क्रियाका सभी भवत्विति सर्वत्रानुपङ्गः। वाक्योंके साथ सम्बन्ध है।
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अनु०.१]
शाङ्करमाप्यार्थ
तासु हि सुखकृत्सु विद्या- उनके सुखप्रद होनेपर ही ज्ञान
के श्रवण, धारण और उपयोग श्रवणधारणापयागा अप्रतिबन्ध- निर्विघ्नतासे हो सकेंगे-इसलिये ही न भविष्यन्तीति तत्सुखकर्तृत्वं
| 'शं नो भवतु' आदि मन्त्रद्वारा
उनकी सुखावहताके लिये प्रार्थना प्रार्थ्यते शं नो भवविति। । | की जाती है। ब्रह्म विविदिपुणा नमस्कार- अब ब्रह्मक ।
विद्याके विघ्नोंकी शान्तिके लिये वन्दनक्रिये वायुविपये ब्रह्म
वायुसम्बन्धी नमस्कार और वन्दन विद्योपसर्गशान्त्यर्थ क्रियेते। सर्व- किये जाते हैं | समस्त कर्मोका क्रियाफलानां तदधीनत्वाद्
फल वायुके ही अधीन होनेके
कारण ब्रह्म वायु है । उस ब्रह्म वायुस्तस्मै ब्रह्मणे नमः । ब्रह्मको मैं नमस्कार अर्थात् प्रह्वीभाव प्रह्वीभावं करोमीति वाक्यशेपः ।
(विनीतभाव ) करता हूँ। यहाँ
| 'करोमि' यह क्रिया वाक्यशेप है। नमस्ते तुभ्यं हे वायो नमस्क- हे वायो ! तुम्हें नमस्कार है-मैं रोमीति । परोक्षप्रत्यक्षाभ्यां
तुम्हें नमस्कार करता हूँ-इस प्रकार
यहाँ परोक्ष और प्रत्यक्षरूपसे वायु वायुरेवाभिधीयते । ही कहा गया है।
किं च त्वमेव चक्षुराद्यपेक्ष्य। इसके सिवा क्योंकि बाह्य चक्षु बाह्यं संनिकृष्टमव्यवहितं प्रत्यक्ष
आदिकी अपेक्षा तुम्हीं समीपवर्ती
अव्यवहित अर्थात् प्रत्यक्ष ब्रह्म हो ब्रह्मासि यसात्तस्मात्त्वामेव | इसलिये तुम्हींको मैं प्रत्यक्ष ब्रह्म प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि । ऋतं कहूँगा। तुम्हींको ऋत अर्थात् शास्त्र
और अपने कर्तव्यानुसार बुद्धिमें यथाशास्त्रं यथाकर्तव्यं बुद्धौ
सम्यकरूपसे निश्चित किया हुआ सुपरिनिश्चितमर्थं तदपि त्वद- अर्थ कहूँगा, क्योंकि वह [ऋत]
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[बल्ली
धीनत्वारनामेन बदिष्यामि । तुम्हारे ही अधीन है। वाक और सत्यमिति स एक वाकायाभ्यां शरीरले सम्पादन किया जानेवाला
वह अर्थ ही सत्य कहलाता है, यह संपावसानः, शोपि त्वदधीन
भी तुम्हारे ही अधीन सम्पादन किया एव संपाद्य इति त्वामेव सत्यं जाता है। अतः तुम्हींको में सत्य वदिष्यामि ।
कहूँगा। तत्सर्वात्मकं वाय्वाख्यं ब्रह्म , वह वायुरातका सर्वात्मक ब्राम मयंवं स्तुतं सन्मां विद्यार्थिनम- मेद्वारा इन प्रकार स्तुति किये
जानेपर मुगा विद्यार्थीको विद्यासे वतु विद्यासंयोजनेन । तदेव मुक्त करके रक्षा करे । बाही ब्राम ब्रह्म वक्तारमाचार्य वक्तृत्व- । यता आचार्यको चान्वसामध्यसे सामर्थ्यसंयोजनेनावतु । अबत युक्त करके उनकी रक्षा करे । मेरी
रक्षा करे और वायी रक्षा करे-दन मामवतु वक्तारमिति पुनर्वचन-!
प्रकार दो बार कहना आदरके लिये मादरार्थम् । ॐ शान्तिः शान्तिः है। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः'शान्तिरिति निर्वचनमाध्यात्मि-: ऐसा तीन बार काहना विद्याप्राप्तिक काधिभौतिकाधिदैविकानांविद्या
. आध्यात्मिक, आधिभौतिया और
ur आधिदैविक विनोंकी शान्तिको प्राप्त्युपसर्गाणां प्रशमार्थम् ॥१॥ लिये है ॥ १ ॥
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-
इति शीक्षावल्ल्यां प्रथमोऽनुवाकः ॥१॥
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द्वितीय अनुवाक
शीक्षाकी व्याख्या अर्थज्ञानप्रधानत्वादुपनिपदो! उपनिपद् अर्थज्ञानप्रधान है
[ अर्थात् अर्थज्ञान ही इसमें मुख्य ग्रन्थपाठे यलोपरमो मा भूदिति है ], अतः इस ग्रन्थके अध्ययनका
प्रयत्न शिथिल न हो जाय--इसलिये शीक्षाध्याय आरभ्यते
। पहले शीक्षाध्याय आरम्भ किया
जाता हैशीक्षां व्याख्यास्यामः। वर्णः खरः। मात्रा बलम् । साम सन्तानः । इत्युक्तः शीक्षाध्यायः ॥१॥ ___ हम शीक्षाकी व्याख्या करते हैं । [अकारादि] वर्ण, [उदात्तादि] खर, [ हखादि ] मात्रा, [शब्दोच्चारणमें प्राणका प्रयत्नरूप] बल, [एक ही नियमसे उच्चारण करनारूप ] साम तथा सन्तान (संहिता) [ये ही विषय इस अध्यायसे सीखे जानेयोग्य हैं। इस प्रकार शीक्षाध्याय कहा गया ॥१॥ शिक्षा शिक्ष्यतेऽनयेति वर्णा- जिससे वर्णादिका उच्चारण सीखा
जाय उसे 'शिक्षा' कहते हैं अथवा छुच्चारणलक्षणम् । शिक्ष्यन्त जो सीखे जायें वे वर्ण आदि ही इति वा शिक्षा वर्णादयः । शिक्षा हैं । शिक्षाको ही 'शीक्षा'
कहा गया है । [शीक्षाशब्दमें शिक्षवशीक्षा । दैयं छान्दसम्। ईकारका] दीर्घत्व वैदिक प्रक्रियाके तां शीक्षा व्याख्यास्यामो विस्प
- अनुसार है । उस शीक्षाकी हम
| व्याख्या करते हैं अर्थात् उसका टमा समन्तात्कथयिष्यामः । सर्वतोभावसे स्पष्ट वर्णन करते हैं।
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली १
चक्षिको वा ख्यानादिष्टस्य ! 'व्याख्यास्यामः' यह पद 'वि'
और 'आङ्' उपसर्गपूर्वक 'चक्षि व्यापूर्वस्य व्यक्तवाकर्मण एत- धातुके स्थानमें वैकल्पिक 'ख्या
आदेश करनेसे निप्पन्न होता है। द्रूपम् ।
इसका अर्थ स्पष्ट उच्चारण है। तत्र वर्णोऽकारादिः, स्वर तहाँ अकारादि वर्ण, उदात्तादि उदात्तादिः, मात्रा हखाद्याः, वलं सर, हला
| उच्चारणमें ] प्रयत्नविशेषरूप वल, प्रयत्नविशेषः, साम वर्णानांमध्य-वोंको मध्यम वृत्तिसे उच्चारण मवृत्त्योच्चारणं समता, सन्तानः करनारूप साम अर्थात् समता तथा सन्ततिः संहितेत्यर्थः । एप हि
सन्तान-सन्तति अर्थात् संहिता
यही शिक्षणीय विषय है। शिक्षा शिक्षितव्योर्थः। शिक्षा यसिन्न- जिस अध्यायमें है उस इस शीक्षाध्याये सोऽयं शीक्षाध्याय इत्येव- अध्यायका इस प्रकार कथन यानी
प्रकाशन कर दिया गया । यहाँ मुक्त उदितः । उक्त इत्युपसं
'उक्तः' पद उपसंहारके लिये हारार्थः ॥१॥
है॥ १॥
इति शीक्षावल्ल्यां द्वितीयोऽनुवाकः ॥२॥
JAD
Cmatha
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तृतीय अनुवाक
पाँच प्रकारकी संहितोपासना
अब संहितासम्बन्धिनी उपनिपत् ( उपासना ) कही जाती है
सह नौ यशः । सह नौ ब्रह्मवर्चसम् । अथातः सहिताया उपनिपदं व्याख्यास्यामः । पञ्चस्वधिकरणेषु । अधिलोकमधिज्योतिषमधिविद्य मधिप्रजमध्यात्मम् । ता महासहिता इत्याचक्षते । अथाधिलोकम् । पृथिवी पूर्वरूपम् । द्यौरुत्तररूपम् । आकाशः संधिः ॥ १ ॥
वायुः संधानम् । इत्यधिलोकम् । अथाधिज्यौतिषम् | अग्निः पूर्वरूपम् | आदित्य उत्तररूपम् । आपः संधिः । वैद्युतः संधानम् । इत्यधिज्यौतिषम् । अथाधिविद्यम् | आचार्यः पूर्वरूपम् ॥ २ ॥
अधुना संहितोपनिपदुच्यते
अन्तेवास्युत्तररूपम् । विद्या संधिः / प्रवचनसंधानम् । इत्यधिविद्यम् । अथाधिप्रजम् । माता पूर्व - रूपम् । पितोत्तररूपम् । प्रजा संधिः । प्रजनन संधानम् । 'इत्यधिप्रजम् ॥ ३ ॥
अथाध्यात्मम् । अधरा हनुः पूर्वरूपम् । उत्तरा हनुरुत्तररूपम् । वाक्संधिः । जिह्वा संधानम् । इत्य
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तैत्तिरीयोपनिपद्
[ वल्ली १
ध्यात्मम् । इतीमा महास हिताः य एवमेता महासहिता व्याख्याता वेद । संधीयते प्रजया पशुभिः । ब्रह्मवर्चसे
नान्नाद्येन सुवर्गेण लोकेन ॥४॥ ___हम [ शिष्य और आचार्य ] दोनोंको साथ-साथ यश प्राप्त हो
और हमें साथ-साथ ब्रह्मतेजकी प्राप्ति हो। [क्योंकि जिन पुरुपोंकी बुद्धि शास्त्राध्ययनद्वारा परिमार्जित हो गयी है वे भी परमार्थतत्त्वको समझनेमें सहसा समर्थ नहीं होते, इसलिये ] अब हम पाँच अधिकरणोंमें संहिताकी * उपनिषद् [ अर्थात् संहितासम्बन्धिनी उपासना की व्याख्या करेंगे । अधिलोक, अधिज्यौतिप, अधिविद्य, अधिप्रज और अध्यात्म –ये ही पाँच अधिकरण हैं । पण्डितजन उन्हें महासंहिता कहकर पुकारते हैं । अब अधिलोक (लोकसम्बन्धी) दर्शन (उपासना) का वर्णन किया जाता है-संहिताका प्रथम वर्ण पृथिवी है, अन्तिम वर्ण धुलोक है, मध्यभाग आकाश है ॥ १ ॥ और वायु सन्धान ( उनका परस्पर सम्बन्ध करनेवाला ) है । [अधिलोकउपासकको संहितामें इस प्रकार दृष्टि करनी चाहिये ]यह अघिलोक दर्शन कहा गया । इसके अनन्तर अधिज्यौतिप दर्शन कहा जाता है-यहाँ संहिताका प्रथम वर्ण अग्नि है, अन्तिम वर्ण चुलोक है, मध्यभाग आप ( जल ) है और विद्युत् सन्धान है [ अधिज्यौतिपउपासकको संहितामें ऐसी दृष्टि करनी चाहिये ]-यह अधिज्यौतिप दर्शन कहा गया । इसके पश्चात् अधिविद्य दर्शन कहा जाता है इसकी संहिताका प्रथम वर्ण आचार्य ; है ॥ २ ॥ अन्तिम वर्ण शिष्य है, विद्या सन्धि है और प्रवचन (प्रश्नोत्तररूपसे निरूपण करना) सन्धान है [-ऐसी अधिविद्यउपासकको दृष्टि
___ * 'संहिता' शब्दका अर्थ सन्धि या वर्णीका सामीप्य है। भिन्न-भिन्न वों के मिलनेपर ही शब्द बनते हैं। उनमें जब एक वर्णका दूसरे वर्णसे योग होता है तो उन पूर्वोत्तर वर्णोके योगको 'सन्धि' कहते हैं और जिस शब्दोच्चारणसम्बन्धी प्रयत्नके योगसे सन्धि होती है उसे 'सन्धान' कहा जाता है।
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अनु० ३]
शारभाप्यार्थ
करनी चाहिये] । यह विद्यासम्बन्धी दर्शन कहा गया। इससे आगे अधिप्रज दर्शन कहा जाता है-यहाँ संहिताका प्रथम वर्ण माता है, अन्तिम वर्ण पिता है, प्रजा ( सन्तान ) सन्धि है और प्रजनन (ऋतुकालमें भार्यागमन ) सन्धान है -अधिप्रजउपासकको ऐसी दृष्टि करनी चाहिये ] । यह प्रजासम्बन्धी उपासनाका वर्णन किया गया ॥ ३ ॥ इसके पश्चात् अध्यात्मदर्शन कहा जाता है-इसमें संहिताका प्रथम वर्ण नीचेका हनु (नांचेके होठसे ठोडीतकका भाग) है, अन्तिम वर्ण जपरका हनु (ऊपरके होठसे नासिकातकका भाग ) है, वाणी सन्धि है और जिला सन्धान है [-ऐसी अध्यात्मउपासकको दृष्टि करनी चाहिये । यह अध्यात्मदर्शन कहा गया। इस प्रकार ये महासंहिताएँ कहलाती हैं। जो पुरुष इस प्रकार व्याख्या की हुई इन महासंहिताओंको जानता है [ अर्थात् इस प्रकार उपासना करता है वह प्रजा, पशु, ब्रह्मतेज, अन्न और स्वर्गलोकसे संयुक्त किया जाता है। [अर्थात् उसे इन सबकी प्राप्ति होती है ] ॥ ४ ॥ तत्र संहिताद्युपनिपत्परिज्ञा- उस संहितादि उपनिपद्
[अर्थात् संहितादिसम्बन्धिनी ननिमित्तं यद्यशःप्रार्थ्यते तन्ना- | उपासना ] के परिज्ञानके कारण
| जिस यशकी याचना की जाती है चावयोः शिष्याचार्ययोः सहवा- | वह हम शिष्य और आचार्य दोनोंको
साथ-साथ ही प्राप्त हो। तथा स्तु | तन्निमित्तं च यद्रह्मवर्चसं
उसके कारण जो ब्रह्मतेज होता है - तेजस्तच सहवास्त्विति शिष्य- वह भी हम दोनोंको साथ-साथ ही
मिले-इस प्रकार यह कामना शिष्यवचनमाशी। शिष्यस्य यकृतार्थ- का वाक्य है, क्योंकि अकृतार्थ
होनेके कारण शिप्यके लिये ही वात्प्रार्थनोपपद्यते नाचार्यस्य । प्रार्थना करना सम्भव भी हैकृतार्थत्वात । कृतार्थो ह्याचार्यो आचार्यके लिये नहीं, क्योंकि वह
कृतार्थ होता है। जो पुरुप कृतार्थ नाम भवति ।
होता है वही आचार्य कहलाता है।
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली १
अथानन्तरमध्ययनलक्षणवि-
'अर्थ' अर्थात् पहले कहे हुए
ग्रन्थ- अध्ययनरूप विधा पहले कहे हुए
धानस्य, अतो यतोऽत्यर्थं ग्रन्थ- 'अतः'-क्योंकि अन्यके अध्ययनमें
अत्यन्त आसक्त की हुई वुद्धिको भाविता बुद्धिर्न शक्यते सहसार्थ
सहसा अर्थज्ञान [ को ग्रहण करने] ' ज्ञानविषयेऽवतारयितुमित्यतः
| में प्रवृत्त नहीं किया जा सकता,
इसलिये हम ग्रन्यकी समीपवर्तिनी संहिताया उपनिपदंसंहिताविपयं संहितोपनिषद् अर्थात् संहिता
सम्बन्धिनी दृष्टिकी पाँच अधिकरण दशनामत्यतद्ग्रन्थसानकृष्टाम -आश्रय अर्थात् ज्ञानके विषयोंमें THA शिक- व्याख्या करेंगे । [ तात्पर्य यह कि
वर्णोके विषयमें पाँच प्रकारके प्वाश्रयेषु ज्ञानविपयेष्वित्यर्थः।। ज्ञान बतलावेंगे]।
. कानि तानीत्याह-अधिलोकं वे पाँच अधिकरण कौन-से हैं ? - लोकेष्वधियदर्शनं तदधिलोकम् । सो बतलाते हैं-'अधिलोक'-जो तथाधिज्यौतिपमधिविद्यमधिप्रज
दर्शन लोकविपयक हो उसे अधिलोक
कहते हैं। इसी प्रकार अधिज्यौतिप, मध्यात्ममिति । ता एताः पञ्च- | अधिविद्य, अधिग्रज और अध्यात्म विषया उपनिषदो लोकादिमहा- भी समझने चाहिये । ये पञ्चविपयवस्तुविषयत्वात्संहिताविषयत्वाच । सम्बन्धिनी उपनिषदें लोकादि महामहत्यश्च ताः संहिताश्च महा
वस्तुविपयिणी और संहितासम्बन्धिनी,
हैं; इसलिये वेदवेत्तालोग इन्हें महती संहिता इत्याचक्षते कथयन्ति
संहिता अर्थात् 'महासंहिता' वेदविदः।
कहकर पुकारते हैं। अथ तासां . यथोपन्यस्ताना- अब ऊपर बतलायी हुई उन(पाँच मधिलोकं दर्शनमुच्यते । दर्शन- प्रकारकी उपासनाओं ) मेंसे पहले
| अधिलोक-दृष्टि बतलायी जाती है।
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अनु०३]
शाङ्करभाष्यार्थ
१९
क्रमविवक्षार्थोऽथशब्दः सर्वत्र । यहाँ दर्शन क्रम बतलाना इष्ट होनेके पृथिवी पूर्वरूपं पूर्वो वर्णः पूर्व
| कारण 'अर्थ' शब्दकी सर्वत्र अनुवृत्ति
करनी चाहिये । पृथिवी पूर्वरूप रूपम् । संहितायाः पूर्वे वर्णे है । यहाँ पूर्ववर्ण ही पूर्वरूप कहा
| गया है । इससे यह बतलाया गया पृथिवीष्टिः कर्तव्येत्युक्तं भवति। है कि संहिता ( सन्धि ) के प्रथम
| वर्णमें पृथिवीदृष्टि करनी चाहिये । तथा द्यौः उत्तररूपमाकाशोऽन्त
| इसी प्रकार धुलोक उत्तररूप रिक्षलोकः संधिर्मध्यं पूर्वोत्तर- (अन्तिम वर्ण) है, आकाश अर्थात्
अन्तरिक्ष सन्धि-पूर्व और उत्तररूपयोः संधीयेते अस्मिन्पूर्वोत्तर- रूपका मध्य है अर्थात् इसमें ही रूपे इति । वायुः संधानम् ।
पूर्व और उत्तररूप एकत्रित किये
जाते हैं । वायु सन्धान है । संधीयतेऽनेनेति संधानम् । इत्य
जिससे सन्धि की जाय उसे सन्धान
कहते हैं। इस प्रकार अघिलोक धिलोकं दर्शनमुक्तम् । अथाधि- / दर्शन कहा गया । इसीके समान
'अथाधिज्यौतिपम्' इत्यादि मन्त्रोंका ज्यौतिपमित्यादि समानम् । अर्थ भी समझना चाहिये । इतीमा इत्युक्ता उपप्रदर्यन्ते।
| 'इति' और 'इमाः' इन शब्दोंसे
पूर्वोक्त दर्शनोंका परामर्श किया यः कश्चिदेवमेता महासंहिता जाता है। जो कोई इस प्रकार
व्याख्या की हुई इस महासंहिताको व्याख्याता वेदोपास्ते । वेदेत्यु
जानता अर्थात् उपासना करता हैपासनं साद्विज्ञानाधिकारात्
यहाँ उपासनाका प्रकरण होनेके
कारण'वेद'शब्दसे उपासना समझना "इति प्राचीनयोग्योपास्व" इति । चाहिये जैसा कि 'इति प्राचीन
योग्योपारख'इस आगे (१।६।२ में) च वचनात् । उपासनं च यथा- कहे जानेवाले वचनसे सिद्ध होता है।
१. हे प्राचीनयोग्य शिष्य ! इस प्रकार तू उपासना कर ।
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-२०
तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली १
शास्त्रंतुल्यप्रत्ययसन्ततिरसंकीर्णा शास्त्रानुसार समान प्रत्ययके प्रवाहका
नाम 'उपासना' है। वह प्रवाह विजाचातत्प्रत्ययः शास्त्रोक्तालम्बन-तीय प्रत्ययोंसे रहित और शास्त्रोक्त विषया च । प्रसिद्धश्योपासन
आलम्वनको आश्रय करनेवाला होना
चाहिये । लोकमें 'गुरुकी उपासना शब्दार्थों लोके गुरुमुपास्ते करता है"राजाकी उपासना करता है'
इत्यादि वाक्योंमें 'उपासना' शब्दका राजानमुपास्त इति । यो हि |
| अर्थ प्रसिद्ध ही है । जो पुरुप गुरु
आदिकी निरन्तर परिचर्या करता गुर्वादीन्सन्ततमुपचरति स उपास्त
है वही 'उपासना करता हैं ऐसा इत्युच्यते । स च फलमानोत्यु- कहा जाता है। वही उस उपासना
का फल भी प्राप्त करता है । अतः पासनस्य । अतोनापि च य इस महासंहिताके सम्बन्धमें भी जो .
पुरुष इस प्रकार उपासना करता है एवं वेद संधीयते प्रजादिभिः वह [ मन्त्रमें बतलाये हुए] प्रजासे खर्गान्तः । प्रजादिफलान्यानो
लेकर खर्गपर्यन्त समस्त पदार्थोसे
! सम्पन्न होता है, अर्थात् प्रजादिरूप तीत्यर्थः ॥१-४॥
फल प्राप्त करता है ॥ १-४ ॥
इति शीक्षावल्ल्यां तृतीयोऽनुवाकः ॥३॥
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चतुर्थ अनुवाक
श्री और बुद्धिकी कामनावालोंके लिये जप और होमसम्बन्धी मन्त्र
यश्छन्दसामिति मेधाकाम
अव 'यश्छन्दसाम्' इत्यादि मन्त्रोंसे मेधाकामी तथा श्रीकामी स्य श्रीकामस्य च तत्प्राप्तिसाधनं पुरुषोंके लिये उनकी प्राप्तिके साधन जप और होम बतलाये जाते हैं; क्योंकि "वह इन्द्र मुझे मेधासे प्रसन्न अथवा वलयुक्त करे" तथा "अतः उस श्रीको तू मेरे पास ला" इन वाक्योंमें [क्रमशः मेधा और श्रीप्राप्तिके लिये की गयी प्रार्थनाके ] लिङ्ग देखे जाते हैं ।
मेधया स्पृणोतु " " ततो मे श्रिय
मावह" इति च लिङ्गदर्शनात् ।
यश्छन्दसामृषभो विश्वरूपः । छन्दोभ्योऽध्यमृतात्संबभूव । स मेन्द्रो मेधया स्पृणोतु | अमृतस्य देव धारणो भूयासम् । शरीरं मे विचर्षणम् । जिह्वा मे मधुमत्तमा । कर्णाभ्यां भूरि विश्रुवम् । ब्रह्मणः कोशोऽसि मेधया पिहितः । श्रुतं मे गोपाय | आवहन्ती वितन्वाना ॥ १ ॥
कुर्वाणाचीरमात्मनः । वासासि मम गावश्च । अन्नपाने च सर्वदा । ततो मे श्रियमावह । लोमशां पशुभिः सह स्वाहा । आमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा । विमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा । प्रमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा । दमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा | शमायन्तु ब्रह्मचारिणः स्वाहा ॥ २ ॥
जपहोमावुच्येते । " स
मेन्द्रो
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली १
I
1
जो वेदोंमें ऋभ ( श्रेष्ठ अथवा प्रधान ) और सर्वरूप है तथा वेदरूप अमृतसे प्रधानरूपसे आविर्भूत हुआ हैं वह [ ओंकाररूप ] इन्द्र ( सम्पूर्ण कामनाओंका ईश ) मुझे मेधासे प्रसन्न अथवा बलयुक्त करे । हे देव ! मैं अमृतत्व ( अमृतत्वके हेतुभूत ब्रह्मज्ञान ) का धारण करनेवाला होऊँ । मेरा शरीर विचक्षण (योग्य) हो । मेरी जिल्हा अत्यन्त मधुमती ( मधुर भाषण करनेवाली ) हो । मैं कानोंसे खूब श्रवण करूँ | [ हे ओंकार ! ] तू, ब्रह्मका कोप है और लौकिक बुद्धिसे ढँका हुआ है [ अर्थात् लौकिक बुद्धिके कारण तेरा ज्ञान नहीं होता ] । तू मेरी श्रवण की हुई विद्याकी रक्षा कर । मेरे लिये चल, गौ और अन्न-पानको सर्वदा शीघ्र ही लें आनेवाली और इनका विस्तार करनेवाली श्रीको [ भेड़-बकरी आदि ] ऊनवाले तथा अन्य पशुओंके सहित बुद्धि प्राप्त करानेके अनन्तर तू मेरे पास ला -- खाहा । ब्रह्मचारीलोग मेरे पास आवें - खाहा । ब्रह्मचारीलांग मेरे प्रति निष्कपट हों-खाहा । ब्रह्मचारीलोग प्रमा ( यथार्थ ज्ञान ) को धारण करें - खाहा । ब्रह्मचारीलोग दम ( इन्द्रियदमन ) करें - खाहा । ब्रह्मचारीलोग शम ( मनोनिग्रह ) करें - खाहा । [ इन मन्त्रोंके पीछे जो 'स्वाहा' शब्द है वह इस बातको सूचित करता है कि ये हवनके लिये हैं ] ॥ १-२ ॥
यच्छन्दसां
वेदानामृपभ
ओङ्कारतो बुद्धि- इवर्षभः प्राधान्यात् । बलं प्रार्थ्यते विश्वरूपः सर्वरूपः
सर्ववाग्व्याप्तेः । " तद्यथा श -
कुना" ( छा० उ० २ | २३ |
३ )
जो [ ओंकार ] प्रधान होनेके कारण छन्द - वेदों में श्रेष्टके समान श्रेष्ठ तथा सम्पूर्ण वाणीमें व्याप्त होनेके कारण विश्वरूप यानी सर्वमय है; जैसा कि "जिस प्रकार शङ्कुओं ( पत्तोंकी नसों ) से [ सम्पूर्ण पत्ते सम्पूर्ण वाणी व्याप्त है-ओंकार ही व्याप्त रहते हैं उसी प्रकार ओंकारसे
यह सब कुछ है ] " इस एक अन्य
इत्यादि श्रुत्यन्तरात् । अत एव - | श्रुतिसे सिद्ध होता है । इसीलिये
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।
अनु० ४]
शाङ्करभाप्यार्थ..
२३
' भत्वमोङ्कारस्य । ओङ्कारो ओंकारको श्रेष्ठता है । यहाँ ओंकार । ह्यत्रोपास्य इति ऋषभादि- ही उपासनीय है, इसलिये 'ऋषभ'
| आदि शब्दोंसे ओंकारकी स्तुति की शब्दैः स्तुतियाय्यैवोङ्कारस्य ।
गरस्य । जानी उचित ही है । छन्द अर्थात् छन्दोभ्यो वेदेभ्यो वेदा एमृतं वेदोंसे-वेद ही अमृत हैं, उस तसादमृतादधिसंवभूव । लोक- अमृतसे जो प्रधानरूपसे हुआ है।
तात्पर्य यह है कि लोक, देव, वेद देववेदव्याहृतिभ्यः सारिष्ठं
| और व्याहृतियोंसे सर्वोत्कृष्ट सार ग्रहण जिघृक्षोः प्रजापतेस्तपस्यत करनेकी इच्छासे तप करते हुए प्रजा
ओङ्कारः सारिष्ठत्वेन प्रत्यभा- | पतिको ओंकार ही सर्वोत्तम साररूपसे दित्यर्थः । न हि नित्यस्योङ्कार
भासित हुआ था, क्योंकि नित्य
ओंकारकी साक्षात् उत्पत्तिकी कल्पना स्याञ्जसवोत्पत्तिरेत्र कल्प्यते ।
नहीं की जा सकती। वह इस स एवंभूत ओङ्कार इन्द्रः सर्व- प्रकारका ओंकाररूप इन्द्र-सम्पूर्ण कामेशः परमेश्वरो मा मां मेधया
कामनाओंका स्वामी परमेश्वर मुझे
मेधाद्वारा प्रसन्न अथवा सबल करे प्रज्ञया स्पृणोतु प्रीणयतु बलयतु
इस प्रकार यहाँ बुद्धिबलके लिये वा । प्रज्ञावलं हि प्रार्थ्यते । प्रार्थना की जाती है |
अमृतस्य अमृतत्वहेतुभूतस्य हे देव ! मैं अमृत-अमृतत्वके ब्रह्मज्ञानस्य तदधिकारात्, हे
| हेतुभूत ब्रह्मज्ञानका धारण करने
वाला होऊँ, क्योंकि यहाँ ब्रह्मज्ञानदेव धारणो धारयिता भूयासं
का ही प्रसङ्ग है । तथा मेरा शरीर भवेयम् । किं च शरीरं मे मम | विचर्षण-विचक्षण अर्थात् योग्य विचर्षणं विचक्षणं योग्यमित्ये- | हो। [मूलमें 'भूयासम्' (होऊँ) यह
उत्तम पुरुषका प्रयोग है इसे ] तत् । भूयादिति प्रथमपुरुष- भयात होडस प्रकार प्रथम पलविपरिणामः । जिह्वा मे मधु-1 में परिणत कर लेना चाहिये । मेरी
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तैत्तिरीयोपनिपद्
[ चल्ली १
भाषिणीत्यर्थः । कर्णाभ्यां श्रोत्रा - भ्यां भूरि as farवं व्यश्रवं बहु विश्रवं श्रोता भूयासमित्यर्थः । आत्मज्ञानयोग्यः कार्यकरणसंघातोऽस्त्विति वाक्यार्थः । मेधा च तदर्थमेव हि प्रार्थ्यते ।
मत्तमा मधुमत्यतिशयेन मधुर - | जिल्हा मधुमत्तमा - अतिशय मधुमती अर्थात् अत्यन्त मधुरभाषिणी हो । मैं कानोंसे भूरि- अधिक मात्रामें श्रवण करूँ अर्थात् बड़ा श्रोता होऊँ । इस वाक्यका तात्पर्य यह है कि मेरा शरीर और इन्द्रियसंघात आत्मज्ञानके योग्य हो । तथा उसीके लिये ही वुद्धिकी याचना की जाती है ।
२४
परमात्माकी उपलब्धिका स्थान
ब्रह्मणः परमात्मनः कोशोऽसि । असेरिवोपलब्ध्यधिष्ठान | होनेके कारण व तलवारके कोशके
समान ब्रह्म यानी परमात्माका कोश है, क्योंकि तु ब्रह्मका प्रतीक हैतुझमें ब्रह्मकी उपलब्धि होती है । वहीं तू मेधा अर्थात् लौकिकी बुद्धिअर्थात् सामान्य-बुद्धि पुरुषोंको तेरे से आच्छादित यानी ढका हुआ है; तस्त्रका ज्ञान नहीं होता । मेरे श्रुत अर्थात् श्रवणपूर्वक आत्मज्ञानादि विज्ञानकी रक्षा कर; अर्थात् उसकी प्राप्ति एवं अविस्मरण आदि कर । ये मन्त्र मेधाकामी पुरुषके जपके लिये हैं ।
त्वात् । त्वं हि ब्रह्मणः प्रतीकं त्वयि ब्रह्मोपलभ्यते । मेधया लौकिकप्रज्ञया पिहित आच्छादितः स त्वं सामान्यप्रज्ञैरविदितत इत्यर्थः । श्रुतं श्रवणपूर्वकमात्मज्ञानादिकं मे गोपाय रक्ष । तत्प्राप्त्यविस्मरणादि कुर्वित्यर्थः जपार्था एते मन्त्रा
मेधाकामस्य ।
होमार्थास्त्वधुना श्रीकामस्य
अब लक्ष्मीकामी पुरुपको होमके
ओङ्कारतः मन्त्रा उच्यन्ते । | लिये मन्त्र बतलाये जाते हैं-आबआवहन्त्यानयन्ती । हन्ती - लानेवाली;
श्रियः प्रार्थना
वितन्वाना
वितन्याना विस्तारयन्ती । तनो- विस्तार करनेवाली, क्योंकि 'तनु'
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अनु० ४]
शाङ्करभाष्यार्थ
तेस्तत्कर्मत्वात् । कुर्वाणा निर्वत- धातुका अर्थ विस्तार करना ही है; यन्ती, अचीरमचिरं क्षिप्रमेव, छान्दसो दीर्घः; चिरं वा कुर्वा
| अचिर अर्थात् शीघ्र ही; 'अचीरम्' में
| दीर्घ ईकार वैदिक प्रक्रियाके अनुसार णा आत्मनो मम, किमित्याह-है। अथवा चिरं (चिरकालतक) यासांसि वस्त्राणि मम गावश्च आत्मनः-मेरे लिये करनेवाली, क्या गाश्चेति यावत् , अन्नपाने च करनेवाली ? सो बतलाते हैं मेरे वस्त्र, सर्वदेवमादीनि कुर्वाणा श्रीर्या गा और
गौ और अन्न-पान इन्हें जो श्री सदा
" ही करनेवाली है उसे, बुद्धि प्राप्त तां ततो मेधानिर्वर्तनात्परमा
भरमा करानेके अनन्तर त मेरे पास ला, चहानय । अमघसा हि श्रारन क्योंकि बुद्धिहीनके लिये तो लक्ष्मी यैवेति ।
अनर्थका ही कारण होती है। किविशिष्टाम् । लोमशामजाव्या- किन विशेषणोंसे युक्त श्रीको
लावे ? लोमश अर्थात् भेड़-बकरी दियुक्तामन्यैश्च पशुभिः संयुक्ता
आदि ऊनवालोंके सहित और अन्य
पशुओंसे युक्त श्रीकोला । यहाँ आवह' मावहत्यधिकारादोङ्कार एवाभि
| क्रियाका अधिकार होनेके कारण संवध्यते । स्वाहा स्वाहाकारो
[उसके कर्ता] ओंकारसे ही सम्बन्ध
है । खाहा-यह वाहाकार होमार्थ होमार्थमन्त्रान्तज्ञापनार्थः । आ- मन्त्रोंका अन्त सूचित करनेके लिये
है। [ 'आ मायन्तुब्रह्मचारिणः' इस यन्तु मामिति व्यवहितेन सं- वाक्यमें ] 'आयन्तु माम्' इस प्रकार
'आ' काव्यवधानयुक्त 'यन्तु' शब्दसे बन्धः । ब्रह्मचारिणो विमायन्तु सम्बन्ध है । [इसी प्रकार मेरे प्रति]
ब्रह्मचारीलोग निष्कपट हों । वे प्रमाप्रमायन्तु दमायन्तु शमायन्वि
को धारण करें, इन्द्रिय-निग्रह करें, त्यादि ॥१-२॥
मनोनिग्रह करें इत्यादि ॥ १-२॥
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२६
तैत्तिरीयोपनिपद्
[ वल्ली १
यशो जनेऽसानि वाहा । श्रेयान् वस्यसोऽसानि खाहा । तं त्वा भग प्रविशानि खाहा । स मा भग प्रविश खाहा । तस्मिन् सहस्रशाखे निभगाहं त्वयि मृजे स्वाहा । यथापः प्रवता यन्ति यथा मासा अहर्जरम् । एवं मां ब्रह्मचारिणो धातरायन्तु सर्वतः स्वाहा । प्रतिवेशोऽसि प्र मा पाहि प्र मा पद्यस्व ॥३॥ ___मैं जनतामें यशस्वी होऊँ-वाहा । मैं अत्यन्त प्रशंसनीय और धनवान् होऊँ-खाहा । हे भगवन् ! मैं उस ब्रह्मकोशभूत तुझमें प्रवेश कर जाऊँ-खाहा । हे भगवन् ! वह तू मुझमें प्रवेश कर-वाहा । हे भगवन् ! उस सहस्रशाखायुक्त [ अर्थात् अनेकों भेदवाले ] तुझमें मैं अपने पापाचरणोंका शोधन करता हूँ-खाहा । जिस प्रकार जल निम्न प्रदेशकी ओर जाता है तथा महीने अहर्जर-संवत्सरमें अन्तर्हित हो जाते हैं, उसी प्रकार हे धातः ! ब्रह्मचारीलोग सब ओरसे मेरे पास आवेस्वाहा । तू [ शरणागतोंका ] आश्रयस्थान है अतः मेरे प्रति भासमान हो, तू मुझे प्राप्त हो ॥ ३ ॥
यशो यशस्वी जने जनसमूहे- मैं जनतामें यशस्वी होऊँ तथा ऽसानि भवानि । श्रेयान्प्रशस्यतरो
श्रेयान्-प्रशस्यतर और वस्वसः
वसीयसः अर्थात् वसुमान्से भी वस्यसो वसीयसोवसुतराद्वसुमत्त- वसुमान् यानी अत्यन्त धनी पुरुषों- ... राद्वासानीत्यन्वयः । किं च तं से भी विशेष धनवान् होऊँ । तथा ब्रह्मणः कोशभूतं त्वा त्वांहे भग
... हे भग-भगवन्-पूजनीय ! ब्रह्मके
कोशभूत उस तुझमें मैं प्रवेश करूँ भगवन्पूजावन्प्रविशानि प्रविश्य | तात्पर्य यह है कि तुझमें प्रवेश करके चानन्यस्त्वदात्मैव भवानीत्यर्थः। तुझसे अनन्य हो मैं तेरा ही रूप
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अनु०४]
शाङ्करभाष्यार्थ
२७
स त्वमपि मा मां भग भगवन् हो जाऊँ तथा तू भी, हे भगसालाना भगवन् ! मुझमें प्रवेश कर । अर्थात्
हम दोनोंकी एकता ही हो जाय । हे तसिंस्त्वयि सहस्रशाखे बहु- भगवन् ! उस सहस्रशाख-अनेकों *शाखाभेदे हे भगवन् , निमजे शाखाभेदवाले तुझमें मैं अपने पापशोधयाम्यहं पापकृत्याम् । कर्मोका शोधन करता हूँ। यथा लोक आपः अवता) लोकमें जिस प्रकार जल प्रवण
वान्-निम्नतायुक्त देशकी ओर जाते प्रवणवता निम्नवता देशेन यन्ति ।
हैं और महीने जिस प्रकार अहर्जरमें गच्छन्ति । यथा च मासा | अन्तहित होते हैं। अहर्जर संवत्सरअहर्जरं संवत्सरोहर्जरः । को कहते हैं, क्योंकि वह अहःअहोभिः परिवर्तमानो लोकाञ्जर- दिनाक रूप
| लोकोंको जीर्ण करता है अथवा यतीत्यहानि वासिञ्जीर्यन्त्यन्त
उसमें अहः-दिन जीर्ण यानी भवन्तीत्यहर्जरः। तं च यथा अन्तर्भूत होते हैं इसलिये वह मासा यन्त्येवं मां ब्रह्मचारिणो अहर्जर है । उस संवत्सरमें जिस माता प्रकार महीने जाते हैं उसी प्रकार
हे धातः ! मेरे पास सब ओरसेयन्त्वागच्छन्तु सर्वतः सर्व
सम्पूर्ण दिशाओंसे ब्रह्मचारीलोग दिग्भ्यः।
| आवें। ५ प्रतिवेश-श्रमापनयनस्थान- 'प्रतिवेश' श्रमनिवृत्ति के स्थान मासनगृहमित्यर्थः । एवं त्वं अर्थात् समीपवर्ती गृहको कहते हैं । प्रतिवेश इव प्रतिवेशस्त्वच्छी- इस प्रकार त प्रतिवेशके समान प्रति
वेश यानी अपना अनुशीलन करनेलिनां सर्वपापदुःखापनयनस्था- वालोंका दुःखनिवृत्तिका स्थान है । नमसि, अतोमा मां प्रति प्रभाहि अतः तू मेरे प्रति अपनेको प्रकाशित प्रकाशयात्मानं प्रपद्यस्व च । । कर और मुझे प्राप्त हो; अर्थात्
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૨૮
तैत्तिरीयोपनिपद
[चल्ली १
मां रसविद्धमिव लोहं त्वन्मयं पारदसंयुक्त लोहेके समान त, मुझे त्वदात्मानं कुर्वित्यर्थः। अपनेसे अभिन्न कर ले।
श्रीकामोऽसिन्विद्याप्रकरणे- इस ज्ञानके प्रकरणमें जो लक्ष्मीवियोपलब्धी अभिधीयमानोधना- की कामना कही जाती है वह धनके धनस्योपयोगः ह
लिये है, धन कर्मके लिये होता है, थम् । कर्म चोपात्तदुरितक्षयाय।
और कर्म प्राप्त हुए पापोंके क्षयके
लिये है। उनके क्षीण होनेपर ही तत्क्षये हि विद्या प्रकाशते । तथा ज्ञानका प्रकाश होता है; जैसा कि च स्मृतिः "ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां यह स्मृति भी कहती है-“पापक्षयात्पापस्य कर्मणः । यथादर्श- कर्मोका क्षय हो जानेपर ही पुरुप
को ज्ञान होता है । जिस प्रकार तले प्रख्ये पश्यन्त्यात्मान
दर्पणके स्वच्छ हो जानेपर उसमें मात्मनि" (महा० शा० २०४ मुख देखा जा सकता है उसी ८, गरुड० १ । २३७ । ६) प्रकार शुद्ध अन्तःकरणमें आत्माका इति ॥३॥
साक्षात्कार होता है" ॥ ३ ॥
इति शीक्षावल्ल्यां चतुर्थोऽनुवाकः ॥ ४॥
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पञ्चम अनुवाक
व्याहृतिरूप की उपासना
संहिताविपयमुपासनमुक्तं त- |
दनु मेधाकामस्य श्रीकामस्य !
मन्त्रा अनुक्रान्ताः । ते च पारम्पर्येण विद्योपयोगार्था एव । अनन्तरं व्याहृत्यात्मनो ब्रह्मणो ऽन्तरुपासनं स्वाराज्यफलं प्र
स्तूयते—
पहले संहितासम्बन्धिनी उपासनाका वर्णन किया गया । तत्पश्चात् मेधाकी कामनावाले तथा श्रीकामी पुरुषोंके लिये मन्त्र बतलाये i गये । वे भी परम्परासे ज्ञानके उपयोगके लिये ही हैं । उसके पश्चात् अब जिसका फल खाराज्य है उस व्याहृतिरूप ब्रह्म की आन्तरिक उपासनाका आरम्भ किया जाता है
भूर्भुवः सुवरिति वा एतास्तिस्रो व्याहृतयः । तासामु ह स्मैतां चतुर्थी माहाचमस्यः प्रवेदयते । मह इति । त । स आत्मा । अङ्गान्यन्या देवताः । भूरिति वा अयं लोकः । भुव इत्यन्तरिक्षम् । सुवरित्यसौ लोकः ॥ १ ॥
मह इत्यादित्यः । आदित्येन वाव सर्व लोका महीयन्ते । भूरिति वा अग्निः । भुव इति वायुः । सुवरित्यादित्यः । मह इति चन्द्रमाः । चन्द्रमसा वाव सर्वाणि ज्योतीष महीयन्ते । भूरिति वा ऋचः । भुव इति सामानि । सुवरिति यजुषि ॥ २ ॥
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३०
तैत्तिरीयोपनिपद्
[बल्ली १
मह इति ब्रह्म । ब्रह्मणा वाव सर्वे वेदा महीयन्ते। भूरिति वै प्राणः । भुव इत्यपानः । सुवरिति व्यानः। मह इत्यन्नम् । अन्नेन वाव सर्वे प्राणा महीयन्ते । ता वा एताश्चतस्रश्चतुर्धा । चतस्रश्चतस्रो व्याहतयः । ता यो वेद । स वेद ब्रह्म । सर्वेऽस्मै देवा बलिमावहन्ति ॥ ३ ॥ ___'भूः, भुवः और सुवः' ये तीन व्याहृतियाँ हैं। उनमेंसे 'महः' इस चौथी व्याहृतिको माहाचमस्य ( महाचमसका पुत्र) जानता है । वह महः ही ब्रह्म है । वही आत्मा है । अन्य देवता उसके अङ्ग (अवयव) हैं। 'भूः' यह व्याहृति यह लोक है, 'भुवः' अन्तरिक्षलोक है और 'सुवः' यह खर्गलोक है ॥१॥ तथा 'महः' आदित्य है | आदित्यसे. ही समस्त लोक वृद्धिको प्राप्त होते हैं । 'भूः' यही अग्नि है, 'भुवः', वायु है, 'सुवः' आदित्य है तथा 'महः' चन्द्रमा है। चन्द्रमासे ही सम्पूर्ण ज्योतियाँ वृद्धिको प्राप्त होती हैं । 'भूः' यही ऋठक है, 'भुवः' साम है, 'सुवः' यजुः है ॥ २ ॥ तथा 'महः' ब्रह्म है। ब्रह्मसे ही समस्त वेद वृद्धिको प्राप्त होते हैं । 'भूः' यही प्राण है, 'भुवः' अपान है, 'सुवः' व्यान है तथा 'महः' अन्न है । अन्नसे ही समस्त प्राण वृद्धिको प्राप्त होते हैं । इस प्रकार ये चार व्याहृतियाँ हैं । इनमेंसे प्रत्येक चार-चार प्रकारकी है । जो इन्हें जानता है वह ब्रह्मको जानता है । सम्पूर्ण देवगग उसे बलि ( उपहार ) समर्पण करते हैं ॥३॥ भूर्भुवः सुवरिति इतीत्युक्तोप- 'भूर्भुवः सुवरिति' इसमें 'इति'
शब्द पूर्वकथित [ व्याहृतियों ] को प्रदर्शनार्थः । एता- ही प्रदर्शित करनेके लिये है। व्याहृतिचतुष्टयम्
स्तिस्र इति च प्रद- 'एतास्तिस्रः' ये शब्द भी पूर्व.. र्शितानां परामर्शार्थः । परामृष्टाः परामर्शके लिये हैं । 'वै इस
प्रदर्शित [व्याहृतियों ] के ही
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अनु०५]
शाङ्करभाप्यार्थ
३१
सार्यन्ते वा इत्यनेन । तिस्र एताः अव्ययसे परामृष्ट व्याहृतियोंका
स्मरण कराया जाता है । अर्थात् प्रसिद्धा व्याहृतयः सायन्ते [ इन शब्दोंसे ] ये तीन प्रसिद्ध तावत् । तासामियं चतुर्थी ।
व्याहृतियाँ स्मरण दिलायी जाती
हैं। उनमें 'महः' यह चौथी व्याहृतिमह इति । तामेतां चतुर्थी व्याहृति है । उस इस चौथी
व्याहृतिको महाचमसका पुत्र माहामहाचमसस्यापत्यं माहाचमस्या चमस्य जानता है । किन्तु 'उ ह प्रवेदयते । उ ह स इत्येतेषां वृत्ता
| स्म' ये तोन निपात अतीत घटना
का अनुकथन करनेके लिये होनेके नुकथनार्थत्वाद्विदितवान्ददर्श- कारण इसका अर्थ 'जानता था'
'देखा था' इस प्रकार होगा । त्यर्थः । माहाचमस्यग्रहणमार्पा
[ व्याहृतिके द्रष्टा ] ऋपिका अनुनुसरणार्थम् । ऋपिसरणमप्यु
स्मरण करनेके लिये 'माहाचमस्य'
यह नाम लिया गया है । इस प्रकार पासनाझमिति गम्यत इहो- यहाँ उपदेश होनेके कारण यह
जाना जाता है कि ऋपिका अनुपदेशात् ।
स्मरण भी उपासनाका एक अङ्ग है।
-
-
व्याट्रतिषु मएसः हतिमह इति तहहा।
येयं माहाचमस्येन दृष्टया व्या-1 जिस 'महः' नामक व्याहृतिको
माहाचमस्यने देखा था वह ब्रह्म है।
ब्रह्म भी महान् है और व्याहृति भी प्राधान्यम् महद्धि ब्रह्म महश्च | महः है । और वह क्या है ? वही व्याहृतिः किं पुनस्तत् ? सआत्मा।
आत्मा है । 'व्याप्ति' अर्थवाले
'आप' धातुसे 'आत्मा' शब्द आमोतेाप्तिकर्मणः आत्मा। निष्पन्न होता है । क्योंकि लोक,
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तैत्तिरीयोपनिपद्
[ वल्ली १
·
अन्य
इतराच व्याहृतयो लोका देवा देव, वेद और प्राणरूप चेदाः प्राणाञ्च मह इत्यनेन | व्याहृतियों आदित्य, चन्द्र, ब्रह्म एवं अन्नत्वरूप व्याहत्यात्मक महः से
३२
व्याहृत्यात्मनादित्यचन्द्रनान- व्याप्त हैं, इसलिये वे अन्य देवता भृतेन व्याप्यन्ते यतः अतो इसके अंग - अत्रयत्र हैं । यहाँ ऽङ्गान्यवयचा अन्या देवताः । टोकादिका उपलक्षण करानेके लिये देवताग्रहणमुपलक्षणार्थं लोका- | 'देवता' शब्दका ग्रहण किया गया है । क्योंकि देव और टोक दीनाम् । मह इत्येतस्य व्या- आदि सभी 'महा' इस व्याहत्यात्माके हृत्यात्मनो देवलोकादयः सर्वे- | अवयवरूप हैं, इसीलिये ऐसा ऽवयवभूता यतोऽत आहादित्या- कहा है कि आदित्यादिक योगसे लोकादि महत्ताको प्राप्त होते हैं । दिभिर्लोकादयो महीयन्ते इति । आत्मासे ही अङ्ग महत्ताको प्राप्त आत्मनो हाङ्गानि महीयन्ते, महनं हुआ करते हैं । 'महन' शब्दका वृद्धिरुपचयः । महीयन्ते वर्धन्त अर्थ वृद्धि - उपचय है । अतः 'महीयन्ते इसका 'वृद्धिको प्राप्त इत्यर्थः । होते हैं यह अर्थ है |
अयं लोकोऽग्निर्ऋग्वेदः प्राण प्रतिव्याहृति इति प्रथमा व्याहृति - चत्वारो मेदाः भूरिति । एवमुत्त रोचरैकैका चतुर्धा भवति ।
यह लोक, अग्नि, ग्वेद और प्राणचे पहली व्याहति भूः हैं; इसी प्रकार उत्तरोत्तर प्रत्येक व्याहति चारचार प्रकारकी है * 'महः ' ब्रह्म मह इति ब्रह्म । ब्रह्मेत्योङ्कारः, | शब्द के प्रकरण में अन्य किसो ब्रह्महै; ब्रह्मका अर्थ ओंकार है, क्योंकि शब्दाधिकारेऽन्यस्यासंभवात् । का होना असम्भव है । शेप सबका उक्तार्थमन्यत् । अर्थ पहले कहा जा चुका है ।
* यथा अन्तरिक्षलोक, वायु, सामवेद और अपान ये दूसरी व्याहृति भुवः हैं; द्युलोक, आदित्य, यजुर्वेद और ब्यान — ये तीसरी व्याहृति तुवः है, तथा आदित्य, चन्द्रमा, ब्रह्म और अन्न---ये चौथी व्याहृति महः हैं ।
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अनु०
1
ता वा एताश्रस्रवतुर्धेति ।
ता वा एता भूर्भुवः सुवर्मद इति
चतस्र एकैकशचतुर्धा चतुष्प्र
काराः । धाशब्दः प्रकारवचनः । | अर्थात् वे चार-चार होती हुई चार प्रकारकी हैं । उनकी जिस प्रकार पहले कल्पना की गयी है उसी प्रकार उपासना करनेका नियम करने के लिये उनका पुनः उपदेश किया गया है । उन उपर्युक्त व्याहृतियोंको जो पुरुष जानता है वही जानता है । किसे जानता है ? ब्रह्मको ।
चतस्रश्चतस्रः सत्यश्वतुर्धा भवन्तीत्यर्थः । तासां यथाकृतानां पुनरुपदेशस्तथैवोपासन नियमार्थः ।
ता यथोक्तव्याहृतीर्यो वेद स
वेद विजानाति । किम् ? ब्रह्म ।
ननु " त स आत्मा" इति
शाङ्करभाष्यार्थ
तद्विशेषविवक्षुत्वाद
दोषः । सत्यं विज्ञातं
पचनपष्ठानु
बाफयोरेकवाक्यता चतुर्थव्याहृत्यात्मा
३३
शंका- "वह ब्रह्म है, वह आत्मा है" इस वाक्यद्वारा [ महः रूपसे ] ज्ञाते ब्रह्मणि न वक्तव्यमविज्ञात- | ब्रह्मको जान लेनेपर भी उसे न जानने के समान ' [ उसे जो जानता है ] वह ब्रह्मको जानता है' ऐसा कहना तो ठीक नहीं है ।
वत्स वेद ब्रह्मेति ।
न;
वे ये चारों व्याहृतियाँ चार प्रकारकी हैं । अर्थात् वे ये भूः, भुवः, सुत्रः और महः चार व्याहृतियाँ प्रत्येक चार-चार प्रकारकी हैं । 'धा' शब्द 'प्रकार' का वाचक है ।
समाधान - ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि उस [ ब्रह्मविपयक ज्ञान ] के विषयमें विशेष कहना अभीष्ट होने के कारण इस प्रकार कहने में कोई दोप नहीं है । यह ठीक है कि इतना तो जान लिया ब्रह्मेति न तु तद्विशेषो हृदयान्त- कि चतुर्थ व्याहृतिरूप ब्रह्म है; किन्तु हृदयके भीतर उपलब्ध होना तथा मनोरुपलभ्यत्वं मनोमयत्वादिश्च । मयत्वादिरूप उसकी विशेषताओंका ५-६
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली १
'शान्तिसमृद्धस्' इत्येवमन्तो | तो ज्ञान नहीं हुआ । [अगले अनुवाक
विशेषणविशेष्यरूपो धर्मपूगो न विज्ञायत इति तद्विवक्षु हि
में] 'शान्तिसमृद्धम्' इस वाक्यतक कहा हुआ विशेषण - विशेष्यरूप धर्मसमूह ज्ञात नहीं है; उसे बतलानेकी इच्छासे ही शास्त्रने ब्रह्मको न जाने हुएके समान मानकर 'चह ब्रह्मको जानता है' ऐसा कहा है। इसलिये इसमें कोई दोष नहीं है । इसका अभिप्राय यह है कि जो पुरुष आगे बतलाये जानेवाले धर्म समूहसे विशिष्ट ब्रह्मको जानता है वही ब्रह्मको जानता है । अतः आगे कहे जानेवाले अनुवाकसे इसकी एकवाक्यता है क्योंकि इन दोनों अनुवाकों की एक ही उपासना है ।
३४
शास्त्रमविज्ञातमिव ब्रह्म मत्वा स
वेद मोत्याह । अतो न दोषः ।
यो हि वक्ष्यमाणेन धर्मपूगेन
ब्रह्म
-
विशिष्टं ब्रह्म वेद स वेद
त्यभिप्रायः । अतो वक्ष्यमाणा -
नुवाकेनैकवाक्यतास्यः उभयोर्ध
नुवाकयोरेकमुपासनम् । लिङ्गाच, भूरित्यग्नौ प्रति
तिष्ठतीत्यादिकं लिङ्गमुपासनै
[ ज्ञापक ] लिङ्ग होने से भी यही बात सिद्ध होती है । [ छठें अनुवाकमें ] 'भूरित्यग्नौ प्रतितिष्ठति' इत्यादि फलश्रुति इन दोनों अनुवाकों में
कत्वे । विधायकाभावाच्च । न हि एक ही उपासना होनेका लिङ्ग है । कोई विधान करनेवाला शब्द न 'वेद' 'उपासितव्यः' इति विधा जाता है। [ छठे अनुवाकमें ] 'वेद' होने के कारण भी ऐसा ही समझा 'उपासितव्यः' ऐसा कोई [ उपासनायकः कश्चिच्छन्दोऽस्ति । व्याहृत्य - नहीं है । व्याहृति- अनुवाकमें का ] विधान करनेवाला शब्द
जो 'उन ( व्याहृतियों ) को जो नुवाके 'ता यो वेद' इति च । जानता है' ऐसा वाक्य है वह
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अनु०६]
शाङ्करभाष्यार्थ
३५
वक्ष्यमाणार्थत्वानोपासनभेदकः। आगे बतलायी जानेवाली उपासनाके
लिये होनेके कारण [पूर्वोक्त वक्ष्यमाणार्थत्वं च तद्विशेषविव- उपासनासे ] उसका भेद करने
वाला नहीं है । उसी उपासनाको
आगे बतलाना क्यों इष्ट है यह बात क्षुत्वादित्यादिनोक्तम् । सर्वे देवा
'उसकी विशेषता बतलानेकी इच्छा
होनेके कारण' आदि हेतुओंसे असा एवं विदुपेऽङ्गभूता आव- पहले कह ही चुके हैं । ऐसा
जाननेवाले उपासकको उसके अङ्गहन्त्यानयन्ति बलिं स्वाराज्य
भूत समस्त देवगण बलि (उपहार)
समर्पण करते हैं अर्थात् खाराज्यकी प्राप्तौ सत्यामित्यर्थः ॥१-३॥ प्राप्ति हो जानेपर उसके लिये उपहार
लाते हैं-यह इसका तात्पर्य है ॥१-३॥
इति शीक्षावल्ल्यां पञ्चमोऽनुवाकः ॥५॥
पष्ट अबुवाक बसके साक्षात् उपलब्धिस्थान हृदयाकाशका वर्णन भूर्भुवःसुवास्वरूपा मह इत्ये-1 भूः, भुवः और सुवः-ये अन्य
को - देवता 'महः' इस व्याहृतिरूप हिरण्य
गर्भसंज्ञक ब्रह्मके अङ्ग हैं-ऐसा गान्यन्या देवता इत्युक्तम् । यस्य |
| पहले कहा जा चुका है । जिसके ता अङ्गभूतास्तस्यैतस्य ब्रह्मणः वे अङ्गभूत हैं उस इसब्रह्मकी साक्षात् साक्षादुपलब्ध्यर्थमुपासनार्थ च | उपलब्धि और उपासनाके लिये हृदयाकाशः स्थानमुच्यते शाल
हृदयाकांश स्थान बतलाया जाता है,
जैसे कि विष्णुके लिये शालग्राम । ग्राम इव विष्णा तासान्ह उसमें उपासना किये जानेपर तब्रह्मोपास्यमानं मनोमयत्वादि- ही वह मनोमयत्वादिधर्मविशिष्ट
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली १
धर्मविशिष्टं साक्षादुपलभ्यते । ब्रह्म हथेली पर रखे हुए आँवलेके पाणाविवामलकम् । मार्गश्च समान साक्षात् उपलब्ध होता है । इसके सिवा सर्वात्मभावकी प्राप्तिके सर्वात्मभावप्रतिपत्तये वक्तव्य लिये मार्ग भी बताना है, इसलिये इस इत्यनुवाक आरभ्यते
अनुवाक्का आरम्भ किया जाता हैस य एषोऽन्तर्हृदय आकाशः । तस्मिन्नयं पुरुषो मनोमयः । अमृतो हिरण्मयः । अन्तरेण तालुके । य एष स्तन इवावलम्बते । सेन्द्रयोनिः । यत्रासौ केशान्तो विवर्तते । व्यपोह्य शीर्षकपाले । भूरित्यनौ प्रतितिष्ठति । भुव इति वायौ ॥ १ ॥
३६
.
सुवरित्यादित्ये । मह इति ब्रह्मणि । आप्नोति स्वाराज्यम् । आप्नोति मनसस्पतिम् । वाक्पतिश्रक्षुप्पतिः । श्रोत्रपतिर्विज्ञानपतिः । एतत्ततो भवति । आकाशशरीरं ब्रह्म । सत्यात्म प्राणारामं मनआनन्दम् । शान्तिसमृद्धममृतम् । इति प्राचीनयोग्योपास्व ॥ २ ॥
यह जो हृदय के मध्य में स्थित आकाश है उसमें ही यह मनोमय अमृतस्वरूप हिरण्मय पुरुष रहता है । तालुओंके बीचमें और [ उनके मध्य ] यह जो स्तनके समान [ मांसखण्ड ] लटका हुआ है [ उसमें होकर जो सुषुम्न नाडी ] जहाँ केशोंका मूलभाग विभक्त होकर रहता है उस मूर्धप्रदेश मस्तक कपालोंको विदीर्ण करके निकल गयी है वह इन्द्रयोनि [अर्थात परमात्माकी प्राप्तिका मार्ग ] है । [ इस प्रकार उपासना करनेवाला पुरु प्राणप्रयाणके समय मूर्धाका भेदन कर ] 'भू:' इस व्याहृतिरूप अि स्थित होता है [ अर्थात् 'भू:' इस व्याहृतिका चिन्तन करनेसे अग्नि रूप होकर इस लोकको व्याप्त करता है ] । इसी प्रकार 'भुत्र:' इर
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अनु०६]
शाङ्करभाष्यार्थ
३७
व्याहृतिका ध्यान करनेसे वायुमें ॥१॥ 'सुवः' इस व्याहृतिका चिन्तन करनेसे आदित्यमें तथा 'महः' की उपासना करनेसे ब्रह्ममें स्थित हो जाता है । इस प्रकार वह खाराज्य प्राप्त कर लेता है तथा मनके पति (ब्रह्म) को पा लेता है । तथा वाणीका पति, चक्षुका पति, श्रोत्रका पति और सारे विज्ञानका पति हो जाता है । यही नहीं, इससे भी बड़ा हो जाता है । वह आकाशशरीर, सत्यस्वरूप, प्राणाराम, मनआनन्द (जिसके लिये मन आनन्दस्वरूप है), शान्तिसम्पन्न और अमृतवरूप ब्रह्म हो जाता है । हे प्राचीनयोग्य शिष्य ! त इस प्रकार [ उस ब्रह्मकी ] उपासना कर ॥ २ ॥ 'स' इति व्युत्क्रम्य 'अयं सः' इस पहले पदका, पाठ
क्रमको छोड़कर आगेके 'अयं हृदयाकाशतत्स्य- पुरुपः इत्यनेन सं
पुरुषः' इस पदसे सम्बन्ध है । जो जीवयोः स्वरूपन् वध्यते । य एपो- यह अन्तर्हृदयमें-हृदयके भीतर
[ आकाश है ] । हृदय अर्थात् ऽन्तर्हदये हृदयस्यान्तहृदयमिति
श्वेत कमलके आकारवाला मांसपुण्डरीकाकारो मांसपिण्डः प्रा- | पिण्ड, जो प्राणका आश्रय, अनेकों
| नाडियोंके छिद्रवाला तथा ऊपरको णायतनोऽनेकनाडीसुपिर ऊध्र्व- नाल और नीचेको मुखवाला है,
जो कि पशुका आलभन (वध) नालोऽधोमुखो विशस्थमाने पशौ
किये जानेपर स्पष्टतया उपलब्ध
, प्रसिद्ध उपलभ्यते । तस्यान्तर्य होता है। उसके भीतर जो यह
कमण्डलुके अन्तर्वर्ती आकाशके एप आकाशः प्रसिद्ध एव कर- समान प्रसिद्ध आकाश है उसीमें
.यह पुरुष रहता है। जो शरीररूप काकाशवत् , तसिन्सोऽयं पुरुषः।
पुरमें शयन करनेके कारण अथवा पुरि शयनात्पूर्णा वा भूरादयो
उसने भूः आदि सम्पूर्ण लोकोंको
पूरित किया हुआ है इसलिये लोका येनेति पुरुषः। मनोमयो 'पुरुष' कहलाता है । वह मनोमय
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३८
तैत्तिरीयोपनिषद्
[ चली
मनो विज्ञानम् मनुतेर्ज्ञान
-ज्ञानाची 'मन्' धातुसे सिद्ध होनेके कारण 'मन' शब्दका अर्थ 'विज्ञान'
कर्मणः, तन्मयस्तत्प्रायस्तदुपल- है, तन्मय-तप्राय अर्थात् विज्ञान
स्यत्वात्। मनुतेऽनेनेति वा मनो
अन्तःकरणं तदभिमानी तन्मय
मय है क्योंकि उस (विज्ञानस्वरूप ) से ही वह उपलब्ध होता है; अथवा जिसके द्वारा जीव मनन करता है वह अन्तःकरण ही 'नन' है उसका अभिस् वा अमृतोऽमरणधर्मा नानी, तन्मय अथवा उसले उपलक्षित
हिरण्मयो ज्योतिर्मयः 1
होनेवाला अमृत - अमरणधर्मा और हिरण्य-ज्योति है ।
तस्यैचंलक्षणस्य हृदयाकाशे
हृदयाकाशमें साक्षात्कार किये
साक्षात्कृतस्य विदुष · हुएउस ऐसे लक्षणोंवाले तथा विद्वान्
1
!
के आत्मभूत इन्द्र (ईश्वर) के ऐसे रूपकी प्राप्तिके लिये मार्ग बतलाया दृशस्वरूपप्रतिपत्तये जाता है - हृदयदेशसे ऊपर की ओर मार्गोऽभिधीयते । हृदयादूर्ध्वं प्रवृ- जानेवाली सुषुम्ना नामकी नाडी योगत्ता सुषुम्ना नाम नाडी योग- शासने प्रसिद्ध है । वह 'अन्तरेण शास्त्रेषु च प्रसिद्धा । सा चान्त- तालुके अर्थात् दोनों तालुओंके रेण मध्ये प्रसिद्धे तालुके तालु बीच में होकर गयी है। और तालुओंके कयोर्गता । यथैप तालुकयोर्मध्ये ' वीचमें यह जो स्तन के समान मांसखण्ड लटका हुआ है उसके भी स्तन इवावलम्बते मांसखण्डस्तस चान्तरेणेत्येतत् । यत्र च बीचमें होकर गयी है । तथा जहाँ यह केशान्तः केशानामन्तोऽवसानं ! केशान्त-केशोंके मूलभागका नाम 'केशान्त' है वह जिस स्थानपर मूलं केशान्तो विवर्तते विभागेन विभक्त होता है अर्थात् जो मूर्धवर्तते मृर्धप्रदेश इत्यर्थः, तं देशं प्रदेश है, उस स्थानमें पहुँचकर प्राप्य तत्र विनिःसृता व्यपोहा | जो निकल गयी है, अर्थात् जो विभज्य विदार्य शीर्षकपाले | शीर्षकपालों-मस्तक के कपालोंको
I
"
हृदयाकाशस्त्र
मोवोपय्यै आत्मभृतस्येन्द्रस्ये
नार्गः
·
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अनु०६]
शाहरभाष्यार्थ
शिरकपाले विनिर्गता या सेन्द्र- पार-विभक्त यानी विदीर्ण करती हुई योनिरिन्द्रस ब्रह्मणो योनिमार्गः
बाहर निकल गयी है वही इन्द्रयोनि
इन्द्र अर्थात् नामकी योनि-मार्गयानी खरूपप्रतिपतिद्वारमित्यर्थः । ब्रामवरूपको प्राप्तिका द्वार है। तय विद्वान्मनोमयात्मदी इस प्रकार उस सुषुम्ना नाडीद्वारा
जाननेवाला अर्थात मनोमय आत्माPART मृन्ना विनष्क्रम्या का साक्षात्कार करनेवाला परुप न स्य लोकस्याधिष्ठा- गधंद्वारसे निकलकार इस लोकका
" ताभरिति व्याहति- अधिष्ठाता जो महान् ब्रमका अङ्गरूपो योऽग्निमहतोब्रह्मणोऽङ्गभूत
भूत 'भूः' ऐसा व्याहृतिरूप अग्नि
है उस अग्निमें स्थित हो जाता है; स्तसिन्ननोप्रतितिष्ठत्यग्न्यात्मनेम अर्थात् अग्निरूप होकर इस लोक: लोकं व्यामोतीत्यर्थः। तथा भवको व्याप्त कर लेता है । इसी प्रकार
चाह 'भुवः' इस द्वितीय व्याहृतिइति द्वितीयव्याहत्यात्मनि वायो। रूप वायुमें स्थित हो जाता है-इस
प्रकार 'प्रतितिष्टति' इस क्रियाकी प्रतितिष्ठतीत्यनुवर्तते । सुवरिति
(अनुवृत्ति की जाती है । तथा [ ऐसे तृतीयव्याहत्यात्मन्यादित्ये। मह ही ] 'सुवः' इस तृतीय व्याहृति
रूप आदित्यमें और 'महः' इस इत्यङ्गिनि चतुर्थव्याहत्यात्मनि
चतुर्यव्याहृतिरूप अङ्गी ब्रह्ममें स्थित ब्रह्मणि प्रवितिष्ठति । होता है।
तेप्वात्मभावेन स्थित्वामोति उनमें आत्मखरूपसे स्थित हो वह मोभूतस्य ब्रह्मभृतः स्वाराज्यं ब्रह्मभूत हुआखाराज्य-खराड्भावको विद्रुप ऐकार्यम् स्वराड्भावं स्वयमेव
प्राप्त कर लेता है अर्थात् जिस प्रकार
ब्रह्म अङ्गभूत देवताओंका अधिपति राजाधिपतिर्भवति । अङ्गभूतानां है उसी प्रकार स्वयं उनका राजादेवानां यथा ब्रह्म । देवाश्च अधिपति हो जाता है। तथा उसके
-
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४०
तैत्तिरीयोपनिपद्
[बल्ली १
सर्वेऽस्मै वलिमात्रहन्त्यङ्गश्ता अगभूत देवगण जिस प्रकार ब्रह्मको
उसी प्रकार इस अपने अङ्गीके लिये यथा ब्रह्मणे । आमोति !
उपहार लाते हैं । तथा वह मनस्पतिमनसस्पतिम् । सर्वेषां हि को प्राप्त हो जाता है । ब्रस सर्वात्मक मनसां पतिः सर्वात्मवाद- होनेके कारण सम्पूर्ण मनोंका पति
| है, वह सारे ही मनोद्वारा मनन ह्मणः । सबैर्हि मनोभिस्तन्मनुते।। करता है। इस प्रकार उपासनाद्वारा तदानोत्येवं विद्वान् । किं च वा
विद्वान् उसे प्राप्त कर लेता है । यही
नहीं, वह वाक्पति-सम्पूर्ण वाणियोंस्पतिः सर्वासांवाचांपतिर्भवति।।
का पति हो जाता है, तथा चक्षुतथैव चक्षुष्पतिश्चक्षुपां पतिः। पति-नेत्रोंका खामी, श्रोत्रपतिश्रोत्रपतिः श्रोत्राणां पतिः ।।
कानोंका स्वामी और विज्ञानपति
विज्ञानोंका खामी हो जाता है। विज्ञानपतिर्विज्ञानानां च पतिः।
तात्पर्य यह है कि सर्वात्मक होने सर्वात्मकत्वात्सर्वप्राणिनां करणे- कारण वह समस्त प्राणियोंकी स्तद्वान्भवतीत्यर्थः।
इन्द्रियोंसे इन्द्रियवान् होता है। किंच ततोऽप्यधिकतरमेतद्भ- यही नहीं, वह तो इससे भी बड़ा वति। किं तत् १ उच्यते।आकाश- हो जाता है । सो क्या? बतलाते
. . हैं-आकाशशरीर-आकाश जिसका शरीरमाकाशः शरीरमस्याकाश
" | शरीर है अथवा आकाशके समान वद्वा सूक्ष्म शरीरमस्येत्याकाश
| जिसका सूक्ष्म शरीर है वहीआकाशशरीरम् । किं तत् ? प्रकृतं ब्रह्म । शरीर है । वह है कौन ? प्रकृत सत्यात्म सत्यं मूर्तामूर्तमवितथं ब्रह्म [अर्थात् वह ब्रह्म जिसका यहाँ स्वरूपं चात्मा स्वभावोऽस्य तदिदं .
प्रकरण है ] । सत्यात्म-जिसका
मूर्तामूर्तरूप सत्य अर्थात् अमिध्या सत्यात्म । प्राणारामं प्राणेष्वा-है रात्यात्म' कहते हैं। प्राणाराम
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अनु०६]
মােস্তাঘ
राम आक्रीडा यस्य तत्प्राणा- प्राणोंमें जिसका रमण अर्थात् क्रीडा रामम् । प्राणानां वारामो यस्मि- है अथवा जिसमें प्राणों का आरमण
है उसे प्राणाराम कहते हैं । मनस्तत्प्राणारामम् । मनआनन्दम् ; आनन्दन्-जिसका मन आनन्दभूत आनन्दभूतं सुखदेव यस अर्थात् सुखकारी ही है वह मनमनस्तन्मनआनन्दम् । शान्ति-:
आनन्द कहलाता है । शान्तिसमृद्धम्
" ! --शान्ति उपशमको कहते हैं, जो समृद्धं शान्तिरुपशमः, शान्तिश्च शान्ति भी है और समृद्ध भी वह तत्समृद्धं च शान्तिसमृद्धम् । शान्तिसमृद्ध है अथवा शान्तिके शान्त्या या समृद्धं नदुपलभ्यत
द्वारा उस समृद्ध ब्रह्मकी उपलब्धि
| होती है, इसलिये उसे शान्तिसमृद्ध इति शान्तिसमृट्टम् । अमृतम- कहते हैं । अमृत-अमरणधर्मी । ये मरणधर्मि । एतचाधिकरण- अधिकरणमें आये हुए विशेषण उस विशेपणं तत्रैव मनोमय इत्यादी मनोमय आदिमें ही जानने चाहिये।
इस प्रकार मनोमयत्य आदि धर्मोसे द्रष्टव्यमिति । एवं मनोमयत्वा-विशिष्ट उपर्युक्त ब्रह्मकी, हे प्राचीनदिधर्मविशिष्टं यथोक्तं ब्रह्म हे योग्य ! तू उपासना कर-यह प्राचीनयोग्य, उपास्स्वेत्याचार्य
आचार्यकी उक्ति [ उपासनाके ]
आदरके. लिये है। 'उपासना' वचनोक्तिरादरार्था । उक्तस्तू- शब्दका अर्थ तो पहले बतलाया ही पासनाशब्दार्थः ॥ १-२॥ जा चुका है ॥ १-२ ॥
इति शीक्षावल्ल्यां पष्टोऽनुवाकः ॥ ६ ॥
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स्वयम चतुवाक
पाकरूपसे ब्रसकी उपासना यदेतद्व्याहत्यात्मकं ब्रह्मो-। यह जो व्यातिय उपाय
ब्रह्म बतलाया गया है अब पृथिवी पास्यमुक्तं तस्यैवेदानीं पृथिव्या
" आदि पाक्तरूपसे उत्तीकी उपासनादिपाङ्क्तस्त्ररूपेणोपासनमुच्यते। का वर्णन किया जाता है-[ पृथिवी पञ्चसंख्यायोगात्पङ्क्तिच्छन्द:
आदि पाँच-पाँच संख्यावाले पदार्थ हैं
नया पङ्क्ति छन्द भी पाँच पदोंवाला संपत्तिः । ततः पाङ्क्तत्वं है,अतः] 'पाँच' संख्याका योग होनेसे सर्वस्य । पाक्तश्च यज्ञः ।
[उन पृथिवी आदिसे ] पङ्क्तिछन्द
सम्पन्न होता है। इसीसे उन सबका "पञ्चपदा पङ्क्तिः पाक्तो पाक्तत्व है। यज्ञ भी पाङ्क्त है,जैसा यज्ञः" इति श्रुतेः । तेन यत्सर्व कि “पङ्क्तिछन्द पाँच पदोबाला है,
यज्ञ पाक्त है" इस श्रुतिले ज्ञात लोकाद्यात्मान्तं च पाक्तं परि
होता है । अतः जो लोकसे लेकर कल्पयति यज्ञमेव तत्परिकल्प- आत्मापर्यन्त सबको पाङ्क्तरूपसे
कल्पना करता है वह यज्ञकी ही यति । तेन यज्ञेन परिकल्पितेन
कल्पना करता है। उस कल्पना पाङ्क्तात्मकं प्रजापतिमभि- | किये हुए यज्ञसे वह पाक्तस्वरूप
प्रजापतिको प्राप्त हो जाता है। संपद्यते । तत्कथं पाङ्क्तमिदं
अच्छा तो यह सब किस प्रकार सर्वमित्यत आह- पाक्त है ? सो अब बतलाते हैं
पृथिव्यन्तरिक्षं द्यौर्दिशोऽवान्तरदिशः। अग्निर्वायुरादित्यश्चन्द्रमा नक्षत्राणि । आप ओषधयो वनस्पतय
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४३
अनु० ७ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
आकाश आत्मा । इत्यधिभूतम् । अथाध्यात्मम् । प्राणो व्यानोऽपान उदानः समानः । चक्षुः श्रोत्रं मनो वाक् त्वक् । चर्म माँस स्त्रावास्थि मज्जा । एतदधिविधाय ऋषिरवोचत् । पाङङ्क्तं वा इद सर्वम् | पाङतेनैव । पाङ्क्त स्पृणोतीति ॥ १ ॥
पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्युलोक, दिशाएँ और अवान्तर दिशाएँ [- यह लोकपाङ्क्त ]; अग्नि, वायु, आदित्य, चन्द्रमा और नक्षत्र [ - यह देवतापाङ्क्त ] तथा आप, ओषधि, वनस्पति, आकाश और आत्मा - ये अधिभूतपाङ्क्त हैं । अत्र अध्यात्मपाङ्क्त वतलाते हैं--प्राण, व्यान, अपान, उदान और समान [ - यह वायुपाक्त ]; चक्षु, श्रोत्र, मन, वाक् और त्वचा [ यह इन्द्रियपाङ्क्त ] तथा चर्म, मांस, स्नायु, अस्थि और मज्जा [-यह धातुपात — ये सब मिलाकर अध्यात्मपाङ्क्त हैं ] | इस प्रकारं पाङ्क्तोपासनाका विधानकर ऋषिने कहा - 'यह सब पाङ्क्त ही है; इस [ आध्यात्मिक ] पाक्तसे ही उपासक [ बाह्य ] पाङ्क्तको पूर्ण
}
करता है ॥ १ ॥
पृथिव्यन्तरिक्षं द्यौर्दिशोऽवा
पृथिवी, अन्तरिक्ष, लोक,
त्रिविध
न्तरदिश इति लो - | दिशाएँ और अवान्तर दिशाएँ- ये भूतपाङ्कम् कपाङ्क्तम् । अग्नि- लोकपाङ्क्त हैं, अग्नि, वायु, आदित्य, चन्द्रमा और नक्षत्र - देवतापाङ्क्त र्वायुरादित्यचन्द्रमा नक्षत्राणीति हैं; जल, ओषधि, वनस्पति, आकाश देवतापाङ्क्तम् । आप ओषधयो और आत्मा-ये भूतपाङ्क्त हैं । यहाँ वनस्पतय आकाश आत्मेति | 'आत्मा' विराट्को कहा है, क्योंकि भूतपाङ्क्तम् । आत्मेति विराड् | यह भूतोंका अधिकरण है। 'इत्यधिभूताधिकारात् । इत्यधिभूतमि | भूतम्' यह वाक्य अधिलोक और
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४४
तैत्तिरीयोपनिपद्
[चल्लो ?
त्यधिलोकाधिदेवतपाक्तद्वयोप- अधिदेवत-इन दो पातोंका भी लक्षणार्थम् । लोकदेवतापाङक्त- उपलक्षण करानेके लिये है, क्योंकि
इनमें लोक और देवतासम्बन्धी दो योश्चाभिहितत्वात् । पातोंका भी वर्णन किया गया है ।
अथानन्तरमध्यात्मं पाक्त- अत्र आगे तीन अध्यात्मपातोंविविधाध्यान- त्रयमुच्यते-प्राणा- का वर्णन किया जाता है-प्राणादि पाटन् दि वायुपाङक्तम। वायुपात, व आदि इन्द्रियपाङ्गत
और चर्मादि धातुपाक्त-बस ये चक्षुरादीन्द्रियपाङ्क्तम्चमादि इतने ही अध्यात्म और बाहा पाक्त धातुपातम् । एतावद्धीदं हैं। इनका इस प्रकार विधान अर्थात् सर्वमध्यात्मम्, बाह्यं च कल्पना करके ऋषि-वेद अथवा पाङ्क्तमेवेत्येतदेवमधिविधाय इस दृष्टिसे सम्पन्न किती ऋपिने परिकल्प्यपिर्वेद एतदर्शनसंपन्नो कहा । क्या कहा ? तो बतलाते वा कश्चिदपिरवोचदुक्तवान् ।
. . हैं-निश्चय ही यह सब पात ही .
है । आध्यात्मिक पातसे ही, किमित्याह-पाङ्क्तं वा इदं सर्व संख्याने समानता होनेके कारण पातेनैवाध्यात्मिकेन संख्या- · उपासक बाहपातको बल्यान्सामान्यात्पातं बाह्यं स्पृणोति पूरित करता है अर्थात् उसके साथ बलयति परतिको एकल्पसे उपलब्ध करता है । इस पलभ्यत इत्येतत् । एवं पातजो पुरुष जानता है वह प्रजापति
प्रकार 'यह सब पाङ्क्त है ऐसा मिदं सर्वमिति यो चेद स प्रजा- ' स्वरूप ही हो जाता है-ऐसा इसका पत्यात्मैव भवतीत्यर्थः ॥ १॥ तात्पर्य है ॥ १ ॥
इति शीक्षावल्ल्यां सप्तमोऽनुवाकः ॥ ७ ॥
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अष्टम अनवाक
ओझारोपासनाका विधान व्याहत्यात्मनो ब्रह्मण उपा-' व्याहृतिरूप ब्रह्मकी उपासनाका सनमुक्तम् । अनन्तरं च पाङ्क्त
. निरूपण किया गया। उसके पश्चात्
, उसीकी उपासनाका पाङ्क्तरूपसे स्वरूपेण तस्यैवोपासनमुक्तम् । वर्णन किया । अब सम्पूर्ण इदानीं सर्वोपासनाङ्गभूतस्योङ्का
उपासनाओंके अङ्गभूत ओंकारकी
उपासनाका विधान करना चाहते रस्योपासनं विधित्स्यते । परापर- हैं । पर एवं अपर ब्रह्मदृष्टि से ब्रह्मदृष्टया उपास्यमान ओङ्कारः उपासना किये जानेपर ओंकार
केवल शब्दमात्र होनेपर भी पर शब्दमात्रोऽपि परापरब्रह्मप्राप्ति- और अपर ब्रह्मकी प्राप्तिका साधन साधनं भवति । स ह्यालम्बनं होता है । वही पर और अपर ब्रह्मका
आलम्बन है, जिस प्रकार कि ब्रह्मणः परस्यापरस्य च, प्रति- 'विष्णुका आलम्बन प्रतिमा है। मेव विष्णोः । "एतेनैवायतने-1 "इसी आलम्बनसे उपासक [ पर
या अपर ] किसी एक ब्रह्मको प्राप्त नकतरमन्वात" (प्र० उ०५॥ हो जाता है" इस श्रुतिसे यही २) इति श्रुतेः।
| बात प्रमाणित होती है। ओमिति ब्रह्म । ओमितीद सर्वम् । ओमित्येतदनुकृति स्म वा अप्यो श्रावयेत्याश्रावयन्ति । ओमिति सामानि गायन्ति । ओशोमिति शस्त्राणि शसन्ति ।
ओमित्यध्वर्युः प्रतिगरं प्रतिगृणाति । ओमिति ब्रह्मा प्रसौति । ओमित्यग्निहोत्रमनुजानाति । ओमिति ब्राह्मणः प्रवक्ष्यन्नाह ब्रह्मोपाप्नवानीति । ब्रह्मैवोपाप्नोति ॥१॥
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली १
'ॐ' यह शब्द ब्रह्म है, क्योंकि 'ॐ' यह सर्वरूप है; 'ॐ' यह अनुकृति ( अनुकरण —— सम्मतिसूचक संकेत ) है - ऐसा प्रसिद्ध है । [ याज्ञिकलोग ] "ओ श्रावय" ऐसा कहकर श्रवण कराते हैं। 'ॐ' ऐसा कहकर सामगान करते हैं । 'ॐ शोम्' ऐसा कहकर शस्त्रों (गीतिरहित ऋचाओं) का पाठ करते हैं । अध्वर्यु प्रतिगर ( प्रत्येक कर्म ) के प्रति ॐ ऐसा उच्चारण करता है। 'ॐ' ऐसा कहकर ब्रह्मा अनुज्ञा देता है; 'ॐ' ऐसा कहकर वह अग्निहोत्रके लिये आज्ञा देता है । ' वेदाध्ययन करनेवाला ब्राह्मण 'ॐ' ऐसा उच्चारण करता हुआ कहता है - 'मैं ब्रह्म ( वेद अथवा परब्रह्म ) को प्राप्त करूँ' । इससे वह ब्रह्मको ही प्राप्त कर लेता है ॥ १ ॥
ओमिति । इतिशब्दः स्वरूपओङ्कारस्य परिच्छेदार्थः, ओसार्वात्म्यम् मित्येतच्छब्दरूपं ब्रह्मेति मनसा धारयेदुपासीत । यत ओमिवीदं सर्वं हि शब्दरूप - " मोङ्कारेण व्याप्तम् । “ तद्यथा शकुना" ( छा० उ०२ | २३ | ३ ) इति श्रुत्यन्तरात् । अभिधानतन्त्रं ह्यभिधेयमित्यत इदं
४६
सर्वमोङ्कार इत्युच्यते । ओङ्कारस्तुत्यर्थमुत्तरो ग्रन्थः ।
'ओमिति' इसमें 'इति' शब्द ओंकारके स्वरूपका परिच्छेद ( निर्देश) करने के लिये है । अर्थात् I 'ॐ' यह शब्दरूप ब्रह्म है - ऐसा | इसका मनसे ध्यान - उपासना करे; क्योंकि 'ॐ' यही सब कुछ है, कारण, समस्त ओंकारसे व्याप्त है, जैसा कि 'जिस प्रकार शंकुसे पत्ते व्याप्त रहते हैं' इत्यादि एक दूसरी श्रुतिसे सिद्ध ही अधीन होता है, इसलिये यह होता है । सम्पूर्ण वाच्य वाचकके सब ओंकार ही कहा जाता है ।
शब्दरूप प्रपञ्च
उपास्यत्वात्तस्य 1
आगेका ग्रन्थ ओंकारकी स्तुतिके लिये है, क्योंकि वह उपासनीय है | 'ॐ' यह अनुकृति यानी अनुकरण है । इसीसे किसीके
ओङ्कारमहिमा
ओमित्येतदनुकृति - रनुकरणम् । करोमि यास्यामि द्वारा 'मैं करता हूँ, मैं जाता हूँ'
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शाङ्करभाष्यार्थ
अनु० ८ ]
चेति
न्यः । अत ओङ्कारोऽनुकृतिः ।
ह स्म वा इति प्रसिद्धार्थाव
taar: । प्रसिद्धमोङ्कारस्यानु
कृतित्वम् ।
४७
कृतमुक्तमोमित्यनुकरोत्य- | इस प्रकार किये हुए कथनको
सुनकर दूसरा पुरुष [ उसको स्वीकृत करते हुए ] 'ॐ' ऐसा अनुकरण करता है । इसलिये ओंकार अनुकृति है । 'ह' 'स्म' और '' — ये निपात प्रसिद्धिके सूचक हैं, क्योंकि ओंकारका अनुकृतित्व तो प्रसिद्ध ही है ।
अपि च 'ओ श्रावय' इति
पपूर्वकमाश्रावयन्ति । तथोमिति
सामानि गायन्ति सामगाः ।
इसके सिवा 'ओ श्रावय' इस प्रकार प्रेरणापूर्वक याज्ञिकलोग प्रतिश्रवण कराते हैं । तथा 'ॐ' ऐसा कहकर सामगान करनेवाले सामका गान करते हैं । शस्त्र शंसन करनेवाले भी 'ॐ शोम्' ऐसा कहकर शस्त्रोंका पाठ करते हैं । तथा अध्वर्युलोग प्रतिगरके प्रति 'ॐ' ऐसा उच्चारण करते हैं । 'ॐ' ऐसा कहकर ब्रह्मा अनुज्ञा देता है अर्थात् प्रेरणापूर्वक 'ब्रह्मा प्रसौत्यनुजानाति त्रैपपूर्व - | आश्रवण करता है; और 'ॐ'
ॐ शोमिति शस्त्राणि शंसन्ति शस्त्र
शंसितारोऽपि । तथोमित्यध्वर्युः
प्रतिगरं प्रतिगृणाति । ओमिति
कहकर वह अग्निहोत्रके लिये आज्ञा कमाश्रावयति । ओमित्यग्नि- देता है । अर्थात् यजमानके य
कहने पर कि 'मैं- हवन करता हूँ' वह 'ॐ' ऐसा कहकर उसे अनुज्ञा देता है ।
होत्रमनुजानाति । जुहोमीत्युक्त
ओमित्येवानुज्ञां प्रयच्छति ।
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४८
तैत्तिरीयोपनिपद्
[ वल्ली १
ओमित्येव ब्राह्मणः प्रवक्ष्यन्
प्रवचन अर्थात् अध्ययन करनेवाला
प्रवचनं
करिष्यन्नध्येष्यमाण
ओमित्येवाह । ओमित्येव प्रतिपद्यतेऽध्येतुमित्यर्थः । ब्रह्म वेद
1
मुपामवानीति प्राप्नुयां ग्रहीयामीत्युपाप्नोत्येव ब्रह्म
ब्राह्मण 'ॐ' ऐसा उच्चारण करता है; अर्थात् 'ॐ' ऐसा कहकर हीं वह अध्ययन करनेके लिये प्रवृत्त होता है । 'मैं ब्रह्म यानी वेदको प्राप्त करूँ अर्थात् उसे ग्रहण करूँ' ऐसा कहकर वह ब्रह्मको प्राप्त कर ही लेता है । अथवा [ यों समझो कि ] 'मैं ब्रह्मपरमात्माको प्राप्त करूँ' इस प्रकार अथवा ब्रह्म परमात्मा तमु आत्माको प्राप्त करनेकी इच्छासे वह पामवानीत्यात्मानं प्रवक्ष्यन्प्राप-'ॐ' ऐसा ही कहता है और
|
यिष्यन्नोमित्येवाह । स च तेनोङ्कारेण ब्रह्म प्राप्नोत्येव । ओङ्कारपूर्व प्रवृत्तानां क्रियाणां फलवत्त्वं
उस ॐकारके द्वारा वह ब्रह्मको प्राप्त कर ही लेता है । इस प्रकार क्योंकि ॐकारपूर्वक प्रवृत्त होनेवाली - क्रियाएँ फलवती होती हैं इसलिये 'ॐ कार ब्रह्म है' इस तरह उसकी उपासना करे - यह इस वाक्यका अर्थ है ॥ १ ॥
यस्मात्तस्मादोङ्कारं ब्रह्मेत्युपासी
तेति वाक्यार्थः ॥ १ ॥
+०+
इति शीक्षावल्ल्या मटमोऽनुवाकः ॥ ८ ॥
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नवम अनुवाक अत्तादि शुभकर्मोकी अवश्यकर्तव्यताका विधान विज्ञानादवामोति स्वाराज्य- विज्ञानसे ही खाराज्य प्राप्त कर
लेता है-ऐसा [छठे अनुवाकमें] कहे मित्युक्तत्वाच्ट्रोतसार्तानां कर्म- जानेके कारण श्रौत और स्मार्त्त कर्मो
की व्यर्थता प्राप्त होती है। वह णामानर्थक्यं प्राप्तमित्यतस्तन्मा
प्राप्त न हो, इसलिये पुरुषार्थ के प्रति प्रापदिति कर्मणां पुरुषार्थ प्रति
कोका साधनस्त्र प्रदर्शित करनेके
लिये यहाँ उनका उल्लेख किया साधनत्वप्रदर्शनार्थमिहोपन्यासः- जाता है
ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च । सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च । तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च । दमश्च स्वाध्यायप्रवचने च। शमश्च स्वाध्यायप्रवचने च । अग्नयश्च स्वाध्यायप्रवचनेच। अमिहोत्रं च स्वाध्यायप्रवचने च । अतिथयश्च स्वाध्यायप्रवचने च । मानुषं च स्वाध्यायप्रवचने च । प्रजा चस्वाध्यायप्रवचने च । प्रजनश्च स्वाध्यायप्रवचने च। प्रजातिश्च स्वाध्यायप्रवचने च । सत्यमिति सत्यवचा राथीतरः। तपइतितपोनित्यः पौरुशिष्टिः स्वाध्यायप्रवचने एवेति नाको मौद्गल्यः । तद्धि तपस्तद्धि तपः॥१॥
ऋत (शास्त्रादिद्वारा बुद्धिमें निश्चय किया हुआ अर्थ ) तथा खाध्याय (शास्त्राध्ययन ) और प्रवचन (अध्यापन अथवा वेदपाठरूप ब्रह्मयज्ञ) [ये अनुष्ठान किये जाने योग्य हैं ] 1 सत्य ( सत्यभापण) तथा खाध्याय और प्रवचन [ अनुष्ठान किये जाने चाहिये ] | दम
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली १
( इन्द्रियदमन ) तथा स्वाध्याय और प्रवचन [ इन्हें सदा करता रहे ] 1 शम ( मनोनिग्रह ) तथा स्वाध्याय और प्रवचन [ये सर्वदा कर्तव्य हैं ] | अग्नि ( अग्न्याधान ) तथा स्वाध्याय और प्रवचन [ इनका अनुष्टान करे ] | अग्निहोत्र तथा स्वाध्याय और प्रवचन [ ये नित्य कर्तव्य हैं ] | अतिथि ( अतिथिसत्कार ) तथा खाध्याय और प्रवचन [ इनका नियम- 1 से अनुष्टान करे ] | मानुपकर्म ( विवाहादि लौकिकव्यवहार ) तथा स्वाध्याय और प्रवचन [ इन्हें करता रहे ] | प्रजा ( प्रजा उत्पन्न करना ) तथा स्वाध्याय और प्रवचन [-ये सदा ही कर्तव्य हैं ] । प्रजन (ऋतुकालमें भार्यागमन) तथा [ इसके साथ ] स्वाध्याय और प्रवचन [ करता रहे ] | प्रजाति ( पौत्रोत्पत्ति ) तथा स्वाध्याय और प्रवचन [ इनका नियतरूपसे अनुष्ठान करे ] । सत्य ही [ अनुष्ठान करने योग्य है ] ऐसा रथीतरका पुत्र सत्यवचा मानता है । तप ही [ नित्य अनुष्ठान करने योग्य है ] ऐसा नित्य तपोनिष्ट पौरुशिष्टिका मत है । खाध्याय और प्रवचन ही [ कर्त्तव्य हैं ] ऐसा मुद्गलके पुत्र नाकका मत है | अतः वे ( स्वाध्याय और प्रवचन ) ही तप हैं, वे ही तप हैं ॥ १ ॥
ऋतमिति व्याख्यातम् । स्खाध्यायोऽध्ययनम् । प्रबचनमध्यापनं ब्रह्मयज्ञो वा । एतान्यतादीन्यनुष्ठेयानीति वाक्यशेषः । सत्यं च सत्यवचनं यथाव्याख्यातार्थं वा । तपः कृच्छ्रादि । दमो बाह्यकरणोपशमः । शमोऽन्तःकरणोपशमः । अग्नय आधा
'ऋत' - इसकी व्याख्या पहले [ ऋतं वदिष्यामि इस वाक्यमें ] की जा चुकी है। 'स्वाध्याय' अध्ययनको कहते हैं, तथा 'प्रवचन' अध्यापन या ब्रह्मयज्ञका नाम है । ये ऋत आदि अनुष्ठान किये जाने योग्य - हैं - यह वाक्यशेष है । सत्य -सत्यवचन अथवा जैसा पहले [ सत्यं वदिष्यामि -- इस वाक्यमें ] व्याख्या की गयी है, वह; तप- कृच्छ्रादिः दमवाह्य इन्द्रियोंका निग्रह; शम-चित्तकी शान्तिः [ ये सब करने योग्य
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अनु०९]
शाङ्करभाष्यार्थ
तव्याः । अग्निहोत्रंच होतव्यम्।। हैं ] । अग्नियोंका आधान करना अतिथयश्च पूज्याः । मानुपमिति चाहिये। अग्निहोत्र होम करने योग्य
है। अतिथियोंका पूजन करना लाकिका सव्यवहार चचाहिये । मानुष यानी लौकिक यथाप्राप्तमनुष्टेयम् । प्रजा चोत्पा- व्यवहार; उसका भी यथाप्राप्त द्या । प्रजनश्च प्रजननमृतौ | अनुष्ठान करना चाहिये । प्रजा भार्यागमनमित्यर्थः । प्रजाति उत्पन्न करनी चाहिये । प्रजन
प्रजनन--ऋतुकालमें भार्यागमन और पोत्रोत्पत्तिः पुत्रो निवेशयितव्य प्रजाति-पौत्रोत्पत्ति अर्थात् पुत्रको इत्येतत् ।
स्त्रीपरिग्रह कराना चाहिये। सबरतैः कर्मभिर्युक्तस्यापि इन सब कर्मोंसे युक्त पुरुषको, खाध्यायप्रवचन- स्वाध्यायप्रवचने भी स्वाध्याय और प्रवचनका यत्नसहयोगकारणन् यत्नतोऽनयेडव- पूर्वक अनुष्ठान करना चाहिये-इसी
लिये इन सबके साथ खाध्याय और मर्थं सर्वेण सह स्वाध्यायप्रवचन- प्रवचनको ग्रहण किया गया है । ग्रहणम् । स्वाध्यायाधीनं ह्यर्थ- | खाध्यायके अधीन ही अर्थज्ञान है aan
और अर्थज्ञानके अधीन ही परमश्रेय
है, तथा प्रवचन उसकी अविस्मृति श्रेयः प्रवचनं च तदविस्मरणार्थ और धर्मकी वृद्धिके लिये है; इसलिये धर्मप्रवृद्धयर्थं च । अतः स्वाध्या- खाध्याय और प्रवचनमें आदर यप्रवचनयोरादरः कार्यः। (श्रद्धा ) रखना चाहिये ।
सत्यमिति सत्यमेवानुष्ठातव्य- सत्य अर्थात् सत्य ही अनुष्ठान सत्यादिप्राधान्ये मिति सत्यमेव किये जाने योग्य है--ऐसा सत्यवचा मुनीनां मतमेदाः वचो यस्य सोऽयं,
-सत्य ही जिसका वचन हो वह
। अथवा जिसका नाम ही सत्यवचा है सत्यवचा नाम वा तस्य । राथी- वह राथीतर अर्थात् रथीतरके वंशमें तरो रथीतरस्य गोत्रो राथीतरा- उत्पन्न हुआ राथीतर आचार्य मानता चार्यों मन्यते। तप इति तप एव है । तप यानी तप ही कर्तव्य है
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तैत्तिरीयोपनिपद्
. [ वल्ली १
कर्तव्यमिति तपोनित्यस्तपसि ऐसा तपोनित्य-नित्य तपोनिष्ठ नित्यस्तपःपरस्तपोनित्य इति वा अथवा तपोनित्य नामवाला पौरुशिष्टि नाम पौरुशिष्टिः पुरुशिष्टस्या
-पुरुशिष्टका पुत्र पौरुशिष्टि आचार्य
मानता है । खाध्याय और प्रवचन पत्यं पौरुशिष्टिराचार्यो मन्यते ।
' ही अनुष्ठान किये जाने योग्य हैंस्वाध्यायप्रवचने एवानुछेये इति ऐसा नाक नामबाला मुद्गलका नाको नामतो मुगलस्यापत्यं पुत्र मौद्गल्य आचार्य मानता है । मौद्गल्य आचार्यों मन्यते । तद्धि वही तप है, वही तप है । तपस्तद्धि तपः । हि यस्मात्स्वा
इसका तात्पर्य यह है क्योंकि ध्यायप्रवचने एव तपस्तसात्ते
स्वाध्याय और प्रवचन ही तप हैं,
इसलिये वे ही अनुष्ठान किये जाने एवानुष्ठये इति । उक्तानामपि योग्य हैं। पहले कहे हुए भी सत्य, सत्यतपःखाध्यायप्रवचनानां पु- तप, स्वाध्याय और प्रवचनोंका , नम्रहणमादरार्थम् ॥१॥ पुनर्ग्रहण उनके आदरके लिये है॥१॥
इति शीक्षावल्ल्यां नवमोऽनुवाकः ॥९॥
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दशम अनुकाक
विशझुका वेदानुवचन अहं वृक्षस्य रेरिवेति साध्या- 'अहं वृक्षस्य रेरिवा' आदि
मन्त्राम्नाय खाध्याय (जप) के यार्थो मन्त्रानायः । स्वाध्यायश्च लिये है। तथा स्वाध्याय विद्या विद्योत्पत्तये । प्रकरणात । (ज्ञान ) की उत्पत्ति के लिये बतलाया
गया है। यह प्रकरणसे ज्ञात होता विद्यार्थ हीदं प्रकरणम् । न है, क्योंकि यह प्रकरण विद्याके
लिये ही है; इसके सिवा उसका चान्यार्थत्वमवगम्यते । स्वाध्या- कोई और प्रयोजन नहीं जान पड़ता, येन च विशुद्धसत्वस्य विद्योत्प
क्योंकि खाध्यायके द्वारा जिसका
चित्त शुद्ध हो गया है उसीको त्तिरवकल्प्यते । | विद्याकी उत्पत्ति होना सम्भव है।
अहं वृक्षस्य रेरिवा । कीर्तिः पृष्ठं गिरेरिव । ऊर्ध्वपवित्रो वाजिनीव स्वमृतमस्मि । द्रविणसवर्चसम् । सुमेधा अमृतोक्षितः । इति त्रिशङ्कोर्वेदानुवचनम् ॥१॥ __ मैं [ अन्तर्यामीरूपसे उच्छेदरूप संसार-] वृक्षका प्रेरक हूँ। मेरी कोर्ति पर्वतशिखरके समान उच्च है। ऊर्ध्वपवित्र (परमात्मारूप कारणवाला) हूँ । अन्नवान् सूर्यमें जिस प्रकार अमृत है उसी प्रकार मैं भी शुद्ध अमृतमय हूँ। मैं प्रकाशमान [ आत्मतत्त्वरूप ] धन, सुमेधा (सुन्दर मेघावाला ) और अमरणधर्मा तथा अक्षित ( अव्यय ) हूँ, अथवा अमृतसे सिक्त ( भीगा हुआ ) हूँ-यह त्रिशङ्कु ऋपिका वेदानुवचन है ॥१॥
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५४
तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली १
पवित्रं परम ऊर्च यानविन हूँ ।
अर्थात
अहं वृक्षस्योच्छेदात्मकस्य मैं अन्तर्यामीरूपसे वृक्ष अर्थात् संसारवृक्षस्य रेरिचा प्रेरयिता- उच्छेदात्मक संसाररूप वृक्षका प्रेरक अन्तर्याम्यात्मना । कीतिः ख्या- हूँ। मेरी कीर्ति-प्रसिद्धि पर्वतके तिगिरेः पृष्ठमियोच्छ्रिता मम ।
पृष्ठभागके समान ऊँची है । मैं ऊर्च
पवित्र हूँ-पवित्र-पावन अर्थात् ऊर्धपवित्र ऊचं कारणं पवित्रं
ज्ञानसे प्रकाशित होने योग्य पवित्र पावनं ज्ञानप्रकाश्यं पवित्रं परमं परब्रह्म जिस मुझ सर्वात्माका ब्रह्म यस्य सर्वात्मनो मम सो
ऊर्ध्व यानी कारण है वह
- मैं ऊर्ध्वपवित्र हूँ । 'वाजिनि ऽहमूर्ध्वपवित्रः वाजिनीव वाज- इय-बाजवानके समान चाज अर्थात् वतीव । वाजमन्नं तद्वति सवित- अन्न उससे युक्त सूर्यके समान, रीत्यर्थः । यथा सवितर्यमृतमा- जिस प्रकार सैकड़ों श्रुतिस्मृतियोंत्मतत्त्वं विशुद्धं प्रसिद्धं श्रुति
के अनुसार सूर्यमें विशुद्ध
अमृत यानी आत्मतत्त्व प्रसिद्ध है स्मृतिशतेभ्य एवं स्वमृतं शोभनं
न उसी प्रकार मैं भी सु अमृत अर्थात् विशुद्धमात्मतत्त्वमसि भवामि । शोभन-विशुद्ध आत्मतत्व हूँ। द्रविणं धनं सवर्चसं दीप्ति- वही मैं आत्मतत्त्व सवर्चस
दीप्तिशाली द्रविण यानी धन हूँ इस मत्तदेवात्मतत्त्वमसीत्यनुवर्तते ।
प्रकार यहाँ 'अस्मि (हूँ) क्रियाब्रह्मज्ञानं वात्मतत्त्वप्रकाश
की अनुवृत्ति की जाती है । अथया
आत्मतत्त्वका प्रकाशक होनेसे तेजखी कत्वात्सवर्चसम् । द्रविणमिव | ब्रह्मज्ञान
ब्रह्मज्ञान, जो मोक्षसुखका हेतु होने
के कारण धनके समान धन है, द्रविणं मोक्षसुखहेतुत्वात | [ मुझे प्राप्त हो गया है। इस
पक्षमें [ 'अस्मि' क्रियाकी अनुवृत्ति असिन्पक्षे प्राप्तं मयेत्यध्याहारः न करके ] 'मया प्राप्तम्' ( वह कर्तव्यः ।
मुझे प्राप्त हो गया है) इसका अध्याहार करना चाहिये ।
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अनु०१०]
शाङ्करभाष्यार्थ
५५
- सुमेधाः शोभना मेधा सर्व- सुमेधा-जिस मेरी मेधा शोभन
अर्थात् सर्वज्ञत्वलक्षणवाली है वह ज्ञलक्षणा यस्य मम सोऽहं ।
मैं सुमेधा हूँ । संसारकी स्थिति, सुमेधाः । संसारस्थित्युत्पत्त्युप- उत्पत्ति और संहार-इसका कौशल संहारकौशलयोगात्सुमेधस्त्वम् । होने के कारण मेरा सुमेधस्त्व है।
। इसीसे मैं अमृत-अमरणधर्मा और अत एवामृतोऽमरणधर्माक्षितो- अक्षित-अक्षीण यानी अव्यय अथवा ऽक्षीणोऽव्ययः, अक्षतोबा अमृतेन, अक्षय हूँ । अथवा, [तृतीयातत्पुरुप
समास माननेपर ] अमृतेन उक्षितः बोक्षितः सिक्तः। "अमृतोक्षितो
अमृतसे सिक्त हूँ। "मैं अमृतसे ऽहम्" इत्यादि ब्राह्मणम् । उक्षित हूँ" ऐसा ब्राह्मणवाक्य भी है।
इत्येवं त्रिशकोपर्ब्रह्मभृतस्य इस प्रकार यह ब्रह्मभूत ब्रह्मवेत्ता } ब्रह्मविदो वेदानुवचनम् । वेदोरेट वेदन अर्थात् आत्मैकत्वविज्ञान
| त्रिशंकु ऋपिका वेदानुवचन है। वेदनमात्मैकत्वविज्ञानं तस्य को कहते हैं उसकी प्राप्तिके अनु
पीछेका वचन 'वेदानुवचन' प्राप्तिमनु वचनं चेदानुवचनम् कहलाता है । तात्पर्य यह है कि आत्मनः कृतकृत्यताख्यापनार्थ अपनी कृतकृत्यता प्रकट करनेके वामदेववत्रिशङ्खनाण दर्शनेन | लिये वामदेवके समान * त्रिशङ्क
ऋद्विारा आर्पदृष्टिसे देखा हुआ दृष्टो मन्त्रानाय आत्मविद्या
यह मन्त्राम्नाय आत्मविद्याका प्रकाश प्रकाशक इत्यर्थः। करनेवाला है।
अस्य च जपो विद्योत्पत्त्य- इसका जप विद्याकी उत्पत्तिके. र्थोऽवगम्यते । ऋतं चेत्यादि- लिये माना जाता है। इस 'ऋतं
* देखिये ऐतरेयोपनिपट २ । १ । ५
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५६
तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली १
कर्मोपन्यासादनन्तरं च वेदानु-च' इत्यादि अनुवाकमें धर्मका वचनपाठादेतदवगम्यत एवं
उपन्यास ( उल्लेख) करनेके
अनन्तर वेदानुवचनका पाठ करनेसे श्रौतस्मातेषु नित्येषु कर्मसु । यह जाना जाता है कि इस प्रकार युक्तस्य निष्कामस्य परं ब्रह्म श्रौत और स्मार्त नित्यकोंमें लगे
'हुए परब्रह्मके निप्काम जिज्ञासुके प्रति नावादपाराषाणि दशनानिमा आत्मा आदिसे सम्बन्धित आर्पदर्शनोंदुर्भवन्त्यात्मादिविषयाणीति ।। का प्रादुर्भाव हुआ करता है ॥ १॥
इति शीक्षावल्ल्यां दशमोऽनुवाकः ॥१०॥
एकादश अनुवाक वेदाध्ययनके अनन्तर शिष्यको आचार्यका उपदेश वेदमनूच्येत्येवमादिकर्तव्य- । ब्रह्मात्मैक्यविज्ञानसे पूर्व श्रौत प्राग्नविंशानात् तोपदेशारम्भः प्रा- और स्मार्तकर्मोका नियमसे अनुष्ठान कर्मविधिः ब्रह्मविज्ञानानिय
करना चाहिये-इसीलिये 'वेदम
। नूच्य' इत्यादि श्रुतिसे उनकी मेन कर्तव्यानि श्रौतसात- कर्तव्यताके उपदेशका आरम्भ किया कर्माणीत्येवमर्थः। अनुशासनश्रुतेः जाता है, क्योंकि [ 'अनुशास्ति' पुरुषसंस्कारार्थत्वात् । संस्कृतस्य |
| ऐसी] जो अनुशासन-श्रुति है वह
पुरुषके संस्कारके लिये है, क्योंकि जो हि विशुद्धसत्त्वस्यात्मज्ञानमञ्ज- पुरुप संस्कारयुक्त और विशुद्धचित्त सैवोत्पद्यते । "तपसा कल्मपं होता है उसे अनायास ही आत्मज्ञान हन्ति विद्ययामृतमश्नुते" (मनु० प्राप्त हो जाता है । इस सम्बन्धमें १२। १०४) इति स्मृतिः। बानसे अमरत्व लाभ करता है" ऐसी
"तपसे पापका नाश करता है और वक्ष्यति च-"तपसा ब्रह्म विजि- स्मृति है। आगे ऐसा कहेंगे भी कि
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अनु० ११ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
ज्ञासव" ( तै० उ०३।२।५ ) " तपसे ब्रह्मको जाननेकी इच्छा कर"
अतः ज्ञानकी उत्पत्ति के लिये कर्म करने चाहिये । 'अनुशास्ति' इसमें 'अनुशासन' - ऐसा शब्द होनेके कारण उस अनुशासनका अतिक्रमण करनेपर दोपकी उत्पत्ति होगी ।
इति । अतो विद्योत्पत्त्यर्थमनुष्ठेयानि कर्माणि । अनुशास्तीत्यनु
शासनशब्दादनुशासनातिक्रमे हि दोपोत्पत्तिः ।
५७
प्रागुपन्यासाच्च कर्मणाम् । केवलत्रह्मविद्यारम्भाच पूर्व कर्माण्युपन्यस्तानि । उदितायां च ब्रह्मविद्यायाम् " अभयं प्रतिष्ठां विन्दते” (तै० उ० २।७।१) " न विभेति कुतश्चन " ( तै० उ० २१९११) " किमहं साधु नाकरचम्” ( तै० उ० २ । ९ । १ ) इत्येवमादिना कर्मनैष्किञ्चन्यं दर्शयिष्यतिः इत्यतोऽवगम्यते पूर्वोपचितदुरितक्षयद्वारेण विद्योत्पत्यर्थानि कर्माणीति ।
कर्मो का उपन्यास पहले किया जानेके कारण भी [ यह निश्चय होता है कि ये कर्म विद्याकी उत्पत्तिके लिये हैं ] । कमका उपन्यास | केवल ब्रह्मविद्याका निरूपण आरम्भ करनेसे पूर्व ही किया गया है । ब्रह्मविद्याका उदय होनेपर तो "अभय प्रतिष्ठाको प्राप्त कर लेता है" "किसी से भी भय नहीं मानता" "मैंने कौन-सा शुभकर्म नहीं किया" इत्यादि वाक्योंद्वारा कर्मोकी निष्किञ्चनता ही दिखलायेंगे । इससे विदित होता है कि कर्म पूर्वसचित पापोंके क्षयके द्वारा ज्ञानकी प्राप्तिके ही लिये हैं । "अविद्या ( कर्म ) से मृत्यु ( अधर्म ) को
मन्त्रवर्णाच - " अविद्यया मृत्युं | पार करके विद्या ( उपासना ) से अमरत्व लाभ करता है" इस मन्त्र - तीर्त्वा
विद्ययामृतमश्नुते" वर्णसे भी यही बात प्रमाणित होती
( ई० उ० ११ ) इति । ऋता - | है | अतः पहले ( नवम अनुवाकमें)
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली १
दीनां पूर्वत्रोपदेश आनर्थक्य- | जो ऋतादिका उपदेश किया है वह उनके आनर्थक्यकी निवृत्तिके लिये परिहारार्थः । इह तु ज्ञानोत्पत्य है तथा यहाँ ज्ञानकी उत्पत्तिके हेतु होनेसे उनकी कर्तव्यताका र्थत्वात्कर्तव्यतानियमार्थः । | नियम करने के लिये है ।
वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति । सत्यं वद् । धर्मं चर | स्वाध्यायान्मा प्रमदः । आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः । सत्यान्न प्रमदितव्यम् । धर्मान्न प्रमदितव्यम् । कुशलान्न प्रमदितव्यम् । भूत्यै न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् ॥१॥ देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम् । मातृदेवो भव । पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव ।, यान्यनवद्यानि कर्माणि । तानि सेवितव्यानि । नो इतराणि । यान्यस्माक सुचरितानि । तानि त्वयोपास्यानि ॥ २ ॥
५८
.
"
नो इतराणि । ये के चास्मच्छ्रेया सो ब्राह्मणाः । तेषां त्वयासनेन प्रश्वसितव्यम् । श्रद्धया देयम् । अश्रद्धयाऽदेयम् । श्रिया देयम् । हिया देयम् । भिया देयम् | संविदा देयम् । अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात् ॥ ३ ॥
ये तत्र ब्राह्मणाः संमर्शिनः । युक्ता आयुक्ताः । अलूक्षा धर्मकामाः स्युः । यथा स्युः । यथा ते तत्र वर्तेरन् । तथा तत्र वर्तेथाः । अथाभ्याख्यातेषु । ये तत्र ब्राह्मणाः
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अनु० ११ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
संमर्शिनः । युक्ता आयुक्ताः । अलूक्षा धर्मकामाः स्युः। यथा ते तेषु वर्तेरन् । तथा तेषु वर्तेथाः । एष आदेशः । एष उपदेशः एषा वेदोपनिषत् । एतदनुशासनम् । एवमुपासितव्यम् । एवमु चैतदुपास्यम् ॥ ४ ॥ ___वेदाध्ययन करानेके अनन्तर आचार्य शिष्यको उपदेश देता हैसत्य बोल । धर्मका आचरण कर । खाध्यायसे प्रमाद न कर । आचार्यके लिये अभीष्ट धन लाकर [ उसकी आज्ञासे स्त्रीपरिग्रह कर और ] सन्तानपरम्पराका छेदन न कर । सत्यसे प्रमाद नहीं करना चाहिये । धर्मसे प्रमाद नहीं करना चाहिये । कुशल (आत्मरक्षामें उपयोगी) कर्मसे प्रमाद नहीं करना चाहिये । ऐश्वर्य देनेवाले माङ्गलिक कर्मोसे प्रमाद नहीं करना चाहिये । खाध्याय और प्रवचनसे प्रमाद नहीं करना चाहिये ॥ १ ॥ देवकार्य और पितृकार्योंसे प्रमाद नहीं करना चाहिये । तू मातृदेव ( माता ही जिसका देव है ऐसा ) हो, पितृदेव हो, आचार्यदेव हो और अतिथिदेव हो । जो अनिन्द्य कर्म हैं उन्हींका सेवन करना चाहिये-दूसरोंका नहीं । हमारे ( हम गुरुजनोंके ) जो शुभ आचरण हैं तुझे उन्हींकी उपासना करनी चाहिये ॥२॥ दूसरे प्रकारके कर्मोकी नहीं । जो कोई [आचार्यादि धर्मोसे युक्त होनेके कारण] हमारी अपेक्षा भी श्रेष्ट ब्राह्मण हैं उनका आसनादिके द्वारा तुझे आश्वासन (श्रमापहरण) करना चाहिये। श्रद्धापूर्वक देना चाहिये । अश्रद्धापूर्वक नहीं देना चाहिये। अपने ऐश्वर्यके अनुसार देना चाहिये । लज्नापूर्वक देना चाहिये । भय मानते हुए देना चाहिये । संवित्-मैत्री आदि कार्यके निमित्तसे देना चाहिये । यदि तुझे कर्म या आचारके विपयमें कोई सन्देह उपस्थित हो ॥ ३ ॥ तो वहाँ जो विचारशील, कर्ममें नियुक्त, आयुक्त ( स्वेच्छासे कर्मपरायण), अरूक्ष ( सरलमति ) एवं धर्माभिलापी ब्राह्मण हों, उस प्रसङ्गमें वे जैसा व्यवहार करें वैसा ही तू भी कर । इसी प्रकार जिनपर संशययुक्त दोष आरोपित किये गये हों उनके विषयमें, वहाँ जो विचारशील, कर्ममें
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली १
नियुक्त अथवा आयुक्त ( दूसरोंसे प्रेरित न होकर खतः कर्ममें परायण ), सरलहृदय और धर्माभिलाषी ब्राह्मण हों, वे जैसा व्यवहार करें तू भी वैसा ही कर । यह आदेश-विधि है, यह उपदेश है, यह वेदका रहस्य है और [ ईश्वरकी ] आज्ञा है । इसी प्रकार तुझे उपासना करनी चाहिये--ऐसा ही आचरण करना चाहिये ॥ ४ ॥ वेदमनूच्याध्याप्याचार्योऽन्ते- वेदका अध्ययन करानेके
.. अनन्तर आचार्य अन्तेवासी-शिप्यभधीतवेदस्य वासिनं शिष्यमनु
७ को उपदेश करता है; अर्थात् ग्रन्थकत्तव्यनिरूपणन् शास्ति ग्रन्थग्रहणा- ग्रहणके पश्चात् अनुशासन करता
: है-उसका अर्थ ग्रहण कराता है । दनु पश्चाच्छास्ति तदर्थ ग्राहयती
। इससे ज्ञात होता है कि वेदाध्ययन त्यर्थः । अतोऽवगम्यतेऽधीतवेदस्य कर चुकनेपर भी ब्रह्मचारीको बिना
धर्मजिज्ञासा किये गुरुकुलसे समांधमेजिज्ञासामकृत्वा गुरुकुलान्न वर्तन ( अपने घरकी और प्रत्या-- समावर्तितव्यमिति । “बुद्ध्वा
..गमन ) नहीं करना चाहिये ।
| "कर्मोका यथावत् ज्ञान प्राप्त करके कर्माणि चारभेत" इति स्मृतेश्च। उनके अनुष्ठानका आरम्भ करे" इस
स्मृतिसे भी यही सिद्ध होता है। कथमनुशास्तीत्याह- किस प्रकार उपदेश करता है ? सो
बतलाते हैंसत्यं वद यथाप्रमाणावगतं सत्य बोल अर्थात् जो कहने
योग्य बात प्रमाणसे जैसी जानी । वक्तव्यं तद्वद । तद्वद्धर्म चर । गयी हो उसे उसी प्रकार कह ।
इसी प्रकार धर्मका आचरण कर । धर्म इत्यनुष्ठेयानां सामान्यवचनं 'धर्म' यह अनुष्ठान करनेयोग्य
कर्मोका सामान्यरूपसे वाचक है, . सत्यादिविशेपनिर्देशात । स्वा- क्योंकि सत्यादि विशेष धर्मोका तो
निर्देश कर ही दिया है । स्वाध्याय
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शाङ्करभाष्यार्थ
अनु० ११ ]
ध्यायादध्ययनान्मा प्रमदः प्रमादं
मा कार्षीः । आचार्यायाचार्यार्थं
६१
त्येतदेकमेवाचक्ष्यत् । सत्यान्न प्रमदितव्यं प्रमादो
अर्थात् अध्ययन से प्रमाद न कर | आचार्य के लिये प्रिय-उनका अभीष्ट धन लाकर और विद्यादानसे उऋण
।
प्रियमिष्टं धनमाहृत्यानीय दत्त्वा | होनेके लिये उन्हें देकर आचार्यके आज्ञा देनेपर अपने अनुरूप स्त्रीसे विद्यानिष्क्रयार्थम्, आचार्येण | विवाह करके प्रजातन्तु-सन्ततिचानुज्ञातोऽनुरूपान्दारानाहृत्य क्रमका छेदन न कर । अर्थात् प्रजासन्ततिका विच्छेद नहीं करना प्रजातन्तुं प्रजासन्तानं मा व्यव- चाहिये । तात्पर्य यह है कि यदि च्छेत्सीः । प्रजासन्ततेर्विच्छित्तिर्न पुत्र उत्पन्न न हो तो भी पुत्रकाम्या कर्तव्या । अनुत्पद्यमानेऽपि पुत्रे ! उत्पत्ति के लिये यत्न करना ही ( पुत्रेष्टि ) आदि कर्मोद्वारा उसकी } पुत्रकाम्यादिकर्मणा तदुत्पत्तौ चाहिये । [ नवम अनुवाकमें ] प्रजा, यतः कर्तव्य इत्यभिप्रायः । | निर्देश किया गया है; उसकी प्रजन और प्रजाति- तीनोंहीका प्रजाप्रजनप्रजातित्र यनिर्देश- सामर्थ्य से यही बात सिद्ध होती है;
1
अन्यथा वहाँ केवल 'प्रजन' इस सामर्थ्यात् । अन्यथा प्रजनथे | एक ही साधनका निर्देश किया
जाता ।
सत्यसे प्रमाद नहीं करना चाहिये । सत्य से प्रमादका अभिप्राय न कर्तव्यः । सत्याच प्रमदनम | है असत्यका प्रसंग, यह प्रमाद शब्द
नृतप्रसङ्गः, प्रमादशन्दसामर्थ्यात् ।
के सामर्थ्य से वोधित होता है। तात्पर्य यह है कि कभी भूलकर भी असत्य - भापण नहीं करना चाहिये; यदि ऐसा तात्पर्य न होता तो, यहाँ केवल असत्यभापणका निषेध हो प्रतिपेध एव स्यात् । धर्मान्न | किया जाता । धर्मसे प्रमाद नहीं
विस्मृत्याप्यनृतं न वक्तव्यमित्यर्थः । अन्यथासत्यवदन
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली १
यविपयत्वादननुष्ठानं प्रमादः स न कर्तव्यः । अनुष्ठातव्य एव । धर्म इति यावत् । एवं कुशला- | - दात्मरक्षार्थात्कर्मणो न प्रमदि
1
प्रमदितव्यम् । धर्मशब्दस्यानुष्ठे- | करना चाहिये । 'धर्म' शब्द अनुष्ठेय कर्मविशेषका वाचक होनेसे उसका अनुष्टान न करना ही प्रमाद है; धर्मका अनुष्ठान करना ही चाहिये। ॥ सो नहीं करना चाहिये । अर्थात् इसी प्रकार कुशल - आत्मरक्षा में उपयोगी कर्मोंसे प्रमाद न करे । 'भूति' वैभवको कहते हैं, उस वैभव के लिये होनेवाले मंगलयुक्त कर्मोसे प्रमाद न करे । खाध्याय और प्रवचनसे प्रमाद न करे स्वाध्याय अध्ययन है। और प्रवचन अध्यापन, उन दोनोंसे प्रमाद न करे अर्थात् उनका नियमसे आचरण करता रहे ॥ १ ॥ इसी प्रकार देवकार्य और पितृकार्यों से भी
तव्यम् । भूतित्रिंभूतिस्तस्यै भृत्यै भूत्यर्थान्मङ्गलयुक्तात्कर्मणो न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायप्रवच
1
नाभ्यां न प्रमदितव्यम् । स्वाध्यायोsध्ययनं
प्रवचनमध्यापनं
ताभ्यां न प्रमदितव्यम् । ते हि नियमेन कर्तव्ये इत्यर्थः ॥ १ ॥ देवपितृकार्याभ्यां
तथा
न
- प्रमदितव्यम् । दैवपित्र्ये । प्रमाद न करे, अर्थात् देवता और पितृसम्बन्धी कर्म अवश्य करने
कर्मणी कर्तव्ये |
'
चाहिये ।
मातृदेवो माता देवो यस्य स मातृदेव - माता है देव जिसका त्वं मातृदेवो भव स्याः । एवं | वह तू मातृदेव हो । इसी प्रकार पितृदेव आचार्यदेवो भव । पितृदेव हो, आचार्यदेव हो, अतिथिदेवतावदुपास्या एत इत्यर्थः । चाहिये ] । तात्पर्य यह है कि ये देव हो ] [ इनका अर्थ समझना यान्यपि चान्यान्यनवद्यान्यनि - | सब देवताके समान उपासना न्दितानि शिष्टाचार लक्षणानि करनेयोग्य हैं । इसके सिवा और कर्माणि तानि सेवितव्यानि | भी जो अनवद्य - अनिन्द्य यानी शिष्टाचाररूप कर्म हैं तेरे लिये वे ही कर्तव्यानि त्वया । नो न कर्त - | सेवनीय यानी कर्त्तव्य हैं । अन्य
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अनु० ११ ]
व्यानीतराणि सावधानि शिष्ट- निन्दायुक्त कर्म-भले ही वे शिष्ट कृतान्यपि । यान्यसाकमाचा
पुरुषोंके किये हुए हों-तुझे नहीं
: करने चाहिये । हम आचार्यलोगोंके र्याणां सुचरितानि शोभनचरि-भी जो सुचरित-शुभ चरित अर्थात्
शाखसे अविरुद्ध कर्म हैं उन्हींकी तान्याम्नायाद्यविरुद्धानि तान्येव .
" तुझे उपासना करनी चाहिये अदृष्ट त्वयोपास्यान्यदृष्टार्थान्यनुष्ठेया- फलके लिये उन्हींका अनुष्ठान करना नि, नियमेन कर्तव्यानीति या
चाहिये अर्थात् तेरे लिये वे ही
" : नियमसे कर्तव्य हैं ॥ २ ॥-दूसरे वत् ॥२॥ नो इतराणि विपरी- नहीं, अर्थात् उनसे विपरीत कर्म तान्याचार्यकृतान्यपि ।
आचार्यके किये हुए भी कर्तव्य
नहीं हैं। ) ये के च विशेपिता आचार्य- जो कोई भी आचार्यत्व आदि धर्मोके वादिधर्मरसदस्मत्तः श्रेयांसः कारण विशिष्ट हैं, अर्थात् हमसे श्रेष्ठ
| बड़े हैं तथा वे ब्राह्मण भी हैं-क्षत्रिय प्रशस्यतरास्ते च ब्राह्मणा न आदि नहीं हैं, उनका आसनादिके - क्षत्रियादयस्तेपामासनेनासनदा- द्वारा अर्थात् उन्हें आसनादि देकर
तुझे प्रश्वास-प्रश्वासका अर्थ है नादिना त्वया प्रश्वसितव्यम् ।
आश्वासन यानी श्रमापहरण करना प्रश्वसनं प्रश्वासः श्रमापनयः । चाहिये । तात्पर्य यह है कि तुझे तेपाश्रमस्त्वयापनेतव्य इत्यर्थः ।
उनका श्रम निवृत्त करना चाहिये ।
तथा किसी गोष्ठी (सभा) के लिये तेषां चासने गोष्ठीनिमित्ते समु
उन्हें उच्चासन प्राप्त होनेपर तुझे दिते तेषु न प्रश्वसितव्यं प्रश्वा- प्रश्वास-दीर्घनिःश्वास भी नहीं
छोड़ना चाहिये; तुझे केवल उनके सोऽपि न कर्तव्यः केवलं तदुक्त
| कथनका सार ग्रहण करनेवाला सारग्राहिणा भवितव्यम् । होना चाहिये ।
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ક
तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली १
इसके सिवा, तुझे जो कुछ दान करना हो वह श्रद्धासे ही देना चाहिये, अश्रद्धासे नहीं । श्री अर्थात् विभूतिके अनुसार देना
चाहिये,
ही उज्जापूर्वक देना
चाहिये, भी भय मानते हुए देना चाहिये तथा संविद् यानी मैत्री आदि कार्य के निमित्तसे देना चाहिये ।
किं च यत्किचिद्देयं तच्छ्रुद्धयैव दातव्यम् । अश्रद्धया अदेयं न दातव्यम् । श्रिया विभूत्या देयं
दातव्यम् । हिया लज्जया च
देयम् । भिया भीत्या च देयम्
।
संविदा च मैत्र्यादिकार्येण
देयम् ।
अथैवं वर्तमानस्य यदि कदाचित्ते तव श्रौते स्मार्ते वा कर्मणि वृत्ते वचारलक्षणे विचिकित्सा संशयः स्यात् ॥ ३ ॥ ये तत्र तस्मिन् देशे काले वा ब्राह्मणास्तत्र कर्मा - दौ युक्ता इति व्यवहितेन संबन्धः |
कर्तव्यः । संमशिनो विचार
फिर इस प्रकार वर्तते हुए तुझे यदि किसी समय किसी श्रौत या स्मार्त्त कर्म अथवा आचरणरूप वृत्त (व्यवहार) में संशय उपस्थित हो ॥ ३ ॥ तो वहाँ उस देश या कालमें जो ब्राह्मण नियुक्त हों - इस प्रकार 'तत्र' इस पदका 'युक्ताः' इस व्यवधानयुक्त पदसे सम्बन्ध करना चाहिये - [ और जो ] संमर्शी - विचारक्षम, युक्त-कर्म अथवा आचरणमें पूर्णतया तत्पर, आयुक्त - किसी दूसरेसे प्रयुक्त - होनेवाले [अर्थात् स्वेच्छासे प्रवृत्त ], अलक्ष- अरूक्ष अर्थात् अक्रूरमति धर्मकामा अष्टार्थिनोऽकामहता ( सरलचित्त ) और धर्मकामीइत्येतत्, स्युर्भवेयुः । ते यथा येन अदृष्टफलकी इच्छावाले अर्थात् कामनावश विवेकशून्य न हों, वे प्रकारेण ब्राह्मणास्तत्र तस्मिन्क- | ब्राह्मण उस कर्म या आचरणमें जिस
क्षमाः । युक्ता अभियुक्ताः कर्मणि वृत्ते वा । आयुक्ता अपरप्रयुक्ताः
।
न
अलूक्षा अरूक्षा अक्रूरमतयः
1
2
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अनु० ११]
शाङ्करभाष्यार्थ
-
-
-
Rama-
मणि वृत्ते या वर्तेरंस्तथा त्वमपि प्रकार बर्ताव करें उसी प्रकार तुझे
भी वर्तात्र करना चाहिये । इसी वर्तथाः । अथाभ्याख्यातेपु,
प्रकार अभ्याख्यातोंके प्रति। अभ्याख्याता अम्युक्ता दोपेण
अभ्याख्यात-अभ्युक्त अर्थात् जिन
पर कोई संशययुक्त दोप आरोपित संदिह्यमानेन संयोजिताः केन- किया गया हो उनके प्रति जैसा
पहले 'ये तत्र' इत्यादिसे कहा गया चित्तेषु च यथोक्तं सर्वमुपन
है उसी सत्र व्यवहारका प्रयोग येये तत्रेत्यादि।
करना चाहिये। एप आदेशो विधिः । एप यह आदेश अर्थात् विधि है,
यह पुत्रादिको पिता आदिका उपदेश उपदेशः पुत्रादिभ्यः पित्रादी- है, यह वेदोपनिषद्-वेदका रहस्य नाम् । एपा वेदोपनिपढेदरहस्य
| यानी वेदार्थ है । यही अनुशासन
यानी ईश्वरका वाक्य है। अथवा वेदार्थ इत्येतत् । एतदेवानुशा- आदेशवाक्य विधि है-ऐसा पहले
कहा जा चुका है इसलिये यह सनमीश्वरवचनम् । आदेश
सभी प्रमाणभूत [ उपदेशकों ] का वाक्यस्य विधेरुतत्वात्सर्वेषां वा अनुशासन है । क्योंकि ऐसा
है इसलिये पहले जो कुछ प्रमाणभूतानामनुशासनमेतत् । कहा गया है वह सब इसी यस्मादेवं तस्मादेवं यथोक्तं सर्व प्रकार उपासनीय करने योग्य है ।
| इस प्रकार ही इसकी उपासना मुपासितव्यं कर्तव्यम् । एवमु करनी चाहिये-यह उपासनीय ही चैतदुपास्यमुपास्यमेव चैतन्नानुपा
है, अनुपास्य नहीं है-इस प्रकार
| यह पुनरुक्ति उपासनाके आदरके समित्यादरार्थं पुनर्वचनम् ॥४॥ लिये है ॥ ४ ॥
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तैत्तिरीयोपनिपद्
[बल्ली १
मोक्ष-साधनकी मीमांसा अत्रैतचिन्त्यते विद्याकर्मणो- अब विद्या और कर्मका विवेक गोक्षकारण- विवेकार्थ किं कर्म- [अर्थात इन दोनोंका फल भिन्न
भिन्न है-इसका निश्चय ] करनेके मीमांसायां भ्य एव केवलेभ्यःलिये यह विचार किया जाता है चत्वारो विकल्पाः परं श्रेय उत वि-कि (१) क्या परम श्रेयकी प्राप्ति द्यासव्यपेक्षेभ्य आहोखिद्विद्या- केवल कर्मसे होती है, (२) अथवा
विद्याकी अपेक्षायुक्त कर्मसे, (३) कमम्या सहताम्या विद्याया वा किंवा परस्पर मिले हुए विधा और कर्मापेक्षाया उत केवलाया एवं कर्म दोनोंसे, (४) अथवा कर्मकी
| अपेक्षा रखनेवाली विद्यासे, (५) विद्याया इति ?
या केवल विद्यासे ही ? तत्र केवलेभ्य एव कर्मभ्यः उनमें [पहला पक्ष यह है कि] कर्मणां मोक्ष- स्यात् । समस्तवे- कवल कमास ही परम श्रेयकी प्राप्ति साधनत्वनिरासः दार्थज्ञानवतः कर्मा
हो सकती है, क्योंकि "द्विजातिको
रहस्यके सहित सम्पूर्ण वेदका ज्ञान धिकारात् । “वेदः कृत्लोऽधि- प्राप्त करना चाहिये" ऐसी स्मृति गन्तव्यः सरहस्यो द्विजन्मना"
होनेसे सम्पूर्ण वेदका ज्ञान रखने
वालेको ही कर्मका अधिकार है, और इति सरणात् । अधिगमश्च वेदका ज्ञान उपनिषद्के अर्थभूत सहोपनिषदर्थेनात्मज्ञानादिना । आत्मज्ञानादिके सहित ही हो
सकता है । “विद्वान् यज्ञ करता "विद्वान्यजते" "विद्वान्याज
है" "विद्वान् यज्ञ कराता है" यति" इति च चिदुप एव कर्म- | इत्यादि वाक्योंसे सर्वत्र विद्वान्का ही ण्यधिकारः प्रदाते सर्वत्र |
कर्ममें अधिकार दिखलाया गया
| है; तथा "जानकर कर्मानुष्ठान "ज्ञात्वा चानुष्ठानम्" इति च । | करें" ऐसा भी कहा है । कोई-कोई
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शाङ्करभाष्यार्थ
कृत्स्नश्च वेदः कर्मार्थ इति हि । ऐसा भी मानते हैं कि सम्पूर्ण वेद मन्यन्ते केचित् । कर्मभ्यश्चेत्परं । कर्मके ही लिये हैं, और यदि कर्मों से श्रेयो नावाप्यते वेदोऽनर्थकः ही परम श्रेयकी प्राप्ति न हुई तो स्यात् । वेद भी व्यर्थ ही हो जायगा ।
० ११ ]
अनु०
नः नित्यत्वान्मोक्षस्य, नित्यो हि मोक्ष इष्यते । कर्मकार्यस्यानित्यत्वं प्रसिद्धं लोके । कर्मभ्यच्छ्रेयो नित्यं स्यात्तच्चानिष्टम् । " तद्यथेह कर्मचितो लोकः क्षीयते" ( छा० उ० ८ ।
। १ । ६ ) इतिन्यायानुगृहीत -
श्रुतिविरोधात् । काम्यप्रतिषिद्धयोरनारम्भा
दारब्धस्य च कर्मण उपभोगेन
क्षयान्नित्यानुष्ठानाच्च तत्प्रत्यवायानुत्पत्तेर्ज्ञाननिरपेक्ष एव मोक्ष
इति चेत् ?
तच्च नः शेपकर्मसंभवात्तन्नि
सिद्धान्ती - ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि मोक्षका नित्यत्य हैमोक्ष नित्य ही माना गया है । और जो वस्तु कर्मका कार्य है उसकी अनित्यता लोक में प्रसिद्ध है । यदि नित्य श्रेय कर्मोंसे होता है ऐसा
मानें तो इष्ट नहीं है; क्योंकि इसका “जिस प्रकार यह कर्मोपार्जित लोक क्षीण होता है [ उसी प्रकार पुण्यार्जित परलोक भी क्षीण हो जाता है ]" इस न्याययुक्ता श्रुतिसे विरोध है ।
पूर्व० - काम्य और प्रतिपिद्ध कर्मो का आरम्भ न करनेसे, प्रारब्ध कर्मो का भोगसे ही क्षय हो जानेसे तथा नित्य कर्मों के अनुष्ठान के कारण प्रत्यवायकी उत्पत्ति न होनेसे मोक्ष ज्ञानकी अपेक्षासे रहित ही है-यदि ऐसा माने तो ?
सिद्धान्ती-ऐसी बात भी नहीं
- है; शेप ( सञ्चित ) कर्मो के रह जाने से उनके कारण अन्य शरीरकी
मित्तशरीरान्तरोत्पत्तिः प्राप्नो उत्पत्ति सिद्ध होती है - इस प्रकार
|
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली१
तीति प्रत्युक्तम् । कर्मशेषस्य च हम इसका पहले ही खण्डन कर
चुके हैं; तथा नित्यकर्मोके अनुष्ठानसे नित्यानुष्ठानेनाविरोधात्क्षयानुप
थाउप सञ्चित कर्मोका विरोध न होनेके कारण पत्तिरिति च ।
उनका क्षय होना सम्भव नहीं है । यदुक्तं समस्तवेदार्थज्ञानवतः। और यह जो कहा कि समस्त
वेदके अर्थको जाननेवालेको ही कर्माधिकारादित्यादि, तच्च नः | कर्मका अधिकार होनेके कारण
[केवल कर्मसे ही निःश्रेयसकी प्राप्ति श्रुतज्ञानव्यतिरेकादुपासनस्य ।। हो सकती है ] सो भी ठीक नहीं,
क्योंकि उपासना श्रुतज्ञान (गुरुश्रुतज्ञानमात्रेण हि कर्मण्यधि-1
कुलमें किये हुए वाक्यविचार ) से क्रियते नोपासनामपेक्षते । उपा
भिन्न ही है । मनुष्य श्रुतज्ञानमात्रसे
ही कर्मका अधिकारी हो जाता है, सनं च श्रुतज्ञानादर्थान्तरं त्रि- | इसके लिये वह उपासनाकी अपेक्षा
नहीं रखता । उपासना तो श्रुतज्ञानधीयते । मोक्षफलमथान्तरप्रसिद्ध से भिन्न वस्तु ही बतलायी गयी है।
वह उपासना मोक्षरूप फलवाली च स्यात् । 'श्रोतव्यः' इत्युक्त्वा | तव्य इत्युक्त्वा और अर्थान्तररूपसे प्रसिद्ध है,
क्योंकि 'श्रोतव्यः' ऐसा कहकर तद्वयतिरेकेण 'मन्तव्यो निदि
[मनन और निदिध्यासनके लिये] ध्यासितव्यः' इति यत्नान्तरवि
'मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः' इस
प्रकार पृथक् यत्नान्तरका विधान धानात् । मनननिदिध्यासनयोश्च किया है । लोकमें भी श्रवणज्ञानसे
मनन और निदिध्यासनका अर्थान्तप्रसिद्धं श्रवणज्ञानादर्थान्तरत्वम् । रत्व प्रसिद्ध ही है ।
एवं तर्हि विद्यासव्यपेक्षेभ्यः पूर्व०-इस प्रकार तब तो विद्याशानकर्मसमुच्छ- कर्मभ्य स्यान्मोक्ष की अपेक्षासे युक्त कर्मोद्वारा ही यस्य मोक्षसाध- विद्यासहितानां च मोक्ष हो सकता है । जो कर्म ज्ञान
कर्मणां भवेत्कार्या- | के सहित होते हैं उनमें कार्यान्तरके
नत्वनिरास:
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अनु०११]
शाङ्करभाष्यार्थ
न्तरारम्भसामर्थ्यम् । यथा खतो आरम्भका सामर्थ्य हो सकता है,
जिस प्रकार कि स्वयं मरण और मरणज्वरादिकार्यारम्भसमर्थाना
ज्वरादि कार्योंके आरम्भमें समर्थ मपि विपदध्यादीनां मन्त्रशर्क- होनेपर भी विष एवं दधि आदिमें रादिसंयुक्तानां कार्यान्तरारम्भ
मन्त्र और शर्करादिसे युक्त होनेपर
कार्यान्तरके आरम्भका सामर्थ्य हो सामर्थ्यम्, एवं विद्यासहितैः | जाता है, इसी प्रकार विद्यासहित कर्मभिर्मोक्ष आरभ्यत इति चेत् ?
कमोंसे मोक्षका आरम्भ हो सकता
है-यदि ऐसा मानें तो? न; आरभ्यस्यानित्यत्वादि- सिद्धान्ती-नहीं, जो वस्तु
आरम्भ होनेवाली होती है वह त्युक्तो दोपः।
अनित्य हुआ करती है-इस प्रकार इस
पक्षका दोष बतलाया जा चुका है। वचनादारभ्योऽपि नित्य पूर्व०-किन्तु [ 'न स पुनरा
वर्तते' इत्यादि ] वचनसे तो आरम्भ एवेति चेत् ?
होनेवाला मोक्ष भी नित्य ही होता है ? न; ज्ञापकत्वाद्वचनस्य । सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि वचन
तो केवल ज्ञापक है; यथार्थ अर्थको वचनं नाम यथाभूतस्यार्थस्य बतलानेवालेका ही नाम 'वचन' है। ज्ञापकं नाविद्यमानस्य कर्तृ । न
| वह किसी अविद्यमान पदार्थको
उत्पन्न करनेवाला नहीं होता । हि वचनशतेनापि नित्यमारभ्यत | सैकड़ों वचन होनेपर भी नित्य
वस्तुका आरम्भ नहीं किया जा आरब्धं वाविनाशि भवेत् । | सकता और न आरम्भ होनेवाली वस्तु एतेन विद्याकर्मणोः संहत
अविनाशो ही हो सकती है। इससे
समुचित विद्या और कर्मके मोक्षारम्भयोर्मोक्षारम्भकत्वं प्रत्युक्तम् । कत्वका प्रतिषेध कर दिया गया ।
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७०
तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली १
विद्याकर्मणी मोक्षप्रतिवन्ध- विद्या और कर्म ये दोनों मोक्षके
प्रतिबन्धके हेतुओंको निवृत्त करनेहेतुनिवर्तके इति चेत-न, कर्मणः वाले हैं [ मोक्षके स्वरूपको उत्पन्न
करनेवाले नहीं हैं। अतः जिस
प्रकार प्रध्वंसाभाव कृतक होनेपर फलान्तरदर्शनात् । उत्पत्तिसं
भी नित्य है उसी प्रकार उन प्रति
बन्धोंकी निवृत्ति भी नित्य ही होगी] स्कारविकाराप्तयो हि फलं
-यदि ऐसा कहो तो यह कथन
ठीक नहीं, क्योंकि कर्मोका तो कर्मणो दृश्यते । उत्पत्त्यादिफल
अन्य ही फल देखा गया है। उत्पत्ति,
संस्कार, विकार और आप्ति-ये विपरीतश्च मोक्षः।
कर्मके फल देखे गये हैं। किन्तु
| मोक्ष उत्पत्ति आदि फलसे विपरीत है। गतिश्रुतेराप्य इति चेत् । पूर्व०-गतिप्रतिपादिका श्रुतियों"सूर्यद्वारेण", "तयोर्चमायन" से तो मोक्ष आप्य सिद्ध होता
है-"सूर्यद्वारसे", "उस सुषुम्ना (क० उ० २।३।१८) इत्ये
नाडीद्वारा ऊर्चलोकोंको जानेवाला" वमादिगतिश्रुतिभ्यः प्राप्यो मोक्ष आदि गतिप्रतिपादिका श्रुतियोंसे इति चेत् ।
जाना जाता है कि मोक्ष प्राप्य है। न; सर्वगतत्वाइन्तभिश्चा- सिद्धान्ती-ऐसी बात नहीं है, नन्यत्वादाकाशादिकारणत्वात्स- क्योंकि ब्रह्म सर्वगत, गमन करने
| वालोंसे अभिन्न और आकाशादिवंगतं ब्रह्म । ब्रह्माव्यतिरिक्ताश्च का भी कारण होनेसे सर्वगत सर्वे विज्ञानात्मानः । अतो ना- है तथा सम्पूर्ण विज्ञानात्मा ब्रह्मसे प्यो मोक्षः । गन्तुरन्यविभिन्न अभिन्न हैं; इसलिये मोक्ष आप्य देशं प्रति भवति गन्तव्यम् । न अन्य देशमें ही गमन करने योग्यहुआ
नहीं है । गमन करनेवालेसे पृथक् हि येनैवाव्यतिरिक्तं यत्तत्तेनैव | करता है । जो जिससे अभिन्न होता
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धनु० १६ ]
गम्यते । तदनन्यत्वप्रसिद्धेश्व है उसीसे वह गन्तव्य नहीं होता । "तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् " और उसकी अनन्यता तो “उसे रचकर वह उसीमें प्रविष्ट हो गया " ( तै० उ० २ । ६ । १ ) “क्षेत्रज्ञं “सम्पूर्ण क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ भी तू मुझको चापि मां विद्धि" (गीता १३१२) ही जान" इत्यादि सैकड़ों श्रुतिइत्येवमादिश्रुतिस्मृतिशतेभ्यः । स्मृतियोंसे सिद्ध होती है । गत्यैश्वर्यादिश्रुतिविरोध इति चेत् । अथापि स्याद्यद्यप्राप्यो ! गति और ऐश्वर्यका प्रतिपादन करनेमोक्षस्तदा गतिश्रुतीनां "स वाली श्रुतियोंसे विरोध होगा- अच्छा, यदि मोक्ष अप्राप्य ही हो तो भी
पूर्व० - [ ऐसा माननेसे तो ]
गतिश्रुति तथा “वह एकरूप होता है" "वह यदि पितृलोककी इच्छावाला होता है" "वह स्त्री और यानोंके साथ रमण करता है" इत्यादि श्रुतियोंका व्याकोप ( बाथ ) हो
:
१२ । ३ ) इत्यादिश्रुतीनां च
1
शाङ्करभाष्यार्थ
एकधा" ( छा० उ०७ १२६१२) “सयदि पितृलोककामो भवति” ! ( छा० उ०८।२ । १ ) "स्त्रीभिर्वा यानैर्वा" ( छा० उ० ८१
कोपः स्यादिति चेत् ।
७१
जायगा ।
।
सिद्धान्ती नहीं, क्योंकि वे तो साम् । कार्ये हि ब्रह्मणि स्त्र्या - ! कार्यत्रह्मसे सम्बन्ध रखनेवाली हैं । दयः स्युर्न कारणे । “एकमेवा - | स्त्री आदि तो कार्य ब्रह्ममें ही हो द्वितीयम्” ( छा० उ० ६ । २ सकती हैं, कारण ब्रह्ममें नहीं; जैसा १ ) "यत्र नान्यत्पश्यति" ( छा० उ० ७ । २४ । १) " तत्केन कं पश्येत्" ( वृ० उ० २ । ४ । १४, ४ । ५ । १५ ) | इत्यादिश्रुतिभ्यः ।
कि “एक ही अद्वितीय ब्रह्म" "जहाँ कोई और नहीं देखता" "तब किसके द्वारा किसे देखे" इत्यादि श्रुतियोंसे सिद्ध होता है ।
नः कार्यत्रह्मविषयत्वात्ता
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७२
तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली १
विरोधाच विद्याकर्मणोः समु- इसके सिवा विद्या और कर्मका चयानुपपत्तिः। प्रविलीनका- विरोध होनेके कारण भी उनका दिकारकविशेषतत्त्वविपया हि समुच्चय नहीं हो सकता । जिसमें विद्या तद्विपरीतकारकसाध्येन का
पोसाकमा कर्ता-करण आदि कारकत्रिशेपोंका कर्मणा विरुध्यते । न ह्येकं वस्तु
पूर्णतया लय होता है उस तत्त्वको परमार्थतः कादिविशेषवत्तच्छु
(ब्रह्मको) विषय करनेवाली विद्या न्यं चेत्युभयथा द्रष्टुं शक्यते ।
अपनेसे विपरीत साधनसाध्य कर्मसे
विरुद्ध है। एक ही वस्तु परमार्थतः अवश्यं ह्यन्यतरन्मिथ्या स्यात् । अन्यतरस्य च मिथ्यात्वप्रसङ्गे
कर्ता आदि विशेपसे युक्त और उस
से रहित-दोनों ही प्रकारसे नहीं युक्तं यत्स्वाभाविकाज्ञानविपयस्य द्वैतस्य मिथ्यात्वम् । “यत्र हि
देखी जा सकती । उनमेंसे एक
पक्ष अवश्य मिथ्या होना चाहिये । द्वैतमिव भवति" (वृ० उ०२।।
इस प्रकार किसी एकके मिथ्यात्वका ४ । १४) "मृत्योः स मृत्यु
प्रसङ्ग उपस्थित होनेपर जो खभावमामोति" (क० उ०२।१।
से ही अज्ञानका विषय है उस १०, वृ० उ० ४ । ४ । १९)
द्वैतका ही मिथ्या होना उचित है, "अथ यत्रान्यत्पश्यति'....
जैसा कि "जहाँ द्वैतके समान होता तदल्पम्" (छा० उ०७।२४।१)
है" "वह मृत्युसे मृत्युको प्राप्त होता "अन्योऽसावन्योऽहममि" (वृ०
है" "जहाँ अन्य देखता है वह अल्प उ०१।४।१०) "उदरमन्तरं
न्तर है" "यह अन्य है मैं अन्य हूँ" "जो कुरुते अथ तस्य भयं भवति" थोड़ा-सा भी अन्तर करता है उसे (तै० उ०२।७।१) इत्यादि- भय प्राप्त होता है" इत्यादि सैकड़ों श्रुतिशतेभ्यः।
। श्रुतियोंसे प्रमाणित होता है ।
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अनु० ११ ]
सत्यत्वं चैकत्वस्य " एकधैवानुद्रष्टव्यम्" ( वृ० उ० ४। ४ । २० ) " एकमेवाद्वितीयम्" ( छा० उ०६ । २ । १ ) " त्रह्मे वेद सर्वम्” (मु० उ० २।२। “आत्मैवेद सर्वम्”
तथा " एक रूपसे ही देखना चाहिये” “एक ही अद्वितीय" "यह सव ब्रह्म ही है" "यह सब आत्मा ही है" इत्यादि श्रुतियोंसे एकत्वकी सत्यता सिद्ध होती है । सम्प्रदान आदि कारकमेदके दिखाय न देने
-
११ )
( छा० उ० ७ | २५ | २ ) पर कर्म होना सम्भव भी नहीं है । इत्यादिश्रुतिभ्यः । न च संप्रदा- ज्ञानके प्रसङ्गमें भेददृष्टि के अपवाद नादिकारकभेदादर्शने कर्मोप - | तो सहस्रों सुननेमें आते हैं । अतः पद्यते । अन्यत्वदर्शनापवादश्च विद्या और कर्मका विरोध है; इसविद्याविपये सहस्रशः श्रूयते । लिये भी उनका समुच्चय होना अतो विरोधो विद्याकर्मणोः । असम्भव है । ऐसी दशामें पूर्वमें अतश्च समुच्चयानुपपत्तिः । तत्र तुमने जो कहा था कि 'परस्पर यदुक्तं संहताभ्यां विद्याकर्मभ्यां मिले हुए विद्या और कर्म दोनोंसे मोक्ष इति, अनुपपन्नं तत् । मोक्ष होता है' वह सिद्ध नहीं होता । विहितत्वात्कर्मणां श्रुतिवि
शाङ्करभाष्यार्थ
७३
पूर्व ० - कर्म भी श्रुतिविहित हैं, अतः ऐसा माननेपर श्रुतिसे विरोध रोध इति चेत् । यद्युपमृद्य कर्त्रा उपस्थित होता है । यदि सर्पादिभ्रान्तिजनित ज्ञानका वाघ करनेवाले
दिकारकविशेपमात्मैकत्वविज्ञानं रज्जु आदि विषयक ज्ञानके समान कर्ता आदि कारकविशेपका वाध करके ही आत्मैकत्वके ज्ञानका विधान किया जाता है तो कोई कारण कर्मका
विधीयते सर्पादिभ्रान्तिविज्ञानो -
पमर्द करज्ज्वादिविषय विज्ञानव- विपय न रहनेके
त्प्राप्तः कर्मविधिश्रुतीनां निर्विष । विधान करनेवाली श्रुतियोंका उन
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७४
तैत्तिरीयोपनिपद्
[ वल्ली १
यत्वाद्विरोधः । विहितानि च ( विद्याक्त विधान करनेवाली
श्रुतियों ) से विरोध उपस्थित होता कर्माणि । स च विरोधो न है; और कोका विधान भी
किया हो गया है तथा सभी श्रुतियाँ युक्तः । प्रमाणत्वाच्छुतोनामिति प्रमाणभूत हैं इसलिये पूर्वोक्त" चेत् ?
विरोधका होना उचित नहीं है-यदि
ऐसा कहें तो? न पुरुषार्थोपदेशपरत्वाच्छृती- सिद्धान्ती-यह कथन ठीक नहीं,
। क्योंकि श्रुतियों परम पुरुषार्थका नाम् । विद्योपदेशपरातावच्छृतिः उपदेश करनेमें प्रवृत्त हैं। श्रुति
ज्ञानका उपदेश करनेमें तत्पर है । संसारात्पुरुषो मोक्षयितव्य इति उसे संतारसे पुरुषका मोक्ष कराना
है, इसके लिये संसारकी हेतुभूत . संसारहेतोरविद्याया विद्यया अविद्याकी विद्याके द्वारा निवृत्ति .
करना आवश्यक है; अतः वह निवृत्तिः कर्तव्येति विद्याप्रकाश- विद्याका प्रकाश करनेवाली होकर
'प्रवृत हुई है। इसलिये ऐसा कत्वेन प्रवृत्तेति न विरोधः। माननेसे कोई विरोध नहीं आता ।
एवमपि कादिकारकसद्भाव- पूर्व०-किन्तु ऐसा माननेपर भी प्रतिपादनपरं शास्त्र विरुध्यत पादन करनेवाले शातका तो उससे
तो कर्तादि कारककी सत्ताका प्रतिएवेति चेत् ?
। विरोध होता ही है ? न; यथाप्राप्तमेव कारकास्ति- सिद्धान्ती-ऐसी बात नहीं है।
खभावतः प्राप्त कारकोंके अस्तित्वको त्वमुपादायोपात्तदुरितक्षयार्थ
खोकार कर सञ्चित पापोंके क्षयके कर्माणि विदधच्छास्त्रं मुमुक्षुणां
लिये कर्मोका विधान करनेवाला | शास्त्र मुमुक्षुओं और फलकी
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अनु०११]
शाङ्करभाज्यार्थ
७५
फलार्थिनां च फलसाधनं न इच्छावालोंको [उनके इष्ट] फलकी
प्राप्ति करानेका साधन है, वह कारकास्तत्व व्याप्रियत । उप- कारकोंका अस्तित्व सिद्ध करने में 'चितदुरितप्रतिवन्धस्य हि विद्यो
प्रवृत्त नहीं है। जिस पुरुषका
| सञ्चित पापरूप प्रतिबन्ध विद्यमान त्पत्ति वकल्पते । तत्क्षये च रहता है उसे ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं
| हो सकती; उसका क्षय होजानेपर विद्योत्पत्तिः स्थानतश्चाविद्यानि
ही ज्ञान होता है और तभी • वृत्तिस्तत आत्यन्तिकः संसारो- | अविद्याकी निवृत्ति होती है तथा
उसके अनन्तर ही संसारकी परमः।
आत्यन्तिक उपरति होती है । । अपि चानात्मदर्शिनो घना- इसके सिवा जो पुरुष अनात्म
दी है उसे ही अनात्मवस्तु• शानादेव तु त्मविषयः कामः ।
सम्बन्धिनी कामना हो सकती है। कैवल्यम्' कामयमानश्च करो
कामनावाला ही कर्म करता ति कर्माणि । ततस्तत्फलोप- है और उसीसे उनका फल भोगनेके भोगाय शरीराद्युपादानलक्षणः
लिये उसे शरीरादिग्रहणरूप संसार
की प्राप्ति होती है । इसके विपरीत संसारः । तद्व्यतिरेकेणात्मैक- जो आत्मैकत्वदशी है उसकी दृष्टिमें
विपयोंका अभाव होनेके कारण उसे त्वदर्शिनो विपयाभावात्कामानु-! उनकी कामना भी नहीं हो सकती।
आत्मा तो अपनेसे अभिन्न है, इसस्पत्तिरात्मनि चानन्यत्वात्का-लिये उसकी कामना भी असम्भव मानुत्पत्तौ खात्मन्यवस्थानं मोक्ष
होनेके कारण उसे खात्मस्वरूपमें
|स्थित होनारूप मोक्ष सिद्ध ही है । इत्यतोऽपि.विद्याकर्मणोविरोधः। इसलिये भी ज्ञान और कर्मका विरोध
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७६
तैत्तिरीयोपनिपद्
[ चल्ली १
विरोधादेव च विद्या मोक्षं प्रति ] है और विरोध होनेके कारण ही ज्ञान
मोक्षके प्रति कर्मकी अपेक्षा नहीं न कर्माण्यपेक्षते ।
रखता। स्वात्मलामे तु पूर्वोपचित- हाँ, आत्मलाभमें पूर्वसश्चित प्रतिवन्धापनयद्वारेण विद्याहेतुत्वं पापरूप प्रतिबन्धका निवृत्द्विारा
नित्यकर्म ज्ञानप्राप्तिके हेतु अवश्य प्रतिपद्यन्ते कर्माणि नित्यानीति । होते हैं । इसीलिये इस प्रकरणमें
कर्मोका उल्लेख किया गया है-यह अत एवास्मिन्प्रकरण उपन्य
हम पहले ही कह चुके हैं । इस स्तानि कर्माणीत्यवोचाम । एवं प्रकार भी कर्मका विधान करनेवाली चाविरोधः कर्मविधिश्रुतीनाम् श्रुतियोंका [विद्याविधायिनी श्रुतियों
से] विरोध नहीं है । अतः यह अतः केवलाया एव विद्यायाः
सिद्ध हुआ कि केवल विद्यासे ही . परं श्रेय इति सिद्धम् । परमश्रेयकी प्राप्ति होती है । एवं ताश्रमान्तरानुपपत्तिः। पूर्व०-यदि ऐसी बात है तब
तो [ गृहस्थाश्रमके सिवा ] अन्य कर्मनिमित्तत्वाद्विद्योत्पत्तेः। गा- आश्रमोंका होना भी उपपन्न नहीं
है, क्योंकि विद्याकी उत्पत्ति तो हस्थ्ये च विहितानि कर्माणी-कर्मके निमित्तसे होती है और कर्मों
| का विधान केवल गृहस्थके ही लिये त्यैकाश्रम्यमेव । अतश्च यावजी- | किया गया है। अतः इससे एकाश्रमत्व
की ही सिद्धि होती है । और इसलिये वादिश्रुतयोऽनुकूलतराः।
'यावज्जोवन अग्निहोत्र करें' इत्यादि
श्रुतियाँ और भी अनुकूल ठहरती हैं । न; कर्मानेकत्वात् । न ह्य- सिद्धान्ती-ऐसी बात नहीं है, शानसाधकानि मिहोत्रादीन्येव क- क्योंकि कर्म तो अनेक हैं। केवल कर्माणि ।
| अग्निहोत्र आदि हो कर्म नहीं हैं।
सप ब्रह्मचर्य, तप, सत्यभाषण, शम, तपः सत्यवदनं शमो दमोऽहिंसे- दम और अहिंसा आदि अन्य कर्म
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अनु० ११]
शाङ्करभाष्यार्थ
७७
त्येवमादीन्यपि कर्माणीतराश्रम- | भी इतर आश्रमोंके लिये प्रसिद्ध ही
हैं। वे तथा ध्यान-धारणादिरूप प्रसिद्धानि विद्योत्पत्तौ साधक
विधात्पत्ता साधक कर्म [ हिंसा आदि दोपोंसे ] तमान्यसंकीर्णत्वाद्विद्यन्ते ध्यान- असंकीर्ण होनेके कारण ज्ञानकी धारणादिलक्षणानि च । वक्ष्यति । उत्पत्ति, सर्वोत्तम साधन हैं। आगे
(भृगु० २।५ में) यह कहेंगे च-"तपसा ब्रह्म विजिज्ञासख" भी कि "तपके द्वारा ब्रह्मको जानने(तै० उ० ३।२-५) इति । की इच्छा कर"।
जन्मान्तरकृतकर्मभ्यश्च प्राग-| जन्मान्तरमें किये हुए कोंसे तो शानप्राशी पिगार्हस्थ्याद्विद्यो- | गृहस्थाश्रम स्वीकार करनेसे पूर्व भी गार्हस्थ्यस्य त्पत्तिसंभवात्कर्मा-ज्ञानकी उत्पत्ति होना सम्भव है। आनर्धक्यम् थत्वाच्च गार्हस्थ्य
तथा गृहस्थाश्रमकी स्वीकृति केवल
कमोंके ही लिये की जाती है । । प्रतिपत्तेः कर्मसाध्यायां च |
अतः कर्मसाध्य ज्ञानकी प्राप्ति हो विद्यायां सत्यां गार्हस्थ्यप्रति-जानेपर तो गृहस्थाश्रमकी स्वीकृति पत्तिरनर्थिकैव।
भी व्यर्थ ही है। लोकार्थत्वाच्च पुत्रादीनाम् / इसके सिवा पुत्रादि साधन तो
लोकोंकी प्राप्तिके लिये हैं। पुत्रादि पुत्रादिसाध्येभ्यश्चायं लोक पित
साधनोंसे सिद्ध होनेवाले उन इहलोको देवलोक इत्येतेभ्यो व्या
लोक, पितृलोक एवं देवलोकआदि
| से जिसकी कामना निवृत्त हो गयी वृत्तकामस्य नित्यसिद्धात्मलोक- है, नित्यसिद्ध आत्माका साक्षात्कार
करनेवाले एवं कर्नामें कोई प्रयोजन दर्शिनः कर्मणि प्रयोजनमपश्यतः न देखनेवाले उस ब्रह्मवेत्ताकी
कोंमें कैसे प्रवृत्ति हो सकती । कथं प्रवृत्तिरुपपद्यते । प्रतिपन्न
है ? जिसने गृहस्थाश्रम खीकार गार्हस्थ्यस्यापि विद्योत्पत्तौ विद्या- कर लिया है उसे भी, जब ज्ञानकी
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७८
तैत्तिरीयोपनिपद्
[चल्ली १
परिपाकाद्विरक्तस्य कर्मसु प्रयो- प्राप्ति होती है और ज्ञानके परिपाकजनमपश्यतः कर्मभ्यो निवृत्ति-से विषयोंमें वैराग्य होता है तो,
कमोंमें अपना कोई प्रयोजनन देखकर रेव स्यात् । "प्रव्रजिष्यन्वा अरे
। उनसे निवृत्ति ही होगी। इस विषयमें ऽहमसात्स्थानादमि" (वृ० उ० | "अरी मैत्रेयि ! अब मैं इस स्थानसे ४।५ । २) इत्येवमादिश्रुति- | संन्यास करना चाहता हूँ" इत्यादि लिङ्गदर्शनात् ।
श्रुतिरूप लिङ्ग भी देखा जाता है । कर्म प्रति श्रुतेर्यताधिक्यद- पूर्व०-किन्तु कर्मके प्रति श्रुतिका र्शनादयुक्तमिति चेदग्निहोत्रादि
अधिक प्रयत्न देखनेसे तो यह बात
ठीक नहीं जान पड़ती?-अग्निहोत्रादि कर्म प्रति श्रुतेरधिको यतो कर्मके प्रति श्रुतिका विशेष प्रयत्न है; महांश्च कर्मण्यायासोऽनेकसाध- | कर्मानुष्ठानमें आयास भी अधिक है,
क्योंकि अग्निहोत्रादि कर्म अनेक नसाध्यत्वादग्निहोत्रादीनाम् ।
साधनोंसे सिद्ध होनेवाले हैं । अन्य तपोब्रह्मचर्यादीनां चेतराश्रम- आश्रमोंके कर्म तप और ब्रह्मचर्यादि कर्मणां गार्हस्थ्येऽपि समानत्वाद
तो गृहस्थाश्रममें भी उन्हींके समान
कर्तव्य तथा अल्प साधनकी अपेक्षाल्पसाधनापेक्षत्वाचेतरेषां न
वाले हैं; अतः अन्य आश्रमियोंके युक्तस्तुल्यवद्विकल्प आश्रमिभि
साथ गृहस्थाश्रमको समान-सा स्तस्येति चेत् ।
| मानना तो उचित नहीं है? न जन्मान्तरकृतानुग्रहात् ।। सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि उनपर यदुक्तं
जन्मान्तरका अनुग्रह होता है। कर्मणि
.श्रुतराधका तुमने जो कहा कि 'कर्मपर
श्रुतेरधिको यत्न इत्यादि नासौ दोपः । श्रुतिका विशेष प्रयत्न है' इत्यादि,
। सो यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि
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अनु० ११ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
मान्तरके संस्काता गृहस्था
यतो जन्मान्तरकृतमप्यनिहोत्रा- | जन्मान्तरमें किया हुआ भी अग्निदिलक्षणं कर्म ब्रह्मचर्यादिलक्षणं | होत्रादि तथा ब्रह्मचर्यादिरूप कर्म
ज्ञानकी उत्पत्तिमें उपयोगी होता है, चानुग्राहकं भवति विद्योत्पत्ति
जिससे कि कोई लोग तो जन्मसे ही प्रति । येन जन्मनैव विरक्ता विरक्त देखे जाते हैं और कोई कर्ममें दृश्यन्ते केचित् । केचित्त कर्मसु | तत्पर, वैराग्यशून्य एवं ज्ञानके प्रवृत्ता अविरक्ता विद्याविद्वे
विरोधी दीख पड़ते हैं। अतः
जन्मान्तरके संस्कारोंके कारण जो पिणः । तस्माजन्मान्तरकृत-मित , जन्हें तो गहस्थाश्रमसे संस्कारेभ्यो विरक्तानामाश्रमा- भिन्न ] अन्य आश्रमोंको स्वीकार न्तरप्रतिपत्तिरेवेष्यते । करना ही इष्ट होता है। कर्मफलवाहुल्याच; पुत्रख
___ कर्मफलोंकी अधिकता होनेके
कारण भी [श्रुतिमें उनका कर्मविधी अतः गब्रह्मवर्चसादिलक्ष- विशेष विस्तार है ] । पुत्र, स्वर्ग एवं प्रयासप्रयोजनम् णस्य कर्मफलस्या- ब्रह्मतेज आदि कर्मफल असंख्येय संख्येयत्वात् , तत्प्रति च पुरुः
होनेके कारण और उनके लिये
पुरुपोंकी कामनाओंकी अधिकता पाणां कामबाहुल्यात्तदर्थः श्रुते- होनेसे भी कर्मोके प्रति श्रुतिका रधिको यत्नः कर्मसूपपद्यते ।।
अधिक यत्न होना उचित ही है,
क्योंकि 'मुझे यह मिले, मुझे यह आशिपां चाहुल्यदर्शनादिदं मे मिले' इस प्रकार कामनाओंकी स्यादिदं मे स्यादिति । बहुलता भी देखी ही जाती है । उपायत्वाच; उपायभूतानि |
| उपायरूप होनेके कारण भी
| [ श्रुतिका उनमें विशेष प्रयत्न है । हि कर्माणि विद्यां प्रतीत्यवो- कर्म ज्ञानोत्पत्तिमें उपायरूप हैं-ऐसा चाम । उपायेऽधिको यत्नः |
| हम पहले कह चुके हैं; तथा प्रयत्न
उपायमें ही अधिक करना चाहिये, कर्तव्यो नोपेये । | उपेयमें नहीं।
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली १
८०
कर्मनिमित्तत्वाद्विद्याया यत्ना- पूर्व०-ज्ञान कर्मकेनिमित्तसे होनेन्तरानर्थक्थमिति चेत्कर्मभ्य एव!
| वाला है, इसलिये भी अन्य प्रयत्नकी
निरर्थकता सिद्ध होती है यदि कर्मोपूर्वोपचितदुरितप्रतिबन्धक्षयादेव के द्वारा ही पूर्वसञ्चित पापरूप प्रतिविद्योत्पद्यते चेत्कर्मभ्यः पृथगुप
वन्धका क्षय होनेपर ज्ञानकी उत्पत्ति
होती है तो कमोसे भिन्न उपनिपच्छ्व• निपच्छ्रवणादियनोऽनर्थक इति
णादिविषयक प्रयत्न व्यर्थ ही है। चेत् ।
ऐसा मानें तो? न; नियमाभावात् । न हि सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि ऐसा प्रतिवन्धक्षयादेव विद्योत्पद्यते न कोई नियम नहीं है-'ज्ञानकी उत्पत्ति त्वीश्वरप्रसादतपोध्यानाद्यनुष्ठा
प्रतिबन्धके क्षयसे ही होती है,
ईश्वरकृपा तप एवं ध्यानादिके नादिति नियमोस्ति । अहिंसा- | अनुष्ठानसे नहीं हो सकती' ऐसा ब्रह्मचर्यादीनां च विद्या प्रत्युप
कोई नियम नहीं है क्योंकि अहिंसा
एवं ब्रह्मचर्यादि भी ज्ञानोत्पत्तिमें कारकत्वात्साक्षादेव च कारणत्वा
उपयोगी हैं तथा श्रवण, मनन और च्छ्रवणमनननिदिध्यासनानाम् । निदिध्यासनादि तो उसके साक्षात् अतः सिद्धान्याश्रमान्तराणि | कारण ही हैं । अतः अन्य आश्रमोंसर्वेषां चाधिकारो विद्यायां परं
का होना सिद्ध ही है, तथा ज्ञानमें
| सभी आश्रमियोंका अधिकार है । च श्रेयः केवलाया विद्याया | इससे यह सिद्ध हुआ कि परमश्रेयकी एवेति सिद्धम् ।
प्राप्ति केवल ज्ञानसे ही हो सकती है।
इति शीक्षावल्ल्यामेकादशोऽनुवाकः ॥ ११ ॥
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द्वादश अनुवाक अतीतविद्याप्राप्त्युपसर्गशम- ! नार्थ शान्ति पठति -
पूर्वकथित विद्याकी प्राप्तिके प्रतिबन्धोंकी शान्तिके लिये शान्तिपाठ किया जाता है
शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्मावादिपम् । ऋतमवादिषम् । सत्यमवादिषम् । तन्मामावीत् । तद्वक्तारमावीत् । आवीन्माम् । आवीद्वक्तारम् ॥
ॐ शान्तिः ! शान्तिः ॥ शान्तिः !!! ॥ १ ॥
मित्र (सूर्यदेव) हमारे लिये सुखकर हो । वरुण हमारे लिये सुखावह हो । अर्यमा हमारे लिये सुखप्रद हो । इन्द्र तथा बृहस्पति हमारे लिये शान्तिदायक हों । तथा जिसका पादविक्षेप बहुत विस्तृत है वह विष्णु हमारे लिये सुखदायक हो । त्रह्म [ रूप वायु ] को नमस्कार है । हे बायो ! तुम्हें नमस्कार है । तुम ही प्रत्यक्ष ब्रह्म हो । तुम्हींको हमने प्रत्यक्ष ब्रह्म कहा है । तुम्हींको ऋत कहा है । तुम्हींको सत्य कहा है । अतः तुमने मेरी रक्षा की है तथा ब्रह्मका निरूपण करनेवाले आचार्यकी भी रक्षाकी है । मेरी रक्षा की है और वक्ताकी भी रक्षा की है । त्रिविध तापकी शान्ति हो ॥ १ ॥
•
व्याख्यातमेतत्पूर्वम् ॥ १ ॥
इसकी व्याख्या पहले की जा चुकी है ॥ १ ॥
∞
इति शीक्षावल्ल्यां द्वादशोऽनुवाकः ॥ १२ ॥
whimmer
११-१२
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यगोविन्द भगवत्पूज्यपादशिष्यश्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ तैत्तिरीयोपनिषद्भाष्ये शीक्षावल्ली समाप्ता ॥
14+030040
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ब्रह्मानन्द
तथ्य अनुदाक amitraai शान्तिपाठ
अतीतविद्याप्राप्त्युपसर्गप्रश- पूर्वकथित विद्याकी प्राप्तिके प्रतिवन्धोंकी शान्तिके लिये शान्तिमनार्था शान्तिः पठिता । इदानीं पाठ कर दिया गया । अत्र आगे तु वक्ष्यमाणत्रह्मविद्याप्राप्त्युप - ! कही जानेवाली विद्याको प्राप्तिके प्रतिबन्धोंकी शान्तिके लिये शान्तिसर्वोपशमनार्था शान्तिः पठ्यते- पाठ किया जाता है—
1
ॐ सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सहवीर्यं करवावहै । तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्तिः !!!
[ चह परमात्मा ] हम [ आचार्य और शिष्य ] दोनोंकी साथ-साथ रक्षा करे, हम दोनोंका साथ-साथ पालन करे, हम साथ-साथ वीर्यलाभ करें, हमारा अध्ययन किया हुआ तेजखी हो और हम परस्पर द्वेष न करें। तीनों प्रकारके प्रतिबन्धोंकी शान्ति हो ।
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अनु०१]
शाङ्करभाष्यार्थ.
सह नाववतु-नौ शिप्याचायौँ, 'सह नाववतु'-[वह ब्रह्म ] हम : सहैवाचतु रक्षतु । सह नौ भुनक्तु
आचार्य और शिष्य दोनोंकी साथ
साथ ही रक्षा करे और हमारा साथभोजयतु । सह वीर्य विद्यादि-साथ भरण अर्थात् पालन करे । हम निमित्तं सामर्थ्य करवावहै निर्वत- साथ-साथ वीर्य यानी विद्याजनित
सामर्थ्य सम्पादन करें; हम दोनों यावहै । तेजस्वि नावाचयोस्तेज
| तेजखियोंका अध्ययन किया हुआ स्विनोरधीतं स्वधीतमस्तु, अर्थ- तेजखी-सम्यक् प्रकारसे अध्ययन ज्ञानयोग्यमस्त्वित्यर्थः । मा
किया हुआ अर्थात् अर्थ-ज्ञानके योग्य
हो तथा हम विद्वेप न करें। विद्याविद्विपावहः विद्याग्रहणनिमित्तं ग्रहणके कारण शिष्य अथवा शिष्यस्याचार्यस्य वा प्रमादकृता- | आचार्यका प्रमादकृत अन्यायसे दन्यायाद्विद्वेषः प्राप्तस्तच्छमनाय
द्वेप हो सकता है; उसकी शान्तिके
लिये 'मा विद्विपावहै' ऐसी कामना इयमाशीर्मा विद्विपावहा इति ।
हा शत । की गयी है । तात्पर्य यह है कि मैंतरेतरं विद्वेपमापद्यावहै। हम एक-दूसरेके विद्वेपको प्राप्त न हों। शान्तिः शान्तिः शान्तिरिति 'शान्तिः शान्तिः शान्तिः' इस
प्रकार तीन बार 'शान्ति' शब्द त्रिर्वचनमुक्तार्थम् । वक्ष्यमाण
उच्चारण करनेका प्रयोजन पहले कहा विद्याविनप्रशमनार्था चेयं जा चुका है । यह शान्तिपाठ आगे
कही जानेवाली विद्याके विघ्नोंकी शान्तिः। अविनात्मविद्या- शान्तिके लिये है । इसके द्वारा प्राप्तिराशास्यते तन्मूलं हि परं
निर्विघ्नतापूर्वक आत्मविद्याकी प्राप्ति
की कामना की गयी है, क्योंकि वही श्रेय इति ।
| परम श्रेयका भी मूल कारण है । ।
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८४
तैत्तिरीयोपनिपद्
[चल्ली २
उपनाम:
ब्रह्मज्ञानके फल, सष्टिकम और अन्नमयकोशरूप
पक्षीका वर्णन संहितादिविपयाणि कर्मभि- कम से अविरुद्ध संहितादिविषयक
रविरुद्धान्युपासना- , उपासनाओंका पहले वर्णन किया न्युक्तानि अनन्तरं गया । उसके पथात् व्याहतियोंक
द्वारा स्वाराज्यसप फल देनेवाला चान्त सोपाधिकात्मदर्शनमुक्त
हृदयसित सोपाधिक आत्मदर्शन व्याहतिद्वारेण स्वाराज्यफलम् । कहा गया । किन्तु इतनेहीसे संसारन चैतावताशेषतः संसारवीज- के बीजका पूर्णतया नाश नहीं हो स्योपमर्दनमस्तीत्यतोऽशेपोपद्रव- जाता । अतः सम्पूर्ण उपद्रयोंके वीजस्याज्ञानस्य निवृत्त्यर्थं विधत- बीजभूत अज्ञानको निवृत्तिकै निमिन
इस सर्वोपाधिरूप विशेपने रहित सर्वोपाधिविशेषात्मदर्शनार्थमिद
आत्माका साक्षात्कार करानेके लिये भारस्यते ब्रह्मविदामोति पर- अब 'ब्रहाविदामोति परम्' इत्यादि मित्यादि।
मन्त्र आरम्भ किया जाता है । प्रयोजनं चास्या ब्रह्मविद्याया . इस ब्रह्मविघाका प्रयोजन अविद्याअविद्यानिवृत्तिस्तत आत्यन्तिकः को निवृत्ति है, उससे संसारका
| आत्यन्तिक अभाव होता है। यही संसाराभावः । वक्ष्यति च
बात "ब्रह्मवेत्ता किसीसे नहीं डरता" "विद्वान विभेति कुतश्चन" इत्यादि वाक्यसे श्रुति आगे कहेगी (ते० उ०२।९।१) इति । | भी । संसारके निमित्त [ अज्ञान] संसारनिमित्ते च सत्यभयं
के रहते हुए 'पुरुष अभय स्थितिको
प्राप्त कर लेता है तथा उसे कृत प्रतिष्ठां च विन्दत इत्यनुपपन्नम्, और अकृत अर्थात् पुण्य और पाप
ताकृते पुण्यपापे न तपत इति ताप नहीं पहुँचाते' ऐसा मानना च । अतोऽवगम्यतेऽसाद्विज्ञाना
| सर्वथा अयुक्त है। इससे जाना सर्वात्मब्रह्मविषयादात्यन्तिका
जाता है कि इस सर्वात्मक ब्रह्म
विषयक विज्ञानसे ही संसारका संसाराभाव इति । | आत्यन्तिक अभाव होता है ।
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अनु०१]
शाङ्करभाष्यार्थ
स्वयमेव च प्रयोजनमाह | इस प्रकरणके सम्बन्ध और ब्रह्मविदामोति परमित्यादावेव प्रयोजनका ज्ञान करानेके लिये
श्रुतिने स्वयं ही 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्' संवन्धप्रयोजनज्ञापनार्थम् । नि
इत्यादि वाक्यसे आरम्भमें ही इसका तियोहि सम्बन्धप्रयोजनयो- प्रयोजन बतला दिया है, क्योंकि विद्याश्रवणग्रहणधारणाभ्यासार्थ सम्बन्ध और प्रयोजनोंका ज्ञान हो प्रवर्तते । श्रवणादिपूर्वकं हि
जानेपर ही पुरुप विद्याके श्रवण,
ग्रहण, धारण और अभ्यासके लिये विद्याफलम् "श्रोतव्यो मन्तव्यो प्रवृत्त हुआ करता है । "श्रोतव्यो निदिध्यासितव्यः। (वृ. उ.! मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः" इत्यादि
दूसरी श्रुतियोंसे यह भी निश्चय २।४ । ५) इत्यादिश्रुत्यन्त- होता ही है कि विद्याका फल रेभ्यः ।
श्रवणादिपूर्वक होता है। ब्रह्मविदाप्नोति परम् । तदेषाभ्युक्ता । सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् । सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति । तस्माद्वा एतस्सादात्मन आकाशःसंभूतः आकाशाद्वायुः। वायोरग्निः । अग्नेरापः । अद्भ्यः पृथिवी । पृथिव्या
ओषधयः । ओषधीभ्योऽन्नम् । अन्नोत्पुरुषः । स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः। तस्येदमेव शिरः । अयं दक्षिणः पक्षः। . अयमुत्तरः पक्षः । अयमात्मा । इदं पुच्छं प्रतिष्ठा । तदप्येप श्लोको भवति ॥१॥ ___ ब्रह्मवेत्ता परमात्माको प्राप्त कर लेता है । उसके विपयमें यह [श्रुति ] कही गयी है-'ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनन्त है ।' जो पुरुप उसे बुद्धिरूप परम आकाशमें निहित जानता है, वह सर्वज्ञ ब्रह्मरूपसे एक साथ ही सम्पूर्ण भोगोंको प्राप्त कर लेता है । उस इस आत्मासे ही आकाश उत्पन्न हुआ । आकाशसे वायु, वायुसे अग्नि, अग्निसे जल,
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'तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली २
जलसे पृथिवी, पृथिवीसे ओषधियाँ, ओपधियोंसे अन्न और अन्नसे पुरुष उत्पन्न हुआ। वह यह पुरुष अन्न एवं रसमय ही है । उसका यह [ शिर ] ही शिर है, यह [ दक्षिण बाहु ] ही दक्षिण पक्ष है, यह [ वाम वाहु ] वामपक्ष है, यह [शरीरका मध्यभाग] आत्मा है और यह [नीचेका भाग] पुच्छ प्रतिष्ठा है । उसके विपयमें ही यह श्लोक है ॥ १॥
ब्रह्मविहलोत वक्ष्यमाणलक्षणं 'ब्रह्मवित्'-ब्रह्म, जिसका लक्षण ब्रह्मविदो वृहत्तमत्वाब्रह्म त- आगे कहा जायगा और जो
सबसे बड़ा होनेके कारण 'ब्रह्म' नाप्राप्तिनिरूपणम् द्वेत्ति विजानातीति कहलाता है, उसे जो जानता है ब्रहाविदामोति परं निरतिशयं ! उसका नाम 'ब्रह्मवित्' है; वह
ब्रह्मवित् उस परम-निरतिशय ब्रह्मतदेव ब्रह्म परम् । न बन्यस्य को ही 'आप्नोति'-प्राप्त कर लेता विज्ञानादन्यस्य प्राप्तिः। स्पष्टं है क्योंकि अन्यके विज्ञानसे किसी
अन्यकी प्राप्ति नहीं हुआ करती। च श्रुत्यन्तरं ब्रह्मप्राप्तिमेव ब्रह्म
"वह, जो कि निश्चय ही उस परब्रह्मविदो दर्शयति " स यो ह वै को जानता है, ब्रह्म ही हो जाता तत्परसं ब्रह्म वेद ब्रोव भवति" है" यह एक दूसरी श्रुति ब्रह्मवेत्ता
को स्पष्टतया ब्रह्मकी ही प्राप्ति होना (मु० उ०३।२।९) इत्यादि । प्रदर्शित करती है।
ननु सर्वगतं सर्वस्यात्मभूतं शंका-ब्रह्म सर्वगत और सबका ब्रह्म वक्ष्यति । अतो नाप्यम । आत्मा है-ऐसा आगे कहेंगे; इसलिये
वह प्राप्तव्य नहीं हो सकता । प्राप्ति प्राप्तिश्चान्यस्यान्येन परिच्छिन्नस्य तो अन्य परिच्छिन्न पदार्थकी किसी च परिच्छिन्नेन दृष्टा । अपरि
अन्य परिच्छिन्न पदार्थद्वारा ही होती
देखी गयी है। किन्तु ब्रह्म तो च्छिन्नं सर्वात्मकं च ब्रोत्यतः अपरिच्छिन्न और सर्वात्मक है; परिच्छिन्नवदनात्मवच्च तस्याप्ति
| इसलिये परिच्छिन्न और अनात्म
| पदार्थके समान उसकी प्राप्ति होनी रनुपपन्ना।
| असम्भव है।
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अनु० १
शाङ्करंभाप्यार्थ
नायं दोपः, कथम् ? दर्श- समाधान-यह कोई दोपकी नादर्शनापेक्षत्वाहह्मण आप्त्य- है ? क्योंकि ब्रह्मकी प्राप्ति और
बात नहीं है; किस प्रकार नहीं . नाप्त्योः । परमार्थतो ब्रह्मरूप- | अप्राप्ति तो उसके साक्षात्कार और
| असाक्षात्कारको अपेक्षासे हैं । जिस स्यापि सतोऽस्य जीवस्य भृत- प्रकार [ दशम पुरुपके लिये ]
प्रकृत ( दशम) संख्याकी पूर्ति मात्राकृतवाह्यपरिच्छिन्नान्नमया- करनेवाला अपना-आप* सर्वथा द्यात्मदर्शिनस्तदासक्तचेतसः प्र
अव्यवहित होनेपर भी संख्या करने
योग्य बाह्य विषयोंमें आसक्तचित्त कृतसंख्यापूरणस्यात्मनोऽव्यव- रहनेके कारण वह अपने स्वरूपका
अभाव देखता है उसी प्रकार पञ्चहितस्यापि चाह्यसंख्येयविषया- | भूत तन्मात्राओंसे उत्पन्न हुए बाह्य सक्तचित्ततया स्वरूपाभावदर्शन
.परिच्छिन्न अन्नमय कोशादिमें आत्म
| भाव देखनेवाला यह जीव परमार्थतः वत्परमार्थब्रह्मस्वरूपाभावदर्शन- ! ब्रह्मखरूप होनेपर भी उनमें आसक्त
हो जाता है और अपने परमार्थ लक्षणयाविद्ययान्नमयादीन्बाह्या- | ब्रह्मखरूपका अभाव देखनारूप
अविद्यासे अन्नमय कोश आदि बाह्य ननात्मन आत्मत्वेन प्रतिपन्न- अनात्माओंको आत्मखरूपसे देखनेस्वादन्नमयाचनात्मभ्यो नान्यो
के कारण 'मैं अन्नमय आदि
अनात्माओंसे भिन्न नहीं हूँ' ऐसा ऽहमस्मीत्यभिमन्यते । एवमविद्य- अभिमान करने लगता है। इसी प्रकार
अपना आत्मा होनेपर भी अविद्यावश यात्मभूतमपि ब्रह्मानाप्तं स्यात् ।' ब्रह्म अप्राप्त ही है।
___* इस विषयमें यह दृष्टान्त प्रसिद्ध है कि एक बार दश मनुष्य यात्रा कर रहे थे । रास्तेमें एक नदी पड़ी । जब उसे पार कर वे उसके दूसरे तटपर पहुँचे तो यह जाननेके लिये कि हममेंसे कोई बह तो नहीं गया अपनेको गिनने लगे । उनमेंसे जो भी गिनना आरम्भ करता वह अपनेको छोड़कर शेष नौको ही गिनता । इस प्रकार एककी कमी रहनेके कारण वे यह समझकर कि हममें से एक आदमी नदीमें बह गया है खिन्न हो रहे थे। इतनेहीमें एक बुद्धिमान्
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दद
तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली२
तस्यैवमविधयानाप्तबलस्व- जिस प्रकार प्रकृत (दशम)
संख्याको पूर्ण करनेवाला अपना-आप रूपस्य प्रकृतसंख्यापूरणस्यात्म
अविद्यावश अप्राप्त रहता है और फिर नोऽविद्ययानातस्य सतः केन-किसीके द्वारा स्मरण करा दिये जानेचित्स्मारितस्य पुनस्तस्यैव वि- पर विद्याद्वारा उसकी प्राप्ति हो जाती
। है उसी प्रकार अविद्यावश जिसके घयाप्तियथा तथा श्रुत्युपदिष्टस्य ब्रह्मखरूपकी उपलब्धि नहीं होती सर्वात्मन्नह्मण आत्मत्वदर्शनेन उस सबके आत्मभूत श्रुत्युपदिष्ट
। ब्रह्मकी आत्मदर्शनरूप विद्याके द्वारा विद्यया तदाप्तिरुपपद्यत एव । 'प्राप्ति होनी उचित ही है।
ब्रह्मविदामोति परमिति वाक्यं' 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्' यह वाक्य उत्तरग्रन्थाव- सूत्रभूतम् । सर्वस्य मूत्रभूत है । जो सम्पूर्ण वल्लीके नरणिका वल्ल्यर्थस्य ब्रह्म
__ : अर्थका विषय है, जिसका 'ब्रह्मविदा
जल । नोति परम्' इस वाक्यद्वारा ज्ञातव्यविदामोति परमित्यनेन वाक्येन । रूपसे सूत्रतः उल्लेख किया गया वेद्यतया सूत्रितस्य ब्रह्मणोनि
! है, उस ब्रह्मके ऐसे लक्षणका
न जिसके विशेप रूपका निश्चय नहीं र्धारितवरूपविशेषस्य सर्वतो किया गया है और जो सम्पूर्ण व्यावृत्तस्वरूपविशेषसमर्पणमस ! वस्तुओसे व्यावृत्त खरूपविशेपका
| ज्ञान कराने में समर्थ है-वर्णन करते र्थस्य लक्षणस्याभिधानेन स्वरूप- हुए खरूपका निश्चय करानेके लिये निर्धारणायाविशेषेण चोक्तवेद
तथा जिसके ज्ञानका सामान्यरूपसे
२ वर्णन कर दिया गया है उस आगे नस्य ब्रह्मणो वक्ष्यमाणलक्षणस्य । कहे जानेवाले लक्षणोंसे युक्त ब्रह्मको पुरुष उधर आ निकला । उसने सब वृत्तान्त जानकर उन्हे एक लाइनमें खड़ा किया और हाथमें डण्डा लेकर एक, दो, तीन-इस प्रकार गिनते हुए हरएकके एक-एक डण्डा लगाकर उन्हें दश होनेका निश्चय करा दिया और यह भी दिखला दिया कि वह दशवाँ पुरुष स्वयं गिननेवाला ही था जो दूसरोंमें आसक्तचित्त रहनेके कारण अपनेको भूले हुए था।
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अनु०१]
शाङ्करभाज्यार्थ
विशेषेण प्रत्यगात्मतयानन्य- विशेषतः 'अपना अन्तरात्मा होनेसे .रूपेण विज्ञेयत्वाय, ब्रह्मविद्याफलं
अनन्यरूपसे जाननेयोग्य है' ऐसा
प्रतिपादन करनेके लिये और यह च ब्रह्मविदो यत्परब्रह्मप्राप्ति- दिखलानेके लिये कि-ब्रह्मवेत्ताको जो लक्षणमुक्तं स सर्वात्मभावः सर्व
परमात्माकी प्राप्तिरूप ब्रह्मविद्याका
फल बतलाया गया है वह सर्वात्मभाव संसारधर्मातीतब्रह्मस्वरूपत्वमेव सम्पूर्ण सांसारिक धर्मोसे अतीत नान्यदित्येतत्प्रदर्शनायैपर्मुदाहि
ब्रह्मखरूपता ही है-और कुछ नहीं
है-'तदेपाभ्युक्ता' यह ऋचा कहीं यते-तदेपाभ्युक्तति । जाती है।
तत्तस्मिन्नेव ब्राह्मणवाक्यो- तत्-उस ब्राह्मणवाक्यद्वारा क्तेऽर्थ एपर्गम्युक्तानाता। सत्यं बतलाये हुए अर्थमें हो [ सल्यं ज्ञानज्ञानमनन्तं ब्रहोति ब्रह्मणो लक्ष
.. मनन्तं ब्रह्म ] यह ऋचा कही गयी
है । 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' यह णार्थं वाक्यम् । सत्यादीनि हि वाक्य ब्रह्मका लक्षण करनेके लिये त्रीणि विशेषणार्थानि पदानि है । 'सत्य' आदि तीन पद विशेष्य विशेष्यस्य ब्रह्मणः । विशेष्यं
ब्रह्मके विशेषण बतलानेके लिये हैं।
वेद्यरूपसे विवक्षित (बतलाये जानेब्रह्म विवक्षितत्वाद्वेद्यतया ।।
को इष्ट) होनेके कारण ब्रह्म वेद्यत्वेन यतो ब्रह्म प्राधान्येन विशेष्य है । क्योंकि ब्रह्म प्रधानतया विवक्षितं तस्माद्विशेष्यं विज्ञेयम्। | वेद्यरूपसे (ज्ञानके विपयरूपसे) अतः असाद् विशेषणविशेष्य- विवक्षित है; इसलिये उसे विशेष्य
समझना चाहिये । अतः इस त्वादेव सत्यादीनि
न एक विशेपण-विशेष्यभावके कारण एक
एक विभक्त्यन्तानि पदानि समाना- ही विभक्तिवाले 'सत्य' आदि तीनों धिकरणानि । सत्यादि । पद समानाधिकरण हैं । सत्य आदि
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली २
भिस्तिभिर्विशेपणैर्विशेष्यमाणं ब्रह्म | तीन विशेषणोंसे विशेपित होनेवाला
ब्रह्म अन्य विशेष्योंसे पृथग्रूपसे निश्चय विशेष्यान्तरेभ्यो निर्धार्यते । एवं | किया जाता है। जिसका अन्य पदार्थो
से पृथक्रूपसे निश्चय किया गया है हि तज्ज्ञानं भवति यदन्येभ्यो उसका इसी प्रकार ज्ञान हुआ करता
है; जैसे लोकमें 'नील' विशाल और निर्धारितम् । यथा लोके नीलं सुगन्धित कमल [-ऐसा कहकर ऐसे
कमलका अन्य कमलोंसे पृथकरूपसे महत्सुगन्ध्युत्पलसिति ।
निश्चय किया जाता है । ननु विशेष्यं विशेषणान्तरं शंका-अन्य विशेषणोंका व्यावर्तन निर्विशेपस्य व्यभिचरद्विशेष्यते!
करनेपर ही कोई विशेष्य विशेपित विशेषणवत्वे
हुआ करता है; जैसे-नीला अथवा __ भाक्षेपः यथा नाल रक्त लाल कमल | जिस समय अनेक द्रव्य चोत्पलमिति । यदा बनेकानि एकहीजातिके और अनेक विशेषणोंद्रव्याण्येकजातीयान्यनेकविशेषण- की योग्यतावाले होते हैं तभी
| विशेषणोंकी सार्थकता होती है । एक योगीनि च तदाविशेषणस्यार्थ- ही वस्तुमें, किसी अन्य विशेषणका
सम्बन्ध न हो सकनेके कारण, वत्वम् । न ोकस्मिन्नेव वस्तुनि
विशेपणकी सार्थकता नहीं होती। विशेषणान्तरायोगाद् । यथासा- जिस प्रकार यह सूर्य एक है उसी प्रकार चेक आदित्य इति, तथैकमेव च ब्रह्म भी एक ही है, उसके सिवा अन्य
ब्रह्म हैं ही नहीं, जिनसे कि नोल ब्रह्म न ब्रह्मान्तराणि येभ्यो
कमलके समान उसकी विशेषता विशेष्येत नीलोत्पलवत्। बतलायी जाय । न; लक्षणार्थत्वाद्विशेषणा- समाधान-ऐसा कहना ठीक
नहीं है, क्योंकि ये विशेपण लक्षणके ब्रह्मविशेषणानां नाम् । नायं दोषः, लिये हैं। [अब इस सूत्ररूप वाक्यतलक्षणार्थत्वम् करसात ? यस्माल- की ही व्याख्या करते हैं-1 यह
| दोप नहीं हो सकता, क्यों नहीं हो क्षणार्थप्रधानानि विशेषणानि न | सकता क्योंकि ये विशेषण लक्षणार्थ
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अनु०१]
शाङ्करमाप्यार्थ
विशेषणप्रधानान्येव का पुनर्ल- प्रधान हैं, केवल विशेषणप्रधान ही
| नहीं हैं । किन्तु लक्षण-लक्ष्य तथा क्षणलक्ष्ययोर्विशेषणविशेष्ययोर्वा विशेषण-विशेष्यमें विशेषता (अन्तर) । विशेष इति ? उच्यते ; समान
क्या है ? सो बतलाते हैं-विशेषण
| तो अपने विशेष्यका उसके सजातीय जातीयेभ्य एव निवर्तकानि पदार्थोंसे ही व्यावर्तन करनेवाले विशेषणानि विशेष्यस्य । लक्षणं
होते हैं, किन्तु लक्षण उसे सभीसे
व्यावृत्त कर देता है। जिस प्रकार तु सर्वत एव यथावकाशप्रदात्रा- अवकाश देनेवाला 'आकाश' होता
है-इस वाक्यमें है। यह हम पहले काशमिति । लक्षणार्थं च वाक्य
ही कह चुके हैं कि यह वाक्य मित्यवोचाम।
[आत्माका] लक्षण करनेके लिये है। सत्यादिशब्दा न परस्परं सत्यादि शब्द परार्थ (दूसरेके
लिये) होनेके कारण परस्पर सत्यमित्यस्य संवध्यन्ते परार्थ
सम्बन्धित नहीं हैं । वे तो विशेष्यव्याख्यानम् त्वात् । विशेष्यार्था
के ही लिये हैं । अतः उनमेंसे हि ते । अत एकैको विशेषण
| प्रत्येक विशेपणशब्द परस्पर एकशब्दः परस्परं निरपेक्षो ब्रह्म- दुसरेकी अपेक्षा न रखकर ही 'सत्यं शब्देन संवध्यते सत्यं ब्रह्म ब्रह्म, ज्ञानं ब्रह्म, अनन्तं ब्रह्म' इस ज्ञानं ब्रह्मानन्तं ब्रोति । प्रकार 'ब्रह्म' शब्दसे सम्बन्धित है। सत्यमिति यद्रूपेण यनिश्चितं सत्यम्-जो पदार्थ जिस रूपसे
निश्चय किया गया है उससे. व्यभितद्रूपं न व्यभिचरति तत्सत्यम् । चरित न होनेके कारण वह सत्य
कहलाता है। जो पदार्थ जिस रूपसे यद्रूपेण निश्चितं यत्तद्रूपं व्यभि- | निश्चित किया गया है उस रूपसे
* इस वाक्यमें 'अवकाश देनेवाला' यह पद उसके सजातीय अन्य महाभूतोंसे तथा विजातीय आत्मा आदिसे भी व्यावृत्त कर देता है।
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९२
ततिरीयोपनिपद्
[ चल्ली २
शानमित्यत्य
चरदतृतमित्युच्यते । अतो वि- व्यभिचरित होनेपर बह मिथ्या कहा कारोऽनृतम् । "वाचारम्भणं जाता है । इसलिये विकार मिथ्या
· है। "विकार केवल वाणांसे आरम्भ विकारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव होनेवाला और नाममात्र है, बस, - सत्यम्" (छा० उ०६।१।४) मृत्तिका ही सत्य है" इस प्रकार
निश्रय किया जानेके कारण सत् एवं सदेव सत्यमित्यवधारणात् ।
ही सत्य है। अतः 'सत्यं ब्रह्म' अतः सत्य ब्रहात नल विकार वह वाक्य ऋको विकारमात्र रान्निवर्तयति।
निवृत्त करता है। अतः कारणत्वं प्राप्तं ब्रह्मणः। इससे ब्रह्मका कारणत्त्र प्राप्त
होता है और वस्तुरूप होनेसे कारणस्य च कार
कारणमें कारकत्व रहा करता है। तात्पर्यन कत्व वस्तुत्वान्मृद्ध- अतः मृत्तिकाक समान उसकी जड़शानकर्तुत्वाभाव-दचिद्रूपता च प्रा- रूपताका प्रसङ्ग उपस्थित हो जाता निरूपणं च
सात इदमुच्यते है । इत्तीसे 'ज्ञानं ब्रह्म' ऐसा कहा ज्ञानं ब्रह्मोति । ज्ञानं ज्ञप्तिरव- है । 'ज्ञान' ज्ञप्ति यानी अवबोधको
। कहते हैं । 'ज्ञान' शब्द भाववाचक वोधः, भावसाधनो ज्ञानशब्दो
भावसाचना ज्ञानशब्दा, है; 'सत्य' और 'अनन्त' के न तु ज्ञानकर्ट ब्रह्माविशेषण- । साथ ब्रह्मका विशेषण होनेके कारण त्वात्सत्यानन्ताभ्यां सह । न उसका अर्थ 'ज्ञानकर्ता नहीं हो
सकता । उसका ज्ञानकर्तृत्व स्वीकार हि सत्यतानन्तता च ज्ञान- करनेपर ब्रह्मकी सत्यता और कतत्वे सत्युपपद्यते । ज्ञान- अनन्तता सम्भव नहीं है। ज्ञानकर्तृत्वेन हि चिक्रियमाणं कथं
। कर्तारूपसे विकारको प्राप्त होनेवाला
कय होकर ब्रह्म सत्य और अनन्त कैसे सत्यं भवेदनन्तं च । यद्धि न हो सकता है ? जो किसीसे भी
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अनु० १ ]
कुतश्चित्प्रविभज्यते तदनन्तम् । ज्ञानकर्तृत्वे च ज्ञेयज्ञानाभ्यां
शाङ्करभाष्यार्थ
प्रविभक्तमित्यनन्तता न स्यात् । "यत्र नान्यद्विजानाति स भूमा अथ यत्रान्यद्विजानाति तदल्पम्”
( छा० उ० ७ । २४ । १ ) इति
श्रुत्यन्तरात् ।
विभक्त नहीं होता वही अनन्त हो सकता है। ज्ञानकर्ता होनेपर तो वह ज्ञेय और ज्ञानसे विभक्त होगा; इसलिये उसकी अनन्तता सिद्ध नहीं हो सकेगी । " जहाँ किसी दूसरेको नहीं जानता वह भूमा है और जहाँ किसी दूसरे को जानता है वह अल्प है" इस एक दूसरी श्रुतिसे यही सिद्ध होता है ।
नान्यद्विजानातीति विशेष
इस श्रुतिमें 'दूसरेको नहीं जानता' इस प्रकार विशेषका प्रतिपेधादात्मानं विजानातीति । प्रतिपेध होनेके कारण वह स्वयं अपनेको ही जानता है-ऐसी यदि चेन्नः भूमलक्षणविधिपरत्वाद्वा- कोई शङ्का करे तो ठीक नहीं, क्योंकि यह वाक्य भूमाके लक्षणका क्यस्य । यत्र नान्यत्पश्यतीत्यादि विधान करनेमें प्रवृत्त है । 'यत्र नान्यत्पश्यति' इत्यादि वाक्य भूमाके भूम्नो लक्षणविधिपरं वाक्यम् | लक्षणका विधान करनेमें तत्पर है। यथा प्रसिद्धमेवान्योऽन्यत्पश्य- अन्य अन्यको देखता है-इस लोकप्रसिद्ध वस्तुस्थितिको स्वीकार कर 'जहाँ ऐसा नहीं है वह भूमा है'- इस प्रकार उसके द्वारा भूमाके खरूपका बोध कराया जाता है । 'अन्य' शब्दका ग्रहण तो यथाप्राप्त द्वैतका प्रतिपेध करनेके लिये है; अतः यह वाक्य अपनेमें क्रियाका अस्तित्व त्वान्न खात्मनि क्रियास्तित्वपरं । प्रतिपादन करनेके लिये नहीं है । और खात्मामें तो भेदका अभाव वाक्यम् । स्वात्मनि च भेदा- | होनेके कारण उसका विज्ञान होना
तीत्येतदुपादाय यत्र तन्नास्ति
स भूमेति भूमस्वरूपं तत्र ज्ञाप्य -
ते । अन्यग्रहणस्य प्राप्तप्रतिषेधार्थ
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९४
तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली २
भावाद्विज्ञानानुपपत्तिः। आत्म-सम्भव ही नहीं है । आत्माका -
विज्ञेयत्व स्वीकार करनेपर तो ज्ञाताके नश्च विज्ञेयत्वे ज्ञानभावप्रसङ्ग, अभावका प्रसङ्ग उपस्थित हो जाता
है, क्योंकि वह तो विज्ञयरूपसे ही ज्ञेयत्वेनैव विनियुक्तत्वात् ।
विनियुक्त (प्रयुक्त) हो चुका है।
[अब उसे ज्ञाता कैसे माना जाय ?] एक एवात्मा ज्ञेयत्वेन ज्ञात- शंका-एक ही आत्मा ज्ञेय और
, ज्ञाता दोनों प्रकारसे हो सकता हैत्वेन चोभयथा भवतीति चेत् ?
' ऐसा मानें तो? न युगपदनंशत्वात् । न हि समाधान-नहीं, वह अंशरहित निरवयवस्य युगपज्ज्ञयज्ञातृत्वो
होनेके कारण एक साथ उभयरूप
नहीं हो सकता । निरवयव ब्रह्मका पपत्तिः आत्मनश्च घटादिवद्विजे- एक साथ ज्ञेय और ज्ञाता होना यत्वे ज्ञानोपदेशानर्थक्यम् । न । सम्भव नहीं है । इसके सिवा यदि हि घटादिवत्प्रसिद्धय ज्ञानोप
| आत्मा घटादिके समान विज्ञेय हो
तो ज्ञानके उपदेशको व्यर्थता हो देशोऽर्थवान् । तसाज्ज्ञातृत्वे जायगी । जो वस्तु घटादिके समान सति आनन्त्यानुपपत्तिः । प्रसिद्ध है उसके ज्ञानका उपदेश
सार्थक नहीं हो सकता । अतः सन्मात्रत्वं चानुपपन्नं ज्ञान- 3
उसका ज्ञातृत्व माननेपर उसर्क कर्तृत्वादिविशेषवत्त्वे सति । स- | अनन्तता नहीं रह सकती । ज्ञानन्मात्रत्वं च सत्यत्त्वम्, "तत्स
कर्तृत्वादि विशेषसे युक्त होनेपर
उसका सन्मात्रत्व भी सम्भव नहीं त्यम्" (छा० उ० ६१८१६) है । और "वह सत्य है" इस एक इति श्रुत्यन्तरात् । तस्मा
अन्य श्रुतिसे उसका सत्यरूप होना
ही सन्मात्रत्व हैं । अतः 'सत्य' और त्सत्यानन्तशन्दाभ्यां सह विशे- 'अनन्त' शब्दोंके साथ विशेषण
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• अनु१]
। शाङ्करभाष्यार्थ .
पणत्वेन ज्ञानशब्दस्य प्रयोगा- रूपसे 'ज्ञान' शब्दका प्रयोग किया
जानेके कारण वह भाववाचक है । द्भावसाधनो ज्ञानशब्दः । ज्ञानं
अतः'ज्ञानं ब्रह्म' इस विशेषणका उसके ब्रहोति कतत्वादिकारकनिवृत्यर्थ कर्तृत्वादि कारकोंकी निवृत्ति के लिये
_ तथा मृत्तिका आदिके समान उसकी मृदादिवदचिद्रूपतानिवृत्यर्थं च
जडरूपताकी निवृत्तिके लिये प्रयोग प्रयुज्यते ।
किया जाता है। — ज्ञानं ब्रहोतिवचनात्प्राप्तमन्त- 'ज्ञानं ब्रह्म' ऐसा कहनेसे ब्रह्मका अनन्तमित्यन्य ववम् । लौकिकस्य अन्तवत्त्व प्राप्त होता है, क्योंकि निक्ति ज्ञानस्यान्तवर्ग लयाकक ज्ञान अन्तवान् ही देखा
गया है । अतः उसको निवृत्तिनात । अतस्तन्निवृत्त्यर्थमाह- के लिये 'अनन्तम्' ऐसा कहा अनन्तमिति । सत्यादीनामनृतादिधर्मनिवृत्ति- शंका-सत्यादि शब्द तो
अनृतादि धर्मोको निवृत्तिके लिये हैं प्रामणः शून्यार्थ- परत्वाद्विशेष्यस्य ।
और उनका विशेष्य ब्रह्म कमल त्यमाशगते ब्रह्मण उत्पलादि-आदिके समान प्रसिद्ध नहीं है; अतः वदग्रसिद्धत्वात् "मृगतृष्णाम्भसि “मृगतृष्णाके जलमें स्नान करके
शिरपर आकाशकुसुमका मुकुट स्नातः खपुष्पकृतशेखरः । धारण किये तथा हाथमें शशशृङ्गका एप बन्ध्यासुतो याति शशशृङ्ग
धनुप लिये यह वन्ध्याका पुत्र जा
रहा है" इस उक्तिके समान इस धनुधर हातवच्छन्यायतव | 'सत्यं ज्ञानम्' इत्यादि वाक्यकी प्राप्ता सत्यादिवाक्यस्येति चेत् ? शून्यार्थता ही प्राप्त होती है। .. नलक्षणार्थत्वात् । विशे- समाधान नहीं, क्योंकि वे पणत्वेऽपि सत्यादीनां. लक्षणार्थ- [सत्यादि] लक्षण करनेके लिये हैं।
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९६
तैत्तिरीयोपनिषद्
[बल्ली २
प्राधान्यमित्यवोचाम | शून्ये हि सत्यादि शब्द विशेषण होनेपर भी
उनका प्रधान प्रयोजन लक्षणके लिये लक्ष्येऽनर्थकं लक्षणवचनं लक्षणा
होना ही है-यह हम पहले ही कह र्थत्वात्मन्यामहे न शून्यार्थतेति । चुके हैं । यदि लक्ष्य शून्य हो तब
तो उसका लक्षण बतलाना भी व्यर्थ विशेषणार्थत्वेऽपि च सत्यादीनां
ही होगा । अतः लक्षणार्थ होने स्वार्थापरित्याग एव । | कारण उनकी शृन्यार्थता नहीं हैशून्यार्थत्वे हि सत्यादि
ऐसा हम मानते हैं । विशेषणके
५ लिये होने पर भी सत्यादि शब्दके शब्दानां विशेष्यनियन्तृत्वातुप-अपने अर्थका त्याग तो होता ही
नहीं है । यदि सत्यादि शब्दोंकी पत्तिः। सत्याद्यथैरर्थवत्वे तु शून्यार्थता हो तो वे अपने विशेप्यके
नियन्ता है-ऐसा नहीं माना जा तद्विपरीतधर्मवद्भयो विशेष्येभ्यो
सकता । सत्यादि अोंसे अर्थवान् ब्रह्मणो विशेष्यस्य नियन्तृत्वमुप
होनेपर ही उनके द्वारा अपनेसे विपरीत
धर्मवाले विशेष्यों से अपने विशेष्यवापद्यते । ब्रह्मशब्दोऽपि स्वार्थनार्थ- का नियन्तृत्व बन सकता है । 'ब्रह्म
शब्द भी अपने अर्थसे अर्थवान् ही वानेव । तत्रानन्तशब्दोऽन्तवत्व- है। उन सत्यादि तीन शब्दों में प्रतिपेधद्वारेण विशेषणम् । सत्य
'अनन्त' शब्द उसके अन्तवत्त्वका
प्रतिपेध करनेके द्वाराउसका विशेषण ज्ञानशन्दौ तु स्वार्थसमर्पणेनैव होता है तथा 'सत्य' और 'ज्ञान'
| शब्द तो अपने अर्योंके समर्पणद्वारा विशेषणे भवतः।
ही उसके विशेपण होते हैं। "तसाद्वा एतसादात्मनः" इति। शंका-"उसइस आत्मासे आकाश :
उत्पन्न हुआ" इस श्रुतिमें 'आत्मा' ब्रह्मण्येवात्मशन्दप्रयोगाद्वदितु- शब्दका प्रयोग ब्रह्मके ही लिये
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शाङ्करभाष्यार्थं
अनु० १. ]
रात्मैव ब्रह्म । " एतमानन्दमयमा किया
त्मानमुपसंक्रामति" ( तै० उ० २।८।५)इति चात्मतां दर्शयति ।
तत्प्रवेशाचः " तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्” (तै० उ० २।६।१) इति च तस्यैव जीवरूपेण शरीर प्रवेशं दर्शयति । अतो वेदितुः
स्वरूपं ब्रह्म ।
एवं
तर्ह्यत्मत्वाज्ज्ञानकर्तृ
त्वम् । आत्मा ज्ञातेति हि
प्रसिद्धम् । " सोऽकामयत" ( तै०
उ० २।६।१) इति च कामिनो ।
अनित्यत्वप्रसङ्गाच्च । यदि
नाम ज्ञप्तिर्ज्ञानमिति भावरूपता ब्रह्मणस्तथाप्यनित्यत्वं प्रसज्येत
पारतन्त्र्यं च । धात्वर्थानां
•
९७
कारकापेक्षत्वात् । ज्ञानं च
१३-१४
जानेके कारण ब्रह्म जाननेवालेका आत्मा ही है । " इस आनन्दमय आत्माको प्राप्त हो जाता है" इस वाक्यसे श्रुति उसकी, आत्मता दिखलाती है तथा उसके प्रवेश करनेसे भी [ उसका आत्मत्व सिद्ध होता है ] | " उसे रचकर वह उसीमें प्रविष्ट हो गया " ऐसा कहकर श्रुति उसीका जीवरूपसे शरीर में प्रवेश होना दिखलाती है । अतः ब्रह्म जाननेवालेका स्वरूप ही है ।
ज्ञानकर्तृत्वाज्ज्ञप्तिर्ब्रह्मेत्ययुक्तम् । कारण 'ब्रह्म ज्ञप्तिमात्र है' ऐसा कहना
1
अनुचित है ।
इस प्रकार आत्मा होनेसे तो उसे ज्ञानका कर्तृत्व सिद्ध होता है । 'आत्मा ज्ञाता है' यह बात तो प्रसिद्ध ही है । " उसने कामना की " इस श्रुतिसे कामना करनेवालेके ज्ञान कर्तृत्य की सिद्धि होती है । अतः ब्रह्मका ज्ञानकर्तृत्व निश्चित होनेके
इसके सिवा ऐसा माननेसे अनित्यत्वका प्रसङ्ग भी उपस्थित होता है। यदि 'ज्ञान इप्तिको कहते हैं' इस व्युत्पत्ति के अनुसार ब्रह्मकी भावरूपता मानी जाय तो भी
उसके अनित्यत्य और पारतन्त्र्यका प्रसङ्ग उपस्थित हो जाता है, क्योंकि धातुओंके अर्थ कारकोंकी अपेक्षावाले
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली २
धात्वर्थोऽतोऽस्यानित्यत्वं पर हुआ करते हैं । ज्ञान भी धातुका
अर्थ है; अतः इसकी भी अनित्यता और परतन्त्रता सिद्ध होती है ।
९८
तन्त्रता च ।
समाधान- ऐसी बात नहीं है; क्योंकि ज्ञान ब्रह्मके स्वरूपसे अभिन्न त्वोपचारात् । आ- है, इस कारण उसका कार्यत्व केवल तन्निरसनम् त्मनः स्वरूपं ज्ञप्तिर्न ! उपचारसे है । आत्माका स्वरूप जो
न, स्वरूपाव्यतिरेकेण कार्य
ततो व्यतिरिच्यतेऽतो नित्यैव ।
तथापि
बुद्धेरुपाधिलक्षणायाश्च
|
क्षुरादिद्वारैर्विपयाकारेण परिणा
'ज्ञप्ति' है वह उससे व्यतिरिक्त नहीं है । अतः वह (ज्ञप्ति ) नित्या ही है। तथापि चक्षु आदिके द्वारा विपयरूपमें परिणत होनेवाली उपाधिरूप बुद्धिकी जो शब्दादिरूप प्रतीतियाँ हैं वे आत्मविज्ञानकी विपयभूत होकर उत्पन्न होती हुई आत्मविज्ञानसे व्याप्त ही उत्पन्न होती हैं [ अर्थात् अपनी उत्पत्तिके समय उन प्रतीतियोंमें तो आत्मविज्ञानसे प्रकाशित होने की योग्यता व्याप्ता उत्पद्यन्ते । तस्मादात्म- रहती है और आत्मविज्ञान उन्हें विज्ञानावभासाथ ते विज्ञान - प्रकाशित करता रहता है ] । अतः वे धातुओंकी अर्थभूत धात्वर्थभूता एवं 'विज्ञान' शब्दवाच्य आत्मविज्ञानकी प्रतीतियाँ आत्माका ही विकाररूप धर्म हैं- ऐसी अविवेकियोंद्वारा कल्पना की जाती है ।
उत्पद्यमाना
शब्दवाच्याच आत्मन एव धर्मा विक्रियारूपा इत्यविवेकिभिः परिकल्प्यन्ते ।
यत्तु यद्ब्रह्मणो विज्ञानं तत् किन्तु उस ब्रह्मका जो विज्ञान सवितृप्रकाशवदग्न्युष्णवच्च ब्रह्म- उष्णताके समान ब्रह्मके स्वरूपसे है वह सूर्यके प्रकाश तथा अग्निकी स्वरूपाव्यतिरिक्तं स्वरूपमेव तत्; भिन्न नहीं है, बल्कि उसका स्वरूप
मिन्या ये
त आत्मविज्ञानस्य विषयभूता
एवात्मविज्ञानेन
शब्दाद्याकारावभासाः
--
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अनु० १ ]
· शाङ्करभाष्यार्थं
न तत्कारणान्तरसव्यपेक्षम् । हो है; उसे किसी अन्य कारणकी अपेक्षा नहीं है, क्योंकि वह नित्यनित्यस्वरूपत्वात् । सर्वभावानां च स्वरूप है । तथा उस ब्रह्मसे सम्पूर्ण तेनाविभक्तदेशकालत्वात् काला- | भावपदार्थोके देश-काल अभिन्न हैं, काशादिकारणत्वाच्च निरतिशय- और वह काल तथा आकाशादिका भी कारण एवं निरतिशय सूक्ष्म सूक्ष्मत्वाच्च । न तस्यान्यदचिज्ञेयं | है; अतः ऐसी कोई सूक्ष्म, व्यवहित सूक्ष्मं व्यवहितं विप्रकृष्टं भूतं ( व्यवधानवाली), विप्रकृष्ट (दूर) तथा भूत, भविष्यत् या वर्तमान भवद्भविष्यद्वास्ति । तस्मात्सर्वज्ञं । वस्तु नहीं है जो उसके द्वारा जानी न जाती हो; इसलिये वह ब्रह्म सर्वज्ञ है ।
तद्ब्रह्म ।
मन्त्रवर्णाच - " अपाणिपादो
जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्ण: । स वेत्ति चेद्यं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्न्यं
·
पुरुपं महान्तम्” (श्वे० उ० ३ ।
"वह बिना हाथ-पाँव के ही वेगसे चलने और ग्रहण करनेवाला है, बिना नेत्रके ही देखता है और बिना कानके ही सुनता है । वह सम्पूर्ण वेद्यमात्रको जानता है, उसे जाननेवाला और कोई नहीं है, उसे सर्वप्रथम परमपुरुष कहा गया है ।" इस मन्त्रवर्ण१९ ) इति । " न हि विज्ञातुर्वि - | से तथा "अविनाशी होने के कारण ज्ञातेर्विपरिलोपो विद्यतेऽविना- | विज्ञाताके ज्ञानका कमी लोप नहीं होता और उससे भिन्न कोई दूसरा शित्वान्न तु तद्वितीयमस्ति" भी नहीं है [ जो उसे देखे ]" ( वृ० उ० ४ | ३ | ३० ) इत्यादि इत्यादि श्रुतियोंसे भी यही सिद्ध श्रुतेश्च । विज्ञातृस्वरूपाव्यतिरेका होता है । अपने विज्ञातृस्वरूपसे अभिन्न तथा इन्द्रियादि साधनोंकी करणादिनिमित्तानपेक्षत्वाच्च व्र- | अपेक्षासे रहित होने के कारण ज्ञानझणो ज्ञानस्वरूपत्वेऽपि नित्यत्व | स्वरूप होनेपर भी ब्रह्मका नित्यत्व
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१०० ... . ' .
....
बायोपनिषद तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली २
प्रसिद्धिरतो नैक धात्वर्थस्तद- भली प्रकार सिद्ध ही है । अतः
क्रियारूप न होनेके कारण वह क्रियारूपत्वात् । . (ज्ञान) धातुका अर्थ भी नहीं है। __ अत एव च न ज्ञानकर्ट,। इसीलिये यह ज्ञानकर्ता भी नहीं
है और इसीसे यह ग्राम 'ज्ञान' तसादेव च न ज्ञानशब्दवाच्य
' शब्दका वाच्य भी नहीं है । तो भी मपि तद्रल्ल । तथापि तदाभास- ज्ञानाभातके वाचक तथा बुद्धिबाचकेन बुद्धिधर्मविपयेण ज्ञान- लक्षित होता है-कहा नहीं जाता,
के धर्मविषयक तान' शब्दसे वह शब्देन तल्लक्ष्यते न तूच्यते । क्योंकि वह शब्दकी प्रवृत्तिके हेतु
र भूत जाति आदि धर्मासे रहित है। शब्दप्रवृत्तिहेतुजात्यादिधर्मरहित
"ए" इसी प्रकार 'सत्य' शब्दसे भी स्वात्। तथा सत्यशब्देनापि । सर्व [उसको लक्षितही किया जा सकता विशेषप्रत्यस्तमितखरूपत्वाद्रह्मणो
है ] ब्रमकाखरूप सम्पूर्णविशेषणों
से शून्य है; अतः वह सामान्यतः बाह्यसत्तासामान्यविपयेण सत्य- सत्ता ही जिसका विषय-अर्थ है
.. ऐसे 'सत्य' शब्दसे 'सत्यं ब्रह्म इस शब्देन लक्ष्यते सत्यं ब्रह्मेति न
प्रकार केवल लक्षित होता है-ब्रह्म तु सत्यशब्दवाच्यमेव ब्रह्म। 'सत्य' शब्दका वाच्य ही नहीं है। ___ एवं सत्यादिशब्दा इतरेतर- इस प्रकार ये सत्यादि शब्द संनिधावन्योन्यनियम्यनियाम- एक-दूसरेकी सन्निधिसे एक-दूसरेके काः सन्तः सत्यादिशब्दवाच्या
नियम्य और नियामक होकर त्तनिवर्तका ब्रह्मणो लक्षणार्थाश्च
सत्यादि शब्दोंके वाच्यार्थसे ब्रह्मको
अलग रखनेवाले और उसका लक्षण भवन्तीत्यतः सिद्धम् “यतोवाचो करनेमें उपयोगी होते हैं। अतः निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह" | "जहाँसे मनके सहित वाणी उसे
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अनु०१]
शाङ्करभाष्यार्थ
(तै० उ० २।४।१) "अ- न पाकर लौट आती है" "न कहने निरुक्तेऽनिलयने" (ते. उ०२। योग्य और अनाप्रितमीमदत्यादि
श्रुतियों के अनुसार ब्रह्मका सत्यादि ७।१) इति चावाच्यत्वं ।
ल, शब्दोंका अवाच्यत्य और नीलनीलोत्पलवदवाक्यार्थत्वं च कमलके समान अवाक्यार्थत्व सिद्ध ब्रह्मणः।
होता है ।* तद्यथाव्याख्यातं ब्रह्म यो वेद उपर्युक्त प्रकारसे व्याख्या किये
। हुए उस ब्रह्मको जो पुरुप गुहामें गाशब्दार्थ- विजानाति नाहित निहित । छिपा हुआ) जानता निर्वचनम् स्थितं गुहायाम् । है । संवरण अर्थात् आच्छादन अर्थगृहतेः संवरणार्थस्य निगूढा वाले 'गुह्' धातुसे 'गुहा' शब्द
निप्पन्न होता है। इस (गुहा) में अस्यां ज्ञानज्ञेयज्ञातृपदार्थों इति ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञात पदार्थ निगूढ़ गुहा बुद्धिः । गूढावस्या भोगा- . ( छिपे हुए ) हैं इसलिये 'गुहा'
.: बुद्धिका नाम है। अथवा उसमें पवौं पुरुषार्थाविति वा तस्सां । भोग और अपवर्ग-ये पुरुषार्थ निगूढ परमे प्रकृष्टे व्योमन्व्योम्न्याका- अवस्थामें स्थित हैं; अतः गुहा है ।
| उसके भीतर परम-प्रकृष्ट व्योमशेऽव्याकृताख्ये । तद्धि परम आकाशमें अर्थात् अव्याकृताकाशमें, व्योम"एतस्मिन्न खल्वक्षरे गाया- क्योंकि "हे गार्गि ! निश्चय इस
अक्षरमें ही आकाश [ओतप्रोत है ]" २ काश" (वृ० उ०३१८॥११)
०७० ।१९ इस श्रुतिके अनुसार अक्षरकी इत्यक्षरसंनिकात् । गुहायां सन्निधिमें होनेसे यह अव्याकृताकाश . तात्पर्य यह है कि वाच्य-वाचक-माव ब्रह्मका बोध करानेमें समर्थ नहीं हो सकता; अतः ब्रह्म इन शब्दोंका वाच्य नहीं हो सकता और सपूर्ण वैतकी---- निवृत्तिके अधिष्ठानरूपसे लक्षित होनेके कारण वह 'नीलकमल-आदिको सिमाना गुण-गुणीरूप संसर्गसूचक वाक्योंका भी अर्थ नहीं हो सकता।
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१०२
तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली २
व्योम्नीति वा सामानाधिकरण्या- ही परमाकाश है । अथवा 'गुहायां
व्योम्नि' इस प्रकार इन दोनों पदोंदव्याकताकाशमेव गुहा । तत्रा
मर गुहा । तत्रा का सामानाधिकरण्य होनेके कारण मा हो
आकाशको ही गुहा कहा गया है,
| क्योंकि सबका कारण और सूक्ष्मतर कालेषु कारणत्वात्सूक्ष्मतरत्वा- होनेके कारण उसमें भी तीनों
| कालोंमें सारे पदार्थ छिपे हुए हैं। च । तसिन्नन्तर्निहितं ब्रह्म । उसीके भीतर ब्रह्म भी स्थित है। • हार्दमेव तु परमं व्योमेति परन्तु युक्तियुक्त तो यही है कि न्याय्यं विज्ञानाङ्गत्वेनोपासनाङ्ग- हृदयाकाश हो परमाकाश है, क्योंकि त्वेन व्योम्नो विवक्षितत्वात् । उस आकाशको विज्ञानाङ्ग यानी "यो वै स वहिर्धा पुरुपादा- उपासनाके अंगरूपसे वतलाना यहाँ काश" (छा० उ०३।१२। इष्ट है। "जो आकाश इस [ शरीर७) “यों वै सोऽन्तःपुरुष
संज्ञक ] पुरुषसे बाहर है" "जो आकाश" (छा० उ० ३॥ १२॥
आकाश इस पुरुपके भीतर है" "जो ८) "योऽयमन्तहृदय आकाश"
यह आकाश हृदयके भीतर है" इस. (छा० उ० ३ । १२ । २ प्रकार एक अन्य श्रुतिसे हृदयाकाश
का परमत्व प्रसिद्ध है । उस हृदयाइति श्रुत्यन्तरात्प्रसिद्धं हादस
काशमें जो बुद्धिरूप गुहा है उसमें व्योम्नः परमत्वम् । तसिन्हार्दै
ब्रह्म निहित है; अर्थात् उस (बुद्धिव्योग्नि या बुद्धिगुहा तस्यां वृत्ति) से वह व्यावृत्त ( पृथक् ) निहितं ब्रह्म तवृत्त्या विविक्त- रूपसे स्पष्टतया उपलब्ध होता है; तयोपलभ्यत इति । न-ह्यन्यथा | अन्यथा ब्रह्मका किसी भी विशेष विशिष्टदेशकालंसंबन्धोऽस्ति व्र- देश या कालसे सम्बन्ध नहीं है, क्षणः सर्वगतत्वान्निर्विशेषत्वाच। क्योंकि वह सर्वगत और निर्विशेष है।
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अनु०१]
शाङ्करभाष्यार्थ
स एवं ब्रह्म विजानन्किमि- वह इस प्रकार ब्रह्मको जानने
| वाला क्या करता है ? इसपर श्रुति विद त्याह-अश्नुते, भुङ्क्त कहती है-वह सम्पूर्ण अर्थात् निःऐश्वर्यन् सर्वानिरवशिष्टान्का- | शेप कामनाओं यानी इच्छित भोगोंमान्भोगानित्यर्थः। किमसदादि
र को प्राप्त कर लेता है अर्थात् उन्हें
५ भोगता है । तो क्या वह हमारेवत्पत्रस्वर्गादीन्पर्यायेण नेत्याह। तुम्हारे समान पुत्र एवं स्वर्गादि
भोगोंको क्रमसे भोगता है ? इसपर सह युगपदेकक्षणोपारूढानेव 'श्रुति कहती है-नहीं, उन्हें एक
, साथ भोगता है । वह एक ही क्षणमें एकयोपलब्ध्या सवितप्रकाशवत् वद्धिवृत्तिपर आरूढ़ हुए सम्पूर्ण नित्यया ब्रह्मस्वरूपाव्यतिरिक्तया। भागाका सूयक प्रकाशक समान
नित्य तथा ब्रह्मखरूपसे अभिन्न एक यामवोचाम सत्यं ज्ञानमनन्त- ही उपलब्धिके द्वारा, जिसका हमने
'सत्यं ज्ञानमनन्तम्' ऐसा निरूपण मिति । एतत्तदुच्यते-ब्रह्मणा किया है, भोगता है। 'ब्रह्मणा सहेति ।
सह सर्वान्कामानश्नुते' इस वाक्यसे
। यही अर्थ कहा गया है। ब्रह्मभूतो विद्वान्ब्रह्मस्वरूपे- ब्रह्मभूत विद्वान् ब्रह्मखरूपसे गैव सर्वान्कामान्सहाश्नुते, न |
- ही एक साथ सम्पूर्ण भोगोंको प्राप्त
कर लेता है । अर्थात् दूसरे लोग यथोपाधिकृतेन खरूपेणात्मना जिस प्रकार जलमें प्रतिविम्बित जलमूर्यकादिवत्प्रतिविम्बभूतेन / सूर्यके समान अपने औपाधिक और
संसारी आत्माके द्वारा धर्मादि सांसारिकेण धर्मादिनिमित्तापे- निमित्तकी अपेक्षावाले तथा चक्षु क्षांश्चक्षुरादिकरणापेक्षांश्च कामान आदि इन्द्रियोंकी अपेक्षासे युक्त
सम्पूर्ण भोगोंको क्रमशः भोगते हैं; पयायणाश्नुत लाका कथ ताह उस प्रकार उन्हें नहीं भोगता । तो -यथोक्तेन प्रकारेण सर्वज्ञेन सर्व- फिर कैसे भोगता है ? वह.उपर्युक्त:
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१०४
तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली २
गतेन सर्वात्मना नित्यब्रह्मात्म-प्रकारसे सर्वत सर्वगत सर्वात्मक ।
एवं नित्यब्रह्मात्मस्वरूपसे, धर्मादि स्वरूपेण धर्मादिनिमित्तानपेक्षा- निमित्तको अपेक्षासे रहित तथा श्वक्षुरादिकरणनिरपेक्षांश्च सर्वा- चक्षु आदि इन्द्रियोंसे भी निरपेक्ष
सम्पूर्ण भोगोंको एक साथ ही प्राप्त कामान्सहैवाश्नुत इत्यर्थः । कर लेता है-यह इसका तात्पर्य
है। विपश्चित्-मेधावी अर्थात् सर्वज्ञ विपश्चिता मेधाविना सर्वज्ञेन ।
ब्रह्मरूपसे । ब्रह्मका जो सर्वज्ञत्व है तद्धि वैपश्चित्यं यत्सर्वज्ञत्वं तेन यही उसकी विपश्चित्ता (विद्वत्ता) है।
उस सर्वज्ञखरूप ब्रह्मरूपसे ही वह सपशखरूपण अलणारत शत । उन्हें भोगता है । मूलमें 'इति' शब्द इतिशब्दो सन्त्रपरिसमाप्त्यर्थः। मन्त्रकी समाप्ति सूचित करनेके लिये है। __ सर्व एव वल्लयर्थो नमाविदा-' 'ब्रह्मविदाप्नोति परम्' इस ब्राह्मणमोति परमिति ब्राह्मणवाक्येन वाक्यद्वारा इस सम्पूर्ण वल्लीका अर्थ सूत्रितः । स च सूनितोऽर्थः सूत्ररूपसे कह दिया है । उस संक्षेपतो मन्त्रेण व्याख्यातः। सूत्रभूत अर्थकी ही मन्त्रद्वारा संक्षेप
से व्याख्या कर दी गयी है। अब पुनरतस्यैव विस्तरेणार्थनिर्णयः ।
फिर उसीका अर्थ विस्तारसे निर्णय कर्तव्य इत्युत्तरस्तवृत्तिस्थानीयो
4। करना है-इसीलिये उसका वृत्तिरूप ग्रन्थ आरभ्यते तस्माद्वा एतसा- . 'तस्माद्वा एतस्मात' इत्यादि आगेका दित्यादि।
| ग्रन्थ आरम्भ किया जाता है। तत्र च सत्यं ज्ञानमनन्तं उस मन्त्रमें सबसे पहले 'सत्यं सत्यं शानमनन्तं ब्रह्मत्युक्तं मन्त्रादौ ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' ऐसा कहा है। वह ब्रह्मति मीमांस्यते तत्कथं सत्यं ज्ञान- | सत्य, ज्ञान और अनन्त किस प्रकार मनन्तं चेत्यत आह । तत्र है ? सो बतलाते हैं-अनन्तता त्रिविधं ह्यानन्त्यं देशतः कालतो तीन प्रकारकी है-देशसे, कालसे वस्तुतश्चेति । तद्यथा देशतो- और वस्तुसे । उनमें जैसे आकाश ऽनन्त आकाशः। न हि देशतस्तस्य देशतः अनन्त है। उसका देशसे ।
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अनु० १ ]
परिच्छेदोऽस्ति । न तु कालतश्चानन्त्यं वस्तुतश्चाकाशस्य । कस्मात्कार्यत्वात् । नैवं ब्रह्मण आकाशवत्कालतोऽप्यन्तवत्वम
कार्यत्वात् । कार्य हि वस्तु कालेन परिच्छिद्यते । अकार्य च ब्रह्म । तस्मात्कालतोऽस्यानन्त्यम् ।
शाङ्करभाष्यार्थ
तथा वस्तुतः । कथं पुनर्वस्तुत आनन्त्यं सर्वानन्यत्वात्। भिन्नं हि
वस्तु वस्त्वन्तरस्यान्तो भवति, चस्त्वन्तरबुद्धिहिं प्रसक्ताद्वस्त्व
न्तरान्निवर्तते । यतो यस्य बुद्धे
विनिवृत्तिः स तस्यान्तः । तद्यथा गोत्वबुद्धिरश्वत्वाद्विनिवर्तत इति
१०५
परिच्छेद नहीं है। किन्तु कालसे और वस्तुसे आकाशकी अनन्तता नहीं है । क्यों नहीं है ? क्योंकि वह कार्य हैं । किन्तु आकाशके समान किसीका कार्य न होनेके कारण अन्तवत्य नहीं है । जो वस्तु किसीनलका इस प्रकार कालसे भी का कार्य होती है यही कालले परिच्छिन्न होती हैं । और ब्रह्म किसीका कार्य नहीं है, इसलिये उसकी कालसे अनन्तता है ।
इसी प्रकार वह वस्तुसे भी अनन्त है । वस्तुसे उसकी अनन्तता किस प्रकार है ? क्योंकि वह सबसे अभिन्न है । भिन्न वस्तु ही किसी अन्य भिन्न वस्तुका अन्त हुआ करती है, क्योंकि किसी भिन्न वस्तु में गयी हुई बुद्धि ही किसी अन्य प्रसक्त वस्तुसे निवृत्त की जाती है । जिस [ पदार्थसम्बन्धिनी] बुद्धिकी जिस पदार्थसे निवृत्ति होती है वही उस पदार्थका अन्त है । जिस प्रकार गोबुद्ध अवत्वबुद्धिसे निवृत्त होती
अश्वत्वान्तं गोत्वमित्यन्तवदेव | है, अतः गोल्यका अन्त अश्वत्व हुआ, इसलिये वह अन्तवान् ही है और भवति । स चान्तो भिन्नेषु वस्तुषु ! उसका वह अन्त भिन्न पदार्थों में ही दृष्टः । नैवं ब्रह्मणो भेदः । अतो | देखा जाता है । किन्तु ब्रह्मा ऐसा कोई भेद नहीं है । अतः वस्तुसे वस्तुतोऽध्यानन्त्यम् । भी उसकी अनन्तता है ।
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१०६
तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्लो २
किन्तु ब्रह्मकी सबसे अभिन्नता किस प्रकार है ? सो बतलाते हैंक्योंकि वह सम्पूर्ण वस्तुओंका कारण है-ब्रह्म काल- आकाश आदि सभी वस्तुओंका कारण है । यदि कहो कि अपने कार्यकी अपेक्षासे
कथं पुनः सर्वानन्यत्वं ब्रह्मण ब्रह्मणः सार्वात्म्यं इत्युच्यते— सर्व |
निरूप्यते
वस्तुकारणत्वात् ।
1
सर्वेषां हि वस्तूनां कालाकाशादीनां कारणं ब्रह्म । कार्यापेक्षया वस्तुतोऽन्तवत्वमिति चेन्न ; अनृतत्वात्कार्यवस्तुनः । न हि कारणव्यतिरेकेण कार्य नाम वस्तुतोऽस्ति यतः कारणबुद्धिविनिवर्तेत । "वाचारम्भणं वि कारो नामधेयं मृत्तिकेत्येव सत्यम्" ( छा० उ० ६ । १ । ४) एवं सदेव सत्यमिति श्रुत्य न्तरात् ।
तो उसका वस्तुसे अन्तवत्त्व हो ही जायगा, तो ऐसा कहना ठीक नहीं; क्योंकि कार्यरूप वस्तु तो मिथ्या है - वस्तुतः कारणसे भिन्न कार्य है ही नहीं जिससे कि कारणबुद्धिकी निवृत्ति हो "वाणीसे आरम्भ होनेवाला विकार केवल नाममात्र है, मृत्तिका हो सत्य है" इसी प्रकार "सत् ही सत्य है - ऐसा एक अन्य श्रुति से भी सिद्ध होता है ।
तस्मादाकाशादिकारणत्वाद्दे
शतस्तावदनन्तं ब्रह्म । आकाशो
1
अतः आकाशादिका कारण होनेसे ब्रह्म देशसे भी अनन्त हैं । आकाश देशतः अनन्त है - यह तो प्रसिद्ध ही है, और यह उसका
नन्त इति प्रसिद्धं देशतः,
तस्येदं कारणं तस्मात्सिद्धं देशत | कारण है; अतः आत्माका देशतः अनन्तत्व सिद्ध हो है, क्योंकि लोकमें असर्वगत वस्तुसे कोई सर्वगत
आत्मन आनन्त्यम् । न ह्यसर्वगतात्सर्वगतमुत्पद्यमानंं लोके
|
वस्तु उत्पन्न होती नहीं देखी जाती । किंचिदृश्यते । अतो निरति - | निरतिशय है [ अर्थात् उससे बड़ा इसलिये आत्माका देशतः अनन्तत्व शयमात्मन आनन्त्यं देशतस्तथा | और कोई नहीं है ] । इसी प्रकार
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अनु० ]
शाङ्करभाष्यार्थ
ऽकार्यत्वात्कालतः, तद्भिन्नवस्त्व- | किसीका कार्य न होनेके कारण वह कालतः और उससे भिन्न पदार्थका न्तराभावाच्च वस्तुतः । अत एव सर्वथा अभाव होनेके कारण वस्तुतः भी अनन्त है । इसलिये आत्माका सबसे बढ़कर सत्यत्व है ।
. निरतिशयसत्यत्वम् ।
तस्मादिति मूलवाक्यसूत्रितं परामृश्यते । एतस्मादितिमन्त्र
वाक्येनानन्तरं यथालक्षितम् ।
यादौ ब्राह्मणवाक्येन सूत्रितं
[ मन्त्र में ] 'तस्मात् ' ( उससे ) इस पदद्वारा मूलवाक्यमेंसे सूत्ररूपसे कहे हुए 'ब्रह्म' पदका परामर्श किया जाता है। तथा इसके अनन्तर 'एतस्मात् ' इत्यादि मन्त्र - वाक्य से भी पूर्वनिर्दिष्ट ब्रह्मका ही उल्लेख किया गया है । [ तात्पर्य यह यच सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मेत्य-: है- ] जिस ब्रह्मका पहले ब्राह्मणवाक्यद्वारा सूत्ररूपसे उल्लेख किया गया है और जो उसके पश्चात् 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' इस प्रकार दक्षित किया गया है उस इस ब्रह्म - आत्मासे, अर्थात् 'आत्मा' शब्द - वाच्य ब्रह्मसे - क्योंकि " तत् सत्यं स आत्मा" इत्यादि एक अन्य श्रुतिके अनुसार वह सबका आत्मा है; अतः यहाँ ब्रह्म ही आत्मा है उस इस आत्मखरूप ब्रह्म से आकाश संभूतउत्पन्न हुआ ।
नविनः
१०७
नन्तरमेव लक्षितं तस्मादेतस्माब्रह्मण आत्मन आत्मशब्दवाच्यात् । आत्मा हि तत्सर्वस्य " तत्सत्यं स आत्मा"
( छा० उ० ६ । ८-१६ ) इति श्रुत्यन्तरादतो ब्रह्मात्मा । तस्मा
|
देतसाह्रह्मण आत्मस्वरूपादाका - शः संभूतः समुत्पन्नः ।
आकाशो नाम शब्दगुणोऽव
जो शब्द गुणवाला और समस्त मूर्त्त पदार्थों को अवकाश देनेवाला है उसे 'आकाश' कहते हैं । उस
काशकरो मूर्त द्रव्याणाम् । तस्मात्
* क्योंकि जो वस्तु अनन्त होती है वही सत्य होती है, परिच्छिन्न पदार्थ कभी सत्य नहीं हो सकता ।
""
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१०८
तैत्तिरीयोपनिषद्
[चल्ली २
आकाशात्स्वेन स्पर्शगुणेन पूर्वेण आकाशसे अपने गुण 'स्पर्श' और
| अपने पूर्ववर्ती आकाशके गुण च कारणगुणेन शब्देन द्विगुणो 'शब्द' से युक्त दो गुणवाला वायु चायुः संभूत इत्यनुवर्तते । उत्पन्न हुआ । यहाँ प्रथम वाक्यके
' 'सम्भूतः' ( उत्पन्न हुआ) इस चायोश्च स्वेन रूपगुणेन पूर्वाभ्यां , क्रिया पदकी [सर्वत्र ] अनुवृत्ति की च त्रिगुणोऽग्निः संभूतः । अग्नः ।
हो जाती है। वायुसे अपने गुण 'रूप'
और पहले दो गुणोंके सहित तीन स्वेन रसगुणन पूर्वश्च त्रिभिश्चतु- गुणवाला अग्नि उत्पन्न हुआ । तथा गुणा आपः संभृताः। अदभ्यः अग्निसे अपने गुण 'रस' और
पहले तीन गुणोंके सहित चार स्वेन गन्धगुणेन पूर्वश्चतुर्भिः गुणवाला जल हुआ । और जलसे
अपने गुण 'गन्ध' और पहले चार पञ्चगुणा पृथिवी संभूता ! पृथि
गुणोंके सहित पाँच गुणवाली पृथिवी . व्या ओषधयः । ओपधीम्यो- उत्पन्न हुई । पृथिवीसे ओपधियाँ, ऽन्नम् । अन्नाद्रेतोरूपेण परिणतात्
.. ओषधियोंसे अन्न और वीर्यरूपमें
" परिणत हुए अन्नसे शिर तथा हाथपुरुषः शिरस्पाण्याघाकृतिमान् । पाँवरूप आकृतिबाला पुरुप उत्पन्न
। हुआ । स वा एष पुरुपोऽन्नरसमयो-। वह यह पुरुष अन्नरसमय अर्थात्
अन्न और रसका विकार है। अन्नरसविकारः । पुरुषाकृति-। पुरुषाकारसे भावित [अर्थात् पुरुष-...
के आकारको वासनासे युक्त ] तथा भावितं हि सर्वेभ्योऽङ्गेभ्यस्तेजः
उसके सम्पूर्ण अङ्गोंसे उत्पन्न हुआ र मोदी को तेजोरूप जो शुक्र है वह उसका
वीज है । उससे जो उत्पन्न होता जायते सोऽपि तथा पुरुषाकृतिरेव है वह भी उसीके समान पुरुषाकार
ही होता है, क्योंकि सभीजातियोंमें स्यात् । सर्वजातिषु जायमानानां उत्पन्न होनेवाले देहोंमें पिताके
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मनु०१]
शाङ्करभाष्यार्थ
' जनकाकृतिनियमदर्शनात् । समान आकृति होनेका नियम देखा
जाता है। सर्वेपामप्यन्नरसविकारत्वे व्र- शंका-सृष्टिमें सभी शरीर समान
रूपसे अन्न और रसके विकार - झवश्यत्वे चाविशिष्टे कस्मात्पुरुप | तथा ब्रह्माके वंशमें उत्पन्न हुए हैं; एव गृह्यते ?
फिर यहाँ पुरुपको ही क्यों ग्रहण
किया गया है ? प्राधान्यात् ।
समाधान-प्रधानताके कारण । किं पुनः प्राधान्यम् । शंका-उसकी प्रधानता क्या है ? कर्मज्ञानाधिकारः । पुरुष एच.
समाधान-कर्म और ज्ञानका
अधिकार ही उसकी प्रधानता है । कथं पल्पस्य हि शक्तत्वाद- कर्म और ज्ञान के साधनमें 1 प्राधान्यन् र्थित्वादपर्युदस्त- समर्थ, [उनके फलकी] इच्छावाला
और उससे उदासीन न होनेके त्वाच कर्मज्ञानयोरधिक्रियते- कारण पुरुप ही कर्म और ज्ञानका
अधिकारी है। "पुरुषमें ही आत्माका "पुरुपे वेवाविस्तरामात्मा स पूर्णतया आविर्भाव हुआ है; वही
प्रकृष्ट ज्ञानसे सबसे अधिक सम्पन्न हि प्रज्ञानेन संपन्नतमो विज्ञातं है। वह जानी-बूझी बात कहता है,
जाने-बूझे पदार्थोंको देखता है, वह वदति विज्ञातं पश्यति बंद | कल होनेवाली बात.भी जान सकता
है, उसे उत्तम और अधम लोकोंका श्वस्तनं वेद लोकालोको मत्यै
ज्ञान है तथा वह कर्म-ज्ञानरूप नामृतमीक्षतीत्येवं संपन्नः ।
नश्वर साधनके द्वारा अमर पदकी
इच्छा करता है-इस प्रकार वह अथेतरेप पनामनायापिपासे | विवेकसम्पन्न है । उसके सिवा
अन्य पशुओंको तो केवल भूखएवाभिविज्ञानम् ।" इत्यादि- प्यासका ही विशेष ज्ञान होता है"
ऐसी एक दूसरी श्रुति देखनेसे भी श्रुत्यन्तरदर्शनात्.। . [पुरुपकीप्रधानता सिद्ध होती है।
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११०
तैत्तिरीयोपनिषद्
[बल्ली २
स हि पुरुप इह विद्ययान्तर- उस पुरुषको ही यहाँ ( इन
बल्लीमें ) विद्याके द्वारा सबकी अपेक्षा तमं ब्रह्म संक्रामयितुमिष्टः। तस्य अन्तरतम ब्रह्मके पास ले जाना
अभीष्ट है । किन्तु उसकी बुद्धि, च बाह्याकारविशेपेवनात्मस्सा- जो बायाकार विशेषरूप अनात्म त्मभाषिता वृद्धिस्नालम्च्य विशेपं पदार्थोमं आत्मभावना किये हुए है,
किसी विशेष आलम्बनके बिना कंचित्सहसान्तरतमप्रत्यगात्म- एकाएक सबसे अन्तरतम प्रत्य
गात्मसम्बन्धिनी तथा निरालम्बना विपया निरालम्बना च कतु- की जानी असम्भव है; अतः इस
दिखलायी देनेवाले शरीरल्पआत्मामशक्येति दृष्टशरीरात्मसामान्य
की समानताकी कल्पनासे शाखाकल्पनया शाखाचन्द्रनिदर्शन-, चन्द्र दृष्टान्तके समान उसका
। भीतरकी ओर प्रवेश कराकर श्रुति वदन्तः प्रवेशयन्नाह- कहती हैतस्येदमेव शिरः। तसास्स उसका यह [शिर] ही शिर है।
उस इस अन्नरसमय पुरुपका यह पक्ष्यात्मनान्न- पुरुषस्यान्नरसमय- प्रसिद्ध शिर ही [शिर हैं ] । मयस्य निरूपणन् स्वेदमेव शिरः [अगले अनुवाक में ] प्राणमय आदि
शिररहित कोशोंमें भी शिरस्त्व देखा प्रसिद्धम् । प्राणमयादिष्वशिरसां जानेके कारण यहाँ भी वही बात
न समझीजाय [ अर्थात् इस अन्नमय शिरस्त्वदर्शनादिहापि तत्प्रसङ्गो कोशको भी वस्तुतः शिररहित न
समझा जाय ] इसलिये 'यह प्रसिद्ध मा भूदितीदमेव शिर इत्युच्यते। शिर ही उसका शिर है-ऐसा कह।
जाता है । इसी प्रकार पक्षादिवे एवं पक्षादिषु योजना । अयं विषयमें लगा लेना चाहिये। पूर्वाभि
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[ १ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
दक्षिणो चाहुः पूर्वाभिमुखस्य | मुख व्यक्तिका यह दक्षिण [दक्षिण दक्षिणः पक्षः । अयं सव्यो बाहु- दिशा की ओरका ] वाहु दक्षिण
t
अनु०
पक्ष है, यह वाम बाहु उत्तर पक्ष रुत्तरः पक्षः | अयं मध्यमो देह- | है तथा यह देहका मध्यभाग अङ्गों
भाग आत्माङ्गानाम् । “मध्यं
का आत्मा है; जैसा कि “मध्यभाग ही इन अङ्गोंका आत्मा है" इस ह्येषामङ्गानामात्मा" इति श्रुतेः । श्रुतिसे प्रमाणित होता है । और
इदमिति नाभेरधस्ताद्यदङ्गं ; यह जो नाभिसे नीचेका अङ्ग हैं वही पुच्छ प्रतिष्ठा है । इसके तत्पुच्छं प्रतिष्ठा । प्रतितिष्ठत्यन- द्वारा वह स्थित होता है, इसलिये यह येति प्रतिष्ठा पुच्छमिव पुच्छम् ' उसकी प्रतिष्ठा है। नीचे की ओर लटकने में समानता होनेके कारण वह पुच्छके समान पुच्छ है; जैसे कि गौकी पूँछ ।
'
अधोलम्बनसामान्याद्यथा गोः ।
पुच्छम् ।
एतत्प्रकृत्योत्तरेपां प्राणमया
दीनां रूपकत्वसिद्धिः; मृपानिपि क्तद्रुतताम्रप्रतिमावत् । तदप्येष
श्लोको भवति । तत्तस्मिन्नेवार्थे
१११
इस अन्नमय कोशसे आरम्भ करके ही साँचे में डाले हुए पिघले ताँबेकी प्रतिमाके समान आगेके प्राणमय आदि कोशोंके रूपकत्वकी सिद्धि होती है । उसके विपयमें ही यह श्लोक है; अर्थात् अन्नमय आत्माको प्रकाशित करनेवाले उस ब्राह्मणोक्त अर्थ में हो यह श्लोक
"ब्राह्मणोक्तेऽन्नमयात्मप्रकाशक
एप श्लोको मन्त्रो भवति ||१|| | अर्थात् मन्त्र है ॥ १ ॥
इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यां प्रथमोऽनुवाकः ॥ १॥
o
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द्वितीय अनुवाक अन्नकी महिमा तथा प्राणमय कोशका वर्णन
अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते । याः काश्च पृथिवीश्रिताः । अथो अन्नेनैव जीवन्ति । अथैनदपि यन्त्यन्ततः। अन्न हि भूतानां ज्येष्ठम् । तस्मात्सवापधमुच्यते । सर्व वै तेऽन्नमाप्नुवन्ति येऽन्न ब्रह्मोपासते । अन्न हि भूतानां ज्येष्ठम् । तस्मात्सर्वोपधमुच्यते । अन्नाद्भतानि जायन्ते । जातान्यन्नेन वर्धन्ते। अद्यतेऽत्ति च भूतानि । तस्मादन्नं तदुच्यत इति । तस्माद्वा एतस्मादन्नरसमयादन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः । तेनैप पूर्णः। स वा एप पुरुषविध एव । तस्य पुरुषविधतामन्वयं पुरुषविधः । तस्य प्राण एव शिरः । व्यानो दक्षिणः पक्षः । अपान उत्तरः पक्षः । आकाश आत्मा । पृथिवी पुच्छं प्रतिष्ठा । तदप्येष श्लोको भवति ॥१॥ ___अन्नसे ही प्रजा उत्पन्न होती है । जो कुछ प्रजा पृधियीको आश्रित करके स्थित है वह सब अन्नसे ही उत्पन्न होती है; फिर वह अन्नसे ही । जीवित रहती है और अन्तमें उसीमें लीन हो जाती है, क्योंकि अन्न ही प्राणियोंका ज्येष्ठ ( अग्रज-पहले उत्पन्न होनेवाला) है। इसीसे वह सर्वोपध कहा जाता है । जो लोग 'अन्न ही ब्रह्म है' इस प्रकार उपासना करते हैं वे निश्चय ही सम्पूर्ण अन्न प्राप्त करते हैं। अन्न ही प्राणियोंमें बड़ा है; इसलिये वह सौंपध कहलाता है । अन्नसे ही प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर अन्नसे ही वृद्धिको प्राप्त होते हैं। अन्न
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अनु०२]
शाङ्करभाष्यार्थ
११३
प्राणियोंद्वारा खाया जाता है और वह भी उन्हींको खाता है। इसीसे वह 'अन्न' कहा जाता है। उस इस अन्नरसमय पिण्डसे, उसके भीतर रहनेवाला दूसरा शरीर प्राणमय है । उसके द्वारा यह ( अन्नमय कोश) परिपूर्ण है । वह यह (प्राणमय कोश ) भी पुरुषाकार ही है । उस (अन्नमय कोश) की पुरुषाकारताके अनुसार ही यह भी पुरुषाकार है। उसका प्राण ही शिर है । व्यान दक्षिण पक्ष है । अपान उत्तर पक्ष है। आकाश आत्मा ( मध्यभाग ) है और पृथिवी पुच्छ–प्रतिष्ठा है । उसके विषयमें ही यह श्लोक है ॥ १॥
अन्नाद्रसादिभावपरिणतात्, रसादि रूपमें परिणत हुए अन्नसे अन्नमयोपासन- वा इति सरणार्थः, ही स्थावर-जङ्गमरूप प्रजा उत्पन्न फलम् प्रजाः स्थावरजङ्ग
होती है । 'चै' यह निपात स्मरणके माः प्रजायन्ते । याः काश्चा
अर्थमें है । जो कुछ प्रजा अविशेष विशिष्टाः पृथिवीं श्रिताः पृथि
| भावसे पृथिवीको आश्रित किये हुए है वीमाश्रितास्ताः सर्वा अन्नादेव
वह सब अन्नसे ही उत्पन्न होती है। प्रजायन्ते । अथो अपि जाता
और फिर उत्पन्न होनेपर वह अन्नसे अन्नेनैव जीवन्ति प्राणान्धार
ही जीवित रहती-प्राण धारण
करती अर्थात् वृद्धिको प्राप्त होती है। यन्ति वर्धन्त इत्यर्थः । अथाप्ये
और अन्तमें-जीवनरूप वृत्तिकी नदनमपियन्त्यपिगच्छन्ति ।
समाप्ति होनेपर वह अन्नमें ही लीन अपिशब्दः प्रतिशब्दार्थे ।
हो जाती है । [ 'अपियन्ति' इसमें] 2- अन्नं प्रति प्रलीयन्त इत्यर्थः । 'अपि' शब्द 'प्रति' के अर्थमें है।
अन्ततोऽन्ते जीवनलक्षणाया अर्थात् वह अन्नके प्रति ही लीन वृत्तेः परिसमाप्तौ ।
हो जाती है। कसात् ? अन्नं हि यस्माद् ! इसका कारण क्या है ? क्योंकि
अन्न ही प्राणियोंका ज्येष्ठ यानी भूतानांप्राणिनां ज्येष्ठं प्रथमजम्। अग्रज है । अन्नमय आदि जो इतर अन्नमयादीनां हीतरेषां भूतानां ! प्राणी हैं उनका कारण अन्न ही है।
१५-१६
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ बल्ली २
जीवना अन्नप्रलयाश्च सर्वाः प्रजाः ।
कारणमन्नमतोऽनप्रभवा अन्न- इसलिये सम्पूर्ण प्रजा अन्न उत्पन्न ! होनेवाली, उनके द्वारा जीवित रहनेवाली और अन्न ही न हो जानेवाली है। क्योंकि ऐसी बात है, इसलिये अन्न सम्पूर्ण देहदाहप्रशमनमन्त्र- प्राणियोंकि केके रान्तापको शान्त करनेवाला कहा जाता है ।
११४
यस्माचैवं तस्मात्सव सर्व
प्राणिनां
शुच्यते ।
अन्नाविदः फलमुच्यते— '
अन्नरूप की उपासना करने
' वालेका [ प्राप्तव्य ] फल तलावा सर्व वै ते समस्तमन्नजात- जाता है- निश्चय ही सम्पूर्ण अन्न
साप्नुवन्ति । के ? येऽन्नं ब्रह्म यथोक्तमुपासते । कथम् ? अन्नजो
।
ऽन्नात्मान्नप्रलयोऽहं तस्मादन्नं
ब्रह्मेति ।
-
·
।
जो उपर्युक्त अन्न ही ब्रह्मरूपले समूहको प्राप्त कर लेते है | कौन ? उपासना करते है । किस प्रकार [ उपासना करते है ] रा तरह कि में अन्न उत्पन्न अन्नस्वरूप और अन्न ही दोन हो जानेवाला हूँ; इसलिये अन्न है |
*
कुतः पुनः सर्वान्नप्राप्तिफल
'अन्न ही आत्मा है' इस प्रकारकी उपासना किस प्रकार सम्पूर्ण भन्नको प्राप्तिरूप फव्वाली है, सो बतलाते
मन्नात्मोपासनमित्युच्यते । अन्नं
हि भूतानां ज्येष्ठम् । भूतेभ्यः हैं अन्न ही प्राणियों का ज्येष्ट है— प्राणियोंसे पहले उत्पन्न होनेके पूर्व निष्पन्नत्वाज्ज्येष्ठं हि यस्मा - ! कारण, क्योंकि वह उनसे ज्येष्ट है तस्मात्सर्वौषधमुच्यते । तस्मादुपइसलिये वह सर्वोपध कहा जाता है । अतः सम्पूर्ण अन्नकी आत्मारूपसे उपासना करनेवालेके लिये सम्पूर्ण अन्नको प्राप्ति उचित ही है । अन्नसे न्नप्राप्तिः । अन्नाद्भूतानि जायन्ते । | प्राणी उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न
पन्ना सर्वान्नात्मोपासकस्य सर्वा
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अनु०२]
शाङ्करभाष्यार्थ
जातान्यन्नेन वर्धन्त इत्युपसंहा- | होनेपर अन्नसे ही वृद्धिको प्राप्त होते
हैं-यह पुनरुक्ति उपासनाके उपरार्थ पुनर्वचनम् ।
| संहारके लिये है। इदानीमन्ननिर्वचनमुच्यते- अब 'अन्न' शब्दकी व्युत्पत्ति
कही जाती है जो प्राणियोंद्वारा अग्नशम्द- अद्यते भुज्यते चैव
'अद्यते'--खाया जाता है और जो निर्वचनम् यद्धतैरन्नमत्ति, च स्वयं भी प्राणियोंको 'अत्ति' खाता भतानि स्वयं तस्साद्ध - | है, इसलिये सम्पूर्ण प्राणियोंका भोज्य
और उनका भोक्ता होनेके कारण ज्यमानत्वाद्भूतभोक्तृत्वाचान्न |
| भी वह 'अन्न' कहा जाता है। तदुच्यते । इतिशब्दः प्रथमकोश- इस वाक्यमें 'इति' शब्द प्रथम परिसमाप्त्यर्थः।
कोशके विवरणकी परिसमाप्तिके
लिये है। अन्नमयादिभ्य आनन्दमया- अनेक तुपाओंवाले धानोंको अन्नमयकोश- न्तेश्य आत्मम्यो- तुपरहित करके जिस प्रकार चावल निरासः ऽभ्यन्तरतमं ब्रह्म अन्नमयसे लेकर आनन्दमय कोश
निकाल लिये जाते हैं उसी प्रकार विद्यया प्रत्यगात्मत्वेन दिदशे- पर्यन्त सम्पूर्ण शरीरोंकी अपेक्षा यिपुः शास्त्रमविद्याकृतपञ्चकोशा-1 आन्तरतम ब्रह्मको विद्याके द्वारा अपने पनयनेनानेकतुपकोद्रववितुपी- प्रत्यगात्मरूपसे दिखलानेकी इच्छा
वाला शास्त्र अविद्याकल्पित पाँच करणेनेव तदन्तर्गततण्डुलान्
कोशोंका बाध करता हुआ 'तस्माद्वा प्रस्तौति तस्माद्वा एतस्मादन्नरस- एतस्मादन्नरसमयात्' इत्यादि वाक्यमयादित्यादि।
से आरम्भ करता हैतसादेतस्माद्यथोक्तादन्नरस- । उस इस पूर्वोक्त अन्नरसमय
| पिण्डसे अन्य यानी पृथक् और प्राणमयकोश- मयात्पिण्डादन्यो ।
उसके भीतर रहनेवाला आत्मा, जो निर्वचनम् व्यतिरिक्तोऽन्तरो- अन्नरसमय पिण्डके समान मिथ्या ऽभ्यन्तर आत्मा पिण्डवदेव मिथ्या ही आत्मारूपसे कल्पना किया. हुआ
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तैत्तिरीयोपनिपद
[चल्ली २
परिकल्पित आत्सत्वेन प्राणमयः है. प्राणमय है । प्राणवायु उससे
। युक्त अर्थात् तत्प्राय [ यानी उसमें प्राणो बायुस्तन्मयत्तत्मायः । तेन
प्राणी ही प्रधानता है । जिस प्राणमयेदारसमय आत्मैप पूणों प्रकार वायुसे धोकनी भरी रहती है
'उनी प्रकार उस प्राणमयसे यह वायुनेव दृतिः। स वा एप प्राण- ' अन्तरसमय शरीर भरा हुआ है। मय आत्मा पुरुषविध एव पुरुषा- ' वह यह प्राणमय आत्मा पुरुषविध
अर्थात् शिर और पक्षादिके कारण कार एब, शिरपक्षादिभिः ।
पुरुपाकार ही है। किं स्वत एक, नेत्याह। क्या वह खतः ही पुरुपाकार प्राणमयस्य प्रसिद्ध तापदभरस- है ? इसपर कहते हैं-'नहीं, पुरुपविधत्वन् मयस्यात्सल - अन्नरसमय शरीरकी पुरुषाकारता तो
प्रसिद्ध ही है। उस अन्नरसमयविधत्वम्। तत्यानरसमय पुरुष- की पुरुपविधता-पुरुपाकारताके विधतां पुरुपाकारतासनु अयं अनुसार साँचे में ढली हुई प्रतिमाके प्राणमयः पुरुपविधो मूपानिरिक्त
. | समान यह प्राणमय कोश भी
10 | पुरुषाकार है-खतः ही पुरुषाकार प्रतिमापन खत एय। एवं पूर्वस्य नहीं है। इसी प्रकार पूर्व-पूर्वको पूर्वस्य पुरुपविधतामनुत्तरोत्तरः पुरुपाकारता है और उसके अनुसार
पीछे-पीछेका कोश भी पुरुषाकार है। पुरुषविधो भवति पूर्वः पूर्व- |
तथा पूर्व-पूर्व कोश पीछे-पीछेके श्रोत्तरोत्तरेण पूर्णः।
| कोशसे पूर्ण (भरा हुआ) है। __ कथं पुनः पुरुपविधतास्य इसकी पुरुपाकारता किस प्रकार इत्युच्यते । तस्य प्राणमयस्य प्राश है ! सो बतलायी जाती है. उस
प्राणमयका प्राण ही शिर है । एव शिरः। प्राणमयस्य वायु- वायुके विकाररूप प्राणमय कोशका विकारस्य प्राणो मुखतासिका मुख और नासिकासे निकलनेवाला
प्राण, जो मुख्य प्राणकी वृत्तिविशेष निम्सरणो वृत्तिविशेषः शिर एव है, श्रुतिके वचनानुसार शिररूपसे ही
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शाङ्करभाष्यार्थ
अनु० २ ]
परिकल्प्यते वचनात् । सर्वत्र वचनादेव पक्षादिकल्पना । व्यानो व्यानवृत्तिर्दक्षिणः पक्षः । अपान उत्तरः पक्षः । आकाश आत्मा । य आकाशस्थो वृत्ति - विशेषः समानाख्यः स आत्मेवा
त्मा;
प्राणवृत्त्यधिकारात् । मध्यस्थत्वादितराः पर्यन्ता वृत्तीरपेक्ष्यात्मा | “मध्यं ह्येषामङ्गा - नामात्मा" इति श्रुतिप्रसिद्धं मध्यमस्थस्यात्मत्वम् ।
पृथिवी पुच्छं प्रतिष्ठा । पृथिवीति पृथिवीदेवताध्यात्मिकस्य प्राणस्य धारयित्री स्थितिहेतुत्वात् । " सैपा पुरुपस्थापानमवष्टभ्य” (बृ० उ० ३ । ८) इति हि श्रुत्यन्तरम् । अन्यथोदानवृच्योर्ध्वगमनं गुरुत्वाच्च पतनं वा स्याच्छरीरस्य । तस्मात्पृथिवी देवता पुच्छं प्रतिष्ठा प्राणमयस्यात्मनः । तत्तस्मिन्नेवार्थे प्राणमयात्मविषय एप श्लोको भवति ॥१॥
११७
कल्पना किया जाता है। इसके सिवा आगे भी श्रुतिके वचनानुसार है । व्यान अर्थात् व्यान नामकी ही पक्ष आदिकी कल्पना की गयी वृत्ति दक्षिण पक्ष है, अपान उत्तर पक्ष है, आकाश आत्मा है । यहाँ प्राण-वृत्तिका अधिकार होनेके कारण [ 'आकाश' शब्दसे ] आकाशमें स्थित जो समानसंज्ञक प्राणकी वृत्ति है वही आत्मा है। अपने आसपासकी अन्य सव वृत्तियों की अपेक्षा मध्यवर्तिनी होने के कारण वह आत्मा है । "इन अंगोंका मध्य आत्मा है" इस श्रुति से मध्यवर्ती अंगका आत्मत्व प्रसिद्ध ही है ।
पृथिवी पुच्छ-प्रतिष्ठा है । 'पृथिवी' इस शब्द से पृथिवीकी अधिष्ठात्री देवी समझनी चाहिये, क्योंकि स्थितिकी हेतुभूत होनेसे वही आध्यात्मिक प्राणको भी धारण करनेवाली है । इस विपयमें "वह पृथिवी-देवता पुरुपके अपानको आश्रय करके" इत्यादि एक दूसरी श्रुति भी है । अन्यथा प्राणकी उदानवृत्तिसे या तो शरीर ऊपरको उड़ जाता अथवा गुरुतावश गिर पड़ता । अतः पृथिवी-देवता ही प्राणमय शरीरकी पुच्छ-प्रतिष्ठा है । उसी अर्थ में अर्थात् प्राणमय आत्माके विपयमें ही यह श्लोक प्रसिद्ध है ॥ १ ॥
इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यां द्वितीयोऽनुवाकः ॥ २ ॥
3r
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কে জাজ प्राणकी महिमा और मनोमय कोशका वर्णन
प्राणं देवा अनु प्राणन्ति ! अनुष्याः पशवश्व थे। प्राणो हि भूतानामायुः । तस्मात्सर्वायुषमुच्यते । सर्वमेव त आयुर्यन्ति ये प्राणं ब्रह्मोपासते । प्राणो हि भूतानामायुः। तस्मात्सर्वायुषमुच्यत इति । तस्यैष एव शारीर आत्मा यः पूर्वस्य । तस्माद्वा एतस्मात्प्राणमयादन्योऽन्तर आत्मा बनोलयः । तेनैष पूर्णः । स वा एष पुरुषविद एव । तस्य पुरुषविधतामन्वयं पुरुषविधः । तस्य यजुरेव शिरः। बग्दक्षिणः पक्षः । सामोत्तरः पक्षः । आदेश आत्मा । अथर्वाङ्गिरसः पुच्छं प्रतिष्ठा । तदप्येष श्लोको भवति ॥ १॥
देवगण प्राणके अनुगामी होकर प्राणन-क्रिया करते हैं तथा जो मनुष्य और पशु आदि हैं [ वे भी प्राणन-क्रियासे ही चेष्टावान् होते हैं ] । प्राण ही प्राणियोंकी आयु (जीवन) है। इसीलिये वह. 'सर्वायुष' कहलाता है। जो प्राणको ब्रह्मरूपसे उपासना करते हैं वे पूर्ण आयुको प्राप्त होते हैं । प्राण ही प्राणियोंकी आयु है। इसलिये वह 'सर्वायुष' कहलाता है । उस पूर्वोक्त ( अन्नमय कोश ) का यही देहस्थित आत्मा है । उस इस प्राणमय कोशसे दूसरा इसके भीतर रहनेवाला आत्मा मनोमय है । उसके द्वारा यह पूर्ण है । वह यह [ मनोमय कोश ] भी पुरुपाकार ही है। उस (प्राणमय कोश) की पुरुषाकारताके अनुसार ही यह भी पुरुषाकार है । यजुः ही उसका शिर है, ऋक् दक्षिण पक्ष है,
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-L
अनु० ३ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
साम उत्तर पक्ष है, आदेश आत्मा है तथा अथर्वाङ्गिरस पुच्छप्रतिष्ठा है । उसके विषयमें ही यह श्लोक है ॥१॥
११९
प्राणस्य
भूताः सन्तः प्राणन्ति प्राणनकर्म कुर्वन्ति प्राणनक्रियया क्रियावन्तो भवन्ति । अध्यात्माधिकाराद्देवा इन्द्रियाणि प्राणमनु प्राणन्ति मुख्यप्राणमनु चेष्टन्त इति वा । तथा मनुष्याः पशवश्च ये ते प्राणनकर्मणैव चेष्टावन्तो भवन्ति ।
प्राणं देवा अनु प्राणन्ति | | प्राणं देवा अनु प्राणन्ति — अग्नि देवा अग्न्यादयः आदि देवगण प्राणनशक्तिमान् वायुप्राधान्यन् प्राणं वाय्वात्मानं | रूप प्राणके अनुगामी होकर अर्थात् प्राणनशक्तिमन्तमनु तदात्म- तद्रूप होकर प्राणन-क्रिया करते हैं; यानी प्राणन - क्रियासे क्रियावान् होते हैं । अथवा यहाँ अध्यात्मसम्बन्धी प्रकरण होनेसे [ यह समझना चाहिये कि ] देव अर्थात् इन्द्रियाँ प्राणके पीछे प्राणन करतीं यानी मुख्य प्राणकी अनुगामिनी होकर चेष्टा करती हैं । तथा जो भी मनुष्य और पशु आदि हैं वे भी प्राणन-क्रियासे ही चेष्टावान् होते हैं।
अतश्च नान्नमयेनैव परिच्छिनेनात्मनात्मवन्तः प्राणिनः ।
किं तर्हि ? तदन्तर्गतेन प्राणमयेनापि साधारणेनैव सर्वपिण्ड -
इससे जाना जाता है कि प्राणी केवल परिच्छिन्नरूप अन्नमय कोशसे ही आत्मवान् नहीं हैं । तो क्या है ? वे मनुष्यादि जीव उसके अन्तर्वर्ती सम्पूर्ण पिण्डमें व्याप्त व्यापिनात्मवन्तो मनुष्यादयः । साधारण प्राणमय कोशसे भी एवं मनोमयादिभिः पूर्वपूर्वव्या- | आत्मवान् हैं । इस प्रकार पूर्व - पूर्व कोशमें व्यापक मनोमयसे लेकर पिभिरुत्तरोत्तरैः सूक्ष्मैरानन्दमआनन्दमय कोशपर्यन्त, आकाशादि यान्तैराकाशादिभूतारब्धैरविद्या- भूतोंसे होनेवाले अविद्याकृत कोशों
कृतैरात्मवन्तः सर्वे प्राणिनः । से सम्पूर्ण प्राणी आत्मवान् हैं । तथा स्वाभाविकेनाप्याकाशादि । इसी प्रकार वे स्वभावसे ही
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१२०
१२०
तैत्तिरीयोपनिषद्
[ बल्ली २
कारणेन नित्येनाविकृतेन सर्व- आकाशादिक कारण, नित्य,
निर्विकार, सर्वगत, सत्य ज्ञान एवं गतेन सत्यज्ञानानन्तलक्षणेन'
', अनन्तरूप. पनकोशातीत सर्वात्माने पञ्चकोशातिगेन सर्वात्मनात्म- ' भी आत्मवान हैं। वही परमार्यतः वन्तः । स हि परमार्थत आत्मा ' सबका आन्मा है-यह बात भी
। इस वाक्यके तात्पर्य कह ही दी सर्वेपामित्येतदप्यर्थादुक्तं भवति। गयी है।
प्राणं देवाअनु प्राणन्तीत्युक्तं देवगण प्राणके पीछे प्राणनतत्करसादित्याह । प्राणां हि क्रिया करते हैं-ऐसा पहले कहा
गया । ऐसा क्यों है ? सो बतलाते यसाभूताना माणनामायुजान है क्योंकि प्राण ही प्राणियोंका नम् । “यानद्धयसिशरीरे प्राणो आयु--जीवन है। "जबतक इस वसति तावदायु (को० उ० शरीरमें प्राण रहता है तभीतक ३ । २) इति श्रुत्यन्तरात । ' आयु है" इस एक अन्य श्रुतिसे भी
। यही सिद्ध होता है । इसीलिये वह तस्मात्सर्वायुपम् । सर्वेपामायुः । 'सर्वायुप' है। सबकी आयुका नाम सर्वायुः सर्वायुरेव सर्वायुपमित्यु- 'सर्वायु' है, 'सर्वायु' ही 'सर्वायुप' च्यते । प्राणापगमे भरणप्रसिद्धः। कहा जाता है, क्योंकि प्राण-प्रयाणप्रसिद्धं हि लोके सर्वायुष्वं ।।
के अनन्तर मृत्यु हो जाना प्रसिद्ध
न ही है। प्राणका सर्वायु होना तो प्राणस्य ।
लोकमें प्रसिद्ध ही है। अतोऽसाद्वाह्यादसाधारणाद- अतः जो लोग इस बाह्य 'प्राणोपासन- नमयादात्मनोऽप- | असाधारण ( व्यावृत्तरूप ) अन्नमय • फलम् क्रम्यान्तः साधा
कोशसे आत्मबुद्धिको हटाकर इसके रणं प्राणमयमात्मानं ब्रह्मोपासते
| अन्तर्वर्ती और साधारण [ सम्पूर्ण
इन्द्रियोंमें अनुगत ] प्राणमय कोशयेऽहमस्मि प्राणः सर्वभूताना- | को 'मैं प्राण सम्पूर्ण भूतोंका आत्मा
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अनु० ३]
शाङ्करभाष्यार्थ
१२१
मात्मायुर्जीवनहेतुत्वादिति ते और उनके जीवनका कारण होनेसे सर्वमेवायुरसिल्लोके यन्तिः नाप- उनकी आयु हूँ' इस प्रकार ब्रह्मरूपसे
उपासना करते हैं वे इस लोकमें मृत्युना म्रियन्ते प्राक्प्राप्तादायुष पूर्ण आयुको प्राप्त होते हैं । अर्थात् इत्यर्थः । शतं वाणीति तु युक्तं प्रारब्धवश प्राप्त हुई आयुसे पूर्व "सर्वमायुरेति" (छा० उ० २।
अपमृत्युसे नहीं मरते । “पूर्ण आयु
को प्राप्त होता है" ऐसो श्रुति-प्रसिद्धि ११-२०, ४ । ११-१३) इलि हानेके कारण यहाँ [ 'सर्वायु' श्रुतिप्रसिद्धः।
शब्दसे] सौ वर्ष समझने चाहिये । किं कारणं प्राणो हि भूता
। प्राणको सर्वायु समझनेका ]
क्या कारण है ? क्योंकि प्राण ही नामायुस्तसात्सर्वायुपमुच्यत इति।। प्राणियोंकी आयु है इसलिये वह
'सर्वायुप' कहा जाता है। जो यो यद्गुणकं ब्रह्मोपास्ते स तद्- | व्यक्ति जैसे गुणवाले ब्रह्मकी उपासना
करता है वह उसी प्रकारके गुणका गुणभाग्भवतीति विद्याफलप्राले-भागी होता है-इस प्रकार विद्याके
फलकी प्राप्तिके इस हेतुको प्रदर्शित त्वर्थ पुनर्वचनं प्राणो हीत्यादि।। | करने के लिये 'प्राणो हि भूताना
मायुः' इत्यादि वाक्यकी पुनरुक्ति की तस्स . पूर्वस्यान्नमयस्यैप एव गयी है। यही उस पूर्वकथित
अन्नमय कोशका शारीर---अन्नमय शरीरेऽन्नमये भवः शारीर शरीरमें रहनेवाला आत्मा है । कौन?
जो कि यह प्राणमय है। -आत्मा । क य एप प्राणमयः।
तसाद्वा एतसादित्युक्तार्थ- 'तस्माद्वा एतस्मात्' इत्यादि शेप मनोमयकोश- मन्यत् । अन्यो- पदोंका अर्थ पहले कह चुके हैं।
दूसरा अन्तर-आत्मा मनोमय है।
| संकल्प-विकल्पात्मक अन्तःकरणका मयः। मन इति संकल्पाद्यात्म- नाम मन है; जो तद्रूप हो उसे कमन्त करणं तन्मयो मनोमयो मनोमय कहते हैं; जैसे [ अन्नरूप
निर्वचन
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१२२
तैत्तिरीयोपनिपद
[बल्ली २
यथान्नमयः। सोऽयं प्राणमय-होनेके कारण ] अन्नमय कहा गया
है। वह इस प्राणमयका अन्तर्वर्ती स्थाम्यन्तर आत्मा । तस्य यजु- आत्मा है। उसका यजुः ही शिर रेच शिरः । यजुरित्यनियताक्षर- ' है । जिनमें अक्षरोंका कोई नियम
, नहीं है पैसे पादोंमें समाप्त होनेवाले पादावसानो मन्त्रविशपस्तजा मन्त्रविशेषका नाम यजुः है । उस तीयवचनो चजु शब्दस्तस्य , जातिले मन्त्रोंका वाचक 'यजुः'
_ शब्द है । उसे प्रधानताके कारण शिरस्त्वं प्राधान्याला प्राधान्यं च शिर कहा गया है। यागादिमें थामादौ संनिपत्योपकारकात्यात संनिपत्य उपकारक होनेके कारण
यजुः-मन्त्रोंशी प्रधानता है, क्योंकि यजुपा हि हनिदीयते स्वाहाका
खाहा आदिके द्वारा यजुर्मन्त्रोंसे ही रादिना।
हवि दी जाती है। वाचनिकी वा शिरआदि- अथवा इन सब प्रसंगोंमें शिर
आदिकी कल्पना श्रुतिवाक्यसे ही कल्पना सर्वत्र । सनसो हि सगझनी चाहिये । अक्षरोंके
[उच्चारण]स्थान,[आन्तरिक प्रयत्न, स्थानप्रयत्ननादस्वरवर्णपदवाक्य-/ [उससे उत्पन्न हुआ]नाद, उदात्तादि]
स्वर,अकारादि] वर्ण,[उनसे रचे हुए] विषया तत्संकल्पालिका | पद और पदोंके समूहरूप] वाक्यप्ते
सम्बन्ध रखनेवाली तथा उन्हींके तझाविता वृत्तिः श्रोत्रादिकरण- संकल्प और भावसे युक्त जो श्रवणादि
इन्द्रियोंके द्वारा उत्पन्न होनेवाली द्वारा यजुःसंकेतविशिष्टा यजुः | 'यजुः' संकेतविशिष्ट मनकी वृत्ति है
* यज्ञांग दो प्रकारके होते हैं-एक संनिपत्य उपकारक और दूसरे आरात् उपकारक । उनमें जो अङ्ग साक्षात् अथवा परम्परासे प्रधान यागक कलेवरकी पूर्ति कर उसके द्वारा अपूर्वकी उत्पत्तिमें उपयोगी होते हैं वे संनिपत्य उपकारक कहलाते हैं । यजुर्मन्त्र भी यागशरीरको निप्पन्न करनेवाले होनस संनिपत्य उपकारक हैं।
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अनु० ३]
शाङ्करभाष्यार्थ
१२३
इत्युच्यते । एवमृगेवं साम | वही 'यजुः' कही जाती है। इसी
प्रकार 'ऋ' और ऐसे ही 'साम'
को भी समझना चाहिये ।* एवं च मनोवृत्तित्वे मन्त्राणां इस प्रकार मन्त्रोंके मनोवृत्तिरूप
होनेपर ही उस वृत्तिका आवर्तन वृत्तिरेवावर्त्यत इति मानसो जप करनेसे उनका मानसिक जप किया
| जाना ठीक हो सकता है । अन्यथा उपपद्यते । अन्यथाविपयत्वान्म-घटादिके समान मनके विपय न न्त्रो नावर्तयितुं शक्यो घटादि
होनेके कारण तो मन्त्रोंकी आवृत्ति भी नहीं की जा सकती थी और
उस अवस्थामें मानसिक जप होना वदिति मानसो जपो नोपपद्यते ।
सम्भव ही नहीं था। किन्तु मन्त्रोंकी मन्त्रावृत्तिश्च चोद्यते बहुशः!
आवृत्तिका तो बहुत-से कोंमें विधान किया ही गया है [ इससे उसकी
| असम्भावना तो सिद्ध हो नहीं कर्मसु ।
सकती ] । . ___* 'यजुः' आदि शब्दोंसे यजुर्वेद आदि ही समझे जाते हैं । परन्तु यहाँ जो उन्हें मनोमय कोशके शिर आदि रूपसे बतलाया गया है उसमें यह शंका होती है कि उनका उससे ऐसा क्या सम्बन्ध है जो वे उसके अङ्गरूपसे बतलाये गये हैं ? इस वाक्यमें भगवान् माष्यकारने उसी बातको स्पष्ट किया है । इसका तात्पर्य यह है कि यजुः, साम अथवा ऋक् आदि मन्त्रोंके उच्चारणमें सबसे पहले अन्यान्य शब्दोंके उच्चारणके समान मनका ही व्यापार होता है। पहले कण्ठ अथवा तालु आदि स्थानोंसे जठरामिद्वारा प्रेरित वायुका आघात होता है, उससे प्रस्फुट नादकी उत्पत्ति होती है। फिर क्रमशः खर और अकारादि वर्ण अभिध्यक्त होते हैं । वाँके संयोगसे पद और पदसमूहसे वाक्यकी रचना होती है।
स प्रकार मानसिक सङ्कल्प और भावसे ही यजुः आदि मन्त्र अभिव्यक्त होकर गोत्रेन्द्रियसे ग्रहण किये जाते हैं । अतः मनोवृत्तिसे उत्पन्न होनेवाले होनेके गरण ही यहाँ यजुर्विषयक मनोवृत्तिको 'यजुः', ऋग्विषयक वृत्तिको 'ऋक्, नौर सामविषयक वृत्तिको 'साम' कहा गया है तथा इस प्रकारकी यजुःवृत्ति । मनोमय कोशकी शीर्षस्थानीय है।
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[ चली २
शंका- मन्त्र के अक्षरोंको विषय करनेवाली स्मृति की आवृत्ति होनेसे । मन्त्रकी भी आवृत्ति हो सकती हैयदि ऐसा मानें तो ?
नः मुख्यार्थासंभवात् । "त्रिः
प्रथमामन्वाह विरुत्तमाम्" इति
ऋगावृत्तिः श्रूयते । तनच
ऽविपयत्वे तद्विषयस्मृत्याचच्या
1
मन्त्रावृत्तौ च क्रियमाणायाम्
समाधान- नहीं क्योंकि [ ऐसा मानने का विधान करनेवाली श्रुतिका ] मुख्य अर्थ असम्भव हो नायगा । "तीन बार प्रथम ऋक्की आधुनि करनी चाहिये और तीन बार अन्तिम ऋकूका अन्याख्यान ( आवर्तन) करें" इस प्रकार छक्को आवृमिके विषय में श्रुतिकी आज्ञा है । ऐसी अवस्सा में मन्त्रमय ऋक् तो "त्रिः प्रथमामन्वाह" इति ऋगा- ' मनका विषय नहीं है, अतः मन्त्रकी वृत्तिर्मुख्योऽर्थथोदितः परित्यका स्मृतिका ही आवर्तन किया जाय • आवृत्ति स्थानमें यदि केवल उसकी स्यात् । तस्मान्सनोट्टत्युपाधि- तो “तीन बार प्रथम ऋक्की ! आवृत्ति करनी चाहिये" इस श्रुतिका परिच्छिन्नं मनोवृत्तिविष्ठमात्म- ! मुख्य अर्थ छूट जाता है । अतः यह चैतन्यमनादिनिधनं यजुः शब्द- उपाधिसे परिच्छिन्न मनोवृत्तिस्थित समझना चाहिये कि मनोवृत्तिरूप वाच्यमात्मविज्ञानं मन्त्रा इति । जो अनादि-अनन्त आत्मचैतन्य 'यजुः ' शब्दवाच्य आत्मविज्ञान हैएवं च नित्यत्वोपपत्तिर्वेदानाम् । । यह यजुर्मन्त्र हैं । इसी प्रकार वेदोंकी नित्यता भी सिद्ध हो सकती अन्यथा विषयत्वे रूपादि - | है नहीं तो इन्द्रियोंके विषय होनेबदनित्यत्वं च स्यान्नैतद्यु- अनित्यता ही सिद्ध होगी; और ऐसा पर तो रूपादिके समान उनको भी क्तम् । “सर्वे वेदा यत्रैकं भवन्ति | होना ठीक नहीं है । "जिसमें समस्त
१२४
तैत्तिरीयोपनिषद्
अक्षरविपयस्मृत्यावृत्त्या
मन्त्रावृत्तिः स्यादिति चेत् ।
I
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अनु०३]
शाङ्करमाप्यार्थ
‘स मानसीन आत्मा" इति च वेद एकरूप हो जाते हैं वह मनरूप श्रुतिनित्यात्मनैकत्वं ब्रुवत्यगा-/
उपाधिमें स्थित आत्मा है" यह नित्य
आत्माके साथ ऋगादिका एकत्व दीनां नित्यत्वे समञ्जसा स्यात् । बतलानेवाली श्रुति भी उनका "ऋचो अक्षरे परमे व्योमत्य- | नित्यत्व सिद्ध होनेपर ही सार्थक
| हो सकती है । इस सम्बन्धमें सिन्देवा अधि विश्वे निपेदुः" "जिसमें सम्पूर्ण देव स्थित हैं उस (श्वे० उ०४।८) इति च अक्षर और परब्रह्मरूप आकाशमें
। ही ऋचाएँ तादात्म्यभावसे व्यवस्थित मन्त्रवर्णः।
हैं" ऐसा मन्त्रवर्ण भी है। आदेशोऽत्र ब्राह्मणम; अति- 'आदेश आत्मा' इस वाक्यमें
| 'आदेश' शब्द ब्राह्मणका वाचक देष्टव्यविशेपानतिदिशतीति । अथ- है; क्योंकि वेदोका ब्राह्मणभाग ही
कर्तव्यविशेपोंका आदेश (उपदेश) वाङ्गिरसा च दृष्टा मन्त्रा ब्राह्मणं देता है । अथर्वाङ्गिरस ऋषिके
साक्षात्कार किये हुए मन्त्र और च शान्तिकपौष्टिकादिप्रतिष्ठा
ब्राह्मण ही पुच्छ-प्रतिष्ठा हैं, क्योंकि हेतुकर्मप्रधानत्वात्पुच्छं प्रतिष्ठा ।
उनमें शान्ति और पुष्टिकी स्थितिके
हेतुभूत कर्मोकी प्रधानता है। तदप्येप श्लोको भवति मनो- | पूर्ववत् इस विषयमें ही-मनोमय
आत्माका प्रकाश करनेवाला ही मयात्मप्रकाशकः पूर्ववत् ॥१॥ यह श्लोक है ॥ १ ॥
इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यां तृतीयोऽनुवाकः ॥३॥
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चतुर्थ अनुवाक
I
मनोमय कोशकी महिमा तथा विज्ञानमय कोशका वर्णन यतो वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्य मनसा सह । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् । न विभेति कदाचनेति । तस्यैष एव शारीर आत्मा यः पूर्वस्य । तस्माद्वा एतस्मान्मनोमयादन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयस्तेनैष पूर्णः । स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुपविधतामन्वयं पुरुषविधः । तस्य श्रद्धैव शिरः । ऋतं दक्षिणः पक्षः । सत्यमुत्तरः पक्षः । योग आत्मा । महः पुच्छं प्रतिष्ठा । तदप्येष श्लोको भवति ॥ १ ॥
.
जहाँ से मन के सहित वाणी उसे न पाकर लौट आती है उस ब्रह्मानन्दको जाननेवाला पुरुष कभी भयको प्राप्त नहीं होता । यह जो [ मनोमय शरीर ] है वहीं उस अपने पूर्ववर्ती [ प्राणमय कोश ] का शारीरिक आत्मा है । उस इस मनोमयसे दूसरा इसका अन्तर आत्मा विज्ञानमय है । उसके द्वारा यह पूर्ण है । वह यह विज्ञानमय भी पुरुषाकार ही है । उस [ मनोमय ] की पुरुषाकारताके अनुसार ही यह भी पुरुषाकार है । उसका श्रद्धा ही शिर है । ऋत दक्षिण पक्ष है । सत्य उत्तर पक्ष है । योग आत्मा ( मध्यभाग ) है और महत्तत्त्व पुच्छ-प्रतिष्ठा है । उसके विपयमें ही यह श्लोक है ॥ १ ॥ यतो वाचो निवर्तन्ते । अप्राप्य जहाँ से मनके सहित वाणी उसे मनसा सहेत्यादि । तस्य पूर्वस्य अर्थ स्पष्ट ही है ]। उस पूर्वन पाकर लौट आती है - इत्यादि प्राणमयस्यैप एवात्मा शारीरः । कथित प्राणमयका यही शारीर
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अनु० ४]
शाङ्करभाष्यार्थ
૨૨૭
शरीरे प्राणमये भवः शारीरः। अर्थात् प्राणमय शरीरमें रहनेवाला
| आत्मा है । कौन ? यह जो मनोमय का? य एप मनोमयः। तसाद्वा है । 'तस्माद्वा एतस्मात्' इत्यादि एतस्मादित्यादि पूर्ववत् । अ
| वाक्यका अर्थ पूर्ववत् समझना
चाहिये । उस इस मनोमयसे दूसरा न्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयो इसका अन्तर आत्मा विज्ञानमय है
अर्थात् मनोमय कोशके भीतर मनोमयस्याभ्यन्तरो विज्ञानमय
विज्ञानमय कोश है। मनोमयो वेदात्मोक्तः। - मनोमय कोश वेदरूप बतलाया दार्थविषया बुद्धिनिश्चयात्मिका
गया था। वेदोंके अर्थक विषयमें
जो निश्चयात्मिका बुद्धि है उसीका विज्ञानं तच्चाध्यवसायलक्षणम- नाम विज्ञान है । और वह अन्त:न्तस्करणस्य धर्मः । तन्मयो
करणका अध्यबसायरूप धर्म है।
| तन्मय अर्थात् प्रमाणखरूप निश्चय निश्चयविज्ञानैः प्रमाणवरूपैनि- विज्ञानसे (निश्चयात्मिका बुद्धिसे) वर्तित आत्मा विज्ञानमयः । निष्पन्न होनेवाला आत्मा विज्ञानमय
| है, क्योंकि प्रमाणके विज्ञानपूर्वक प्रमाणविज्ञानपूर्वको हि यज्ञादि- ही यज्ञादिका विस्तार किया जाता स्तायते । यज्ञादिहेतुत्वं च है । विज्ञान यज्ञादिका हेतु है
| यह बात श्रुति आगे चलकर मन्त्रवक्ष्यति श्लोकेन ।
द्वारा बतलायेगी। निश्चयविज्ञानवतो हि कर्तव्ये- निश्चयात्मिका बुद्धिसम्पन्न पुरुष
| को सबसे पहले कर्त्तव्य कर्ममें श्रद्धा वर्थेषु पूर्व श्रद्धोत्पद्यते । सा ही उत्पन्न होती है । अतः सम्पूर्ण
कमोंमें प्रथम होनेके कारण वह सर्वकर्तव्यानां प्राथम्याच्छिर इव शिरके समान उस विज्ञानमयका
शिर है । ऋत और सत्यका अर्थ शिरः । ऋतसत्ये यथाव्या पहले (शीक्षावल्ली नवम अनुवाकम) ख्याते एव । योगो युक्तिः । की हुई व्याख्याके ही समान है।
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૬૮
तैत्तिरीयोपनिपद्
[ वल्ली २
योग--युक्ति अर्थात् समाधान ही आत्मा के समान उसका आत्मा है । युक्त अर्थात् समाधानसम्पन्न आत्मवान् पुरुपके ही अङ्गादिके समान श्रद्धा आदि साधन यथार्थ ज्ञानकी प्राप्तिमें समर्थ होते हैं । अतः समाधान यानी योग हो विज्ञानमय कोशका आत्मा है और नहः उसकी पुच्छ — प्रतिष्ठा है ।
समाधानम्,
आत्मेवात्मा ।
आत्मवतो हि युक्तस्य समाधानतोऽङ्गानीव श्रद्धादीनि यथार्थ - प्रतिपत्तिक्षमाणि भवन्ति । तसात्समाधानं योग आत्मा विज्ञानमयस्य । महः पुच्छं प्रतिष्ठा ।
मह इति महत्तत्त्वं प्रथमजम् । “महद्यक्षं प्रथमजं वेद” ( वृ०ड०
५ । ४ । १ ) इति श्रुत्यन्तरात् | यह महत्तत्त्वका
"
" प्रथम उत्पन्न हुए महान् चक्ष
जानता है" इस अनुसार 'मह : ' नाम है । वही कारण होनेसे .
1
।
1 [विज्ञानमयका ] उसकी पुच्छ-- प्रतिष्ठा है, क्योंकि कारण ही कार्यवर्गकी प्रतिष्ठा (आश्रय ) हुआ करता है, जैसे कि वृक्ष और लता - गुल्मादिकी प्रतिष्टा पृथिवी है । महत्तत्व ही बुद्धिके सम्पूर्ण विज्ञानोंका कारण है । इसलिये वह विज्ञानमय आत्माकी प्रतिष्ठा है । पूर्ववत् उसके विपयमें ही यह श्लोक - है अर्थात् जैसे पहले श्लोक ब्राह्मणोक्त अन्नमय आदिके प्रकाशक हैं उसी प्रकार यह विज्ञानमयका भी प्रकाशक श्लोक है ॥ १ ॥
पुच्छं प्रतिष्ठा कारणत्वात् कारणं हि कार्याणां प्रतिष्ठा । यथा वृक्षवीरुधां पृथिवी । सर्वबुद्धिविज्ञानानां च महत्तत्त्वं
( पूजनीय ) को एक अन्य श्रुतिके
कारणम् । तेन तद्विज्ञानमयस्या -
:
त्मनः प्रतिष्ठा । तदप्येष श्लोको
भवति पूर्ववत् । यथान्नमयादी -
नां ब्राह्मणोक्तानां प्रकाशकाः
श्लोका एवं विज्ञानमयस्यापि ॥१॥
इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यां चतुर्थोऽनुवाकः ॥ ४ ॥
కితా
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RATPOR
पञ्चम अनुवाक
विज्ञानकी महिमा तथा आनन्दमय कोशका वर्णनं
विज्ञानं यज्ञं तनुते । कर्माणि तनुतेऽपि च । । । विज्ञानं देवाः सर्वे । ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते । विज्ञानं ब्रह्म चे.. | तस्माच्चेन्न प्रमाद्यति । शरीरे पाप्मनो हित्वा । सर्वान्कामान्समश्नुत इति । तस्यैप एव शारीर आत्मा यः पूर्वस्य । तस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयादन्योऽन्तर आत्मानन्दमयः । तेनैप पूर्णः । स वा एष पुरुषविध एव । तस्य पुरुषविधतामन्वयं पुरुषविधः । तस्य प्रियमेव शिरः । मोढ़ो दक्षिणः पक्षः । प्रमोद उत्तरः पक्षः | आनन्द आत्मा । ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा । तदप्येष श्लोको भवति ॥ १ ॥
विज्ञान ( विज्ञानवान् पुरुष ) यज्ञका विस्तार करता है और वही कर्मोका भी विस्तार करता है । सम्पूर्ण देव ज्येष्ठ विज्ञान - ब्रह्मको उपासना करते हैं । यदि साधक 'विज्ञान ब्रह्म है' ऐसा जान जाय और फिर उससे प्रमाद न करे तो अपने शरीरके सारे पापोंको त्यागकर वह समस्त कामनाओं (भोगों) को पूर्णतया प्राप्त कर लेता है । यह जो विज्ञानमय है वही उस अपने पूर्ववर्ती मनोमय शरीरका आत्मा है । उस इस विज्ञानमयसे दूसरा इसका अन्तर्वर्ती आत्मा आनन्दमय है । उस आनन्दमयके द्वारा यह पूर्ण है । वह यह आनन्दमय भी पुरुषाकार ही है | उस ( विज्ञानमय ) की पुरुषाकारताके समान ही यह पुरुषाकार है । उसका प्रिय ही शिर है, मोद दक्षिण पक्ष है, प्रमोद उत्तर पक्ष है, आनन्द आत्मा है और ब्रह्म पुच्छ प्रतिष्ठा है । उसके विषयमें ही यह श्लोक है ॥ १ ॥
१७-१८
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१३०
तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली २
न कर्माणि च तनुते । असा चिन्तार करता
ही
विज्ञानं यज्ञं तनुते । विज्ञान- विज्ञान याका चिन्तार करता
है अर्थात् विज्ञानवान पुरुष ही विशानमयो- वान्हि यज्ञं तनोति . है
: श्रद्धादि पूर्वक यन्का अनुष्ठान करता पासनम् श्रद्धादिपूर्वकम् । है । अतः यतानुष्टानमें विज्ञानका अतो विज्ञानस्य कर्तृत्वं तनुत कर्तृन्च । और तनुते-इसका भात्र इति कर्माणि च तनुते । यसा- यह है कि वहीं कांका भी द्विज्ञानकर्तृकं सर्व तस्मायुक्तं क्योंकि सब कुछ विज्ञानका ही विज्ञानमय आत्मा ब्रहोति । किया हुआ है। इसलिये विज्ञानमय
आत्मा ब्रम है। ऐसा कहना ठीक किं च विज्ञानं ब्रह्म सर्वे देवा ही है। यही नहीं, इन्द्रादि सम्पूर्ण इन्द्रादयो ज्येष्ठं प्रथमजत्वात्सर्व
। देवगग विज्ञानवामकी, जो गवसे
पहले उत्पन्न होनेवाला होनसे प्रवृत्तीनांवा तत्पूर्वकत्वात्प्रथमजं ज्येष्ठ है अथवा समस्त वृत्तियां
विज्ञानपूर्वक होनेके कारण जो विज्ञानं ब्रह्मोपासते ध्यायन्ति |
प्रथमोत्पन्न है, उस विज्ञानरूप नमकी तसिन्विज्ञानमये लण्यभि- उपासना अर्थात् ध्यान करते हैं।
तात्पर्य यह है कि वे उस विज्ञानमय मानं कृत्वोपासत इत्यर्थः । ब्रह्ममें अभिमान करके उसकी तस्मात्ते महतो ब्रह्मण उपा..
. उपासना करते हैं । अतः वे उस
पा महलकी उपासना करनेसे ज्ञान सनाज्ज्ञानेश्वर्यवन्तो भवन्ति । और ऐश्वर्यसम्पन्न होते हैं । __ तच्च विज्ञानं ब्रह्म चेद्यदि वेद उस विज्ञानरूप व्रतको यदि विजानाति न केवलं चेदैव तस्सा- जान ले केवल जान ही न ले बल्कि ब्रह्मणश्चेन्न प्रमायति बाह्येष्वेवा- |
। यदि उससे प्रमाद भी न करे; बात्य
| अनात्म पदार्थोंमें आत्मबुद्धि की नात्मस्वात्मभावितत्वात्प्राप्तं वि- हुई है, उसके कारण विज्ञानमय - ज्ञानमये ब्रह्मण्यात्मभावनायाः । ब्रह्ममें की हुई आत्मभावनासे प्रमाद
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अनु०५]
शाङ्करभाष्यार्थ
१३१
विधानम्यो
अमदनं तन्निवृत्त्यर्थमुच्यते तसा- | होना सम्भव है; उसकी निवृत्तिके चेन्न प्रमाद्यतीति, अन्नमयादिष्वा
| लिये कहते हैं-'यदि उससे प्रमाद
न करें' इत्यादि । तात्पर्य यह है त्मभावं हित्वा केवले विज्ञान- कि यदि अन्नमय आदिमें आत्मभावमये ब्रह्मण्यात्मत्वं भावयन्नास्ते को छोड़कर केवल विज्ञानमय ब्रह्ममें
ही आत्मत्वकी भावना करके स्थित चेदित्यर्थः । . रहेततः किं स्यादित्युच्यते- तो क्या होगा ? इसपर कहते
नोहैं-शरीरके पापोंको त्यागकर, पासनफलम् हित्वा । शरीराभि
| सम्पूर्ण पाप शरीराभिमानके कारण
ही होनेवाले हैं; विज्ञानमय ब्रह्ममें माननिमित्ता हि सर्वे पाप्मानः | आत्मत्वका अभिमान करनेसे निमित्ततेपांच विज्ञानमये ब्रह्मण्यात्माभि- का क्षय हो जानेपर उनका भी
क्षय होना उचित ही है, जिस मानानिमित्तापाये हानमुपपद्यते,
प्रकार कि छातेके हटा लिये जानेपर छत्रापाय इवच्छायापायः । छायाकी भी निवृत्ति हो जाती है । तसाच्छरीराभिमाननिमित्तान् ।
अतः शरीराभिमानके कारण होने
वाले शरीरजनित सम्पूर्ण पापोंको सर्वान्पाप्मनः शरीरप्रभवाशरीर
शरीरहीमें त्यागकर विज्ञानमय ब्रह्मएव हित्वा विज्ञानमयब्रह्मस्वरू- खरूपको प्राप्त हुआ साधक उसमें पापनस्तत्स्थान्सर्वान्कामान्विज्ञा
| स्थित सारे भोगोंको विज्ञानमय
खरूपसे ही सम्यक्प्रकारसे प्राप्त नमयेनैवात्मना समश्नुते सम्य- कर लेता है अर्थात् उनका पूर्णतया ग्भुङ्क्त इत्यर्थः।
उपभोग करता है। तस्य पूर्वस्य मनोमयस्यात्मैप उस पूर्वकथित मनोमयका शारीर आनन्दमयस्य एव शरीरे मनोमये -मनोमय शरीरमें रहनेवाला आत्मा
स्थापनम् भवः शारीरः। का? | भी यही है । कौन ? यह जो य एष विज्ञानमयः । तसाद्वा विज्ञानमय है । 'तस्माद्वा एतस्मात्'
कार्यात्मत्य
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१३२
तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्लीर
एतस्मादित्युक्तार्थम् । आनन्द-! इत्यादि वाक्यका अर्थ पहले कहा
जा चुका है। 'आनन्दमय' इन मय इति कार्यात्मप्रतीतिरधि- शब्दमे कार्यात्माकी प्रतीति होती कारान्मयटशब्दाच । अन्नादि- है, क्योंकि यहां उसीका अधिकार
' (प्रस) है और आनन्दके साथ मया हि कार्यात्मानो भौतिका : 'मयट् शब्दका प्रयोग किया गया
है । यहाँ अन्नमय आदि भौतिक हायता । वदावकारपतित कार्यात्माओंका अधिकार है। उन्हीके श्वायमानन्दमयः, मयट चात्र वि- अन्तर्गत यह आनन्दमय भी है।
'मयट् प्रत्यय भी यहाँ विकारके कारार्थ दृष्टो यथान्नमय इत्यत्र । अर्थमें देखा गया है। जैसा कि तसात्कार्यात्मानन्दमयः प्रत्ये
'अन्नमय' इस शब्दमें है। अतः
आनन्दमय कार्यात्मा है-ऐसा तव्यः ।
जानना चाहिये। संक्रमणाच; आनन्दमयमा- संक्रमणके कारण भी यही बात
सिद्ध होती है । 'वह आनन्दमय त्मानमुपसंक्रामतीति वक्ष्यति। आत्माके प्रति संक्रमण करता है
[ अर्थात् आनन्दमय आत्माको प्राप्त कार्यात्मनांच संक्रमणमनात्मनां
होता है ]' ऐसा आगे ( अष्टम अनुवाकमें ) कहेंगे । अन्नमयादि
अनात्मा कार्यात्माओंका ही संक्रमण दृष्टम् । संक्रमणकर्मत्वेन चा- होता देखा गया है । और संक्रमणके
कर्मरूपसे आनन्दमय आत्माका नन्दमय आत्मा श्रूयते। यथान्न- | श्रवण होता है, जैसे कि 'यह
अन्नमय आत्माके प्रति संक्रमण मयमात्मानमुपसंक्रामतीति । न (गमन ) करता है। [इस वाक्यमें
देखा जाता है ] । स्वयं आत्माका चात्मन एवोपसंक्रमणम् । अधि- ही संक्रमण होना सम्भव है नहीं,
क्योंकि इससे उस प्रसंगमें विरोध कारविरोधादसंभवाच । न ह्या- आता है और ऐसा होना सम्भव
| भी नहीं है। आत्माका आत्माको
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अनु०५]
शाङ्करभाष्यार्थ
१३३
:
त्मनैवात्मन उपसंक्रमणं संभ- ही प्राप्त होना कभी सम्भव नहीं पति । खात्मनि भेदाभावात् । सर्वथा अभाव है और ब्रह्म भी
है, क्योंकि अपने आत्मामें भेदका आत्मभूतं च ब्रह्म सङ्क्रमितुः। संक्रमण करनेवालेका आत्मा ही है।
शिरआदिकल्पनानुपपत्तेश्च । [ आत्मामें ] शिर आदिकी न हि यथोक्तलक्षण आकाशादि- कल्पना असम्भव होनेके कारण भी
[ आनन्दमय कार्यात्मा ही है ] । कारणेऽकार्यपतिते शिरआयवयव- आकाशादिके कारण और कार्यवर्गके रूपकल्पनोपपद्यते । “अदृश्ये- अन्तर्गत न आनेवाले उपर्युक्त
लक्षणविशिष्ट आत्मामें शिर आदि ऽनात्म्येऽनिरुक्तनिलयने" (ते.
| अवयवरूप कल्पनाका होना संगत उ० २ । ७।१) "अस्थूल- नहीं है । आत्मामें विशेष धर्मोका मनणु" (वृ० उ०३ ८1८)। बाध करनेवाली "अदृश्य, अशरीर, "नेति नेत्यात्मा" (वृ००३।९।
अनिर्वचनीय और अनाश्रयमें"
"स्थूल और सूक्ष्मसे रहित" "आत्मा २६) इत्यादिविशेषापोहश्रुति
| यह नहीं है यह नहीं है" इत्यादि भ्यश्च ।
| श्रुतियोंसे भी यहीबातसिद्ध होती है।। मन्त्रोदाहरणानुपपत्तेश्च । न [आनन्दमयको यदि आत्मा
माना जाय तो ] आगे कहे हुए हि प्रियशिरआद्यवयवविशिष्टे
मन्त्रका उदाहरण देना भी नहीं प्रत्यक्षतोऽनुभूयमान आनन्दमय
बनता । शिर आदि अवयवोंसे युक्त
आनन्दमय आत्मारूप ब्रह्मके प्रत्यक्ष आत्मान ब्रह्माण नास्ति ब्रह्मत्या-| अनुभव होनेपर तो ऐसी शंका ही शङ्काभावात् "असन्नेव स नहीं हो सकती कि ब्रह्म नहीं है,
जिससे कि [ उस शंकाकी निवृत्तिभवति । असद्ब्रह्मेति वेद चेत्" जो परुष, ब्रह्म नहीं (तै० उ० २।६।१) इति है-ऐसा जानता है वह असद्रूप
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L
तैत्तिरीयोपनिषद्
मन्त्रोदाहरणमुपपद्यते । ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठेत्यपि चानुपपन्नं पृथग्न
हाणः प्रतिष्ठात्वेन ग्रहणम् ।
तस्मात्कार्यपतित एवानन्दमयो
न पर एवात्मा ।
[ चली २
ही हैं" इस मन्त्रका उल्लेख संगत हो सके । तथा 'ब्रह्म पुग्छ- प्रतिष्टा है' इस वाक्यके अनुसार प्रतिष्ठारूपसे ब्रह्मको पृथक् ग्रहण करना भी नहीं बन सकता । अतः यह आनन्दमय कार्यवर्ग अन्तर्गत हो है — परमात्मा नहीं है ।
आनन्द इति विद्याकर्मणोः
वह
'आनन्द' यह उपासना और कर्मका फल है, उसका विकार मानन्दमयकोश- फलं तद्विकार आ- | आनन्दमय कहलाता है । प्रतिणदनन् नन्दमयः । स च विज्ञानमय कोश से आन्तर है, क्योंकि विज्ञानमयादान्तरः । यज्ञा- विज्ञानमयकी अपेक्षा आन्तर बतलाया श्रुतिके द्वारा वह यज्ञादिके कारणभूत दिहेतोर्विज्ञानमयादस्यान्तरत्व- गया हैं । उपासना और कर्मका फल सबसे आन्तरतम होना चाहिये; सो भोक्ता के हो लिये है, इसलिये वह पूर्वोक्त सत्र कोशोंकी अपेक्षा आनन्दमय आत्मा आन्तरतम है ही; आन्तरतमश्चानन्दमय आत्मा क्योंकि विद्या और कर्म भी
पूर्वेभ्यः । विद्याकर्मणोः प्रियाद्यर्थत्वाच्च । प्रियादिप्रयुक्ते हि
विद्याकर्मणी । तस्मात्प्रियादीनां फलरूपाणामात्मसंनिकर्षाद्विज्ञानमयस्याभ्यन्तरत्वमुपपद्यते ।
[ प्रधानतया ] प्रिय आदिके हो लिये हैं । प्रिय आदि की प्राप्ति के उद्देश्य से ही उपासना और कर्मका अनुष्ठान किया जाता है; अतः उनके फलरूप प्रिय आदिका आत्मासे सान्निध्य होने के कारण विज्ञानमयकी अपेक्षा इस ( आनन्दमय कोश ) का आन्तरतम होना उचित हो है ।
प्रियादिवासनानिर्वृतो ह्यानन्द - | प्रिय आदिकी वासनासे निष्पन्न
श्रुतेः । ज्ञानकर्मणोर्हि फलं भोक्त्रर्थत्वादान्तरतमं स्यात् ।
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अनु०५]
शाङ्करभाष्यार्थ
१३५
मयो विज्ञानमयाश्रितः स्वम उप-/ हुआ यह आनन्दमय स्वप्नावस्थामें
विज्ञानमयके अधीन ही उपलब्ध लभ्यते।
होता है। तस्यानन्दमयस्यात्मन इष्ट- उस आनन्दमय आत्माका पुत्रादि आनन्दमयस्य पुत्रादिदर्शनजप्रियं इष्ट पदार्थोके दर्शनसे होनेवाला पुरुषविधत्वन् शिर व शिरः प्रिय ही प्रधानताके कारण शिरके
| समान शिर है। प्रिय पदार्थकी प्राधान्यात् । मोद इति प्रिय
प्रय प्राप्तिसे होनेवाला हर्प 'मोद' लाभनिमित्तो हर्पः । स एव च कहलाता है; वही हर्प प्रकृष्ट प्रकृष्टो हर्पः प्रमोदः । आनन्द ( अतिशय ) होनेपर 'प्रमोद' कहा
जाता है । 'आनन्द' सामान्य इति सुखसामान्यमात्मा प्रिया
सुखका नाम है; वह सुखके दीनां सुखावयवानाम् । तेष्वनु-अवयवभूत प्रिय आदिका आत्मा है, स्यूतत्वात् ।
क्योंकि उसीमें वे सब अनुस्यूत हैं । __ आनन्द इति परं ब्रह्म । तद्धि 'आनन्द' यह परब्रह्मका ही शुभकर्मणा प्रत्युपस्थाप्यमाने
| वाचक है । वही शुभकर्मद्वारा
प्रस्तुत किये हुए पुत्र-मित्रादि विशेष पुत्रमित्रादिविपयविशेपोषाधाव- विपय ही जिसकी उपाधि हैं उस न्तःकरणवृत्तिविशेपे तमसा प्र- | सुप्रसन्न अन्तःकरणकी वृत्तिविशेप
में, जब कि वह तमोगुणसे आच्छादित च्छाधमाने प्रसन्नेऽभिव्यज्यते । नहीं होता, अभिव्यक्त होता है। तद्विपयसुखमिति प्रसिद्धं लोके ।। वह लोकमें विषय-सुख नामसे प्रसिद्ध
है । उस वृत्तिविशेपको प्रस्तुत तवृत्तिविशेषप्रत्युपस्थापकस्य क
करनेवाले कर्मके अस्थिर होनेके मणोऽनवस्थितत्वात्सुखस्य क्षणि- कारण उस सुखकी भी क्षणिकता
है। अतः जिस समय अन्तःकरण कत्वम् । तद्यदान्तःकरणं तपसा तमोगुणको नष्ट करनेवाले तप, तमोनेन विद्ययाब्रह्मचर्येण श्रद्धया उपासना, ब्रह्मचर्य और श्रद्धाके द्वारा
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१३६
तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली २ ।
थावधान होता है ।
च निर्मलत्वमापद्यते यावद्याव- जितना-जितना निर्मलताको प्राप्त त्तावत्तावद्विविक्ते प्रसन्नेऽन्तः- होता है उतने-उतने हो खच्छ और करण आगो
प्रसन्न हुए उस अन्तःकरणमें विशेष
आनन्दका उत्कर्ष होता है अर्थात् विपुलीभवति । वक्ष्यति च- वह बहुत बढ़ जाता है। यही बात "रसो वै सः । रस ह्येवायं "वह रस ही है, इस रसको पाकर लब्ध्वानन्दी भवति एप होवान- ही पुरुष आनन्दी हो जाता है।
यह रस ही सबको आनन्दित करता न्दयाति' (तै० उ० २१७१
है ।" इस प्रकार आगे कहेंगे, १) "एतस्यैवानन्दस्यान्यानि तथा "इस आनन्दके अंशमात्रके भूतानि मात्रामुपजीवन्ति (वृ० आश्रय ही सब प्राणी जीवित रहते उ० ४।३ । ३२) इति च है" इस अन्य श्रुतिसे भी यही बात
| सिद्ध होती है। इसी प्रकार कामश्रुत्यन्तरात् । एवं च कामोप-शान्तिके उत्कर्षकी अपेक्षा आगेशमोत्कर्षापेक्षया शतगुणोत्तरो- आगेके आनन्दका सौ-सौ गुना त्तरोत्कर्ष आनन्दस्य वक्ष्यते । उत्कर्ष आगे बतलाया जायगा ।
एवं चोत्कृष्यमाणसानन्द- इस प्रकार परमार्य ब्रह्मके विज्ञानमयस्यात्मनः परमार्थब्रह्माविज्ञाना
की अपेक्षासे क्रमशः उत्कर्पको प्राप्त
होनेवाले आनन्दमय आत्माकी पेक्षया ब्रह्म परमेव । यत्प्रकृतं अपेक्षा ब्रह्म पर ही है। जो प्रकृत सत्यज्ञानानन्तलक्षणम्, यस
ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनन्तरूप है,
जिसकी प्राप्तिके लिये अन्नमय आदि च प्रतिपत्त्यर्थं पञ्चान्नादिमयाः पाँच कोशोंका उपन्यास किया गया कोशा उपन्यस्ताः, यच तेभ्य | है, जो उन सबकी अपेक्षा अन्तर्वर्ती
। है और जिसके द्वारा वे सत्र आभ्यन्तरम् , येन च ते सर्व
' आत्मवान् हैं—वह ब्रह्म ही उस आत्मवन्तः, तब्रह्म पुच्छंप्रतिष्ठा । आनन्दमयको पुच्छ-प्रतिष्ठा है ।
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अनु०५]
शाङ्करभाष्यार्थ
१३७
तदेव च सर्वसाविद्यापरि- अविद्याद्वारा कल्पना किये हुए कल्पितस्य द्वैतस्यावसानभत- सम्पूर्ण द्वैतका निषेधावधिभूत वह मद्वैतं ब्रह्म प्रतिष्ठा आनन्द
अद्वैत ब्रह्म ही उसकी प्रतिष्ठा है, मयस्य । एकत्वावसानत्वात् ।
क्योंकि आनन्दमयका पर्यवसान भी
एकत्वमें ही होता है । अविद्याअस्ति तदेकमविद्याकल्पितस्य
परिकल्पित द्वैतका अवसानभूत वह द्वैतस्यावसानभूतमद्वैतं ब्रह्म एक और अद्वितीय ब्रह्म उसकी प्रतिष्ठा पुच्छम् । तदेतसिन्नप्यर्थे । प्रतिष्ठा यानी पुच्छ है । उस इसी एप श्लोको भवति ॥१॥ अर्थमें यह श्लोक है ॥ १ ॥
इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यां पञ्चमोऽनुवाकः ॥५॥
LAYI
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पष्ट अनुवाक ब्रह्मको सत् और असत् जाननेवालोंका भेद, ब्रह्मज्ञ और अब्रह्मज्ञकी ब्रह्मप्राप्तिके विषयमें शंका तथा सम्पूर्ण प्रपञ्चरूपसे
ब्रह्मके स्थित होनेका निरूपण ।। असन्नेव स भवति । असब्रह्मेति वेद चेत् । अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद । सन्तमेनं ततो विदुरिति । तस्यैष एव शारीर आत्मा यः पूर्वस्य । अथातोऽनुप्रश्नाः । उताविद्वानमुं लोकं प्रेत्य कश्चन गच्छती ३ । आहो विद्वानमुं लोकं प्रेत्य कश्चित्समश्नुता ३ उ। सोऽकामयत । बहु स्यां प्रजायेयेति । स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा इद सर्वमसृजत यदिदं किंच। तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत् । तदनुप्रविश्य सच त्यच्चाभवत् । निरुक्त। चानिरुक्तं च । निलयनं चानिलयनं च विज्ञानं चाविज्ञानं च । सत्यं चानृतंच सत्यमभवत् । यदिदं किंच। तत्सत्यमित्याचक्षते । तदप्येष श्लोको भवति ॥१॥
यदि पुरुष 'ब्रह्म असत् है' ऐसा जानता है तो वह स्वयं भी असत् ही हो जाता है । और यदि ऐसा जानता है कि 'ब्रह्म है' तो [ब्रह्मवेत्ताजन] उसे सत् समझते हैं। उस पूर्वकथित ( विज्ञानमय ) का यह जो [ आनन्दमय ] है शरीर-स्थित आत्मा है । अब ( आचार्यका ऐसा उपदेश सुननेके अनन्तर शिष्यके ) ये अनुप्रश्न हैं-क्या कोई अविद्वान् पुरुष भी इस शरीरको छोड़नेके अनन्तर परमात्माको प्राप्त हो सकता है ? अथवा कोई विद्वान् भी इस शरीरको छोड़नेके अनन्तर परमात्माको
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अनु० ६ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
प्राप्त होता है या नहीं ? [ इन प्रश्नोंका उत्तर देनेके लिये आचार्य भूमिका बाँधते हैं - ] उस परमात्माने कामना की 'मैं बहुत हो जाऊँ अर्थात् मैं उत्पन्न हो जाऊँ' । अतः उसने तप किया । उसने तप करके - ही यह जो कुछ है इस सबकी रचना की । इसे रचकर वह इसीमें अनुप्रविष्ट हो गया । इसमें अनुप्रवेश कर वह सत्यस्वरूप परमात्मा मूर्त्त - अमूर्त, [ देशकालादि परिच्छिन्नरूपसे ] कहे जानेयोग्य, और न कहे जानेयोग्य, आश्रय-अनाश्रय, चेतन-अचेतन एवं व्यावहारिक सत्य-असत्यरूप हो गया । यह जो कुछ है उसे ब्रह्मवेत्ता लोग 'सत्य' इस नामसे पुकारते हैं। उसके विषयमें ही यह श्लोक है ॥ १ ॥
अन्नेव सत्सम एव यथा
सदसद्वादिनोदः
सन पुरुषार्थसंच न्ध्येवं स भवति
अपुरुषार्थसंवन्धी । कोऽसौ १
योऽसदविद्यमानं ब्रह्मेति वेद
विजानाति चेद्यदि । तद्विपर्ययेण
यत्सर्वविकल्पास्पदं सर्वप्रवृत्ति -
चीजं सर्वविशेषप्रत्यस्तमितमप्य
स्ति तोति वेद चेत् । कुतः पुनराशङ्का तन्नास्तित्वे ?
१३९
जिस प्रकार असत् (अविद्यमान ) पदार्थ पुरुषार्थसे सम्बन्ध रखनेवाला नहीं होता उसी प्रकार वह भी असत् - असत्के समान ही पुरुषार्थसे सम्वन्ध नहीं रखनेवाला हो जाता है वह कौन ? जो 'ब्रह्म असत् -- अविद्यमान है' ऐसा जानता है । 'चेत्' शब्दका अर्थ 'यदि' है । इसके विपरीत 'जो तत्व सम्पूर्ण विकल्पोंका आश्रय, सम्पूर्ण विशेपोंसे रहित भी है वही समस्त प्रवृत्तियोंका बीजरूप और तो उसे ब्रह्मवेत्तालोग सद्रूप समझते ब्रह्म है' ऐसा यदि कोई जानता है [ हैं इस प्रकार इसका आगे के वाक्यसे सम्बन्ध है ] |
किन्तु ब्रह्मके अस्तित्वाभाव के विपयमें शंका क्यों की जाती है ? व्यवहारातीतत्वं ब्रह्मण इति | [ इसपर ] हमारा यह कथन है कि ब्रह्म व्यवहारसे परे है । [ इसी लिये ] व्यवहार के विपयभूत पदार्थों
ब्रूमः । व्यवहारविषये हि वाचा - [
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१४०
तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली २
रम्भणमात्रेऽस्तित्वमाविता बुद्धि- में ही, जो कि केवल वाणीसे ही
| उच्चारण किये जानेवाले हैं, अस्तित्वस्तद्विपरीते व्यवहारातीते नास्ति- की भावनासे भावित हुई बुद्धि
| उनसे विपरीत व्यवहारातीत पदार्थोंत्वमपि प्रतिपद्यते । यथा घटा- में अस्तित्वका भी अनुभव नहीं
करती; जैसे कि [जल लाना आदि] दिर्व्यवहारविषयतयोपपन्नः सं- व्यवहारके विषयरूपसे उपपन्न हुआ
घट आदि पदार्थ 'सत्' और उससे स्तद्विपरीतोऽसन्निति प्रसिद्धम् । विपरीत [ बन्ध्यापुत्रादि ] 'असत्'
होता है-इस प्रकार प्रसिद्ध है । एवं तत्सामान्यादिहापि स्याद्रह्म- उसी प्रकार उसकी समानताके
कारण यहाँ भी ब्रह्मके अविद्यमानत्वणो नास्तित्वप्रत्याशङ्का । तसा- | के विपयमें शंका हो सकती है।
| इसीलिये कहा है-'ब्रह्म है-ऐसा दुच्यते-अस्ति ब्रह्मोति चेद्वेदेति ।
रात । यदि कोई जानता है' इत्यादि । किं पुनः स्यात्तदस्तीति वि- किन्तु 'वह (ब्रल) है' ऐसा
जाननेवाले पुरुषको क्या फल मिलता जानतस्तदाह-सन्तं विद्यमान
है ? इसपर कहते हैं-ब्रह्मवेत्तालोग ब्रह्मस्वरूपेण परमार्थसदात्मापन
इस प्रकार जाननेवाले इस पुरुपको
सत्-विद्यमान अर्थात् ब्रह्मरूपसे मेनमेवंविदं विदुब्रह्मविदस्ततः
परमार्थ सत्वरूपको प्राप्त हुआ समझते हैं। तात्पर्य यह है कि
इस कारणसे ब्रह्मके अस्तित्वको तसादस्तित्ववेदनात्सोऽन्येषां
जाननेके कारण वह दूसरोंके लिये
ब्रह्मके समान जाननेयोग्य हो ब्रह्मवद्विज्ञेयो भवतीत्यर्थः।
जाता है। अथवा यो नास्ति ब्रह्मोति अथवा जो पुरुष 'ब्रह्म नहीं मन्यते स सर्वस्यैव सन्मार्गस्य है' ऐसा मानता है वह अश्रद्धालु
| होनेके कारण, वर्णाश्रमादि व्यवस्थावर्णाश्रमादिव्यवस्थालक्षणस्याश्र- ] रूप सारे ही शुभमार्गका,
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अनु०६]
शाङ्करभाष्यार्थ
१४१
धानतया नास्तित्वं प्रतिपद्यते- असत्त्व प्रतिपादन करता है, ब्रह्मप्रतिपत्त्यर्थत्वात्तस्य । अतो क्योंकि वह भी ब्रह्मकी प्राप्तिके ही
लिये है । अतः वह नास्तिक लोकमें नास्तिकः सोऽसन्नसाधुरुच्यते
असत्-असाधु कहा जाता है। लोके । तद्विपरीतः सन्योऽस्ति | इसके विपरीत जो पुरुष 'ब्रह्म है' ब्रह्मति चेद्वेद स तद्ब्रह्मप्रतिपत्ति- एसा जानता है वह सत्' है।
| क्योंकि वह उस ब्रह्मकी प्राप्तिके हेतुं सन्मार्ग वर्णाश्रमादिव्यव
| हेतुभूत वर्णाश्रमादिके व्यवस्थारूप स्थालक्षणं श्रद्दधानतयां यथा- | सन्मार्गको श्रद्धापूर्वक ठीक-ठीक वत्प्रतिपद्यते यसात्ततस्तस्मात् जानता है । इसीलिये साधुलोग उसे सन्तं साधुमार्गस्थमेनं विदुः |
| सत् यानी शुभ मार्गमें स्थित जानते
हैं । अतः 'ब्रह्म है' ऐसा ही साधवः तस्मादस्तीत्येव ब्रह्म
| जानना चाहिये यह इस वाक्यका प्रतिपत्तव्यमिति वाक्यार्थः। अर्थ है। तस्य पूर्वस्य विज्ञानमयस्यैप उस विज्ञानमयका यही शारीर
विज्ञानमय शरीरमें रहनेवाला आत्मा एव शरीरे विज्ञानमये भवः ।।
| | है । वह कौन ? यह जो आनन्दमय शारीर आत्मा। कोऽसौ ? य एप है । उसके नास्तित्वमें तो कुछ भी आनन्दमयः । तं प्रति नास्त्या
शंका नहीं है । किन्तु ब्रह्म सम्पूर्ण
विशेषणोंसे रहित है इसलिये उसके शङ्का नास्तित्वे । अपोढसर्व
| अस्तित्वके अभावमें शंका - होना विशेपत्वात्तु ब्रह्मणो नास्तित्वं | उचित ही है । इसके सिवा ब्रह्मकी
सबके साथ समानता होनेके कारण प्रत्याशङ्का युक्ता । सर्वसामा
भी [ऐसी शंका हो ही सकती है। न्याच्च ब्रह्मणः । यस्सादेवमतः क्योंकि ऐसी बात है इसलिये अबतस्मात, अथानन्तरं श्रोतुः | इसके अनन्तर श्रवण करनेवाले
शिष्यके अनुप्रश्न हैं । आचार्यकी शिष्यसामना आचायातमनु | इस उक्तिके पश्चात् किये जानेवाले एते प्रश्ना अनुप्रश्नाः। । ये प्रश्न अनुप्रश्न हैं
Ja
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तैत्तिरीयोपनिपद्
[चल्ली २
सामान्यं हि ब्रह्माकाशादि- आकाशादिका कारण होनसे
ब्रह्म विद्वान् और अविद्वान् दोनोंविद्वदविद्वद्भेदेन कारणत्वाद्विदुपोऽ
हीके लिये समान है । इससे ब्रह्मप्राप्तावाक्षेपः विदुपश्च । तसाद । अविद्वानको भी ब्रह्मकी प्राप्ति होती विदुपोऽपि महाप्राप्तिराशयते- है-ऐसी आशंका की जाती है-- -
क्या कोई अविद्वान् पुरुष भी इस उत अपि अविद्वानमुं लोकं
शरीरको छोड़नेके अनन्तर इस लोक परमात्मानमितः प्रेत्य कश्चन, अर्थात् परमात्माको प्राप्त हो जाता चनशब्दोऽप्यर्थे, अविद्वानपि है ? 'कश्चन' में 'चन' शब्द 'अपि
(भी) के अर्थमें है । 'अथवा गच्छतिप्राप्नोति किंवा न गच्छ- नहीं होता?' यह इसके साथ तीति द्वितीयोऽपि प्रश्नो द्रष्ट- दूसरा प्रश्न भी समझना चाहिये,
क्योंकि यहाँ 'अनुप्रश्नाः' ऐसा बहुव्योऽनुशना इति बहुवचनात् । वचनका प्रयोग किया गया है ।।
विद्वांसं प्रत्यन्यौ प्रश्नौ। यद्य- अन्य दो प्रश्न विद्वान्के विषयमें विद्वान्सामान्य कारणमपि ब्रह्म हैं-ब्रह्म सबका साधारण कारण है, न गच्छति ततो विदुपोऽपि ।
तब भी यदि अविद्वान् उसे प्राप्त
नहीं होता तो विद्वान्के भी ब्रह्मको ब्रह्मागमनमाशझ्यते । अतस्तं प्राप्त न होनेकी आशंका होती है; प्रति प्रश्न आहो विद्वानिति । अतः उसके उद्देश्यसे पूछा जाता उकारं च वक्ष्यमाणमधस्तादप- है-'क्या विद्वान् भी' आदि । -.
| [ मूल मन्त्रमें ] आगे कहे जानेवाले कृष्य तकारं च पूर्व- | 'उ' को आगेसे खींचकर और सादुतशब्दाव्यासज्याहो इत्ये- पूर्वोक्त 'उत' शब्दसे उसमें 'त' तसात्पूर्वमुतशब्दं
| जोड़कर 'आहो' इस शब्दके पहले
संयोज्य 'उत' शब्द जोड़कर 'उताहो विद्वान्' -- पृच्छति-उताहो विद्वानिति । इत्यादि प्रकारसे पूछता है-क्या
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अनु० ६
शाङ्करभाष्यार्थं
विद्वान्ब्रह्मविदपि कश्चिदितः प्रे
कोई विद्वान् अर्थात् ब्रह्मवेत्ता भी इस शरीरको छोड़कर इस लोकको प्राप्त कर लेता है ? यहाँ मूलमें 'समश्नुते उ' ऐसा पद था । उसमें 'अयू' आदेश करके [ 'लोपः अयादेशे यलोपे च कृतेऽ- ' शाकल्यस्य' इस सूत्र के अनुसार ]
त्यामुं लोकं समश्नुते प्राप्नोति समन्नुते उ इत्येवं स्थिते,
}
'यू' का लोप करनेपर 'समश्नुत उ' ऐसा प्रयोग सिद्ध होता है । फिर
1
विद्वान्समन्नुतेऽमुं 'त' के अकारको प्लुत करने पर 'समश्नुता ३ उ' ऐसा पाठ हुआ है । विद्वान् इस लोकको प्राप्त होता है ? अथवा अविद्वान् के समान विद्वान् भी उसे प्राप्त नहीं होता ? यह एक अन्य प्रश्न है ।
कारस्य प्लुतिः समश्नुता ३ उ
इति 1
लोकम् । किं वा यथाविद्वानेव
विद्वानपि न समश्नुत इत्यपरः
प्रश्नः ।
द्वावेव वा प्रश्न विद्वदविद्व
द्विपयौ । बहुवचनं तु सामथ्ये
प्राप्त प्रशान्तरापेक्षया घटते । ‘असह्रोति वेद चेत् । अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद' इति श्रवणादस्ति नास्तीति संशयस्ततोऽर्थप्राप्तः कि
मस्ति नास्तीति प्रथमोऽनुप्रश्नः । ब्रह्मणोऽपक्षपातित्वादविद्वान्
गच्छति न गच्छतीति द्वितीयः । ब्रह्मणः समत्वेऽप्यविदुष इव
-
१४३
।
अथवा विद्वान् और अविद्वान्से सम्बन्धित ये केवल दो ही प्रश्न हैं । इनकी सामर्थ्य से प्राप्त एक और प्रश्नकी अपेक्षासे ही बहुवचन हो गया है । 'ब्रह्म असत् है-यदि
।
ऐसा जानता है' तथा 'ब्रह्म है -- यदि ऐसा जानता है' ऐसी श्रुति होने से 'ब्रह्म है या नहीं' ऐसा
सन्देह होता है । अतः 'ब्रह्म है या नही' यह अर्थतः प्राप्त पहला अनुप्रश्न है । और ब्रह्म पक्षपाती है नहीं, इसलिये 'अविद्वान् उसे प्राप्त होता है या नहीं ?' यह दूसरा अनुप्रश्न है । तथा ब्रह्म समान है, इसलिये
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१४४
तैत्तिरीयोपनिषद्
विदुषोऽप्यगमनमाशङ्कयते किं विद्वान्समश्नुते न समश्नुत इति
तृतीयोऽनुप्रश्नः ।
[ चल्ली २
अविद्वान्के समान विद्वान्की भी ब्रह्मप्राप्तिके विषय में 'विद्वान् उसे प्राप्त होता है या नहीं ?' ऐसी शंका की जाती है । यह तीसरा अनुप्रश्न है ।
एतेषां प्रतिवचनार्थमुत्तरग्रन्थ
च्यते सभ्वोक्त्यैव सत्यत्वमुच्यते । उक्तं हि “सदेव सत्यम्” इति ।
आगेका ग्रन्थ इन प्रश्नोंका उत्तर देनेके लिये हो आरम्भ किया जाता ब्रह्मणः सत्व- आरभ्यते । तत्रा | है । उसमें सबसे पहले ब्रह्मके रूपत्वस्थापनम् स्तित्वमेव तावदु- | अस्तित्वका ही वर्णन किया जाता च्यते । यञ्चोक्तं 'सत्यं ज्ञान है | 'ब्रह्म सत्य ज्ञान और अनन्त है' मनन्तं ब्रह्म' इति, तच्च कथं । ऐसा जो पहले कह चुके हैं सो सत्यत्वमित्येतद्वक्तव्यमितीदसु वह ब्रह्मकी सत्यता किस प्रकार है - यह बतलाना चाहिये । इसपर कहते हैं - उसकी सत्ता बतलाने से ही उसके सत्यत्वका भी प्रतिपादन हो जाता है । " सत् ही तस्मात्सत्त्वोक्त्यैव सत्यत्वमुच्यसत्य है" ऐसा अन्यत्र कहा भी ते । कथमेवमर्थतावगम्यतेऽस्य है । अतः उसकी सत्ता बतलाने से ग्रन्थस्य शब्दानुगमात् । अने ही उसका सत्यत्व भी बतला दिया जाता है । किन्तु इस ग्रन्थनैव हार्थेनान्वितान्युत्तराणि | का भी यही तात्पर्य है - यह कैसे वाक्यानि " तत्सत्यमित्याच जाना गया ? इसपर कहते हैंशब्दोंके अनुगमन ( अभिप्राय ) से; क्योंकि " वह सत्य है - ऐसा कहते हैं" "यदि यह आनन्दमय आकाश न होता" आदि आगे वाक्य भी इसी असे युक्त हैं।
क्षते” ( तै० उ० २ । ६ । १) " यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् ” ( तै० उ० २।७।१) इत्यादीनि ।
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अनु० ६ ]
शाङ्करभाप्यार्थ
तत्रासदेव ब्रह्मेत्याशङ्कयते ।
कस्मात् १ यदस्ति तद्विशेषतो
गृह्यते यथा घटादि । यन्नास्ति
तनोपलभ्यते यथा शशविषाणा
दि । तथा नोपलभ्यते ब्रह्म । तस्माद्विशेषतोऽग्रहणान्नास्तीति ।
तन्नः आकाशादिकारणत्वा
ब्रह्मणः । न नास्ति ब्रह्म । करमा
ब्रह्म ।
१४५
इसमें यह आशंका की जाती है कि ब्रह्म असत् ही है । ऐसा क्यों है ? क्योंकि जो वस्तु होती है वह विशेषरूपसे उपलब्ध हुआ करती है; जैसे कि घट आदि । और जो
नहीं होती उसकी उपलब्धि भी नहीं होती; जैसे- शशशृगादि । इसी प्रकार ब्रह्मकी भी उपलब्धि नहीं होती । अतः विशेषरूपसे ग्रहण न किया जानेके कारण वह है ही नहीं ।
जातं गृह्यते । यस्माच्च जायते
ऐसी बात नहीं है, क्योंकि ब्रह्म आकाशादिका कारण है । ब्रह्म नहीं है-ऐसी बात नहीं है । क्यों नहीं दाकाशादि हि सर्व कार्य ब्रह्मणो है ? क्योंकि ब्रह्मसे उत्पन्न हुआ आकाशादि सम्पूर्ण कार्यवर्ग देखने में आता है । जिससे किसी वस्तुका जन्म होता है वह पदार्थ होता ही है-ऐसा लोकमें देखा गया है; जैसे कि घट और अङ्कुरादिके कारण मृत्तिका एवं बीज आदि । अतः आकाशादिका कारण होनेसे है ।
किंचिचदस्तीति दृष्टं लोके; यथा
घटाङ्कुरादिकारणं मृद्रीजादि । तस्मादाकाशादिकारणत्वादस्ति
न चासतो जातं किंचिद्
लोकमें असत्से उत्पन्न हुआ कोई भी पदार्थ नहीं देखा जाता । यदि नाम-रूपादि कार्यवर्ग असत्से
गृह्यते लोके कार्यम् । असतश्चेन्ना
मरूपादि कार्य निरात्मकत्वा- | उत्पन्न हुआ होता तो वह निराधार
१९–२०
"
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[ वल्ली २
होनेके कारण ग्रहण ही नहीं किया जा सकता था । किन्तु वह ग्रहण किया ही जाता है; इसलिये ब्रह्म है ही । यदि यह कार्यवर्ग असत्से उत्पन्न हुआ होता तो ग्रहण किये जानेपर भी असदात्मक ही ग्रहण किया जाता | किन्तु ऐसी बात है। नहीं | इसलिये ब्रह्म है ही। इसी
स्वात् । न चैवम्; तस्मादस्ति
त्र तत्र | " कथमसतः सज्जायेत"
श्रुत्यन्तरमसतः सज्जन्मासंभव -
( छा० उ० ६ । २ । २ ) इति सम्बन्धमें "असत् से सत् कैसे उत्पन्न हो सकता है" ऐसी एक अन्य श्रुतिने युक्तिपूर्वक असत् से सत्का जन्म होना असम्भव बतलाया है । इसलिये ब्रह्म सत् ही है - यही मत ठीक है ।
मन्दाचष्टे न्यायतः । तस्मात्सदेव
ब्रह्मेति युक्तम् ।
१४६
तैत्तिरीयोपनिषद्
नोपलभ्येत । उपलभ्यते तु
तस्मादस्ति ब्रह्म । असतश्चेत्कार्य
गृह्यमाणमप्यसदन्वितमेव तत्
तद्यदि मृत्रीजादिवत्कारणं स्यादचेतनं तर्हि ?
शंका- यदि ब्रह्म मृत्तिका और बीज आदिके समान [ जगत्का उपादान ] कारण है तो वह अचेतन होना चाहिये ।
न, कामयितृत्वात् । न हि
समाधान- नहीं, क्योंकि वह ब्रह्मणश्चित्स्वरूपत्व-कामयित्रचेतनमस्ति भी कामना करनेवाला अचेतन नहीं कामना करनेवाला है। लोकमें कोई विवेचनम् लोके । सर्वज्ञं हि हुआ करता । ब्रह्म सर्वज्ञ है - यह हम पहले कह चुके हैं । अतः उसका कामना करना भी युक्त
ब्रह्मेत्यवोचाम । अतः कामयितृत्वोपपत्तिः ।
है ।
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अनु०६]
शाङ्करभाष्यार्थ
१४७
. कामयित्त्वादसदादिवदना- शंका-कामना करनेवाला होनेसे
तो वह हमारी-तुम्हारी तरह अनाप्त सकाममिति चेत् ?
काम(अपूर्ण कामनावाली) सिद्ध होगा। न, स्वातन्त्र्यात् । यथान्यान् __ समाधान-ऐसी बात नहीं है, परवशीकृत्य कामादिदोषाः
क्योंकि वह खतन्त्र है। जिस प्रकार
काम आदि दोष अन्य जीवोंको प्रवर्तयन्ति न तथा ब्रह्मणः | विवश करके प्रवृत्त करते हैं प्रवर्तकाः कामाः । कथं तर्हि
उस प्रकार वे ब्रह्मके प्रवर्तक नहीं
हैं । तो वे कैसे हैं ? वे सत्य-ज्ञानसत्यज्ञानलक्षणाः स्वात्मभूतत्वा- |
| स्वरूप एवं खात्मभूत होनेके द्विशुद्धा न तैर्ब्रह्म प्रवर्त्यते । कारण विशुद्ध हैं। उनके द्वारा
ब्रह्म प्रवृत्त नहीं किया जाता; बल्कि तेपां तु तत्प्रवर्तकं ब्रह्म प्राणि
जीवोंके प्रारब्ध-कर्मोकी अपेक्षासे कर्मापेक्षया । तसात्स्वातन्त्र्यं वह ब्रह्म ही उनका प्रवर्तक है।
अतः कामनाओंके करनेमें ब्रह्मकी कामेषु ब्रह्मणः । अतो नानाप्त
स्वतन्त्रता है । इसलिये ब्रह्म अनाप्तकामं ब्रह्म ।
काम नहीं है। साधनान्तरानपेक्षत्वाच्च । किं किन्हीं अन्य साधनोंकी अपेक्षा
वाला न होनेसे भी कामनाओंके च यथान्येपामनात्मभूता धर्मा- विपयमें ब्रह्मकी स्वतन्त्रता है । जिस
प्रकार धर्मादि कारणों की अपेक्षा दिनिमित्तापेक्षाः कामा खात्म- रखनेवाली अन्य जीवोंकी अनात्मभूत
कामनाएँ अपने आत्मासे अतिरिक्त व्यतिरिक्तकार्यकरणसाधनान्त- देह और इन्द्रियरूप अन्य साधनों
की अपेक्षावाली होती हैं उस प्रकार रापेक्षाच न तथा ब्रह्मणो निमि- | ब्रह्मको निमित्त आदिकी अपेक्षा
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૪૮
तैत्तिरीयोपनिषद्
LE
[वल्ली २]
ताद्यपेक्षत्वम् । किं तहि खात्म- नहीं होती। तो ब्रह्मकी कामनाएँ
कैती होती हैं ? वे खात्मासे नोऽनन्याः ।
अभिन्न होती हैं। तदेतदाह सोऽकामयत स उसीके विषयमें श्रुति कहती है
। उसने कामना की-उस आत्माने, ब्रह्मणो आत्मा यसादाकाशः
जिससे कि आकाश उत्पन्न हुआ पहुभवनसत्यः संभूतोऽकामयत है, कामना की । किस प्रकार कामितवान् । कथम् ? बहु स्यां कामना की ? मैं बहुत अधिक बहु प्रभूतं स्यां भवेयम् । कथमे
रो रूपमें हो जाऊँ अन्य पदार्थमें प्रवेश
किये बिना ही एक वस्तुकी बहुलता कस्वार्थान्तराननुप्रवेशे बहुत्वं कैसे हो सकती है ? इसपर कहते
हैं-'प्रजायेय' अर्थात् उत्पन्न होऊँ। स्थादित्युच्यते । प्रजायेयोत्पद्येय।।
यह ब्रह्मका बहुत होना पुत्रकी न हि पुत्रोत्पत्त्येवार्थान्तरविपयं उत्पत्तिके समान अन्य वस्तुविषयक बहुभवनम्, कथं तर्हि ? आत्म- नहीं है । तो फिर कैसा है ? अपने
|में अव्यक्तरूपसे स्थित नाम-रूपोंकी स्थानाभिव्यक्तनामरूपाभिव्य- अभिव्यक्तिके द्वारा ही [ यह अनेक क्त्या । यदात्मस्थे अनभि- | रूप होना है ] । जिस समय व्यक्त नामरूपे व्याक्रियेते तदा
आत्मामें स्थित अव्यक्त नाम और
रूपोंको व्यक्त किया जाता है उस नामरूपे आत्मस्वरूपापरित्यागे- समय वे अपने खरूपका त्याग किये नैव ब्रह्मणाप्रविभक्तदेशकाले
बिना ही समस्त अवस्थाओंमें ब्रह्मसे ..
अभिन्न देश और कालमें ही व्यक्त सविस्थासु व्याक्रियेते तदा किये जाते हैं। यह नाम-रूपका तन्नामरूपव्याकरणं ब्रह्मणो बहु
व्यक्त करना ही ब्रह्मका बहुत होना
है । इसके सिवा और किसी प्रकार भवनम् । नान्यथा निरवयवस्य ।
| निरवयव ब्रह्मका बहुत अथवा अल्प ब्रह्मणो वहुत्वापत्तिरुपपद्यतेऽल्प- होना सम्भव नहीं है, जिस प्रकार
।
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अनु०६]
शाङ्करभाष्यार्थ .
१४९
त्वं वा । यथाकाशस्याल्पत्वंबहु-| कि आकाशका अल्पत्व और बहुत्व
भी अन्य वस्तुके ही अधीन है त्वंच वस्त्वन्तरकृतमेव । अतस्त- उसी प्रकार ब्रह्मका भी हैं। अतः
उन (नाम-रूपों) के द्वारा ही ब्रह्म द्वारेणैवात्मा बहु भवति । ।
बहुत हो जाता है। न ह्यात्मनोऽन्यदनात्मभूतं आत्मासे भिन्न अनात्मभूत, तथा तत्प्रविभक्तदेशकालं सूक्ष्म व्यव- 3
कोई भी सूक्ष्म,व्यवहित (ओटवाली), हितं विप्रकृष्टं भूतं भवद्भविष्यद्वा |
दूरस्थ, अथवाभूत या भविष्यकालीन वस्तु विद्यते । अतो नामरूपे वस्तु नहीं है । अतः सम्पूर्ण सर्वावस्थे ब्रह्मणैवात्मवती, न |
| अवस्थाओंसे सम्बन्धित नाम और
| रूप ब्रह्मसे ही आत्मवान् हैं, किन्तु ब्रह्म तदात्मकम् । ते तत्प्रत्या- ब्रह्म तद्रूप नहीं है । ब्रह्मका निषेध बयान पनि नाम करनेपर वे रह ही नहीं सकते,
इसीसे वे तद्रूप कहे जाते हैं । उन उच्यते । ताभ्यां चोपाधिभ्यां
उपाधियोंसे ही ब्रह्म ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञातृञयज्ञानशब्दार्थादिसर्वसं- ज्ञान--इन शब्दोंका तथा इनके अर्थ
आदि सब प्रकारके व्यवहारका पात्र व्यवहारभाग्ब्रह्म ।
बनता है। स आत्मैवंकामः संस्तपो-| उस आत्माने ऐसी कामनावाला
होकर तप किया। 'तप' शब्दसे ऽतप्यत । तप इति ज्ञानमुच्यते ।
| यहाँ ज्ञान कहा जाता है, जैसा कि "यस्य ज्ञानमयं तपः" (मु० उ० "जिसका ज्ञानरूप तप है" इस अन्य. १।१।८) इति श्रुत्यन्तरात्। श्रुतिसे सिद्ध होता है। आप्तकाम
होनेके कारण आत्माके लिये अन्य आप्तकामत्वाचेतरस्यासंभव एव |
ए-तप तो असम्भव ही है । 'उसने तपसः। तत्तपोऽतप्यत तप्तवान् । । तप किया' इसका तात्पर्य यह है
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१५०
तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली २
सृज्यसावजगद्रचनादिविषयामा- कि आत्माने रचे जानेवाले जगत्की लोचनामकरोदात्मेत्यर्थः। रचनाआदिके विपयमें आलोचनाकी।
स एवमालोच्य तपस्तप्त्वा इस प्रकार आलोचना अर्थात् तप प्राणिकर्मादिनिमित्तानुरूपमिदं
करके उसने प्राणियोंके कर्मादि
निमित्तोंके अनुरूप इस सम्पूर्ण सर्व जगद्देशतः कालतो नाम्ना जगतको रचा, जो देश, काल, रूपेण च यथानुभवं सर्वैः नाम और रूपसे यथानुभव सारी प्राणिमिः सर्वावस्थैरतुभ्यमानम
अवस्थाओंमें स्थित सभी प्राणियोंद्वारा
अनुभव किया जाता है। यह जो सृजत सृष्टवान् । यदिदं किं च
कुछ है अर्थात् सामान्यरूपसे यह यत्कि चेदमविशिष्टम् । तदिदं जो कुछ जगत् है इसे रचकर उसने जगत्सृष्टा किमकरोदित्युच्यते- क्या किया, सो वतलाते हैं वह उस तदेव सृष्टं जगदनुप्राविशदिति। हो गया ।
(रचे हुए जगत्में ही अनुप्रविष्ट तत्रैतचिन्त्यं कथमनुप्रायिश- अब यहाँ यह विचारना है कि
उसने किस प्रकार अनुप्रवेश किया? तस्य जगदनु- दिति । किं
क या जो स्रष्टा था, क्या उसने खवरूपसे
यः, प्रवेशः स्रष्टा स तेनैवात्म- ही अनुप्रवेश किया अथवा किसी नानुप्राविशदुतान्येनेति, किं ता
(और रूपसे ? इनमें कौन-सा पक्ष
| समीचीन है ? श्रुतिमें [ 'सृष्टवा' इस वद्युक्तम् ? क्त्वाप्रत्ययश्रवणायः क्रियामें ] 'क्वा' प्रत्यय होनेसे तो
यही ठीक जान पड़ता है कि जोस्रष्टा स्रष्टा स एवानुप्राविशदिति । था उसीने पीछे प्रवेश भी किया ।*
* 'पत्वा' प्रत्यय पूर्वकालिक क्रियामें हुआ करता है। हिन्दीमें इसी अर्थमें 'कर' या 'के' प्रत्यय होता है। जैसे-'रामने श्यामको बुलाकर [ या बुलाके ] धमकाया । इसमें यह नियम होता है कि पूर्वकालिक क्रिया और मुख्य कियाका कर्ता एक ही होता है। जैसे कि उपर्युक्त वाक्यमें पूर्वकालिक क्रिया 'बुलाकर' तथा मुख्य क्रिया 'धमकाया' इन दोनोंका कर्ता 'राम' ही है ।
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अनु०६]
शाङ्करभाष्यार्थ
१५१
ननु न युक्तं मृद्वच्चेत्कारणं पूर्व०-यदि ब्रह्म मृत्तिकाके
समान जगत्का कारण है तो ब्रह्म तदात्मकत्वात्कार्यस्य । का
- उसका कार्य तद्रूप होनेके कारण रणमेव हि कार्यात्मना परिणत- उसमें उसका प्रवेश करना सम्भव
नहीं है। क्योंकि कारण ही कार्यरूपमित्यतोऽप्रविष्ट इव कार्योत्पत्ते- से परिणत हुआ करता है, अतः रूवं पृथकारणस्य पुनः प्रवेशो
किसी अन्य पदार्थके समान पहले
विना प्रवेश किये कार्यकी उत्पत्तिके ऽनुपपन्नः । न हि घटपरिणाम- अनन्तर उसमें कारणका पुनः प्रवेश व्यतिरेकेण मृदो घटे प्रवेशो
करना सर्वथा असम्भव है ? घटरूप
में परिणत होनेके सिवा मृत्तिकाका ऽस्ति । यथा घटे चूर्णात्मना घटमें और कोई प्रवेश नहीं हुआ मृदोऽनुप्रवेश एवमन्येनात्मना करता । हाँ, जिस प्रकार घटमें चूर्ण
(बालू ) रूपसे मृत्तिकाका अनुनामरूपकार्येऽनुप्रवेश आत्मन इति प्रवेश होता है उसी प्रकार किसी चेच्छुत्यन्तराच "अनेन जीवेना
अन्य रूपसे आत्माका नाम-रूप कार्यमें
भी अनुप्रवेश हो सकता है, जैसा स्मनानुप्रविश्य" (छा० उ०६। कि "इसजीवरूपसे अनुप्रवेश करके" ३।२) इति ।
इस अन्य श्रुतिसे प्रमाणित होता है
-यदि ऐसा माने तो ? नैवं युक्तमेकत्याद्रह्मणः । मृ- सिद्धान्ती-ऐसा मानना उचित
नहीं है, क्योंकि ब्रह्म तो एक ही दात्मनस्त्वनेकत्वात्सावयवत्वाच है । मृत्तिकारूप कारण तो अनेक
और सावयव होनेके कारण उसका यक्तो घटे मृदचूर्णात्मनानु-घटमें चूर्णरूपसे अनुप्रवेश करना भी प्रवेशः। मृदचूर्णस्याप्रविष्टदेश- | सम्भव है, क्योंकि मृत्तिकाके चूर्णका
उस देशमें प्रवेश नहीं है, किन्तु वत्त्वाच्च । न त्वात्मन एकत्वे | आत्मा तो एक है, अतः उसके इसी प्रकार 'अनुप्राविशत्' और 'सृष्ट्वा' इन दोनों क्रियाओंका कर्ता भी ब्रह्म ही होना चाहिये।
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तैत्तिरीयोपनिपद्
वल्ली २
सति निरक्यवत्वादप्रविष्टदेशा- निरवयव और उससे अप्रविष्ट देशका
अभाव होनेके कारण उसका प्रवेश भावाच प्रवेश उपपद्यते । कथं करना सम्भव नहीं है। तो फिर उसका
प्रवेश कैसे होना चाहिये ? तथा तहि प्रवेशः स्यात् । युक्तश्च प्रवेशः उसका प्रवेश होना उचित ही है,.
क्योंकि 'उसीमें अनुप्रविष्ट हो गया' श्रुतत्वात्तदेवानुप्राविशदिति ।
: ऐसी श्रुति है। सावयवमेवास्तु तर्हि । साब- पूर्व-तब तो ब्रह्म सावयत्र ही
होना चाहिये। उस अवस्थामें, यवत्वान्मुखे हस्तप्रवेशवन्नाम-सावयव होनेके कारण मुखमें हाथका
प्रवेश होनेके समान उसका नाम-रूप रूपकार्ये जीवात्मनानुप्रवेशोयुक्त
कार्यमें जीवरूपसे प्रवेश होना ठोक एवेति चेत् ?
ही होगा-यदि ऐसा कहें तो? नाशून्यदेशत्वात् । न हि सिद्धान्ती-नहीं; क्योंकि उससे
शून्य कोई देश नहीं है। कार्यकार्यात्मना परिणतस्य नाम- रूपमें परिणत हुए ब्रह्मका नाम-रूप
कार्यके देशसे अतिरिक्त और कोई रूपकार्यदेशव्यतिरेकेणात्मशून्यः अपनेसे शून्य देश नहीं है, जिसमें
| उसका जीवरूपसे प्रवेश करना प्रदेशोस्ति यंप्रविशेञ्जीवात्मना। सम्मव हो । और यदि यह मानो
कि जीवात्माने कारणमें ही प्रवेश कारणमेव चेत्प्रविशेञ्जीवात्मत्वं किया तव तो वह अपने जीवत्वको
ही त्याग देगा, जिस प्रकार कि जह्याधथा घटो मृत्प्रवेशे घटत्वं घड़ा मृत्तिकामें प्रवेश करनेपर
अपना घटत्व त्याग देता है। तथा जहाति । तदेवानुप्राविशदिति 'उसीमें अनुप्रविष्ट हो गया' इस
श्रुतिसे भी कारणमें अनुप्रवेश करना च श्रुतेने कारणानुप्रवेशो युक्तः।। सम्भव नहीं है ।
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अनु०६]
शाङ्करभाष्यार्थ
कार्यान्तरमेव स्थादिति चेत् । पूर्व०-किसी अन्य कार्यमें ही
प्रवेश किया यदि ऐसा मानें तो ? तदेवानुनाविशदिति जीवात्मरूपं अर्थात् 'तदेवानुप्राविशत्' इस
श्रुतिके अनुसार जीवात्मारूप कार्य कार्य नामरूपपरिणतं कार्यान्तर- नाम-रूपमें परिणत हुए किसी अन्य
कार्यको ही प्राप्त हो जाता है यदि मेवापद्यत इति चेत् ?
ऐसी बात हो तो? न; विरोधात् । न हि घटो सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि इससे
विरोध उपस्थित होता है। एक घड़ा घटान्तरमापद्यते । व्यतिरेक- किसी दूसरे घड़ेमें लीन नहीं हो
जाता । इसके सिवा [ऐसा माननेश्रुतिविरोधाच । जीवस्य नाम- | से ] व्यतिरेक श्रुतिसे विरोध भी
होता है । [ यदि ऐसा मानेंगे तो] रूपकार्यव्यतिरेकानुवादिन्यःजीव नाम-रूपात्मक कार्यसे व्यति
रिक्त ( भिन्न ) है-ऐसा अनुवाद श्रुतयो विरुध्येरन् । तदापत्तौ करनेवाली श्रतियोंसे विरोध हो
जायगा और ऐसा होनेपर उसका मोक्षासंभवाच्च । न हि यतो
मोक्ष होना भी असम्भव होगा। मुच्यमानस्तदेवापद्यते । न हि
क्योंकि जो जिससे छूटनेवाला होताहै
वह उसीको प्राप्त नहीं हुआ करता;* श्रृंखलापत्तिर्वद्धस्य तस्करादेः। जंजीरसे वधे हुए चोर आदिका
जंजीररूप हो जाना सम्भव नहीं है। बाह्यान्तभेदेन परिणतमिति
| पूर्व०-वही बाह्य और आन्तरके
भेदसे परिणत हो गया, अर्थात् चेत्तदेव कारणं ब्रह्म शरीराधा- | वह कारणरूप ब्रह्म ही शरीरादि धारत्वेन तदन्तर्जीवात्मनाघेय
| आधाररूपसे बाह्य और आधेय
| जीवरूपसे उसका अन्तर्वर्ती हो । त्वेन च परिणतमिति चेत् १ . गया यदि ऐसा माने तो ?
* अर्थात् जीवको तो नाम-रूपात्मक कार्यसे मुक्त होना इष्ट है, फिर वह उसीको क्यों प्राप्त होगा?
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तैत्तिरीयोपनिपद्
१५४
[वल्ली २
न बहिष्ठस्य प्रवेशोपपत्तेन | सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि प्रवेश
बाहर रहनेवाले पदार्थका ही हो हि यो यस्यान्तास्थः स एव सकता है । जो जिसके भीतर
स्थित है वह उसमें प्रविष्ट हुआ तत्प्रविष्ट उच्यते । बहि ठस्यानु
13 | नहीं कहा जाता । अनुप्रवेश प्रवेशः स्यात्प्रवेशशब्दार्थस्यैवं तो वाहर रहनेवाले पदार्थका ही
हो सकता है, क्योंकि 'प्रवेश दृष्टत्वात् । यथा गृहं कृत्वा शब्दका अर्थ ऐसा ही देखा गया
है। जैसे कि 'घर बनाकर उसमें प्राविशदिति ।
प्रवेश किया' इस वाक्यमें । जलसूर्यकादिप्रतिविम्बवत्प्र- यदि कहो कि जलमें सूर्यके वेशः स्यादिति चेन्न, अपरिच्छि
- प्रतिविम्ब आदिके समान उसका
प्रवेश हो सकता है, तो ऐसा नत्वादमूर्तत्वाच । परिच्छिन्नस्य कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ब्रह्म मूर्तस्यान्यस्यान्यत्र प्रसादस्व
अपरिच्छिन्न और अमूर्त है। परि
च्छिन्न और मूर्तरूप अन्य पदार्थोका भावके जलादौ सूर्यकादिप्रतिवि- ही स्वच्छस्वभाव जल आदि अन्य म्बोदयः स्यात् । न त्वात्मनः | पदार्थाम सूर्यकादिरूप प्रतिविम्ब
पड़ा करता है; किन्तु आत्माका अमूर्तत्वादाकाशादिकारणस्या- प्रतिविम्व नहीं पड़ सकता, क्योंकि त्मनो व्यापकत्वात् । तद्विप्रकृष्ट
वह अमूर्त है तथा आकाशादिका
कारणरूप आत्मा व्यापक भी है। देशप्रतिविम्बाधारवस्त्वन्तराभा- | उससे दूर देशमें स्थित प्रतिविम्बकी वाञ्च प्रतिविम्ववत्प्रवेशो न
आधारभूत अन्य वस्तुका अभाव
होनेसे भी उसका प्रतिविम्बके समान युक्तः।
प्रवेश होना सम्भव नहीं है। एवं तर्हि नैवास्ति प्रवेशो न पूर्व-तब तो आत्माका प्रवेश
होता ही नहीं-इसके सिवा च गत्यन्तरमुपलभामहे 'तदे- 'तदेवानुप्राविशत्' इस श्रुतिकी और
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अनु०६]
शाङ्करभाष्यार्थ
वानुप्राविशत्' इति श्रुतेः । कोई गति दिखायी नहीं देती। श्रुतिश्च नोऽतीन्द्रियविषये विज्ञा- | हमारे (मीमांसकोंके ) सिद्धान्तानोत्पत्तौ निमित्तम् । न चासा
| नुसार इन्द्रियातीत विपयोंका ज्ञान
पता होनेमें श्रुति ही कारण है। किन्तु द्वाक्याद्यनवतामपि विज्ञानमु- इस वाक्यसे बहुत यत्न करनेपर भी त्पद्यते । हन्त तयनर्थकत्वादपो- | किसी प्रकारका ज्ञान उत्पन्न नहीं ह्यमेतद्वाक्यम् 'तत्सृष्ट्वा तदेवानु
होता । अतः खेद है कि 'तत्सृष्ट्या
तदेवानुप्राविशत्' यह वाक्य अर्थशून्य प्राविशत्' इति ।
होनेके कारण त्यागने ही योग्य है ! न, अन्यार्थत्वात् । किमर्थ- सिद्धान्ती-ऐसी बात नहीं है, मस्थाने चर्चा | प्रकतो ह्यन्यो क्योंकि इस वाक्यका अर्थ अन्य ही
है। इस प्रकारअप्रासङ्गिक चर्चा क्यों विवक्षितोऽस्य वाक्यस्यार्थोऽस्ति करते हो? इस प्रसंगमें इस वाक्य•स सर्तव्यः । "ब्रह्मविदामोति को और ही अर्थ कहना अभीष्ट है।
| उसीको स्मरण करना चाहिये। "ब्रह्मपरम्" (तै० उ० २।१।१)
| वेत्ता परमात्माको प्राप्त कर लेता है" "सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म" (तै० | "ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनन्त है"
"जो उसे बुद्धिरूप गुहामें छिपा उ० २।१।१) “यो वेद
हुआ जानता है" इत्यादि वाक्योंद्वारा निहितं गुहायाम्" (तै० उ० | जिसका निरूपण किया गया है
उस ब्रह्मका ही विज्ञान यहाँ बतलाना २।१।१) इति तद्विज्ञानं
अभीष्ट है और उसीका यहाँ प्रसङ्ग च विवक्षितं प्रकृतं च तत् । भी है । ब्रह्मके खरूपका ज्ञान प्राप्त
करनेके लिये ही आकाशसे लेकर ब्रह्मस्वरूपानुगमाय चाकाशाद्य
अन्नमयकोशपर्यन्त सम्पूर्ण कार्यनमयान्तं कार्य प्रदर्शितं ब्रह्मा- वर्ग दिखलाया गया है तथा ब्रह्मा
नुभवका प्रसङ्ग भी चल ही रहा नुगमचारब्धः। तत्रान्नमयादा
नयादा है। उसमें अन्नमय आत्मासे भिन्न मनोज्योऽन्तर आत्मा प्राण- दूसरा अन्तरात्मा प्राणमय है,
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तैत्तिरीयोपनिपद्
[वस्ली२
मयस्तदन्तर्सनोमयो विज्ञानमय उसका अन्तर्वर्ती मनोमय और फिर
विज्ञानमय है। इस प्रकार आत्माका इति विज्ञानगुहायां प्रवेशितरतत्र
विज्ञानगुहामें प्रवेश करा दिया गया चानन्दमयो विशिष्ट आत्मा है, और वहाँ आनन्दमय ऐसे विशिष्ट प्रदर्शितः।
आत्माको प्रदर्शित किया गया है। . अतः परमानन्दमयलिङ्गाधि
र इसके आगे आनन्दमय-इस
लिङ्गके ज्ञानद्वारा आनन्दके उत्कर्षगमद्वारेणानन्दविवृद्धयवसान का अवसानभूत आत्मा जो सम्पूर्ण आत्मा ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा सर्व-: विकल्पका आश्रयभूत एवं निर्विकल्प विकल्या
ब्रह्म है तथा [आनन्दमय कोशकी]
पुच्छ प्रतिष्ठा है, वह इस गुहामें ही मेव गुहायामधिगन्तव्य इति अनुभव किये जाने योग्य हैतत्प्रवेशः प्रकल्प्यते । न हन्य- इसलिये उसके प्रवेशकी कल्पना
की गयी है । निर्विशेप होनेके कारण - त्रोपलभ्यते ब्रह्म निर्चिशेपत्त्वात् ।
ब्रह्म [बुद्धिरूप गुहाके सिवा और विशेषसंबन्धो ह्युपलब्धिहेतु
कहीं उपलब्ध नहीं होता, क्योंकि
विशेपका सम्बन्ध ही उपलब्धिमें हेतु दृष्टः, यथा राहोश्चन्द्रार्कविशिष्ट
या राहावन्द्राकावाशष्ट- देखा गया है, जिस प्रकार कि राहुसंबन्धः । एवमन्तःकरणगुहात्म
की उपलब्धिमें चन्द्रमा अथवा सूर्य
रूप विशेषका सम्बन्ध । इस प्रकार संवन्धो ब्रह्मण उपलब्धिहेतुः । अन्तःकरणरूप गुहा और आत्मासानकपोदवभासात्मकत्वाजाका सम्बन्ध ही ब्रह्मकी उपलब्धिका
हेतु है, क्योंकि अन्तःकरण उसका करणस्य ।
| समीपवर्ती और प्रकाशखरूप है। * जिस प्रकार अन्धकार और प्रकाश दोनों ही जड हैं, तथापि प्रकाश अन्धकाररूप आवरणको दूर करने में समर्थ है, इसी प्रकार यद्यपि अज्ञान आर अन्तःकरण दोनों ही समानरूपसे जड हैं तो भी प्रत्यय (विभिन्न प्रतीतियोक) रूपमें परिणत हुआ अन्तःकरण अज्ञानका नाश करनेमें समर्थ हैं और इस प्रकार वह आत्माका प्रकाशक (ज्ञान करानेवाला) है। इसी बातको आगक भाष्यसे स्पष्ट करते हैं।
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अनु०६]
शाङ्करभाष्यार्थ
१५७
यथा चालोकविशिष्टा घटा- जिस प्रकार कि प्रकाशयुक्त ग्रुपलब्धिरेवं बुद्धिप्रत्ययालोक
घटादिकी उपलब्धि होती है उसी
| प्रकार बुद्धिके प्रत्ययरूप प्रकाशसे विशिष्टात्मोपलब्धिः स्यात्तस्मा- युक्त आत्माका अनुभव होता है । 'दुपलब्धिहेतौ गुहायां निहित
अतः उपलब्धिकी हेतुभूत गुहामें
वह निहित है-इसी बातका यह मिति प्रकृतमेव । तवृत्तिस्था- प्रसङ्ग है । उसकी वृत्ति (व्याख्या) नीये विह पुनस्तत्सृष्ट्वा तदेवा
देवा के रूपमें ही श्रुतिद्वारा 'उसे रचकर
| वह पीछेसे उसीमें प्रवेश कर गया' नुप्राविशदित्युच्यते । ऐसा कहा गया है।
तदेवेदमाकाशादिकारणं कार्य इस प्रकार इस कार्यवर्गको सृष्ट्वा तदनुप्रविष्टमिवान्तर्गहायां रचकर इसमें अनुप्रविष्ट-सा हुआ
आकाशादिका कारणरूप वह ब्रह्म बुद्धौ द्रष्ट श्रोत मन्तु विज्ञात्रित्येवं ही बुद्धिरूप गुहामें द्रष्टा, श्रोता, विशेपवदुपलभ्यते । स एव तस्य मन्ता और विज्ञाता-ऐसा सविशेप
रूप-सा जान पड़ता है। यही प्रवेशस्तसादस्ति तत्कारणं ब्रह्म।
उसका प्रवेश करना है। अतः अतोऽस्तित्वादस्तीत्येवोपलब्धव्यं वह ब्रह्म कारण है। इसलिये उसका
अस्तित्व होनेके कारण उसे 'है' तत् । . . .
इस प्रकार ही ग्रहण करना चाहिये। तत्कार्यमनुप्रविश्य, किम् ?
। उसने कार्यमें अनुप्रवेश करके
फिर क्या किया ? वह सत्-मूर्त तस्य सच्च मूर्त त्यच्चामूर्त- | और असंत-अमूर्त हो गया। जिनसार्वात्म्यम् अभवत् । मूर्तामृर्ते ! के नाम और रूपकी अभिव्यक्ति
नहीं हुई है, वे मूर्त और अमूर्त तो ह्यव्याकृतनामरूपे आत्मस्थे आत्मामें ही रहते हैं। उन 'मूर्त' अन्तर्गतेनात्मना व्याक्रियेते ए.
एवं 'अमूर्त'. शब्दवाच्य पदार्थोको
उनका अन्तर्वर्ती आत्मा केवल व्याकृते भूर्तामूर्तशब्दवाच्ये। ते अभिव्यक्त कर देता है । उनके
तस्य
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तैत्तिरीयोपनिपद्
[ वल्ली २
आत्मना त्वप्रविभक्तदेशकाले | देश और काल आत्मासे अभिन्न हैं - इसीलिये 'आत्मा ही मूर्त और अमूर्त हुआ' ऐसा कहा जाता है ।
१५८
इति कृत्वात्मा ते अभवदित्युच्यते ।
किं च निरुक्तं चानिरुक्तं चा
निरुक्तं नाम निष्कृष्य समाना
समानजातीयेभ्यो विशिष्टतयेदं तदित्युक्तमनिरुक्तं तद्विपरीतं निरुक्तानिरुक्ते अपि
मूर्तीमूर्तयोरेव विशेषणे । यथा
सच्च त्यच्च प्रत्यक्षपरोक्षे, तथा निलयनं चानिलयनं च । निल
तथा वही निरुक्त और अनिरुक्त भी हुआ । निरुक्त उसे कहते हैं जिसे सजातीय और विजातीय
|
देशकाल - पदार्थोंसे अलग करके देश-कालविशिष्टरूपसे ' वह यह है' ऐसा कहा जाय । इससे विपरीत लक्षणोंवालेको 'अनिरुक्त' कहते हैं | निरुक्त और अनिरुक्त भी मूर्त और अमूर्तके ही विशेषण हैं। जिस प्रकार 'सत्' और 'त्यत्' क्रमशः
'प्रत्यक्ष' और 'परोक्ष' को कहते हैं उसी प्रकार 'निलयन' और 'अनिलयन' भी समझने चाहिये । निलयन-नीड अर्थात् आश्रय अनिलयनं तद्विपरीतममूर्तस्यैव | विपरीत अनिलयन अमूर्तका ही मूर्तका ही धर्म है और उससे
यनं नीडमाश्रयो मूर्तस्यैव धर्मः ।
धर्मः ।
धर्म है ।
त्यदनिरुक्तानिलयनान्यमूर्त- त्यत्, अनिरुक्त और अनिलयन
धर्मत्वेऽपि व्याकृतविषयाण्येव । ये अमूर्त के धर्म होनेपर भी व्याकृत ( व्यक्त ) से ही सम्बन्ध रखनेवाले सर्वोत्तरकालभावश्रवणात् । त्य- । हैं, क्योंकि इनकी सत्ता सृष्टिके दिति प्राणाद्यनिरुक्तं तदेवानि - अनन्तर ही सुनी गयी है । यत्यह प्राणादि अनिरुक्तका नाम है; लयनं च । अतो विशेषणान्य- | वही अनिलयन भी है । अतः ये
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अनु० ६ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
मूर्तस्य व्याकृतविषयाण्येवैतानि । अमूर्तके विशेषण व्याकृतविषयक
ही हैं।
१५९
चेतनमविज्ञानं
विज्ञान यानी चेतन, अविज्ञान -
विज्ञानं तद्रहितमचेतनं पापाणादि सत्यं | उससे रहित अचेतन पाषाणादि और सत्य - व्यवहारसम्बन्धी सत्य, च व्यवहारविषयमधिकारान्न | क्योंकि यहाँ व्यवहारका ही प्रसंग परमार्थसत्यम् । एकमेव हि है, परमार्थ सत्य नहीं; परमार्थ सत्य तो एकमात्र ब्रह्म ही है; यहाँ तो परमार्थसत्यं ब्रह्म । इह पुन - केवल व्यवहारविषयक आपेक्षिक र्व्यवहारविपय मापेक्षिकं सत्यम्, सत्य से ही तात्पर्य है, जैसे कि मृगतृष्णा आदि असत्यकी अपेक्षासे मृगतृष्णिकाद्यनृतापेक्षयोदकादि | जल आदिको सत्य कहा जाता है सत्यमुच्यते । अनृतं च तद्विप तथा अनृत-उस ( व्यावहारिक सत्य ) से विपरीत । सो फिर क्या ? ये सब वह सत्य - परमार्थ सत्य ही हो गया । वह परमार्थ सत्य है क्या ? वह ब्रह्म है, क्योंकि 'ब्रह्म सत्य, ज्ञान एवं अनन्त है' इस प्रकार उसीका प्रकरण है ।
'रीतम् । किं पुनः १ एतत्सर्वमभवत्, परमार्थसत्यम् । किं
सत्यं
पुनस्तत् ? ब्रह्म, सत्यं ज्ञानमनन्तं
ब्रह्मेति प्रकृतत्वात् ।
यस्मात्सच्यदादिकं मूर्तामूर्त- मूर्त-अमूर्त धर्मजात है वह सामान्यक्योंकि सत्-त्यत् आदि जो कुछ धर्मजातं यत्किचेदं सर्वमविशिष्टं रूपसे सारा ही विकार एकमात्र विकारजातमेकमेव सच्छन्दवाच्यं | 'सत्' शब्दवाच्य ब्रह्म ही हुआ हैक्योंकि उससे भिन्न नाम-रूप विकारका सर्वथा अभाव है - इसलिये ब्रह्मतस्मात्तद्ब्रह्मवादीलोग उस ब्रह्मको 'सत्य' ऐसा
ब्रह्माभवत्तद्व्यतिरेकेणाभावान्ना
कहकर पुकारते हैं ।
मरूपविकारस्य
सत्यमित्याचक्षते ब्रह्मविदः ।
'ब्रह्म है या नहीं' इस अनुप्रश्नका
अस्ति नास्तीत्यनुप्रश्नः प्रकृतः तस्य प्रतिवचनविपय एतदुक्त- । यहाँ प्रसंग था । उसके उत्तर में यह
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A
LTRaamananduaam
१६०
तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली २
मात्माकामयत बहु स्यामिति । स कहा गया था-'आत्माने कामना की
कि मैं बहुत हो जाऊँ' । वह अपनी यथाकामं चाकाशादिकार्य सत्य
कामनाके अनुसार सत्-त्यत् आदि दादिलक्षणं दृष्ट्वा तदनु प्रविश्य लक्षणोंवाले आकाशादि कार्यवर्गको
रचकर उसमें अनुप्रविष्ट हो द्रष्टा, पश्यशृण्वन्मन्वानो विजानन् श्रोता, मन्ता और विज्ञातारूपसे वह्वभवत्तसाचदेवेदमाकाशादि
बहुत हो गया । अतः आकाशादि
| के कारण, कार्यवर्गमें स्थित, कारणं कार्यस्थं परमे व्योमन् परमाकाशके भीतर बुद्धिरूप गुहामें
छिपे हुए और उसके कर्ता-भोक्तादिहृदयगुहायांनिहितं तत्प्रत्ययाव
| रूप जो प्रत्ययावभास हैं उनके द्वारा भासविशेषेणोपलभ्यमानसस्ति (विशेषरूपसे उपलब्ध होनेवाले उस
ब्रह्मको ही 'वह है' इस प्रकार जानेइत्येवं विजानीयादित्युक्तं भवति। ऐसा कहा गया ।
तदेतसिन्नर्थे ब्राह्मणोक्त एप उस इस ब्राह्मणोक्त अर्थमें ही श्लोको मन्त्रो भवति । यथा यह श्लोक यानी मन्त्र है। जिस
प्रकार पूर्वोक्त पाँच पर्यायोंमें अन्नमय पूर्वेषु अन्नमयाद्यात्मप्रकाशकाः | आदि कोशोंके प्रकाशक श्लोक थे पञ्चखप्येवं सर्वान्तरतमात्मास्ति- उसी प्रकार सबकी अपेक्षा आन्तरतम
आत्माके अस्तित्वको उसके कार्यद्वारा त्वप्रकाशकोऽपि मन्त्रः कार्य
प्रकाशित करनेवाला भी यह मन्त्र द्वारेण भवति ॥१॥ है ॥१॥
इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यां पष्ठोऽनुवाकः ॥ ६॥ .
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सप्तम अनुकाक बाकी सुकृतता एवं आनन्दरूपताका तथा ब्रह्मवेत्ताकी
___ अभयप्राप्तिका वर्णन असद्वा इदमग्र आसीत् । ततो वै सदजायत । तदात्मान खयमकुरुत । तस्माचत्सुकृतमुच्यत इति । यद्वै तत्सुकृतं : रसो वै सः। रस ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति । को ह्येवान्यात्कः प्राण्याद् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् । एष ह्यवानन्दयाति । यदा ह्येवैष एतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्तनिलयनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते । अथ सोऽभयं गतो भवति । यदा ह्येवैप एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते । अथ तस्य भयं भवति । तत्त्वेव भयं विदुषो मन्वानस्य । तदप्येष श्लोको भवति ॥१॥
पहले यह [ जगत् ] असत् ( अव्याकृत ब्रह्मरूप.) ही था। उसीसे सत् ( नाम-रूपात्मक व्यक्त) की उत्पत्ति हुई। उस असत्ने खयं अपनेको ही नाम-रूपात्मक जगदुरूपसे ] रचा। इसलिये वह सुकृत ( स्वयं रचा हुआ ) कहा जाता है । वह जो प्रसिद्ध सुकृत है सो निश्चय रस ही है । इस रसको पाकर पुरुर आनन्दी हो जाता है । यदि हृदयाकाशमें स्थित यह आनन्द (आनन्दस्वरूप आत्मा ) न होता तो कौन व्यक्ति अपान-क्रिया करता और कौन प्राणन-क्रिया करता? यही तो उन्हें आनन्दित करता है। जिस समय यह साधक इस अदृश्य, अशरीर, अनिर्वाच्य और निराधार ब्रह्ममें अभय-स्थिति 'प्राप्त करता है.उस
२१-२२
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तैत्तिरीयोपनिपद्
[वली २
समय यह अभयको प्राप्त हो जाता है; और जब यह इसमें थोड़ा-सा भी भेद करता है तो इसे भय प्राप्त होता है । वह ब्रह्म ही भेददर्शी विद्वान्के लिये भयरूप है । इसी अर्थमें यह श्लोक है ॥ १ ॥ असता इदमग्र आसीत् ।। पहले यह [ जगत् ] असत् ही ।
| था । 'असत्' इस शब्दसे, जिनके असच्छब्द- असदिति व्याकृत
नाम-रूप व्यक्त हो गये हैं उन वाच्याव्याकृता- नामरूपविशेषविप- विशेप पदार्थोसे विपरीत खभाववाला जगदुत्पत्तिः रीतरूपमव्याकृतं | अव्याकृत ब्रह्म कहा जाता है।
इससे [वन्व्यापुत्रादि] अत्यन्त ब्रह्मोच्यते । न पुनरत्यन्तमेवा
असत् पदार्थ बतलाये जाने अभीष्ट सत् । न ह्यसतः सञ्जन्मास्ति । | नहीं हैं, क्योंकि असत्से सत्का
जन्म नहीं हो सकता। 'इदम्' इदमिति नामरूपविशेषवव्याकृतं, अर्थात् नाम-रूप विशेपसे युक्त जगदग्रे पूर्व प्रागत्पत्ते-होचास- व्याकृत जगत् अग्रे-पहले अर्थात्
उत्पत्तिसे पूर्व 'असत्' शब्दवाच्य च्छन्दवाच्यमासीत् । ततोऽसतो ब्रह्म ही था । उस असत्से ही
सत् यानी जिसके नाम-रूपका वै सत्प्रविभक्तनामरूपविशेष
विभाग हो गया है उस विशेषकी मजायतोत्पन्नम्। | उत्पत्ति हुई।
किं ततः प्रविभक्तं कार्यमिति तो क्या पितासे पुत्रके समान पितुरिव पुत्रः, नेत्याह । तदस
यह कार्यवर्ग उस [ब्रह्मसे] विभिन्न
" है ? इसपर श्रुति कहती है-'नहीं; च्छन्दवाच्यं खयमेवात्मानमेवा- | उस 'असत्' शब्दवाच्य ब्रह्मने स्वयं 'कुरुत कृतवत् । यस्मादेवं तस्मा- अपनेको ही रचा। क्योंकि ऐसी ब्रह्मैव सुकृतं स्वयंकत्रुच्यते ।।
बात है इसलिये वह ब्रह्म ही सुकृत स्वयंकत ब्रह्मोति प्रसिद्ध लोके
| अर्थात् खर्यकर्ता कहा जाता है,
सबका कारण होनेसे ब्रह्म खयंकर्ता सर्वकारणत्वात् ।
। है-~यह बात लोकमें प्रसिद्ध है ।
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अनु०७]
शाकरभाप्यार्थ
यस्माद्वा खयमकरोत्सर्व अथवा, क्योंकि सर्वरूप होने
से ब्रह्मने स्वयं ही इस सम्पूर्ण सवात्मना तस्मात्पुण्यरूपेणापि जगतकी रचना की है, इसलिये तदेव नम कारणं सुक्रतमच्यते।: पुण्यरूपसे भी उसका कारणरूप
"'. वह ब्रह्म 'सुकृत' कहा जाता है। सर्वथापि तु फलसंवन्धादि- · लोकमें जो कार्य [पुण्य अथवा
_ 'पाप ] किसी भी प्रकारसे फलके कारणं सुकृतशब्दवाच्यं प्रसिद्धं सम्बन्धादिका कारण होता है वही
___ । 'सुकृत' शब्दके वाच्यरूपसे प्रसिद्ध लोक। यदि पुण्यं यदि वान्यत्सा होता है । यह प्रसिद्धि चाहे पुण्यप्रसिद्धिनित्य चेतनवकारणे रूपा हो और चाहे पापरूपा किसी
नित्य और सचेतन कारणके होनेपर सत्युपपद्यते । तस्मादस्ति तहह्म ही हो सकती है । अतः उस
सुकृतरूप प्रसिद्धिकी सत्ता होनेसे सुकृतप्रसिद्धेः । इतश्चास्ति । यह सिद्ध होता है कि वह ब्रह्म है।
ब्रह्म इसलिये भी है; किस लिये रसकृतः ? रसत्वात् । कुतो रसत्व
' वरूप होनेके कारण । ब्रह्मकी प्रसिद्धिह्मण इत्यत आह- रसखरूपताकी प्रसिद्धि किस कारण
से है-इसपर श्रुति कहती हैयद्वै तत्सुकृतम् । रसो वे जो भी वह प्रसिद्ध सुकृत है वह भागो सः । रसो नाम निथय रस ही है । खट्टा-मीठा साम्वरूपस्वम् उमिहतरानन्दकरो आदि तृप्तिदायक और आनन्दप्रद
| पदार्थ लोकमें 'रस' नामसे प्रसिद्ध मधुराम्लाद प्रासद्धा लोक है ही । इस रसको ही पाकर पुरुष रसमेवायं लब्ध्वा प्राप्यानन्दी आनन्दी अर्थात् सुखी हो जाता है। मुखी भवति । नासत आनन्दपनि
लोकमें किसी असत् पदार्यकी
| आनन्दहेतुता कभी नहीं देखी गयी। हेतुत्वं दृष्टं लोके । बाह्यानन्द- ब्रह्मनिष्ठ निरीह और निरपेक्ष विद्वान् साधनरहिताअप्यनीहा निरेपणा बाह्यसुखके साधनसे रहित होनेपर
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१६४
तैत्तिरीयोपनिपद्
[ चल्ली २
ब्राह्मणा बाह्यरसलाभादिव सा- भी बाह्य रसके लाभसे आनन्दित
होनेके समान आनन्दयुक्त देखे जाते नन्दा दृश्यन्ते विद्वांसः; नूनं
हैं । निश्चय उनका रस ब्रह्म ही है। ब्रह्मव रसस्तेषाम् । तस्मादस्ति
अतः रसके समान उनके आनन्दका तत्तेपामानन्दकारणं रसवब्रह्म ।। | कारणरूप वह ब्रह्म है ही। इतश्चास्ति कुतः ? प्राणनादि- इसलिये भी ब्रह्म है; किसलिये ?
प्राणनादि क्रियाके देखे जानेसे । क्रियादर्शनात् । अयमपि हि | जीवित पुरुषका यह पिण्ड भी प्राणकी
सहायतासे प्राणन करता है और पिण्डो जीवतः प्राणेन प्राणित्य
अपान वायुके द्वारा अपानक्रिया पानेनापानिति । एवं वायवीया
करता है। इसी प्रकार संघातको
प्राप्त हुए इन शरीर और इन्द्रियोंके ऐन्द्रियकाश्च चेष्टाः संहत कार्य द्वारा निष्पन्न होती हुई और भी
वायु और इन्द्रियसम्बन्धिनी चेष्टाएँ करणैर्निवय॑माना दृश्यन्ते ।
देखी जाती हैं । वह वायु आदि
अचेतन पदार्थोका एक ही उद्देश्यकी तच्चैकार्थवृत्तित्वेन संहननं नान्त
सिद्धिके लिये परस्पर संहत (अनु
कूल) होना किसी असंहत (किसीरेण चेतनमसंहतं संभवति । | से भी न मिले हुए) चेतनके बिना अन्यत्रादर्शनात् ।
नहीं हो सकता, क्योंकि और कहीं
ऐसा देखा नहीं जाता। तदाह-तद्यदि एष आकाशे इसी बातको श्रुति कहती हैपरमे व्योग्नि गुहायां निहित यदि आकाश-परमाकाश अर्थात् आनन्दो न स्यान्न भवेत्को डोर | बुद्धिरूप गुहामें छिपा हुआ यह लोकेऽन्यादपानचेष्टां - कुर्यादि
आनन्द न होता तो लोकमें कौन त्यर्थः। का प्राण्यात्प्राणनं वा प्राणन कर सकता; इसलिये वह
| अपान-क्रिया करता और कौन कुर्यात्तस्मादस्तिं तब्रह्म । यदर्थाः ब्रह्म है ही, जिसके लिये कि शरीर
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अनु०७]
. शाङ्करभाष्यार्थ
कार्यकरणग्राणनादिचेष्टास्तस्कृत और इन्द्रियकी प्राणन आदि चेष्टाएँ एव चानन्दो लोकस्य । हो रही हैं, और उसीका किया हुआ
. लोकका आनन्द भी है। . कुतः ? एप ह्येव पर आत्मा ऐसा क्यों है ? क्योंकि यह आनन्दयात्यानन्दयति सुखयति
| परमात्मा ही लोकको उसके धर्मालोकं धर्मानुरूपम् । स एवात्मा
नुसार आनन्दित-सुखी करता है।
| तात्पर्य यह है कि वह आनन्दरूप नन्दरूपोऽविद्यया परिच्छिन्नो आत्मा ही प्राणियोंद्वारा अविद्यासे विभाज्यते प्राणिभिरित्यर्थः । परिच्छिन्न भावना किया जाता है। भयाभयहेतुत्वाद्विद्वदविदुपोरस्ति
अविद्वान्के भय और विद्वान्के
अभयका कारण होनेसे भी ब्रह्म है, तद्रह्म ! सद्वस्त्वाश्रयणेन ह्यभय क्योंकि किसी सत्य पदार्थके आश्रयसे भवति । नासद्वस्त्वाश्रयणेन ही अभय हुआ करता है, असद्वस्तुके
आश्रयसे भयकी निवृत्ति होनी सम्भव भयनिवृत्तिरुपपद्यते ।
नहीं है। कथमभयहेतुत्वमित्युच्यते-- ब्रह्मका अभयहेतुत्व किस प्रकार ब्रह्माणोऽभय- यदा ह्येव यस्मादेप |
है, सो वतलाया जाता है क्योंकि
जिस समय भी यह साधक इस हेतुत्वम् साधक एतस्मिन्त्र- ब्रह्ममें [प्रतिष्ठा-स्थिति अर्थात् मणि किंविशिष्टेऽदृश्ये दृश्यं नाम | आत्मभाव प्राप्त कर लेता है।]
किन विशेषणोंसे युक्त ब्रह्ममें ? द्रष्टव्यं विकारो दर्शनार्थत्वाद्वि- अदृश्यमें-दृश्य देखे जानेवाले अर्थात्
विकारका नाम है क्योंकि विकार कारस्य । न दृश्यमदृश्यमविकार देखे जानेके ही लिये है; जो दृश्य न
हो उसे अदृश्य अर्थात् अविकार इत्यर्थः। एतस्मिन्नदृश्येऽविकारें
कहते हैं। इस अदृश्य-अविकारी विषयभूते. अनात्म्येऽशरीरे ।
अर्थात् अविषयभूत, अनात्म्य-अ
शरीरमें । क्योंकि वह अदृश्य. है यस्माददृश्यं तस्मादनात्म्यं इसलिये अशरीर भी है और क्योंकि
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तैत्तिरीयोपनिपद्
[बल्ली २
यस्मादनात्म्यं तस्मादनिरुक्तम्। अशरीर है इसलिये अनिरुक्त है। विशेपो हि निरुच्यते विशेपश्च निरूपण विशेषका ही किया जाता
है और विशेष विकार ही होता है; विकारः । अविकारं च नमः।
किन्तु ब्रह्म सम्पूर्ण विकारका कारण सर्वविकारहेतुत्वात्तस्मादनिरुक्त होनेसे स्वयं अविकार ही है, इसलिये म् । यत एवं तस्मादनिलयनं वह अनिरुक्त है । क्योंकि ऐसा है निलयनं नीड आश्रयो न इसलिये वह अनिलयन है; निलयन
| आश्रयको कहते हैं, जिसका निलयन निलयनमनिलयनमनाधारं तस्मि..
" न हो वह अनिलयन यानी अनाश्रय नेतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्ते- है । उस इस अदृश्य, अनात्म्य, निलयने सर्वकार्यधर्मविलक्षणे अनिरुक्त और अनिलयन अर्थात् ब्रह्मणीति वाक्यार्थः। अभयमिति सम्पूर्ण कार्यधमोंसे विलक्षण ब्रह्ममें
| अभय प्रतिष्ठा-स्थिति यानी आत्मक्रियाविशेषणम् । अभयामिति वा
भावको प्राप्त करता है । उस समय लिङ्गान्तरं परिणभ्यते । प्रतिष्ठां उसमें भयके हेतुभूत नानात्वको न स्थितिमात्मभावं विन्दते लभते ।
| देखनेके कारण अभयको प्राप्त हो
जाता है । मूलमें 'अभयम्' यह अथ तदा स तस्मिन्नानात्वस्य क्रियाविशेषण है * अथवा इसे भयहेतोरविद्याकृतस्यादर्शनाद
'अभयाम्' इस प्रकार अन्य (स्त्री)
| लिङ्गके रूपमें परिणत कर लेना भयं गतो भवति ।
चाहिये।
खरूपप्रतिष्ठो ह्यसौ यदा। जिस समय यह अपने खरूपमें. भवति तदा नान्यत्पश्यति ना- स्थित हो जाता है उस समय यह
* अर्थात् अमयरूपसे प्रतिष्ठा-स्थिति यानी आत्मभाव प्राप्त कर लेता है।
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अनु०७]
शाङ्करभाष्यार्थ
१६७
न्यच्छृणोति नान्यद्विजानाति । न तो और कुछ देखता है, न और
कुछ सुनता है और न और कुछ अन्यस्य ह्यन्यतो भयं भवति जानता ही है । अन्यको ही अन्यसे नात्मन एवात्मनो भयं युक्तम् ।
भय हुआ करता है, आत्मासे आत्मा
को भय होना सम्भव नहीं है। तस्मादात्मैवात्मनोऽभयकारणम्। अतः आत्मा ही आत्माके अभयका सर्वतो हि निर्भया ब्राह्मणा
कारण है । ब्राह्मण लोग ( ब्रह्मनिष्ठ
पुरुप) भयके कारणोंके रहते हुए दृश्यन्ते सत्सु भयहेतुपु तच्चा- भी सव ओरसे निर्भय दिखायी देते
हैं । किन्तु भयसे रक्षा करनेवाले युक्तमसति भयत्राणे ब्रह्माणि ।।
ब्रह्मके न होनेपर ऐसा होना तस्मात्तेपामभयदर्शनादस्ति तद- असम्भव था । अतः उन्हें निर्भय
देखनेसे यह सिद्ध होता है कि भयकारणं ब्रह्मेति ।
अभयका हेतुभूत ब्रह्म है ही। कदासावभयं गतो भवति यह साधक कब अभयको प्राप्त मेददर्शनमेव साधको यदा ना होता है ? [ ऐसा प्रश्न होनेपर भयहेतुः न्यत्पश्यत्यात्मनि ।
कहते हैं-] जिस समय यह अन्य
| कुछ नहीं देखता और अपने आत्मामें चान्तरं भेदं न कुरुते तदाभयं किसी प्रकारका अन्तर-भेद नहीं गतो भवतीत्यभिप्रायः । यदा
| करता उस समय ही यह अभयको
प्राप्त होता है-यह इसका तात्पर्य पुनरविद्यावस्थायां हि यस्मा
है। किन्तु जिस समय अविद्यावस्थादेपोऽविद्यावानविद्यया प्रत्युप- में यह अविद्याग्रस्त जीव तिमिररोगीस्थापितं वस्तु तैमिरिकद्वितीय- | को दिखायी देनेवाले दूसरे चन्द्रमाके
(समान अविद्याद्वारा प्रस्तुत किये हुए चन्द्रवत्पश्यत्यात्मनि चैतस्मिन्
पदार्थोको देखता है तथा इस आत्मा ब्रह्मणि उदपि, अरमल्पमप्यन्तरं यानी ब्रह्ममें थोड़ा-सा भी अन्तरछिद्रं भेददर्शनं कुरुते । भेददर्शन-छिद्र अर्थात् भेददर्शन करता है
तं वस्तु
तस्मिन् । पदाथा
थोड़ा-सा
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तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली २
मेव हि भयकारणमल्पमपि भेदं भेददर्शन ही भयका कारण है, अतः पश्यतीत्यर्थः। अथ तसाझेददर्श- तात्पर्य यह है कि यदि यह थोड़ा-सा
भी भेद देखता है तो उस आरमाके नाद्धेतोरस्य भेददर्शिन आत्मनो
" भेददर्शनरूप कारणसे उसे भय होता भयं भवति । तसादात्मैवात्मनो है । अतः अज्ञानीके लिये आत्मा ही भयकारणमविदुपः। आत्माके भयका कारण है। तदेतदाह । तद्ब्रह्म त्वेव भयं. यहाँ श्रुति इसी वातको कहती
. . है-भेददर्शी विद्वानके लिये वह ब्रह्म भेददर्शिनो चिदुप ईश्वरोऽन्यो
दुष इश्वराऽन्या ही भयरूप है । मुझसे भिन्न ईश्वर मत्तोऽहमन्यः संसारी इत्येवं और है तथा मैं संसारी जीव और
हूँ इस प्रकार उसमें थोड़ा-सा भी विदुषो भेददृष्टमीश्वराख्यं तदेव अन्तर करनेवाले उसे एकरूपसे
न माननेवाले विद्वान् (भेदज्ञानी) ब्रह्माल्पमप्यन्तरं कुर्वतो भयं के लिये वह भेदरूपसे देखा गया भवत्येकत्वेनामन्यानस्य । तसा
ईश्वरसंज्ञक ब्रह्म ही भयरूप हो
जाता है। अतः जो पुरुप एक द्विद्वानप्यविद्वानेवासौ योऽयमे- अभिन्न आत्मतत्त्वको नहीं देखता कमभिन्नमात्मतत्त्वं न पश्यति । ही है।
वह विद्वान् होनेपर भी अविद्वान् • उच्छेदहेतुदर्शनाद्धयुच्छेद्या- अपनेको उच्छेद्य ( नाशवान् )
माननेवालेको ही उच्छेदका कारण भिमतस्य भयं भवति । अनु- देखनेसे भय हुआ करता है ।
| उच्छेदका कारण तो अनुच्छेद्य च्छेयो धुच्छेदहेतुस्तनासत्युच्छेद- ( अविनाशी ) ही होता है । अतः
| यदि कोई उच्छेदका कारण न होता हेतावुच्छेद्य न तदर्शनकार्य भयं तो उच्छेद्य पदार्थोंमें उसके देखनेसे
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अनु० ७ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
नागम्यते नूनं तदस्ति भयकारण
युक्तम् । सर्व च जगद्भयवद्- | होनेवाला भय सम्भव नहीं था । दृश्यते । तस्माज्जगतो भयदर्श - किन्तु सारा ही संसार भययुक्त देखा जाता है । अतः जगत्को भय होता देखनेसे जाना जाता है कि उसके भयका कारण उच्छेदका हेतुभूत किन्तु स्वयं अनुच्छेद्यरूप ब्रह्म है, जिससे कि जगत् भय मानता है । इसी अर्थ में यह श्लोक भी है ॥ १ ॥
मुच्छेदहेतुरनुच्छेद्यात्मकं यतो जंगद्विभेतीति । तदेतस्मिन्नप्यर्थ
एप श्लोको भवति ॥ १ ॥
इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यां सप्तमोऽनुवाकः ॥ ७ ॥
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अष्टम अनुवाक
Aarth निरतिशयत्वकी मीमांसा |
भीषास्माद्वातः पवते । भीषोदेति सूर्यः । भीषास्मादवेन्द्रश्च । मृत्युर्धावति पञ्चम इति । सैषानन्दस्य मीमा सा भवति । युवा स्यात्साधुयुवाध्यायक आशिष्ठो दृढिष्ठो बलिष्ठस्तस्येयं पृथिवी सर्वा वित्तस्य पूर्णा स्यात् । स एको मानुष आनन्दः । ते ये शतं मानुषा आनन्दाः ॥ १ ॥
स एको मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दः । श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य । ते ये शतं मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दाः । स एको देवगन्धर्वाणामानन्दः । श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य । ते ये शतं देवगन्धर्वाणामानन्दाः । स एकः पितॄणां चिरलोकलोकानामानन्दः । श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य । ते ये शतं पितॄणां चिरलोकलोकानामानन्दाः । स एक आजानजानां देवानामानन्दः ॥ २ ॥
श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य । ते ये शतमाजानजानां देवानामानन्दाः । स एकः कर्मदेवानां देवानामानन्दः । ये कर्मणा देवानपियन्ति । श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य । ते ये शतं कर्मदेवानां देवानामानन्दाः । स एको देवा
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अनु०८]
शाइरभाल्यार्थ
१७१
नामानन्दः । श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य । ते ये शतं देवानामानन्दाः । स एक इन्द्रस्यानन्दः ॥३॥
श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य । ते ये शतमिन्द्रस्यानन्दाः । स एको बृहस्पतेरानन्दः । श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य । ते ये शतं वृहस्पतेरानन्दाः । स एकः प्रजापतेरानन्दः । श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य । ते ये शतं प्रजापतेरानन्दाः । स एको ब्रह्मण आनन्दः । श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य ॥ ४॥
इसके भयसे वायु चलता है, इसीके भयसे सूर्य उदय होता है तथा इसीके भयसे अग्नि, इन्द्र और पाँचवाँ मृत्यु दौड़ता है। अब यह [इस ब्रह्मके ] आनन्दकी मीमांसा है-साधु खभाववाला नवयुवक, वेद पढ़ा हुआ, अत्यन्त आशावान् [ कभी निराश न होनेवाला ] तथा अत्यन्त दृढ़ और बलिष्ट हो एवं उसीकी यह धन-धान्यसे पूर्ण सम्पूर्ण पृथिवी भी हो । [ उसका जो आनन्द है ] वह एक मानुष आनन्द है; ऐसे जो सौ मानुष आनन्द हैं ॥१॥ वही मनुष्य-गन्धर्वोका एक आनन्द है तथा वह अकामहत (जो कामनासे पीड़ित नहीं है उस) श्रोत्रियको भी प्राप्त है । मनुष्य-गन्धर्वोके जो सौ आनन्द हैं वही देवगन्धर्वका एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रियको भी प्राप्त है । देवगन्धोंके जो सौ आनन्द हैं वही नित्यलोकमें रहनेवाले पितृगणका एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रियको भी प्राप्त है। चिरलोकनिवासी पितृगणके जो सौ आनन्द हैं वही आजानज देवताओंका एक आनन्द है ॥२॥ और वह अकामहत श्रोत्रियोंको भी प्राप्त है । आजानज देवताओंके जो सौ आनन्द हैं वहीं कर्मदेव देवताओंका, जो कि [ अग्निहोत्रादि ] कर्म करके देवत्वको प्राप्त होते हैं, एक आनन्द है और
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तैत्तिरीयोपनिषद् निरीगोपनि
[वल्ली २
वह अकामहत श्रोत्रियको भी प्राप्त है। कर्मदेव देवताओंके .जो सौ आनन्द हैं वही देवताओंका एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रियको भी प्राप्त है । देवताओंके जो सौ आनन्द हैं वही इन्द्रका एक आनन्द है ॥ ३ ॥ तथा वह अकामहत श्रोत्रियको भी प्राप्त है । इन्द्रके जो सौ आनन्द हैं वही बृहस्पतिका एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रियको भी प्राप्त है । वृहस्पतिके जो सौ आनन्द हैं वही प्रजापतिका एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रियको भी प्राप्त है। प्रजापतिके जो सौ आनन्द हैं वही ब्रह्माका एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रियको भी प्राप्त है ।। २-१ ॥ भीपा भयेनासाद्वातः पवते।। इसकी भीति अर्थात् भयसे वायु
__भीपोदेति सर्यः चलता है, इसीकी भीतिसे सूर्य नमानुशासनम्
उदित होता है और इसके भयसे भीपासादग्निश्चेन्द्रश्च ही अग्नि, इन्द्र तथा पाँचवाँ मृत्यु मृत्युर्धावति पश्चम इति । वाता- दौड़ता है। वायु आदि देवगण दयो हि महार्हाः स्वयमीश्वरा
परमपूजनीय और स्वयं समर्थ होने
पर भी अत्यन्त श्रमसाध्य चलने सन्तः पवनादिकार्येष्वायासबहु- आदिके कार्यों नियमानुसार प्रवृत्त लेषु नियताः प्रवर्तन्ते । तय हो रहे हैं। यह बात उनका कोई
| शासक होने पर ही सम्भव है। प्रशास्तरि सति; यसान्नियमेन क्योंकि उनकी नियमसे प्रवृत्ति होती तेषां प्रवर्तनम् । तसादस्ति भर- है इसलिये उनके भयका कारण और कारणं तेषां प्रशास्त ब्रह्म ।
उनपर शासन करनेवाला ब्रह्म है।
| जिस प्रकार राजाके भयसे सेवक यतस्ते भृत्या इव राज्ञोऽस्मा- लोग अपने-अपने कामोंमें लगे रहते ब्राह्मणो भरोत माना है उसी प्रकार वे इस ब्रह्मके भयसे
। प्रवृत्त होते हैं, वह उनके भयका भयंकारणमानन्दं ब्रह्म। . कारण ब्रह्म आनन्दखरूप है। : १. पूर्वोक्त यायु आदिके क्रमसे गणना किये जानेपर पाँचवाँ होनेके कारण मृत्युको पाँचवाँ कहा है।
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अनु० ८ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
१७३
उस इस ब्रह्मके आनन्दकी यह
तस्यास्य ब्रह्मण आनन्दस्यैषा मीमांसा विचारणा
ब्रह्मानन्दश
-
वह
मीमांसा - विचारणा है । उस लोचनम् भवति । किमान आनन्दकी क्या बात विचारणीय है, इसपर कहते हैं— 'क्या न्दस्य मीमांस्यमित्युच्यते । आनन्द लौकिक सुखको भाँति किमानन्दो विपयविपयिसंबन्ध - विपय और विपयको ग्रहण करनेंजनितो लौकिकानन्दवदाहोखित् । वालेके सम्बन्धसे होनेवाला है अथवा स्वाभाविक इत्येवमेपानन्दस्य स्वाभाविक ही है ?' इस प्रकार यही उस आनन्दकी मीमांसा है ।
मीमांसा ।
बुद्धिगम्य
शक्यते ।
तत्र लौकिक आनन्दो बाह्या- उसमें जो लौकिक आनन्द बाह्य ध्यात्मिक साधनसंपत्तिनिमित्त और शारीरिक साधन-सम्पत्तिके कारण उत्कृष्ट गिना जाता है उत्कृष्टः । स य एप निर्दिश्यते ब्रह्मानन्दके ज्ञानके लिये यहाँ ब्रह्मानन्दानुगमार्थम् । अनेन हि उसीका निर्देश किया जाता है । प्रसिद्धेनानन्देन व्यावृत्तविषय | इस प्रसिद्ध आनन्दके द्वारा ही जिसकी बुद्धि विपयोंसे हटी हुई आनन्दोऽनुगन्तुं है उस ब्रह्मवेत्ताको अनुभव होनेवाले
आनन्दका ज्ञान हो सकता है ।
लौकिकोऽप्यानन्दो ब्रह्मानन्दलौकिक आनन्द भी ब्रह्मानन्दका स्यैव मात्रा अविद्यया तिरस्क्रिय- ही अंश है। अविद्यासे विज्ञानके माणे विज्ञान उत्कृष्यमाणायां | तिरस्कृत हो जानेपर और अविद्याका चाविद्यायां ब्रह्मादिभिः कर्म- | उत्कर्ष होनेपर प्राक्तन कर्मवश विपयादि साधनों के सम्बन्धसे ब्रह्मा वशाद्यथाविज्ञानं विषयादिसा- | आदि जीवोंद्वारा अपने-अपने विज्ञानाधनसंबन्धवशाच विभाव्यमानश्च नुसार भावना किया जानेके कारण लोकेऽनवस्थितो लौकिकः संप- ही वह लोकमें अस्थिर और लौकिक
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१७४
तैत्तिरीयोपनिषद्
[पल्ली २
द्यते । स एवाविद्याकामकर्माप- आनन्द हो जाता है । कामनाओंसे कर्पण मनुष्यगन्धर्वाद्युत्तरोत्तर- पराभूत न होनेवाले विद्वान् श्रोत्रियभूमिप्वकामहतचिद्वन्ट्रोत्रियन-को प्रत्यक्ष अनुभव होनेवाला यह
ब्रह्मानन्द ही मनुष्य-गन्धर्व आदि त्यक्षो विभाज्यते शतगुणोत्तरो- आगे-आगेकी भूमियोंमें हिरण्यगर्भत्तरोत्कर्पण यावद्धिरण्यगर्भस्य पर्यन्त अविधा, कामना और कर्मका ब्रह्मण आनन्द इति । निरस्ते हास होनसे उत्तरोत्तर सौ-सौ गुने
उत्कर्षसे आविर्भूत होता है । तथा त्वविद्याकृते विषयविपयिविभागे
विद्याद्वारा अविद्याजनित विषय-विषयिविद्यथा स्वाभाविक परिपूर्ण विभागके निवृत्त हो जानेपर यह एक आनन्दोऽद्वैतो भवतीत्येत-खाभाविक परिपूर्ण एक और अद्वैत मर्थ विभावयिष्यन्नाह ।
आनन्द हो जाता है-इसी अर्थशो
समझाने के लिये श्रुति कहती है. युवा प्रथमवयाः। साधुयुवेति जो युवा अर्थात् पूर्ववयस्क,
साधुयुवा अर्थात् जो साधु भो हो और साधुश्चासौ युवा चेति यूनो युवा भी इस प्रकार साधुयुवा विशेषणम् । युवाप्यसाधुर्भवति शब्द 'युवा' का विशेषण है; लोकमें
युवा भी असाधु हो सकता है और साधुरप्ययुवातो विशेषणं युवा साधु भी अयुवा हो सकता है, स्यात्साधुयुवेति । अध्यायको- हो' इस प्रकार विशेषणरूपसे कहा है।
इसीलिये 'जो युवा हो-साधुयुवा .ऽधीतवेदः। आशिष्ठ आशास्त- तथा अध्यायक-वेद पढ़ा हुआ, .
आशिष्ठः-अत्यन्त आशावान्, तमः । दृढिष्ठो दृढतमः। वलिछो इद्विष्ठः-अत्यन्त दृढ़ और बलिष्ठबलवत्तमः। एवमाध्यामिक अति बलवान् होइस प्रकार जो
इन आध्यात्मिक साधनोंसे सम्पन्न साधनसंपन्नः तस्येयं पृथिव्युर्वी हो; और उसीकी, यह धनसे अथाद
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अनु० ८ ]
नेन दृष्टार्थेनादृष्टार्थेन च कर्म साधनेन संपन्ना पूर्णा राजा पृथिवीपतिरित्यर्थः । तस्य च य आनन्दः स एको मानुषो मनुप्याणां प्रकृष्ट एक आनन्दः ।
सर्वा वित्तस्य वित्तेनोपभोगसाध उपभोगके साधनसे तथा लौकिक और पारलौकिक कर्मके साधनसे सम्पन्न सम्पूर्ण पृथिवी हो- अर्थात् जो राजा यानी पृथिवीपति हो; उसका जो आनन्द है वह एक मानुष आनन्द यानी मनुष्योंका एक प्रकृष्ट आनन्द है ।
ते ये शतं मानुषा आनन्दाः
ऐसे जो सौ मानुप आनन्द हैं वही मनुष्य - गन्धर्वोका एक आनन्द स एको मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दः। है । मानुप आनन्दसे मनुष्यगन्धर्वो
शाङ्करभाष्यार्थं
मानुपानन्दाच्छतगुणेनोत्कृष्टो
मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दो भवति ।
का आनन्द सौ गुना उत्कृष्ट होता है । जो पहले मनुष्य होकर फिर कर्म और उपासनाकी विशेषतासे raat प्राप्त हुए हैं वे मनुष्यमनुष्याः सन्तः कर्मविद्याविशेषा- गन्धर्व कहलाते हैं। वे अन्तर्धानादि
१७५
गन्धर्वत्वं प्राप्ता मनुष्यगन्धर्वाः ।
ते
की शक्तिसे सम्पन्न तथा सूक्ष्म शरीर और इन्द्रियोंसे युक्त होते हैं, इसलिये ह्यन्तर्धानादिशक्तिसंपन्नाः उन्हें [ शीतोष्णादि द्वन्द्वोंका ] थोड़ा
घाताल्पत्वं तेषां द्वन्द्वप्रतिघात
प्रतिघात होता है तथा वे द्वन्द्वोंका सामना करनेवाले सामर्थ्य और साधन से सम्पन्न होते हैं । शक्तिसाधनसंपत्तिश्च । ततो- अतः उस शीतोष्णादि द्वन्द्वसे प्रतिहत न होनेवाले तथा [ उसका प्रतिहन्यमानस्य प्रतीकारवतो | आघात होनेपर ] उसका प्रतीकार करने में समर्थ मनुष्यगन्धर्वको चित्तप्रसाद प्राप्त होता है और उस तत्प्रसादविशेषात्सुखविशेपाभि- | प्रसादविशेपसे उसके सुखविशेपकी
मनुष्यगन्धर्वस्य स्याच्चित्तप्रसादः।
सूक्ष्मकार्यकरणाः । तस्मात्प्रति
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१७६
तैत्तिरीयोपनिषद्
[.वल्ली २
व्यक्तिः । एवं पूर्वसाः पूर्वस्या अभिव्यक्ति होती है । इस प्रकार भूमेरुत्तरस्यामुत्तरस्यां भ्रमौ पूर्व-पूर्व भूमिको अपेक्षा आगे-आगे
की भूमिमें प्रसादको विशेषता होनेप्रसादविशेषतः शतगुणेनानन्दो- मोमोगाने
| से सौ-सौ गुने आनन्दका उत्कर्ष स्कर्ष उपपद्यते ।
होना सम्भव ही है। प्रथमं त्वकामहताग्रहणं मनु- [ आगेके सब वाक्योंके साथ
रहनेवाला ] 'श्रोत्रियस्य चाकामह
तस्य' यह वाक्य पहले [मानुप प्यविषयमोगकामानमिहतस्य
आनन्दके साथ ] इसलिये ग्रहण
नहीं किया गया कि विषय-भोग श्रोत्रियस्य मनुष्यानन्दाच्छत- और कामनाओंसे व्याकुल न रहने
वाले श्रोत्रियके आनन्दका उत्कर्ष गुणेनानन्दोत्कर्षो मनुष्यगन्धर्वेण मानुप आनन्दकी अपेक्षा सौ गुना
अर्थात् मनुष्यगन्धर्वके आनन्दके . तुल्यो वक्तव्य इत्येवमर्थम् । तुल्य वतलाना है । श्रुतिमें 'साधु
युवा' और 'अध्यायक' ये दो विशेषण साधुयुवाध्यायक इति श्रोत्रिय
| [ सार्वभौम राजाका ] श्रोत्रियत्व
और निष्पापत्व प्रदर्शित करनेके
लिये ग्रहण किये जाते हैं। इन्हें स्वाजिनत्वे गृह्यते । ते ह्यर्वि-आगे भी सबके साथ समान भावसे
समझना चाहिये । विषयके उत्कर्ष शिष्टे सर्वत्र । अकामहतत्वं तु और अपकर्पसे सुखका भी उत्कर्ष
और अपकर्ष होता है [किन्तु. विषयोत्कर्षापकर्पतः सुखोत्कर्षा- कामनारहित पुरुपके लिये सुखका
| उत्कर्ष या अपकर्प हुआ नहीं.
करता] इसीलिये अकामहतत्वकी पकपोय विशेष्यते । अताकाम- विशेषता है। और इसीसे
'अकामहत' पद ग्रहण किया गया हतग्रहणम्, तद्विशेषतः शतगुण-1 है । अतः उससे विशिष्ट पुरुषके.
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SAnulu.
अनु०८]
शाङ्करभाप्यार्थ
१७७
-
JA--
--
सुखोत्कर्पोपलब्धेरकामहतत्वस्य सुखका सौगुना उत्कर्ष देखा जाता
है। अतः अकामहतत्वको परमानन्दपरमानन्दप्राप्तिसाधनत्वविधाना
की प्राप्तिका साधन बतलानेके लिये 'अकामहत' विशेषण ग्रहण किया
है । और सबकी व्याख्या पहले की थम् । व्याख्यातमन्यत् । म्यायातमन्यत्
जा चुकी है। देवगन्धर्वा जातित एच ।। देवगन्धर्व-जो जन्मसे ही गन्धर्व चिरलोकलोकानामिति पितृणां
हों 'चिरलोकटोकानाम्' (चिरस्थायी
लोकमें रहनेवाले ) यह पितृगणका विशेषणम् । चिरकालस्थायी विशेषण है । जिन पितृगणका लोको येषां पितणां ते चिर- चिरस्थायी लोक है वे चिरलोक
लोक कहे जाते हैं। 'आजान' लोकलोका इति । आजान इति | देवलोकका नाम है, उस आजानमें देवलोकरतसिन्नाजाने जाता आ-जो उत्पन्न हुए हैं वे देवगण जानजा देवाः सातकर्मविशेपतो।
'आजानज' हैं, जो कि स्मार्त कर्म
विशेपके कारण देवस्थानमें उत्पन्न देवस्थानेषु जाता। __ कर्मदवा ये वैदिकेन कर्मणा- जो केवल अग्निहोत्रादि वैदिक ग्निहोत्रादिना केवलेन देवान-1
कर्मले देवभावको प्राप्त हुए हैं वे
'कर्मदेव' कहलाते हैं । जो तैंतीस पियन्ति । देवा इति त्रयस्त्रिंश- देवगण यज्ञमें हविर्भाग लेनेवाले हैं द्धविर्भुजः । इन्द्रस्तेपां खामी | वे ही यहाँ 'देव' शब्दसे कहे गये हैं। तस्साचार्यों बृहस्पतिः । प्रजा
उनका खामी इन्द्र है और इन्द्रका
गुरु बृहस्पति है । 'प्रजापति' का पतिविराट् | त्रैलोक्यशरीरो ब्रह्मा | अर्थ विराट है, तथा त्रैलोक्यशरीरसमष्टिव्यष्टिरूपः संसारमण्डल- धारी ब्रह्मा है जो समष्टि-व्यष्टिरूप व्यापी।
और समस्त संसारमण्डलमें व्याप्त है। - यत्रैत आनन्दभेदा एकतां जहाँ ये आनन्दके भेद एकताको
प्राप्त होते हैं [अर्थात् एक गच्छन्ति धर्मश्च तनिमित्तो ज्ञानं ही गिने जाते हैं ] तथा जहाँ
२३-२४
हुए हैं।
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१७८
तैत्तिरीयोपनिपद्
[ वल्ली २
व तद्विपयमकामहतत्वं च नि- उससे होनेवाले धर्म एवं ज्ञान तथा
तद्विपयक अकामहतत्व सवसे बढ़े रतिशयं यत्र स एप हिरण्यगर्भो
| हुए हैं वह यह हिरण्यगर्भ ही ब्रह्मा ब्रह्मा, तस्यैप आनन्दः श्रोत्रि
है । उसका यह आनन्द श्रोत्रिय,
निष्पाप और अकामहत पुरुपद्वारा येणावृजिनेनाकामहतेन च सर्वतः । सर्वत्र प्रत्यक्ष उपलब्ध किया जाता
है । इससे यह जाना जाता है कि प्रत्यक्षमुपलभ्यते । तस्मादेतानि निष्पापत्व, अकामहतत्व और त्रीणि साधनानीत्यवगम्यते । श्रोत्रियत्व ] ये तीन उसके साधन
हैं। इनमें श्रोत्रियत्व और निष्पापत्व तत्र श्रोत्रियत्वावृजिनत्वे | तो नियत (न्यूनाधिक न होनेवाले)
धर्म हैं किन्तु अकामहतत्वका नियते अकामहतत्वं तूत्कृष्यत उत्तरोत्तर उत्कर्ष होता है; इसलिये इति प्रकृष्टसाधनतावगम्यते । जाता है।
| यह प्रकृष्ट-साधनरूपसे जाना । तस्याकामहतस्वप्रकर्पतश्चोपल- उस अकामहतत्वके प्रकर्षसे भ्यमानः श्रोत्रियप्रत्यक्षो ब्रह्मण
.. उपलब्ध होनेवाला तथा श्रोत्रियको
प्रत्यक्ष अनुभव होनेवाला वह ब्रह्माका आनन्दो यस्य परमानन्दस्य आनन्द जिस परमानन्दकी मात्रा मात्रैकदेशः । "एतस्यैवानन्द- अर्थात् केवल एकदेशमात्र है, जैसा स्थान्यानि भूतानि मात्रामुप
कि "इस आनन्दके लेशसे ही अन्य
प्राणी जीवित रहते है" इस अन्य जीवन्ति" (वृ० उ० ४।३
श्रुतिसे सिद्ध होता है, वह यह ३२) इति श्रुत्यन्तरात् । स एष हिरण्यगर्भका आनन्द, जिसआनन्दो यस्य मात्रा समुद्राम्भसमीदोंके समान
की मात्राएँ ( लेशमात्र आनन्द) इव विग्रुपः प्रविभक्ता यत्रैकतां विभक्त हो पुनः उसमें एकत्वको
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अनु०८]
शाङ्करभाप्यार्थ
१७९
गताः स एप परमानन्दः स्वा-प्राप्त हुई हैं वही अद्वैतरूप होने
से खाभाविक परमानन्द है । इसमें भाविकोऽद्वैतत्वादानन्दानन्दि
| आनन्द और आनन्दीका अभेद नोश्चाविभागोत्र ॥१-४॥
ब्रमात्मैक्य-दृष्टिका उपसंहार तदेतन्मीमांसाफलमुपसंहियते- अब इस मीमांसाके फलका
उपसंहार किया जाता हैस यश्चायं पुरुषे यश्वासावादित्ये स एकः । स य एवंविदस्माल्लोकात्प्रेत्य । एतमन्नमयमात्मानमुपसंक्रामति । एतं प्राणमयमात्मानमुपसंक्रामति । एतं मनोमयमात्मानमुपसंक्रामति । एतं विज्ञानमयमात्मानमुपसंक्रामति । एतमानन्दमयमात्मानमुपसंक्रामति । तदप्येष श्लोको भवति ॥ ५॥
वह, जो कि इस पुरुष ( पञ्चकोशात्मक देह ) में है और जो यह आदित्यके अन्तर्गत है, एक है । वह, जो इस प्रकार जाननेवाला है, इस लोक ( दृष्ट और अदृष्ट विपयसमूह ) से निवृत्त होकर इस अन्नमय आत्माको प्राप्त होता है [ अर्थात् विषयसमूहको अन्नमय कोशसे पृथक् नहीं देखता ] । इसी प्रकार वह इस प्राणमय आत्माको प्राप्त होता है, इस मनोमय आत्माको प्राप्त होता है, इस विज्ञानमय आत्माको प्राप्त होता है एवं इस आनन्दमय आत्माको प्राप्त होता है। उसीके विषयमें यह श्लोक है ॥ ५॥ यो गुहायां निहितः परमे। जो आकाशसे लेकर अन्नमय
कोशपर्यन्त कार्यकी रचना करके अमात्मैक्योप- व्योम्न्याकाशादि- उसमें अनुप्रविष्ट हुआ परमाकाशके संहारः कार्य सृष्टान्नमया- भीतर बुद्धिरूप गुहामें स्थित है
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली २
न्तं तदेवानुप्रविष्टः स य इति उसीका 'स यः' (बह जो) इन
पदोद्वारा निर्देश किया जाता है। निर्दिश्यते । कोऽसौ ? अयं पुरुपे, वह कौन है ? जो इस पुरुषमें है यश्वासावादित्ये यः परमानन्दः और जो श्रात्रियक लिय प्रत्यक्ष
बतलाया हुआ परमानन्द आदित्यमें श्रोत्रियप्रत्यक्षो निर्दिष्टो यस्यैक- है। जिसके एक देशके आश्रयसे ही
सुखके पात्रीत बला आदि जीव देशं ब्रह्मादीनि भूतानि सुखा-जीवन धारण करते हैं उसी आनन्दहोण्युपजीवन्ति स चश्वासावा- को 'स यश्चातावादित्य' इन पदों
द्वारा निर्दिष्ट किया जाना है। दित्य इति निर्दिश्यते । स एको | भिन्न प्रदेशस्य घटाकाश और भिन्न प्रदेशस्थघटाकामित्वका महाकाशके एकात्यके समान {उन
दोनों उपाधियोंमें स्थित ] वह
आनन्द एक है। नतु तन्निर्देशे स यश्चायं शंका--किन्तु उस आनन्दका
। निर्देश करने में वह जो इस पुरुपने पुरुष इत्यविशेषतोऽध्यात्म न
है इस प्रकार सामान्यरूपसे अध्यात्म युक्तो निर्देशः, पश्चायं दक्षिणे- पुरुषका निर्देश करना उचित नहीं
है, बल्कि 'जो इस दक्षिण नेत्रमें है' ऽक्षनिति तुयुक्ता, प्रसिद्धत्वात् । इस प्रकार कहना ही उचित है,
क्योंकि ऐसा ही प्रसिद्ध है। न, पराधिकारात् । परो समाधान-नहीं, क्योंकि यहाँपर
| आत्माका अधिकरण है। 'अदृश्येह्यात्मात्राधिकृतोऽदृश्येऽनात्म्ये । ऽनात्म्ये 'भीपास्माद्वातः पवते तथा
'सैपानन्दस्य मीमांसा' आदि वाक्योंभीपास्माद्वातः पवते सैपानन्दस्य के अनुसार यहाँ परमात्माका ही
(प्रकरण है। अतः जिसका कोई मीमांसेति । न यकस्मादप्रकृतो प्रसङ्ग नहीं है उस [ दक्षिणनेत्रस्थ
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अनु० ८ ]
युक्तो निर्देष्टुम् । परमात्मविज्ञानं
च विवक्षितम् । तस्मात्पर एव
शाङ्करभाष्यार्थ
निर्दिश्यते ' स एक:' इति ।
नन्वानन्दस्य मीमांसा प्रकृता
तस्या अपि फलमुपसंहर्तव्यम् ।
1
अभिन्नः स्वाभाविक आनन्दः
परमात्मैव न विषयविपयि
संबन्धजनित इति ।
ननु तदनुरूप एवायं निर्देशः
' स यश्चायं पुरुषे यश्चासावादित्ये
स एकः' इति भिन्नाधिकरणस्थ
विशेषोपमर्देन । नन्वेवमप्यादित्यविशेपग्रहण
मनर्थकम् ।
नानर्थकम्, उत्कर्षापकर्षापोहार्थत्वात् । द्वैतस्य हि मूर्तामूर्तलक्षणस्य पर उत्कर्षः सवि
१८१
1
पुरुष ] का अकस्मात् निर्देश करना उचित नहीं है । यहाँ परमात्माका विज्ञान वर्णन करना ही अभीष्ट है; इसलिये 'वह एक है' इस वाक्यसे परमात्माका ही निर्देश किया जाता है ।
शंका- यहाँ तो आनन्दकी मीमांसाका प्रकरण है, इसलिये उसके फलका उपसंहार भी करना ही चाहिये, क्योंकि अखण्ड और खाभाविक आनन्द परमात्मा ही है, वह विपय और विपयीके सम्बन्धसे होनेवाला आनन्द नहीं है ।
मध्यस्थ--‘जो आनन्द इस पुरुषमें है और जो इस आदित्यमें है वह एक है' इस प्रकार भिन्न आश्रयोंमें स्थित विशेषका निराकरण करके जो निर्देश किया गया है वह तो इस प्रसंगके अनुरूप ही है ।
शंका- किन्तु, इस प्रकार भी 'आदित्य' इस विशेष पदार्थका ग्रहण करना व्यर्थ ही है ।
समाधान - उत्कर्ष और अपकर्षका निषेध करनेके लिये होनेके कारण यह व्यर्थ नहीं है। मूर्त और अमूर्त्तरूप द्वैतका परम उत्कर्ष सूर्यके अन्तर्गत अभ्यन्तर्गतः स चेत्पुरुपगत- | है; वह यदि पुरुपगत विशेपके वाघ
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१८२
तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली २
विशेपोपमर्दैन परमानन्दमपेक्ष्य द्वारा परमानन्दकी अपेक्षा उसके
तुल्य ही सिद्ध होता है तो उस समो भवति न कश्चिदुत्कर्पोऽप
गतिको प्राप्त हुए पुरुषका कोई कर्पो वा तां गतिं गतस्येत्यभयं उत्कर्ष या अपकर्ष नहीं रहता और प्रतिष्ठां विन्दत इत्युपपन्नम्। '
वह निर्भय स्थितिको प्राप्त कर लेता
है; अतः यह कथन उचित ही है। अस्ति नास्तीत्यनुप्रश्नो व्या- ब्रह्म है या नहीं इस अनुप्रइनकी द्वितीयानुप्रश्न- ख्यातः । कार्यरस
- व्याख्या कर दी गयी। कार्यरूप
- रसकी प्राप्ति, प्राणन, अभय-प्रतिष्टा विचारः लाभप्राणनाभयप्र- ' और भयदर्शन आदि युक्तियास वह तिष्ठाभयदर्शनोपपत्तिभ्योऽस्त्येव आकाशादिका कारणरूप ब्रह्म है
ही-इस प्रकार एक अनुप्रश्नका तदाकाशादिकारणं ब्रह्मेत्यपा-!
निराकरण किया गया। दूसरे दो कृतोऽनुप्रश्न एकः । द्वावन्याव- अनुप्रश्न विद्वान् और अविद्वान्की नुप्रश्नौ विद्वदलियो ब्रह्मप्राप्ति और ब्रह्मकी अप्राप्तिके
विषयमें हैं। उनमें अन्तिम अनुप्रश्न प्राप्तिविषयौ तत्र विद्वान्समक्षुते | यही है कि विद्वान् ब्रह्मको प्राप्त न समश्नुत इत्यनुप्रश्नोऽन्त्यस्त
| होता है या नहीं ?' उसका निरा
करण करनेके लिये कहा जाता है। दपाकरणायोच्यते । मध्यमोऽनु- मध्यम अनुप्रश्नका निराकरण तो प्रश्नोऽन्त्यापाकरणादेवापाकृत
अन्तिमके निराकरणसे ही हो
जायगा; इसलिये उसके निराकरणका इति तदपाकरणाय न यत्यते । यत्न नहीं किया जाता।
स यः कश्चिदेवं यथोक्तं ब्रह्म इस प्रकार जो कोई उत्कर्प और उत्सृज्योत्कर्षापकर्षमद्वैतं सत्यं
| अपकर्पको त्यागकर 'मैं ही उपर्युक्त
सत्य ज्ञान और अनन्तरूप अद्वैत ब्रह्म ज्ञानमनन्तमसीत्येवं वेत्ती-हूँ' ऐसा जानता है वह एवंवित्
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अनु०८]
शाङ्करभाष्यार्थ
त्येवंवित् । एवंशब्दस्य प्रकृत- (इस प्रकार जाननेवाला) है, क्योंकि परामर्शार्थत्वात् । स किम् ? का परामर्श (निर्देश) करनेके
"एवम्' शब्द प्रसंगमें आये हुए पदार्थअसाल्लोकात्त्य दृष्टादृष्टेष्टवि- लिये हुआ करता है । वह एवंवित्
| क्या [ करता है ?] इस लोकसे पयसमुदायो ह्ययं लोकस्तस्सा- | जाकर--दृष्ट और अदृष्ट इष्ट विपयोंनोकामयावरिपोका समुदाय ही यह लोक है, उस
इस लोकसे प्रेत्य-प्रत्यावर्तन करके भृत्वैतं यथाव्याख्यातमन्नमय-(लौटकर ) अर्थात् उससे निरपेक्ष मात्मानमुपसंक्रामति । विपयजात- होकर इस ऊपर व्याख्या किये हुए
अन्नमय आत्माको प्राप्त होता है। मन्नमयात्पिण्डात्मनो व्यतिरिक्तं | अर्थात् वह विपयसमूहको अन्नमय न पश्यति । सर्व स्थूलभूतमन्न
शरीरसे भिन्न नहीं देखता; तात्पर्य
यह है कि सम्पूर्ण स्थूल भूतवर्गको मयमात्मानं पश्यतीत्यर्थः ।। | अन्नमय शरीर ही समझता है।
ततोऽभ्यन्तरमेतं प्राणमयं | उसके भीतर वह सम्पूर्ण अन्नमय सर्वान्नमयात्मस्थमविभक्तम । कोशोंमें स्थित विभागहीन प्राणमय
आत्माको देखता है। और फिर अर्थतं मनोमयं विज्ञानमयमा- क्रमशः इस मनोमय, विज्ञानमय और नन्दमयमात्मानमुपसंक्रामति । आनन्दमय आत्माको प्राप्त होता है। अथादृश्येऽनात्म्ये निरुक्तेऽनिल
तत्पश्चात् वह इस अदृश्य, अशरीर,
अनिर्वचनीय, और अनाश्रय आत्मामें यनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते । । | अभयस्थिति प्राप्त कर लेता है।
तत्रैतच्चिन्त्यम् । कोऽयमेवं- अब यहाँ यह विचारना है कि तृतीयानुप्रश्न- वित्कथं वा संक्राम- यह इस प्रकार जाननेवाला है कौन ?
विचारः तीति । कि परमा- और यह किस प्रकार संक्रमण करता दात्मनोऽन्यः संक्रमणकर्ता प्रवि- है ? वह संक्रमणकर्ता परमात्मासे भक्त उत स एवेति । . भिन्न है अथवा खयं वही है ।
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली २
किं ततः ?
। पूर्व ०-इस विचारसे लाभ
क्या है ? यद्यन्यः स्याञ्छृतिविरोधः ।' सिद्धान्ती-यदि वह उससे भिन्न "तत्सृष्ट्वा तदेवानुनाविशत" है तो “उसे रचकर उसी अनुप्रविष्ट (तै० उ०२।६।१)"अ- हो गया" "यह अन्य है और मैं न्योऽसावन्योऽहमस्मीति । न सक
अन्य है-इस प्रकार जो कहता है
वह नहीं जानता" "एक ही वेद" (वृ० उ० १ । ४।१०)
अद्वितीय" "तु वह है" इत्यादि "एकमेवाद्वितीयस्" (छा० उ०1.
श्रुतियोंसे विरोध होगा। और यदि ६।२ । १) "तत्वमसि' वह स्वयं हो आनन्दमय आत्माको (छा० उ०६१८-१६) इति। प्राप्त होता है तो उस [ एक ही ] अथ स एव, आनन्दमयमात्मानम में कर्म और कर्तापन दोनोंका होना पसंक्रामतीति कर्मकर्तृत्वानुप- ' असम्भव है, तथा परमात्माको ही पत्तिः, परस्यैव च संसारित्वं संसारित्वकी प्राप्ति अथवा उसके पराभावो वा।
परमात्मत्यका अभाव सिद्ध होता है। यधुभयथा प्राप्तो दोपो न पूर्व०-यदि दोनों ही अवस्थाओं
| में प्राप्त होनेवाले दोपका परिहार पारहत शक्यत इति व्यथा नहीं किया जा सकता तो उसका चिन्ता । अथान्यतरसिपक्षे विचार करना व्यर्थ है और यदि
| किसी एक पक्षको स्वीकार कर लेनेसे दोपाप्राप्तिस्तृतीये वा पक्षेऽदष्टे दोपकी प्राप्ति नहीं होती अथवा
कोई तीसरा निर्दोष पक्ष हो तो उसे स एव शास्त्रार्थ इति व्यथैव ही शास्त्रका आशय समझना चाहिये। चिन्ता।
| ऐसो अवस्थामें भी विचार करना
| व्यर्थ ही होगा। न तनिर्धारणार्थत्वात् । सत्यं सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि यह
. उसका निश्चय करनेके लिये है।
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अनु०८]
शारभाण्यार्थ
प्राप्तो दोपो न शक्यः परिहर्तु- यह ठीक है कि इस प्रकार प्राप्त
होनेवाला दोप निवृत्त नहीं किया मन्यतरसिंस्तृतीये या पक्षेऽदुष्टे
| जा सकता तथा उपर्युक्त दोनों ज्वधृते व्यर्था चिन्ता स्थान तु
पक्षों से किसी एकका अथवा किसी
तीसरे निर्दोप पक्षका निश्चय हो सोऽवकृत इति तदवधारणार्थ- जानेपर भी यह विचार व्यर्थ ही
होगा । किन्तु उस पक्षका निश्चय त्वादर्थवत्येवैपा चिन्ता।
तो नहीं हुआ है; अतः उसका निश्चय करनेके लिये होनेके कारण
यह विचार सार्थक ही है। सत्यमर्थवती चिन्ता शास्त्रा- पूर्व-शास्त्रके तात्पर्यका निश्चय
करनेके लिये होनेसे तो सचमुच विधारणार्थत्वात् । चिन्तयसि यह विचार सार्थक है, परन्तु तू तो
केवल विचार ही करता है, निर्णय च त्वं न तु निर्णयसि,
तो कुछ करेगा नहीं। किन निर्णतव्यमिति वेद- सिद्धान्ती-निर्णय नहीं करना वचनम् ?
चाहिये-ऐसा क्या कोई वेदवाक्य है ?
पूर्व0-नहीं। कथं तर्हि ?
सिद्धान्ती-तो फिर निर्णय क्यों
नहीं होगा? बहुप्रतिपक्षत्वात् । एकत्ववादी पूर्व०-क्योंकि तेरा प्रतिपक्ष त्वम् , वेदार्थपरत्वाद्, बहवो हि ||
की बहुत है । वेदार्थपरायण होनेके
कारण तू तो एकत्ववादी है किन्तु नानात्ववादिनो वेदवाह्यास्त्व- तेरे प्रतिपक्षी वेदबाह्य नानात्ववादी
| बहुत हैं । इसलिये मुझे सन्देह है मातपक्षा। अता ममाशका न कि तू मेरी शङ्काका निर्णय नहीं निर्णेण्यसीति ।
कर सकेगा। ... एतदेव मे वस्त्ययनं यन्मा- सिद्धान्ती-तूने जो मुझे बहुत-से .
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[वल्ली२
तैत्तिरीयोपनिषद्
१८६
मेकयोगिनमनेकयोगिवहप्रतिप- अनेकत्ववादी प्रतिपक्षियोंसे युक्त
एकत्ववादी बतलाया है-यही बड़े क्षमात्थ । अतो जेष्यासि सवानमंगलकी बात है। अतः अब मैं
सबको जीत लूंगा; ले, मैं विचार आरभे च चिन्ताम् ।
आरम्भ करता हूँ। स एव तु स्यात्तद्भावस्स वि- वह संक्रमणकर्ता परमात्मा ही
है, क्योंकि यहाँ जीवको परमात्मपक्षितत्वात् । तद्विज्ञानेन परमा- भावकी प्राप्ति बतलानी अभीष्ट है।
'ब्रह्मवेत्ता परमात्माको प्राप्त कर लेता स्मभावो ह्यत्र विवक्षितो ब्रह्म- है' इस वाक्यके अनुसार यहाँ ब्रह्म
विज्ञानसे परमात्मभावकी प्राप्ति होती विदाप्नोति परमिति । न ह्यन्य-है-यही प्रतिपादन करना इष्ट है।
किसी अन्य पदार्थका अन्य पदार्थस्थान्यभावापत्तिरुपपद्यते । ननु भावको प्राप्त होना सम्भव नहीं है। तस्यापि तद्भावापत्तिरपन्नव ? यदि कहो कि उसका स्वयं अपने
खरूपको प्राप्त होना भी असम्भव न; अविद्याकृततादात्म्यापो
ही है, तो ऐसी बात नहीं है।
क्योंकि यह कथन केवल अविद्यासे हार्थत्वात् । या हि ब्रह्मविद्यया आरोपित अनात्म पदार्थोका निपेध
करनेके लिये ही है। [ तात्पर्य यह खात्मप्राप्तिरुपदिश्यते साविद्या- है कि] ब्रह्मविद्याके द्वारा जो
| अपने आत्मखरूपकी प्राप्तिका कृतस्थानादिविशेषात्मन आत्म- | उपदेश किया जाता है वह अविद्या
| कृत अन्नमयादि कोशरूप विशेषात्मात्वेनाध्यारोपितस्थानात्मनोऽपो-का अर्थात् आत्मभावसे आरोपित हार्था ।
किये हुए अनात्माका निषेध करनेके
लिये ही है। कथमेवमर्थतावगम्यते ? पूर्व०-उसका इस प्रयोजनके
| लिये होना कैसे जाना जाता है ?
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अनु०८]
शाकरभाष्यार्थ
१८७
विद्यामानोपदेशात् । विद्या- सिद्धान्ती-केवल ज्ञानका ही याच दृष्टं कार्यमविद्यानिवृत्ति
| उपदेश किया जानेके कारण ।
| अज्ञानकी निवृत्ति-यह ज्ञानका स्तचेह विद्यामात्रमात्मप्राप्तो प्रत्यक्ष कार्य है, और यहाँ आत्माकी साधनमुपदिश्यते ।
प्राप्तिमें वह ज्ञान ही साधन बतलाया
गया है। मार्गविज्ञानोपदेशवदिति चे- पर्व०-यदि वह मार्गविज्ञानके तदात्मत्वे विद्यामात्रसाधनोप
उपदेशके समान हो तो? [अब
इसीकी व्याख्या करते हैं- केवल देशोऽहेतुः । कस्मात् ? देशान्तर
| ज्ञानका ही साधनरूपसे उपदेश
किया जाना उसकी परमात्मरूपतामें प्राप्ती मार्गविज्ञानोपदेशदर्श- कारण नहीं हो सकता । ऐसा
क्यों है ? क्योंकि देशान्तरकी प्राप्तिके नात् । न हि ग्राम एव गन्तेति लिये भी मार्गविज्ञानका उपदेश होता
देखा गया है । ऐसी अवस्थामें ग्राम चेत् ?
ही गमन करनेवाला नहीं हुआ
करता-ऐसा माने तो? न, वैधात् । तत्र हि ग्राम- सिद्धान्ती-ऐसा कहना ठीक नहीं
| क्योंकि वे दोनों समान धर्मवाले नहीं विपयं विज्ञानं नोपदिश्यते ।
हैं। * [ तुमने जो दृष्टान्त दिया है] तत्प्राप्तिमार्गविपयमेवोपदिश्यते । उसमें ग्रामविषयक विज्ञानका उपदेश
नहीं दिया जाता, केवल उसकी
प्राप्तिके मार्गसे सम्बन्धित विज्ञान* ग्रामको जानेवाले और ब्रह्मको प्राप्त होनेवालेमें बड़ा अन्तर है। इसके सिवा प्रामको जानेवालेको जो मार्गके विज्ञानका उपदेश किया जाता है उसमें यह नहीं कहा जाता कि 'तू अमुक ग्राम है। परन्तु ब्रह्मज्ञानका उपदेश तो. 'तू ब्रहा है। इस अभेदसूचक वाक्यसे ही किया जाता है।
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१८८
तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली २
विज्ञानम् । न तथेह ब्रह्मविज्ञानं का ही उपदेश किया जाता है ।
उसके समान इस प्रसङ्गमें ब्रह्मव्यतिरेकेण साधनान्तरविषय विज्ञानसे भिन्न किसी अन्य साधन
सम्बन्धी विज्ञानका उपदेश नहीं विज्ञानमुपदिश्यते।
किया जाता। उक्तकर्मादिसाधनापेक्षं ब्रह्म
यदि कहो कि [ पूर्वकाण्डमें ]
कहे हुए कर्मकी अपेक्षावाला ब्रह्मज्ञान विज्ञानं परमाप्तौ साधनसप- परमात्माकी प्राप्तिमें साधनरूपसे
उपदेश किया जाता है, तो ऐसी दिश्यत इति चेन्नः नित्य- बात भी नहीं है, क्योंकि मोक्ष
नित्य है-इत्यादि हेतुओंसे इसका त्वान्मोक्षस्येत्यादिना प्रत्युक्त- पहले ही निराकरण किया जा चुका त्वात् । श्रुतिश्च तत्सृश्ट्वा तदेवा- प्रविष्ट हो गया' यह श्रुति भी कार्य
है । 'उसे रचकर वह उसीमें अनुनुप्राविशदिति कार्यस्थस्य तदा- में स्थित आत्माका परमात्मत्व प्रदर्शित
| करती है। अभय-प्रतिष्टाकी उपपत्तिस्मत्वं दर्शयति । अभयप्रतिष्ठोप- के कारण भी [उनका अभेद ही पत्तेश्च । यदि हि विद्यावान्खा- भिन्न किसी औरको नहीं देखता
मानना चाहिये। यदि ज्ञानी अपनेसे मनोऽन्यन्न पश्यति ततोऽभ तो वह अभयस्थितिको प्राप्त कर
लेता है-ऐसा कहा जा सकता प्रतिष्ठां विन्दत इति स्याद्भयहेतोः है, क्योंकि उस अवस्थामें भयके
हेतुभूत अन्य पदार्थकी सत्ता नहीं परस्यान्यस्याभावात् । अन्यस्य रहती । अन्य पदार्थ [अर्थात्
द्वैत ] के अविद्याकृत होनेपर चाविद्याकृतत्वे विद्ययावस्तुत्व- ही विद्याके द्वारा उसके अवस्तुत्व
दर्शनकी उपपत्ति हो सकती दर्शनोपपत्तिस्तद्धि द्वितीयस्य है । [भ्रान्तिवश प्रतीत होनेवाले ]
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अनु०८]
शाङ्करभाप्यार्थ
चन्द्रस्य सत्त्वं यदतैमिरिकेण द्वितीय चन्द्रमाकी वास्तविकता
यही है कि वह तिमिररोगरहित चक्षुष्मता न गृह्यते ।
नेत्रोंवाले पुरुपद्वारा ग्रहण नहीं
किया जाता। नैवं न गृह्यत इति चेत् ? पूर्व०-परन्तु द्वैतका ग्रहण न
होता हो-ऐसी बात तो है नहीं। न, सुपुप्तसमाहितयोर- सिद्धान्ती-ऐसा मत कहो,
क्योंकि सोये हुए और समाधिस्थ ग्रहणात् ।
पुरुषको उसका ग्रहण नहीं होता । सुपुप्तेऽग्रहणमन्यासक्तवदिति पूर्व०-किन्तुसुषुप्तिमें जो द्वैतका
अग्रहण है वह तो विपयान्तरमें चेत् ।
आसक्तचित्त पुरुपके अग्रहणके
समान है ? न, सर्वाग्रहणात् । जाग्रत्स्वम- सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि उस
समय तो सभी पदार्थोका अग्रहण योरन्यस्य ग्रहणात्सत्त्वमेवेति । है [ फिर वह अन्यासक्तचित्त कैसे
कहा जा सकता है ? ] यदि कहो चेन्नः अविद्याकृतत्त्वालाग्र
कि जाग्रत् और स्वप्नावस्थामें अन्य पदार्थोका ग्रहण होनेसे उनकी सत्ता
है ही, तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं; स्वमयो, यदन्यग्रहणं जाग्रत्स्वम
क्योंकि जाग्रत् और खप्न अविद्या
कृत हैं। जाग्रत् और खप्नमें जो अन्य योस्तदविद्याकृतमविद्याभावेऽभा-पदार्थका ग्रहण है वह अविद्याके
कारण है, क्योंकि अविद्याकी निवृत्ति वात् ।
| होनेपर उसका अभाव हो जाता है ? सुपुप्तेऽग्रहणमप्यविद्याकृत- पूर्व०-सुषुप्तिमें जो अग्रहण है मिति चेत् १
| वह भी तो अविद्याके ही कारण है।
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तैत्तिरीयोपनिपद्
[घल्ली २
न, स्वाभाविकत्वात् । द्रव्य- सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि वह तो
| स्वाभाविक है। द्रव्यका तात्त्विक वस्तनस्ताविक- यहि तत्त्वमविक्रि-खरूप तो विकार न होना ही है. विशेषरूपयो- या परानपेक्षयात। क्योंकि उसे दुसरेकी अपेक्षा नहीं निर्वचनम् ।
होती । दुसरेकी अपेक्षाचाला होनेके विक्रिया न तत्त्वं- कारण विकार तत्व नहीं है । जो
कर्ता, कर्म, करण आदि कारकोंकी परापेक्षत्वात् । न हि कारकापेक्षे अपेक्षावाला होता है यह वस्तुका
तत्त्व नहीं होता । विद्यमान वस्तुका वस्तुनस्तत्वम् । सतो विशेषः ।
विशेष रूप कारकोंकी अपेक्षावाला कारकापेक्षः, विशेपश्च विक्रिया। होता है, और विशेष ही विकार
होता है । जाग्रत् और खमका जो जाग्रत्वमयोश्च ग्रहणं विशेपः । ग्रहण है वह भी विशेप ही है।
जिसका जो रूप अन्यकी अपेक्षासे यद्धि यस्य नान्यापेक्षं स्वरूपं रहित होता है वही उसका तत्व तत्तस्य तत्त्वम, यया होता है और जो अन्यकी अपेक्षा
वाला होता है वह तत्त्व नहीं होता, तत्तत्त्वम् ; अन्याभावेऽभावात् । क्योंकि उस अन्यका अभाव होनेपर
उसका भी अभाव हो जाता है। तस्मात्स्वाभाविकत्वाजाग्रत्खन- । अतः [सुषुप्तावस्था] स्वाभाविक होनेके वन सुपुते विशेषः।
कारण उस समय जाग्रत् और खप्त
के समान विशेषकी सत्ता नहीं है। येपां पुनरीश्वरोऽन्य आत्मनः। किन्तु जिनके मतमें ईश्वर आत्मा
से भिन्न है और उसका कार्यरूप मेददृष्टे- कार्य चान्यत्तेपां यह जगत् भी भिन्न है उनके भयकी - भयानिवृत्तिर्भयस्या
निवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि
या भय दूसरेके ही कारण हुआ करता न्यनिमित्तत्वातसतश्चान्यस्याम- है । अन्य पदार्थ यदि सत् होगा
। तब तो उसके खरूपका अभाव हानानुपपत्तिः। न चासत आ- नहीं हो सकता और यदि असत
भयहेतुत्वम्
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अनु० ८ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
त्मलाभः | सापेक्षस्यान्यस्य भय होगा तो उसके खरूपकी सिद्धि ही नहीं हो सकती । यदि कहो कि दूसरा ( ईश्वर ) तो [ हमारे हेतुत्वमिति चेन्न, तस्यापि तुल्य- | धर्माधर्म आदिकी ] अपेक्षासे ही
त्वात् । यदधर्माद्यनुसायीभृतं
भयका कारण है, तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि वह [सापेक्ष ईश्वर ] भी वैसा ही है । जो कोई नित्यमनित्यं वा निमित्तमपेक्ष्या - अनित्य अधर्मादिरूप सहायक निमित्तईश्वरादि ] दूसरा पदार्थ नित्य या
[
की अपेक्षासे भयका कारण होता न्यद्भयकारणं स्यात्तस्यापि तथा है, यथार्थ होनेके कारण उसके स्वरूपका भी अभाव न होनेसे उसके भयकी निवृत्ति नहीं हो सकती;
भूतस्यात्महानाभावाद्भयानिवृत्तिः और यदि उसके स्वरूपका अभाव
माना जाय तो सत् और असत्को इतरेतरत्य [ अर्थात् सत्को असच्य और असत्को सत्त्व ] की प्राप्ति होनेसे कहीं विश्वास ही नहीं किया जा सकता ।
आत्महाने वा सदसतोरितरेत
रापत्ती सर्वत्रानाश्वास एव ।
१९१
एकत्वपक्षे पुनः सनिमित्तस्य धानाधानयो- संसारस्य अविद्यानमस्त्रम् कल्पितत्वाददोपः ।
deforeटस्य हि द्वितीयचन्द्र
परन्तु एकत्व - पक्ष स्वीकार करनेपर तो सारा संसार अपने कारणके सहित अविद्याकल्पित होने के कारण कोई दोप ही नहीं आता । तिमिर रोगके कारण देखे गये द्वितीय चन्द्रमाके खरूपकी न तो प्राप्ति ही होती है और न नाश हो । यदि स्य नात्मलाभो नाशो वास्ति । कहो कि ज्ञान और अज्ञान तो आत्मा ही धर्म हैं [ इसलिये उनके विद्याविद्ययोस्तद्धर्मत्वमिति चेन्न कारण आत्माका विकार होता होगा ] तो ऐसा कहना ठीक नहीं क्योंकि प्रत्यक्षत्वात् । विवेकाविवेकौ | वे तो प्रत्यक्ष ( आत्मा के दृश्य.) हैं।
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१९२
तैत्तिरीयोपनिपद
[ वल्ली२
रूपादिवत्प्रत्यक्षावुपलभ्येतेअन्तः- रूप आदि त्रिपयोंके समान अन्तः
करणमें स्थित विवेक और अविवेक करणस्यौ । न हि रूपस्य
प्रत्यक्ष उपलब्ध होते हैं। प्रत्यक्ष प्रत्यक्षस्य सतो द्रष्ट्रधर्मत्वम् । उपलब्ध होनेवाला रूप द्रष्टाका धर्म
नहीं हो सकता । 'में मूढ हूँ, मेरी अविद्या च स्वानुभवेन रूप्यते ।
बुद्धि मलिन है। इस प्रकार अविधा सूढोऽहमविविक्तं मम विज्ञान- भी अपने अनुभवके द्वारा निरूपण मिति।
की जाती है। तथा विद्याविवेकोऽनुभूयते ।
इसी प्रकार विचाका पार्यक्य भी
अनुभव किग जाता है । बुद्धिमान् उपदिशन्ति चान्येभ्य आत्मनो लोग दूसरोंको अपने ज्ञानका उपदेश
किया करते हैं । तथा दूसरे लोग विद्याम् । तथा चान्येऽवधारयन्ति।
भी उसका निश्चय करते हैं । अतः तस्मान्नामरूपपक्षस्यैव विद्याविद्ये विद्या और अविद्या नाम-रूप पक्षके नामरूपे च नात्मधर्मों । "नाम- हा है, तथ
ही हैं, तथा नाम और रूप आत्माके
धर्म नहीं हैं, जैसा कि "जो नाम रूपयोर्निहिता ते यदन्तरा और रूपका निर्वाह करनेवाला है ता" (छा० उ० ८।१४।।
तथा जिसके भीतर ये (नाम
और रूप ) रहते हैं" वह ब्रह्म है, १) इति श्रुत्यन्तरात् । ते च इस अन्य श्रुतिसे सिद्ध होता है । पुनर्नामरूपे सवितर्यहोरात्रे इव,
वे नाम-रूप भी सूर्यमें दिन और
रात्रिके समान कल्पित ही हैं, कल्पिते न परमार्थतो विद्यमाने। वस्तुतः विद्यमान नहीं हैं। __ अभेदे "एतमानन्दमयमा- पूर्व०-किन्तु ईश्वर और जीवका]
| अभेद माननेपर तो "वह इस स्मानमुपसंक्रामति" (तै० उ० आनन्दमय आत्माको प्राप्त होता है" २।८१५) इति कर्मकर्दत्वा
| इस श्रुतिमें जो [पुरुषका] कर्तृत्व और
[आनन्दमय आत्माका] कर्मत्व बताया नुपपत्तिरिति चेत् ?
है वह उपपन्न नहीं होता।
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० ८ ]
अनु०
शाङ्करभाष्यार्थ
नः विज्ञानमात्रत्वात्संक्रमण
सिद्धान्ती नहीं, क्योंकि पुरुष
संगमनम् स्य । न जलूकादि- का संक्रमण तो केवल विज्ञानमात्र है । यहाँ जोंक आदिके संक्रमणके
वत्संक्रमणमिहोप
ननु मुख्यमेव संक्रमणं श्रूयत
अन्यथा वा ।
समान पुरुषके संक्रमणका उपदेश दिव्यते, किं तहिं १ विज्ञानमात्रं | नहीं किया जाता । तो कैसा ? इस संक्रमण - श्रुतिका अर्थ तो केवल विज्ञानमात्र है | *
संक्रमणश्रुतेरर्थः ।
पूर्व ० - 'उपसंक्रामति' इस पदसे यहाँ मुख्य संक्रमण (समीप जाना ) हो अभिप्रेत हो तो ?
उपसंक्रामतीति चेत् ?
नः अन्नमयेऽदर्शनात् । न सिद्धान्ती- नहीं, क्योंकि अन्नमय में मुख्य संक्रमण देखा नहीं जातायन्नमयमुपसंक्रामतो बाह्यादरसा-अन्नमयको उपसंक्रमण करनेवालेका छोकाअल्कावत्संक्रमणं दृश्यते । जांकके समान इस बाह्य जगत् से अथवा किसी और प्रकारसे संक्रमण नहीं देखा जाता ।
मनोमयस्य वहिर्निर्गतस्य
१९३
par
विज्ञानमयस्य वा पुनः प्रत्या
वृत्यात्मसंक्रमणमिति चेत् १
नः स्वात्मनि क्रियाविरोधा
पूर्व० - चाहर [निकलकर विषयोंमें ] गये हुए मनोमय अथवा विज्ञानमय कोशोंका तो वहाँ से पुनः लौटने पर अपनो ओर होना सङ्क्रमण हो ही सकता है ?
सिद्धान्ती- नहीं, क्योंकि इससे अपनेमें ही अपनी क्रिया होनादन्योऽन्नमयमन्यमुपसंक्रामतीति | यह विरोध उपस्थित होता है । अन्नमयसे भिन्न पुरुष अपनेसे भिन्न
प्रकृत्य मनोमयो विज्ञानमयो वा | अन्नमयको प्राप्त होता है-इस प्रकार * अर्थात् यहाँ 'संक्रमण' शब्दका अर्थ 'जाना' या 'पहुँचना' नहीं बल्कि 'जानना' है ।
२५
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१९४
तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली२
स्वात्मानमेवोपसंक्रामतीति वि-प्रकरणका आरम्भ करके अब 'मनो
मय अथवा विज्ञानमय अपनेको रोधः स्यात् । तथा नानन्दमय- ही प्राप्त होता है' ऐसा कहनेमें स्यात्मसंक्रमणमुपपद्यते । तस्मान्न उससे विरोध आता है। इसी प्रकार
आनन्दमयका भी अपनेको प्राप्त प्राप्तिः संक्रमणं नाप्यन्नमयादी
होना सम्भव नहीं है। अतः प्राप्तिका नामन्यतसकर्तृकम् । पारिशेष्याद- नाम संक्रमण नहीं है और न वह
अन्नमयादिमेंसे किसीके द्वारा किया नमयाद्यानन्दमयान्तात्मव्यति-जाता है । फलतः आत्मासे भिन्न रिक्तकर्वकं ज्ञानमात्रं च संक्रमण
अन्नमयसे लेकर आनन्दमय कोश
पर्यन्त जिसका कर्ता है वह ज्ञानमात्र मुपपद्यते।
ही संक्रमण होना सम्भव है। ज्ञानमात्रत्वे चानन्दमयान्त:- इस प्रकार 'संक्रमण' शब्दका
अर्थ ज्ञानमात्र होनेपर ही आनन्दमय स्थस्यैव सर्वान्तरस्याकाशाद्यन्न
। कोशके भीतर स्थित सर्वान्तर तथा मयान्तं कार्य सृष्ट्वानुप्रविष्टस्य ! आकाशसे लेकर अन्नमयकोशपर्यन्त
कार्यवर्गको रचकर उसमें अनुप्रविष्ट हृदयगुहाभिसंवन्धादन्नमयादि- हुए आत्माका जो हृदयगुहाके वनात्मस्वात्मविभ्रमः संक्रमणे- सम्बन्धसे अन्नमय आदि अनात्माओं
में आत्मत्वका भ्रम है वह संक्रमणनात्मविवेकविज्ञानोत्पत्त्या विन-खरूप विवेक ज्ञानकी उत्पत्तिसे नष्ट श्यति । तदेतस्मिन्नविद्याविभ्रम- हो जाता है । अतः इस अविद्यारूप
| भ्रमके नाशमें ही संक्रमण शब्दका नाशे संक्रमणशब्द उपचर्यते न उपचार (गौणरूप) से प्रयोग ह्यन्यथा सर्वगतस्यात्मनः संक्र
किया गया है। इसके सिवा किसी और .
प्रकार सर्वगत आत्माका संक्रमण -- मणमुपपद्यते ।
| होना सम्भव नहीं है।
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अनु०८]
शाङ्करभाष्यार्थ
१९५
वस्त्वन्तराभावाच । न च आत्मासे भिन्न अन्य वस्तुका
| अभाव होनेसे भी [ उसका किसीके स्वात्मन एव संक्रमणम् । न हि |
| प्रति जानारूप संक्रमण नहीं हो जलकात्मानमेव संक्रामति ।
सकता] । अपना अपनेको ही
प्राप्त होना तो सम्भव नहीं है। तस्मात्सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्मति जोंक अपने प्रति हीसंक्रमण (गमन)
| नहीं करती। अतः 'ब्रह्म सत्यखरूप, यथोक्तलक्षणात्मप्रतिपत्यर्थमेव ।
| ज्ञानखरूप और अनन्त है' इस बहुभवनसर्गप्रवेशरसलाभाभय
पूर्वोक्त लक्षणवाले आत्माके ज्ञानके
लिये ही सम्पूर्ण व्यवहारके आधारसंक्रमणादि परिकल्प्यते ब्रह्माणि भूत ब्रह्ममें अनेक होना, सृष्टिमें सर्वव्यवहारविपये न तु परमार्थता अनुप्रवेश करना, आनन्दकी प्राप्ति,
पता अभय और संक्रमणादिकी कल्पना निर्विकल्पे ब्रह्मणि कश्चिदपि की गयी है; परमार्थतः तो निर्विकल्प
ब्रह्ममें कोई विकल्प होना सम्भव विकल्प उपपद्यते ।
है नहीं । तमेतं निर्विकल्पमात्मानमेवं- इस प्रकार क्रमशः उस इस क्रमणोपसंक्रम्य विदित्वा न | निर्विकल्प आत्माके प्रति उपसंक्रमण
| कर अर्थात् उसे जानकर साधक विभेति कुतश्चनाभयं प्रतिष्ठा किसीसे भयभीत नहीं होता। वह विन्दत इत्येतस्मिन्नर्थेऽप्येप श्लो- अभयस्थिति प्राप्त कर लेता है । इसो को भवति । सर्वस्यैवास्य प्रक- अर्थमें यह श्लोक भी है। इस
| सम्पूर्ण प्रकरणके अर्थात् आनन्दरणस्यानन्दवल्ल्यर्थस्य संक्षेपतः
वल्लीके अर्थको संक्षेपसे प्रकाशित प्रकाशनायैप मन्त्रो भवति ॥५॥ करनेके लिये ही यह मन्त्र है ॥५॥
इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यामष्टमोऽनुवाकः ॥ ८॥
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नक्ष्य अनुदाक
ब्रह्मानन्दका अनुभव करनेवाले विद्वान्की अभयप्राप्ति यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्रनेति । एतह वाव न तपति । किसह साधु नाकरवम् । किमहं पापमकरवमिति । स य एवं विद्वानेते आत्मानः स्पृणुते । उभे ह्येवैष एते आत्मानं स्पृणुते । य एवं वेद । इत्युपनिषत् ॥ १ ॥
जहाँ मनके सहित चाणो उसे प्राप्त न करके लौट आती है उस ब्रह्मके आनन्दको जाननेवाला किसीसे भी भयभीत नहीं होता । उस विद्वान्को, मैंने शुभ क्यों नहीं किया, पापकर्म क्यों कर डाला - इस प्रकारको चिन्ता सन्तप्त नहीं करती । उन्हें [ ये पाप और पुण्य ही तापके कारण हैं - ] इस प्रकार जाननेवाला जो विद्वान् अपने आत्माको प्रसन्न अथवा सवल करता है उसे ये दोनों आत्मस्वरूप ही दिखायी देते हैं । [ वह कौन है ? ] जो इस प्रकार [ पूर्वोक्त अद्वैत आनन्दखरूप ब्रह्मको ] जानता है । ऐसी यह उपनिषद् ( रहस्य - विद्या ) है |
यतो यस्मान्निर्विकल्पाद्यथोक्त
जिस पूर्वोक्त लक्षणोंवाले निर्विकल्प अद्वयानन्दरूप आत्माके लक्षणादद्वयानन्दादात्मनो वाचो- पाससे द्रव्यादि सविकल्प वस्तुओंको प्रकाशित करनेवाला वाक्यऽभिधानानि द्रव्यादिसविकल्प- । अभिधान, जो वस्तुत्वमें [ ब्रह्मको
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मनु०९]
शाकुरभाष्यार्थ
१९७
वस्तुविपयाणि चस्तुसामान्या- अन्य सविकल्प वस्तुओंके ] समान निर्विकल्पेऽद्धयेऽपि ब्रह्मणि प्रयो
समझनेके कारण वक्ताओंद्वारा, ब्रह्म
के निर्विकल्प और अद्वैत होनेपर ' वृभिः प्रकाशनाय प्रयुज्यमाना- भी, उसका निर्देश करनेके लिये
प्रयोग किया जाता है, उसे न न्यप्राप्याप्रकाश्यैव निवर्तन्ते पाकर अर्थात् उसे प्रकाशित किये स्वसामर्थ्याद्वीयन्ते
बिना ही लौट आता है-अपनी
सामर्थ्यसे च्युत हो जाता हैमन इति प्रत्ययो विज्ञानम् । [ 'मनसा सह' (मनके सहित)
इस पदसमूहमें ] 'मन' शब्द प्रत्यय तच यत्राभिधानं प्रवृत्तमतीन्द्रि
अर्थात् विज्ञानका वाचक है । वह, येऽप्यर्थे तदर्थे च प्रवर्तते प्रका- जहाँ-कहीं अतीन्द्रिय पदार्थोमें भी
शब्दकी प्रवृत्ति होती है वहीं उसे शनाय । यत्र च विज्ञानं तत्र प्रकाशित करनेके लिये प्रवृत्त हुआ
करता है । जहाँ कहीं भी विज्ञान वाचः प्रवृत्तिः। तस्मात्सहैव !
है वहीं वाणीकी भी प्रवृत्ति है। वामनसयोरमिधानप्रत्यययोः
अतः अभिधान और प्रत्ययरूप
वाणी और मनकी सर्वत्र साथ-साथ प्रवृत्तिः सर्वत्र ।
ही प्रवृत्ति होती है। तसाब्रह्मप्रकाशनाय सर्वथा इसलिये वक्ताओंद्वारा सर्वथा प्रयोक्तुभिः प्रयुज्यमाना अपि ब्रह्मका प्रकाश करनेके लिये ही
प्रयोगकी हुई वाणी, जिस प्रतीतिके वाचो यस्मादप्रत्ययविपयादन
अविषयभूत, अकथनीय, अदृश्य और भिधेयाददृश्यादिविशेषणात्सहैव
निर्विशेप ब्रह्मके पाससे मन अर्थात् मनसा विज्ञानेन सर्वप्रकाशन
| सबको प्रकाशित करनेमें समर्थ समर्थन निवर्तन्ते तं ब्रह्मण आ-| विज्ञानके सहित लौट आती है उस नन्दंश्रोत्रियस्यावृजिनस्याकामह- ब्रह्मके आनन्दको श्रोत्रिय निष्पाप
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१९८
तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली २
नित्यमविभक्तं पर से नसके उजाला पुरुष कोण
तस्य सर्वैपणाविनिर्मुक्तस्यात्मभृतं अकामहत और सब प्रकारको
एपणाओंसे मुक्त साधकके आत्मभूत, विपयविपयिसंवन्धविनिर्मुक्तं
विषय-विषयी सम्बन्धसे रहित, खाभाविकं नित्यमविभक्तं पर-खाभाविक, नित्य और अविभक्त मानन्दं ब्रह्मणो विद्वान्यथोक्तेन । ऐसे उसके उत्कृष्ट आनन्दको पूर्वोक्त विधिना न विभेति कुतश्चन | भयका निमित्त न रहनेके कारण निमित्ताभावात् । किसीसे भयभीत नहीं होता।
न हि तसाद्विदुपोऽन्यद्वस्त्व-! उस विद्वान्से भिन्न कोई दूसरी न्तरमस्ति भिन्नं यतो विभेति । वस्तु ही नहीं है जिससे कि उसे भय अविद्यया यदोदरमन्तरं कुरुते, अन्तर करता है तभी जीवको भय
हो । अविद्यावश जब थोड़ा-सा भी अथ तस्य भयं भवतीति खुक्तम्। होता है-ऐसा कहा ही गया है। विदुपश्चाविद्याकार्यस्य तैमिरिक- अतः तिमिररोगीके देखे हुए द्वितीय दृष्टद्वितीयचन्द्रवन्नाशाद्धयनिमि- चन्द्रमाके समान विद्वान्के अविद्यात्तस्य न विभेति कता के कार्यभूत भयके निमित्तका नाश
हो जानेके कारण वह किसीसे नहीं युज्यते।
डरता-ऐसा कहना ठीक ही है । मनोमये चोदाहतो मन्त्रो मनोमय कोशके प्रकरणमें यह मनसो ब्रह्मविज्ञानसाधनत्वात् ।
मन्त्र उदाहरणके लिये दिया गया
था, क्योंकि मन ब्रह्मविज्ञानका तत्र ब्रह्मत्वमध्यारोप्य तत्स्तु- | साधन है। उसमें ब्रह्मत्वका आरोप त्यर्थ न बिभेति कदाचनेति
करके उसकी स्तुतिके लिये ही वह
कभी नहीं डरता' इस वाक्यसे उसके भयमानं प्रतिपिद्धमिहाद्वैतविषये भयमात्रका प्रतिषेध किया गया था। न विभेति कुतश्चनेति भयनिमि
| यहाँ अद्वैतप्रकरणमें 'वह किसीसे
नहीं डरता, इस प्रकार भयके . त्तमेव प्रतिषिष्यते।
| निमित्तका ही प्रतिषेध किया जाता है।
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अनु०९]
'शाङ्करभाष्यार्थ
१९९
नन्वस्ति भयनिमित्तं साध्व- शंका-किन्तु शुभ कर्मका न
करना और पापकर्म करना यह तो करणं पापक्रिया च ?
भयका कारण है ही? नैवम् ; कथमित्युच्यते-एतं
___समाधान-ऐसी बात नहीं है।
किस प्रकार नहीं है सो बतलाया यथोक्तमेवंविदम्, ह वावेत्यव
| जाता है-इस पूर्वोक्तको अर्थात् इस धारणार्थों, न तपति नोद्वेज-प्रकार जाननेवालेको वह तप्त-उद्विग्न यति न संतापयति । कथं पुनः अथात्
अर्थात् सन्तप्त नहीं करता । मूलमें
'ह' और 'वाव' ये निश्चयार्थक साध्वकरणं पापक्रिया च न ।
| निपात हैं । वह पुण्यका न करना तपतीत्युच्यते । किं कस्मात्साधु और पापक्रिया उसे किस प्रकार शोभनं कर्म नाकरवं न कृतवा
ताप नहीं देते ? इसपर कहते हैं
| 'मैंने शुभ कर्म क्यों नहीं किया' नस्मीति पश्चात्संतापो भवत्या- | ऐसा पश्चात्ताप मरणकाल समीप सन्ने मरणकाले । तथा कि आनेपर हुआ करता है तथा 'मैंने
. | पाप यानी प्रतिपिद्ध कर्म क्यों करसात्पापं प्रतिपिद्धं कर्माकरवं
| किया ऐसा दुःख नरकपात आदिकृतवानसीति च नरकपतनादि- के भयसे होता है । ये पुण्यका न दुःखभयात्तापो भवति। ते एते करना और पापका करना इस
विद्वान्को इस प्रकार संतप्त नहीं साध्वकरणपापक्रिये एवमेनं न करते जैसे कि वे अविद्वान्को किया तपतो यथाविद्वांसं तपतः। करते हैं । ___ कस्मात्पुनर्विद्वांसं न तपत वे विद्वान्को क्यों सन्तप्त नहीं इत्युच्यते-स य एवंविद्वानेते करते ? सो बतलाया जाता है-ये
पाप-पुण्य ही तापके हेतु हैं-इस साध्वसाधुनी तापहेतू इत्यात्मानं
प्रकार जाननेवाला जो विद्वान् स्पृणुते प्रीणयति बलयति वा आत्माको प्रसन्न अथवा सबल करता
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२००
तैत्तिरीयोपनिषद्
[चल्लो २
परमात्मभावेनोमे पश्यतीत्यर्थः। है अर्थात इन दोनोंको परमात्मभाव
से देखता है [ उसे ये पाप-पुण्य उभे पुण्यपापे हि यस्सादेवमेप
सन्तप्त नहीं करते ] । क्योंकि ये विद्वानेते आत्मानमात्मरूपेणैव पाप-पुण्य दोनों ऐसे हैं [ अर्थात्
आत्मस्वरूप हैं ] अतः यह विद्वान् पुण्यपापे स्वेन विशेषरूपेण इस पाप-पुण्यल्प आत्माको आत्म
भावनासे ही अपने विशेषरूपसे शून्ये कृत्वात्मानं स्पृणुत एव ।
शून्य कर आत्माको ही तृप्त करता को य एवं वेद यथोक्तमद्वैत- ' है । वह विद्वान् कौन है ? जो इस
प्रकार जानता है अर्थात् पूर्वोक्त मानन्दं ब्रह्म वेद तस्यात्मभावेन अद्वैत एवं आनन्दत्वरूप ब्रह्मको
जानता है। उसके आत्मभावसे दृष्टे पुण्यपापे निर्वीर्य अतापके
पक देखे हुए पुण्य-पाप निर्वीर्य और जन्मान्तरारम्भके न भवतः। ताप पहुँचानेवाले न होनेसे
| जन्मान्तरके आरम्भक नहीं होते। इतीयमेवं यथोक्तास्यां वल्लयां इस प्रकार इस वल्लीमें, जैसी कि
ऊपर कही गयी है, यह ब्रह्मविद्याब्रह्मविद्योपनिपत्सर्वाभ्यो विद्या
रूप उपनिपद् है । अर्थात् इसमें भ्यः परमरहस्यं दर्शितमित्यर्थः।
अन्य सब विद्याओंको अपेक्षा परम
रहत्य प्रदर्शित किया गया है । इस परं श्रेयोऽस्यांनिपण्णमिति ॥१॥ विद्यामें ही परम श्रेय निहित है॥१॥
इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यां नवमोऽनुवाकः ॥९॥
इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यश्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ तैत्तिरीयोपनिषद्भाष्ये
ब्रह्मानन्दवल्ली समाप्ता ।
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मृचही
प्रथम अनुवाक
भृगुका अपने पिता वरुणके पास जाकर ब्रह्मविद्याविषयक
प्रश्न करना तथा वरुणका ब्रह्मोपदेश
क्योंकि सत्य, ज्ञान और अनन्त ब्रह्म ही आकाशसे लेकर अन्नमयपर्यन्त कार्यवर्गको रचकर उसमें सृष्ट्वा तदेवानुप्रविष्टं अनुप्रविष्ट हो सविशेष-सा उपलब्ध
दिकार्यमन्नमयान्तं
विशेषवदिवोपलभ्यमानं यस्मातस्मात्सर्वकार्यविलक्षणमदृश्यादि -
हो रहा है इसलिये वह सम्पूर्ण कार्यवर्गसे विलक्षण अश्यादि धर्मवाला आनन्द ही है; और वही मैं धर्मकमेवानन्दं तदेवाहमिति हूँ - ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि विजानीयादनुप्रवेशस्य तदर्थत्वा - उसके अनुप्रवेशका यही उद्देश्य है । इस प्रकार जाननेवाले उस तस्यैवं विजानतः शुभाशुभे साधक के शुभाशुभ कर्म जन्मान्तरका कर्मणी जन्मान्तरारम्भके न आरम्भ करनेवाले नहीं होते । आनन्दवल्लीमें यही विपय कहना भवत इत्येवमानन्दवल्ल्यां विव- | अभीष्ट था । अब ब्रह्मविद्या तो समाप्त हो चुकी । यहाँसे आगे ब्रह्मविद्या साधन तपका निरूपण करना है तथा जिनका पहले निरूपण नहीं किया गया है उन अन्नादिविषयक उपासनाओंका भी
याणि चोपासनान्यनुक्तानीत्यत वर्णन करना है; इसीलिये इस
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्माकाशा
उपक्रमः
क्षितोऽर्थः परिसमाप्ता च ब्रह्मविद्या | अतः परं ब्रह्मविद्या
साधनं तपो वक्तव्यमन्नादिविप
२६
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली ३
इदमारस्यते--
प्रकरणका आरम्भ किया जाता हैभृगुर्वै वारुणिः वरुणं पितरमुपससार अधीहि भगवो ब्रह्मेति । तस्मा एतत्प्रोवाच । अन्नं प्राणं चक्षुः श्रोत्रं मनो वाचमिति । त होवाच । यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । येन जातानि जीवन्ति । यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व । तद् ब्रह्मेति । स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा ॥१॥
मुझे ब्रह्मान और बाद ही ये सबर अन्तम
वरुणका सुप्रसिद्ध पुत्र भृगु अपने पिता वरुणके पास गया [ और बोला---] 'भगवन् ! मुझे ब्रह्मका बोध कराइये ।' उससे वरुणने यह कहा-'अन्न, प्राण, नेत्र, श्रोत्र, मन और वाक् [ये ब्रह्मकी उपलब्धिके द्वार हैं] ।' फिर उससे कहा-'जिससे निश्चय ही ये सब भूत उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होनेपर जिसके आश्रयसे ये जीवित रहते हैं और अन्तमें विनाशोन्मुख होकर जिसमें ये लीन होते हैं उसे विशेपरूपसे जाननेकी इच्छा कर वही ब्रह्म है।' तब उस (भृगु ) ने तप किया और उसने तप करके-॥१॥ आख्यायिका विद्यास्तुतये, पिताने अपने प्रिय पुत्रको इस
(विद्या ) का उपदेश किया थाप्रियाय पुत्राय पित्रोक्तेति--
इस दृष्टिसे यह आख्यायिका विद्याकी भृगु वारुणिः । वैशब्दः प्रसि- स्तुतिके लिये है । 'भृगुः वारुणिः'
इसमें 'वै' शब्द प्रसिद्धका स्मरण द्धानुसारको भृगुरित्येवंनामा
करानेवाला है। इससे 'भूगु' इस प्रसिद्धोऽनुस्मार्यते । वारुणिर्वस- नामसे प्रसिद्ध ऋषिका अनुस्मरण
कराया जाता है जो वारुणि अर्थात् णस्यापत्यं वारुणिर्वरुणं पितरं । वरुणका पुत्र था । वह ब्रह्मको
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अनु०१]
शाकरभाष्यार्थ
२०३
ब्रह्म विजिज्ञासुरुपससारोपगत- जाननेकी इच्छावाला होकर अपने
पिता वरुणके पास गया । अर्थात् वान् , अधीहि भगवो ब्रहोत्य
'हे भगवन् ! आप मुझे ब्रह्मका नेन मन्त्रेण । अधीहि अध्यापय | उपदेश कीजिये' इस मन्त्रके द्वारा कथय । स च पिता विधिवदुप-अधीहि' शब्दका अर्थ अध्यापन
[ उसने गुरूपसदन किया ] । सन्नाय तस्मै पुत्रायैतद्वचनं ( उपदेश ) कीजिये-कहिये ऐसा
समझना चाहिये । उस पिताने प्रोवाच । अन्नं प्राणं चक्षुः श्रोत्रं
अपने पास विधिपूर्वक आये हुए मनो वाचमिति ।
| उस पुत्रसे यह वाक्य कहा-'अन्नं
प्राणं चक्षुः श्रोत्रं मनः वाचम् ।' अन्नं शरीरं तदभ्यन्तरं च 'अन्न अर्थात् शरीर उसके भीतर वरुणोपदिष्ट- प्राणमत्तारमुपल- | अन्न भक्षण करनेवाला प्राण, प्राशप्राप्तिशाराणि न तदनन्तर विषयोंकी उपलब्धिके
साधनभूत चक्षु, श्रोत्र, मन और श्रोत्रं मनोवाचमित्येतानि ब्रह्मो
वाक ये ब्रह्मकी उपलब्धिमें द्वाररूप पलब्धो द्वाराण्युक्तवान् । उक्त्वा हैं'-ऐसा उसने कहा । इस च द्वारभूतान्येतान्यन्नादीनि तं, वाला
प्रकार इन द्वारभूत अन्नादिको
वतलाकर उसने उस भृगुको ब्रह्मका भृगु होवाच ब्रह्मणो लक्षणम् ।।
लक्षणम् लक्षण बतलाया । वह क्या है ? कि तत् ?
[सो बतलाते हैं-] यतो यसाद्वा इमानि ब्रह्मा- जिससे ब्रह्मासे लेकर स्तम्बपर्यन्त दीनिस्तम्बपर्यन्तानि ये सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं,
| जिसके आश्रयसे ये जन्म लेनेके 'भूतानि जायन्ते ।
अनन्तर जीवित रहते-प्राण धारण येन जातानि जीवन्ति प्राणा- करते अर्थात् वृद्धिको प्राप्त होते हैं धारयन्ति वर्धन्ते । विनाशकाले । तथा विनाशकाल उपस्थित होनेपर
स
ब्रहालक्षणम्
।
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२०४
तैत्तिरीयोपनिपद्
[ यल्ली३
च यत्प्रयन्ति यद्बल प्रतिगच्छ- जिसके प्रति प्रयाण करनेवाले न्ति, अभिसंविशन्ति तादात्म्य- अर्थात् जिस ब्रह्मके प्रति गमन
करनेवाले वे जीव उसमें प्रवेश सेव प्रतिपद्यन्ते । उत्पत्तिस्थिति- करते-उसके तादात्म्यभावको प्राप्त लयकालेषु यदात्सतां न जहति हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि भूतानि तदेतद्ब्रह्मणो लक्षणम। उन्पत्ति, स्थिति और लयकालमें
- प्राणी जिसकी तद्रूपताका त्याग नहीं तब्रह्म विजिज्ञासव विशेषेण
1" करते यही उस ब्रह्मका लक्षण है। ज्ञातुमिच्छस्व । यदेवलक्षणं ब्रह्म ' त उस ब्रह्मको विशेषरूपसे जाननेकी तदन्नादिद्वारेण प्रतिपद्यस्वे- . इच्छा कर; अर्थात् जो ऐसे लक्षणोंत्यर्थः । श्रुत्यन्तरं च-"प्राण- बाला ब्रह्म हैं उसे अन्नादिके द्वारा
- प्राप्त कर । "ब्रह्म प्राणका प्राण, स्य प्राणमुत चक्षुपश्चक्षुरुत श्रोत्रस्य चकाच
स. चक्षुका चक्षु, श्रोत्रका श्रोत्र, अनका श्रोत्रमन्नस्यान्नं मनसो ये मनो अन्न और मनका मन है-ऐसा जो विदुस्ते निचिक्युर्जन पुराण-, जानते है वे उस पुरातन और श्रेष्ठ मग्यम्" (वृ० उ०४।४। ब्रह्मका साक्षात् जान सकते हैं ऐसी
। एक दूसरी श्रुति भी इस बातको १८) इति ब्रह्मोपलब्धी द्वारा- प्रदर्शित करती है कि ये प्राणादि ण्येतानीति दर्शयति । ब्रह्मकी उपलब्धिमें द्वारखरूप हैं।
स भृगुब्रह्मोपलब्धिद्वाराणि उस भृगुने अपने पितासे ब्रह्मकी ब्रह्मोपलब्धये ब्रह्मलक्षणं च श्रुत्वा सनकर ब्रह्मसाक्षात्कारके साधन
उपलब्धिके द्वार और ब्रह्मका लक्षण भृगोस्तपः पितुस्तपो ब्रह्मोप- रूपसे तप किया। [ यहाँ प्रश्न लब्धिसाधनत्वेनातप्यत तप्त- होता है कि ] जिसका उपदेश ही वान् । कुतः पुनरनुपदिष्टस्यैव ।
| नहीं दिया गया था उस तपके
| [ ब्रह्मप्राप्तिका ] साधन होनेका तपसःसाधनत्वप्रतिपत्ति गोः ? ज्ञान भृगुको कैसे हुआ? [ उत्तर
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अनु० १]
शाङ्करभाष्यार्थ
२०५
सावशेपोक्तः। अन्नादि ब्रह्मणः क्योंकि [ उसके पिताका ] कथन
सावशेप ( जिसमें कुछ कहना शेष प्रतिपत्तौ द्वारं लक्षणं च यतो रह गया हो-ऐसा ) था । वरुणने
'यतो वा इमानि भूतानि' इत्यादि वा इमानीत्याधुक्तवान् । सावशेष रूपसे अन्नादि ब्रह्मकी प्राप्तिका द्वार
और लक्षण कहा था । वह सावशेष हि तत्साक्षाह्मणोऽनिर्देशात् । ( असम्पूर्ण) था, क्योंकि उससे
ब्रह्मका साक्षात् निर्देश नहीं होता। अन्यथा हि खरूपेणैव ब्रह्म
। नहीं तो, उसे अपने जिज्ञासु निर्देष्टव्यं जिज्ञासवे पुत्रायेद
पुत्रके प्रति 'वह ब्रह्म ऐसा है' इस
प्रकार उसका खरूपसे ही निर्देश मित्थंरूपं ब्रह्मोति । न चैवं निर- करना चाहिये था। किन्तु इस दिशत्कि तर्हि ? सावशेषमेवोक्त-प्रकार उसने निर्देश किया नहीं है।
तो किस प्रकार किया है ? उसने वान् । अतोऽवगम्यते नूनं साध
| उसे सावशेप ही उपदेश किया है । नान्तरमप्यपेक्षते पिता ब्रह्म- इससे जाना जाता है कि उसके विज्ञानं प्रतीति । तपोविशेषप्रति- | पिताको अवश्य ही ब्रह्मज्ञानके प्रति
किसी अन्य साधनकी भी अपेक्षा पत्तिस्तु सर्वसाधकतमत्वात् । है। सबसे बड़ा साधन होनेके सर्वेषां हि नियतसाध्यविपयाणां | कारण भृगुने तपको ही विशेष
रूपसे ग्रहण किया । जिनके साध्य साधनानां तप एव साधकतमं
विपय नियत हैं उन साधनोंमें तप साधनमिति हि प्रसिद्धं लोके । ही सबसे अधिक सिद्धि प्राप्त कराने
वाला साधन है-यह बात लोकमें तसात्पित्रानुपदिष्टमपि ब्रह्म
प्रसिद्ध ही है। इसलिये पिताके विज्ञानसाधनत्वेन तपः प्रतिपेदे उपदेश न देनेपर भी भृगुने ब्रह्म
विज्ञानके साधनरूपसे तपको खीकार भृगुः । तच्च तपो वाह्यान्त:
किया। वह तप वाह्य इन्द्रिय करणसमाधानं तद्वारकत्वाइम- और अन्तःकरणका समाहित करना
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२०६
तैत्तिरीयोपनिपद्
[चल्ली ३
प्रतिपत्तेः । "मनसश्चेन्द्रियाणां ही है, क्योंकि ब्रह्मप्राप्ति उसीके च बैकारयं परमं तपः। द्वारा होनेवाली है । "मन और
| इन्द्रियोंकी एकाग्रता ही परम तप तज्ज्यायः सर्वधर्मेस्यः स धर्मः
है। वह सब धर्मोसे उत्कृष्ट है और । पर उच्यते" (महा० शा०२५०। वहीं
वही परम धर्म कहा जाता है" इस ४) इति स्मृतेः । स च तपस्त- स्मृतिसे यही वात सिद्ध होती है । प्त्वा ॥१॥
| उस भृगुने तप करके-॥१॥
इति भृगुवल्ल्यां प्रथमोऽनुवाकः ॥१॥
द्वितीय अनुकाक अन्न ही ब्रह्म है-ऐसा जानकर और उसमें ब्रह्मके लक्षण घटाकर भृगुका पुनः वरुणके पास आना और उसके
उपदेशसे पुनः तप करना ।। अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात् । अन्नाडय व खल्विमानि भूतानि जायन्ते। अन्नेन जातानि जीवन्ति । अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति । तद्विज्ञाय । पुनरेव वरुणं पितरमुपससार । अधीहि भगवो ब्रह्मेति । त५ होवाच । तपसा ब्रह्म विजिज्ञासख । तपो ब्रह्मेति । स तपोऽतप्यत। स तपस्तप्त्वा ॥१॥
अन्न ब्रह्म है-ऐसा जाना । क्योंकि निश्चय अन्नसे ही ये सव प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होनेपर अन्नसे ही जीवित रहते हैं तथा प्रयाण करते समय अन्नमें ही लीन होते हैं। ऐसा जानकर वह फिर अपने पिता वरुणके पास आया [ और कहा-] 'भगवन् मुझे ब्रह्मका उपदेश कीजिये ।' वरुणने उससे कहा-'ब्रह्मको तपके द्वारा जाननेकी
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अनु०२ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
इच्छा कर, तप ही बल है ।' तब उसने तप किया और उसने तप
करके - ॥ १ ॥
२०७
अन्नं ब्रह्मेति व्यजानाद्वि
}
अन्न ब्रह्म है - ऐसा जाना । वही | ज्ञातवान् तद्धि यथोक्तलक्षणो उपर्युक्त लक्षणसे युक्त है। सो कैसे ? पेतम् । कथम् ? अन्नाद्रथेव क्योंकि निश्चय अन्नसे ही ये सव खल्विमानि भूतानि जायन्ते प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होनेपर अन्नसे ही जीवित रहते हैं तथा अन्नेन जातानि जीवन्ति अन्नं मरणोन्मुख होनेपर अन्नमें ही लीन प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति तस्मा हो जाते हैं । अतः तात्पर्य यह है द्युक्तमन्नस्य ब्रह्मत्वमित्यभि- |कि अन्नका ब्रह्मरूप होना ठीक ही प्रायः । स एवं तपस्तप्त्वान्नं है । वह इस प्रकार तप करके तथा ब्रह्मेति विज्ञायान्नलक्षणेनोप- | अन्नके लक्षण और युक्तिके द्वारा 'अन्न ही ब्रह्म है' ऐसा जानकर फिर भी पच्या च पुनरेव संशयमापन्नो वरुणं पितरमुपससार । अधीहि भगवो ब्रह्मेति ।
संशयग्रस्त हो पिता वरुणके पास आया [ और बोला - ] 'भगवन् ! मुझे ब्रह्मका उपदेश कीजिये' ।
कः पुनः संशयहेतुरस्येत्युच्यते-अन्नस्योत्पत्तिदर्शनात् ।
तपसः पुनःपुनरुपदेशः साधना
परन्तु इसमें उसके संशयका कारण क्या था ? सो बतलाया जाता है । अन्नको उत्पत्ति देखने से [ उसे ऐसा सन्देह हुआ ] । यहाँ तपका जो वारम्वार उपदेश किया गया है वह उसका प्रधानसाधनत्व प्रदर्शित करनेके लिये है । अर्थात् जबतक ब्रह्मका लक्षण निरतिशय न हो जाय और जबतक तेरी जिज्ञासा शान्त न हो तबतक तप
तावत्तप एव ते साधनम् । तप- | ही तेरे लिये साधन है । तात्पर्य यह
तिशयत्वावधारणार्थः । यावद्र
ह्मणो लक्षणं निरतिशयं न भवति
यावच जिज्ञासा न निवर्तते
.
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२०८
तैत्तिरीयोपनिपद्
[वल्ली ३
सैव ब्रह्म विजिज्ञासखेत्यर्थः। है कि तू तपसे ही ब्रह्मको जाननेकी ऋज्वन्यत् ॥ १॥ | इच्छा कर । शेप अर्थ सरल है ॥१॥
इति भृगुवल्ल्यां द्वितीयोऽनुवाका ॥२॥
वृतीय अतुवाक प्राण ही ब्रह्म है---ऐसा जानकर और उसमें ब्रह्मके लक्षण घटाकर
भृगुका पुनः वरुणके पास आना और उसके
उपदेशसे पुनः तप करना । प्राणो ब्रह्मेति व्यजानात् । प्राणाय व खल्विमानि भूतानि जायन्ते । प्राणेन जातानि जीवन्ति । प्राणं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति । तद्विज्ञाय पुनरेव वरुणं पितरमुपससार । अधीहि भगवो ब्रह्मेति । त होवाच । तपसा ब्रह्म विजिज्ञासख । तपो ब्रह्मेति । स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा ॥१॥
प्राण ब्रह्म है-ऐसा जाना। क्योंकि निश्चय प्राणसे ही ये प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होनेपर प्राणसे ही जीवित रहते हैं और मरणोन्मुख होनेपर प्राणमें ही लीन हो जाते हैं। ऐसा जानकर वह फिर अपने पिता वरुणके पास आया। [ और बोला-] 'भगवन् ! मुझे ब्रह्मका उपदेश
कीजिये।' उससे वरुणने कहा-'तू तपसे ब्रह्मको जाननेकी इच्छा कर । . तप ही ब्रह्म है ।' तब उसने तप किया और उसने तप करके-॥१॥
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चतुर्थ अनुशाक मन ही मस है-~-ऐसा जानकर और उसमें बलके लक्षण घटाकर भृगुका पुनः वरुणके पास जाना और उसके
उपदेशसे पुनः तप करना मनो ब्रह्मेति व्यजानात् । मनसो ह्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते । मनसा जातानि जीवन्ति । मनः प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति । तद्विज्ञाय पुनरेव वरुणं पितरमुपससार । अधीहि भगवो ब्रह्मेति । त होवाच । तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व । तपो ब्रह्मेति । स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा ॥१॥
मन ब्राह्म है---ऐसा जाना; क्योंकि निश्चय मनसे ही ये जीव उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होनेपर मनके द्वारा ही जीवित रहते हैं और अन्तमें प्रयाण करते हुए मनमें ही लीन हो जाते हैं। ऐसा जानकर वह फिर पिता वरुणके पास गया [ और बोला-] 'भगवन् ! मुझे ब्रह्मका उपदेश कीजिये ।' वरुणने उससे कहा-'तू तपसे ब्रह्मको जाननेकी इच्छा कर, तप ही ब्रह्म है।' तब उसने तप किया और उसने तप करके-॥१॥
इति भृगुवल्ल्यां चतुर्थोऽनुवाकः ॥ ४॥
२७-२८
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पंचव अनुकाक विज्ञान ही ब्रह्म है-ऐसा जानकर और उसमें ब्रह्मके लक्षण घटाकर भृगुका पुनः वरुणके पास आना और
उसके उपदेशसे पुनः तप करना विज्ञानं ब्रह्मति व्यजानात् । विज्ञानाद्धय व खल्विसानि भूतानि जायन्ते । विज्ञानेन जातानि जीवन्ति । विज्ञानं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति । तद्विज्ञाय पुनरेव वरुणं पितरमुपससार । अधीहि भगवो ब्रह्मेति । त होवाच । तपसा ब्रह्म विजिज्ञासख । तपो ब्रह्म ति । स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा ॥१॥
विज्ञान ब्रह्म है--ऐसा जाना । क्योंकि निश्चय विज्ञानसे ही ये सब जीव उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होनेपर विज्ञानसे ही जीवित रहते हैं और फिर मरणोन्मुख होकर विज्ञानमें हो प्रविष्ट हो जाते हैं। ऐसा जानकर वह फिर पिता वरुणके समीप आया [ और बोला-] 'भगवन् ! मुझे ब्रह्मका उपदेश कीजिये ।' वरुणने उससे कहा-'तू तपके द्वारा ब्रह्मको जाननेकी इच्छा कर । तप ही ब्रह्म है।' तब उसने तप किया और तप करके--॥१॥
इति भृगुवल्ल्यां पञ्चमोऽनुवाकः ॥५॥
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पष्ट अनुकाक आनन्द ही वह है-ऐसा भृगुका निश्चय करना, तथा इस भार्गवी
___ वारुणी विद्याका महत्त्व और फल
आनन्दो ब्रह्म ति व्यजानात् । आनन्दाद्धय व खल्विमानि भृतानि जायन्ते । आनन्देन जातानि जीवन्ति । आनन्द प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति । सैषा भार्गवी वारुणी विद्या परमे व्योमन् प्रतिष्ठिता । स य एवं वेद प्रतितिष्ठति । अन्नवानन्नादो भवति । महान् भवति, प्रजया पंशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन । महान् कीर्त्या ॥१॥
आनन्द ब्राम है-ऐसा जाना; क्योंकि आनन्दसे ही ये सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होनेपर आनन्दके द्वारा ही जीवित रहते हैं और प्रयाण करते समय आनन्दमें ही समा जाते हैं । वह यह भृगुकी जानी हुई और वरुणको उपदेश की हुई विद्या परमाकाशमें स्थित है । जो ऐसा जानता है वह ब्रह्ममें स्थित होता है; वह अन्नवान् और अन्नका भोक्ता होता है; प्रजा, पशु और ब्रह्मतेजके कारण महान् होता है तथा कीर्तिके कारण मी महान् होता है ॥ १ ॥ ___ एवं तपसा विशुद्धात्मा। इस प्रकार तपसे शुद्धचित्त हुए
भृगुने प्राणादिमें पूर्णतया ब्रह्मका प्राणादिषु साकल्येन ब्रह्मलक्षण
१० लक्षण न देखकर धीरे-धीरे भीतरकी मपश्यञ्शनैः शनैरन्तरनुप्रविश्या- ओर प्रवेश कर तपरूप साधनके
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२१२
तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली ३,
न्तरतममानन्दं ब्रह्मा विज्ञातवां- द्वारा ही सबकी अपेक्षा अन्तरतम स्तपसैव साधनेन भृगुः तस्माद्र
आनन्दको ब्रह्म जाना । अतः जो
ब्रह्मको जाननेकी इच्छावाला हो उसे लाविजिज्ञासुना वाह्यान्तःकरण
साधनरूपसे बाह्य इन्द्रिय और समाधानलक्षणं परमं तपःसाधन- अन्तःकरणका समाधानरूप परम मनुछेयमिति प्रकरणाः । तप ही करना चाहिये-यह इस
प्रकरणका तात्पर्य है। अधुनाख्यायिकातोऽपसृत्य । अब आख्यायिकासे निवृत्त होकर श्रुतिः स्वेन वचनेनाख्यायिका- | श्रुति अपने ही वाक्यसे आख्यायिका
| से निष्पन्न होनेवाला अर्थ बतलाती निर्वयमर्थमाचष्टे-सेपा भार्गवी है-अन्नमय आत्मासे प्रारम्भ हुई भृगुणा विदिता वरुणेन प्रोक्ता यह भार्गवी-भृगुकी जानी हुई और वारुणी विद्या परमे व्योमन्हृदया- वारुणी-वरुणकी कही हुई विद्या
| परमाकाशमें-हृदयाकाशस्थित गुहाकाशगुहायां परम आनन्देऽद्वैते के भीतर अद्वैत परमानन्दमें प्रतिष्टित प्रतिष्ठिता परिसमाप्तानमयादात्म- है अर्थात् वहीं इसका पर्यवसान नोऽधिप्रवृत्ता। य एवमन्योऽपि
होता है । इसी प्रकार जो कोई
दूसरा पुरुष भी इसी क्रमसे तपरूप तपसैव साधनेनानेनैव क्रमेणा- साधनके द्वारा क्रमशः अनुप्रवेश नुप्रविश्यानन्दं ब्रह्म वेद स एवं करके आनन्दको ब्रह्मरूपसे जानता
है वह इस प्रकार विद्यामें विद्याप्रतिष्ठानात्प्रतितिष्ठत्यानन्दे स्थिति लाभ करनेसे आनन्द अर्थात् परमे ब्रह्मणि, ब्रह्मैव भवतीत्यर्थः। परब्रह्ममें स्थिति प्राप्त करता है, यानी
ब्रह्म ही हो जाता है। दृष्टं च फलं तस्योच्यते- अब उसका दृष्ट ( इस लोकमें
प्राप्त होनेवाला) फल बतलाया __अन्नवान्प्रभूतमन्नमस्य विद्यत जाता है-अन्नवान-जिसके पास
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अनु० ६ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
इत्यन्नवान् । सत्तामात्रेण तु बहुत-सा अन्न हो उसे अन्नवान्, कहते हैं । * अन्नकी सत्तामात्र से तो सर्वो भवानिति विद्याया | सभी अन्नवान् हैं, अंतः [ यदि उस विशेषो न स्यात् । एवमन्नमत्ती - प्रकार अर्थ किया जाय तो ] विद्याकी कोई विशेषता नहीं रहती । त्यन्नादो दीप्ताभिर्भवतीत्यर्थः । । इसी प्रकार वह अन्नाद - जो अन्न भक्षण
भिर्गवाश्वादिभिर्ब्रह्मवर्चसेन शम
महान्भवति । केन महत्त्वमित्यत | करे यानी दीप्ताग्नि हो जाता है । वह महान् हो जाता है । उसका महत्त्व आह----प्रजया पुत्रादिना पशु- | किस कारणसे होता है ? इसपर कहते हैं- पुत्रादि प्रजा, गौ, अच आदि पशु, तथा ब्रह्मतेज यानी शम, दम एवं ज्ञानादिके कारण होनेवाले तेजसे तथा कीर्ति यानी शुभाचरणके कारण होनेवाली ख्यातिसे वह महान् हो जाता है ॥ १ ॥
दमज्ञानादिनिमित्तेन तेजसा ।
महान्भवति कीर्त्या ख्यात्या
शुभप्रचारनिमिचया ॥१॥
इति भृगुवल्ल्यां षष्ठोऽनुवाकः ॥ ६ ॥
२१३
* मूलमें केवल 'अन्नवान्' है, भाष्यमें उसका अर्थ 'प्रभूत ( बहुत से ) अवाला' किया गया है। इससे यह शंका होती है कि 'प्रभूत' विशेषणका प्रयोग क्यों किया गया। इसीका समाधान करनेके लिये आगेका वाक्य है ।
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सप्तम अनुवाक
अनकी निन्दा न करनारूप व्रत तथा शरीर और प्राणरूप अन्नब्रह्मके उपासकको प्राप्त होनेवाले फलका वर्णन
अन्नं न निन्द्यात् । तद्वतम् । प्राणो वा अन्नम् । शरीरमन्नादम् । प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम् । शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः । तदेतदन्नसन्ने प्रतिष्ठितम् । स य एतन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति । अन्नवानन्नादो भवति । महान् भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन । महान् कीर्त्या ॥ १ ॥
1
अन्नकी निन्दा न करे | यह ब्रह्मज्ञका व्रत है । प्राण ही अन्न है और शरीर अन्नाद है । प्राणमें शरीर स्थित है और शरीरमें प्राण स्थित है । इस प्रकार [ एक दूसरेके आश्रित होनेसे वे एक दूसरेके अन्न हैं; [ अतः ] ये दोनों अन्न ही अन्न में प्रतिष्ठित हैं । जो इस प्रकार अन्नको अन्नमें स्थित जानता है वह प्रतिष्ठित ( प्रख्यात ) होता है, अन्नवान् और अन्नभोक्ता होता है । प्रजा, पशु और ब्रह्मतेजके कारण महान् होता है तथा कीर्ति के कारण भी महान् होता है ॥ १ ॥
विज्ञातं
किं चानेन द्वारभूतेन ब्रह्म | इसके सिवा क्योंकि द्वारभूत अन्नके द्वारा ही ब्रह्मको जाना है इसलिये गुरुके समान अन्नको भी निन्दा न करे । इस प्रकार ब्रह्म
यस्मात्तस्माद्गुरुमिच
अनं न निन्द्याचदस्यैवं त्रक्ष
ताके लिये यह व्रत उपदेश किया
विदो व्रतमुपदिश्यते | व्रतोप - | जाता है । यह व्रतका उपदेश
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शाङ्करभाष्यार्थ
अनु० ७ ]
देशोऽन्नस्तुतये, स्तुतिभाक्त्वं अन्नकी स्तुतिके लिये है और अन्नकी स्तुतिपात्रता ब्रह्मोपलब्धिका साधन होनेके कारण है ।
२१५
चान्नस्य ब्रह्मोपलब्ध्युपायत्वात् । प्राणो वा अन्नम्, शरीरान्तर्भावात्प्राणस्य । यद्यस्यान्तःप्रतिष्ठितं भवति तत्तस्यान्नं भवतीति । शरीरे च प्राणः प्रतिष्ठितस्तस्मात्प्राणोऽन्नं शरीरमन्ना - दम् । तथा शरीरमप्यन्नं प्राणो - अन्नादः । कस्मात् ? प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम् ; तन्निमित्तत्वाच्छरी स्थिति प्राणके ही कारण है। अतः रस्थितेः । तस्मात्तदेतदुभयं शरीरं | ये दोनों शरीर और प्राण अन्न और प्राणश्चान्नमन्नादश्च । येनान्योन्य- | अन्नाद हैं। क्योंकि वे एक दूसरेमें स्मिन्प्रतिष्ठितं तेनान्नम्। येना- स्थित हैं इसलिये अन्न हैं और क्योंकि एक दूसरे के आधार हैं इसलिये अन्नाद हैं । अतएव प्राण और शरीर दोनों ही अन्न और अन्नाद हैं ।
प्राण ही अन्न है, क्योंकि प्राण शरीर के भीतर रहनेवाला है । जो जिसके भीतर स्थित रहता है वह उसका अन्न हुआ करता है । प्राण शरीरमें स्थित है, इसलिये प्राण अन्न है और शरीर अन्नाद है । इसी प्रकार शरीर भी अन्न है और प्राण अन्नाद है; कैसे ? - प्राण में शरीर स्थित है, क्योंकि शरीरकी
न्योन्यस्य प्रतिष्ठा तेनान्नादः । तस्मात्प्राणः शरीरं चोभयमन्न - मन्नादं च । स य एवमेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठत्यन्नान्नादा- | स्थित जानता है, अन्न और अन्नादरूपसे ही स्थित होता है तथा अन्नत्मनैव । किं चान्नवानन्नादो भव- । वान् और अन्नाद होता है - इत्यादि तीत्यादि पूर्ववत् ॥१॥ शेप अर्थ पूर्ववत् है ॥ १ ॥
वह जो इस प्रकार अन्नको अन्नमें
इति भृगुवल्ल्यां सप्तमोऽनुवाकः ॥ ७ ॥
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अष्टसा तुकाक अनका त्याग न करनारूप व्रत तथा जल और ज्योतिरूप अन-बाके उपासकको प्राप्त होनेवाले फलका वर्णन
अन्नं न परिचक्षीत । तद्रतम् । आपो वा अन्नम् । ज्योतिरन्नादम् । अप्सु ज्योतिः प्रतिष्ठितम् । ज्योतिष्यापः प्रतिष्ठिताः । तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम् । स य एतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति। अन्नवानन्नादो भवति । महान्भवति प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेन । महान्कीया ॥१॥
अन्नका त्याग न करे । यह व्रत है । जल ही अन्न है। ज्योति अन्नाद है । जलमें ज्योति प्रतिष्ठित है और ज्योतिमें जल स्थित है। इस प्रकार ये दोनों अन्न ही अन्नमें प्रतिष्ठित हैं । जो इस प्रकार अन्नको अन्नमें स्थित जानता है वह प्रतिष्ठित होता है, अन्नवान् और अन्नाद होता है, प्रजा, पशु और ब्रह्मतेजके कारण महान् होता है तथा कीर्तिके कारण भी महान होता है ॥१॥
अन्नं न परिचक्षीत न परि-1 अन्नका प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग हरेत् । तद्रुतं पूर्ववत्स्तुत्यर्थम् । होता
न करे, यह व्रत है-यह कथन
पूर्ववत् स्तुतिके लिये है । इस तदेवं शुभाशुभकल्पनया अपरि- प्रकार शुभाशुभकी कल्पनासे उपेक्षा हियमाणं स्तुतं महीकृतमन्नं स्यात्। एवं महिमान्वित किया जाता है।
न किया हुआ अन्न ही यहाँ स्तुत एवं यथोक्तमुत्तरेष्वप्यापो वा तथा आगेके 'आपो वा अन्नम्
" इत्यादि वाक्योंमें भी पूर्वोक्त अर्थकी अन्नमित्यादिषु योजयेत् ॥१॥ ही योजना करनी चाहिये ॥१॥
इति भृगुवल्ल्यामष्टमोऽनुवाकः ॥८॥
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नयम अनुकाक अन्नसञ्चयरूप व्रत तथा पृथिवी और आकाशरूप अन-ब्रह्मके
___ उपासकको प्राप्त होनेवाले फलका वर्णन
अन्न बहु कुर्वीत । तद्वतम् । पृथिवी वा अन्नम् । आकाशोऽन्नादः । पृथिव्यामाकाशः प्रतिष्ठितः । आकाशे पृथिवी प्रतिष्ठिता । तदेतदन्नमन्न प्रतिष्ठितम् । स य एतदन्नमन्न प्रतिष्ठितं वेद प्रतितिष्ठति । अन्नवानन्नादो भवति । महान्भवति प्रजया पशुभिब्रह्मवर्चसेन । महान्कीर्त्या ॥१॥
अन्नको बढ़ावे-यह व्रत है। पृथिवी ही अन्न है। आकाश अन्नाद है । पृथिवीमें आकाश स्थित है और आकाशमें पृथिवी स्थित है। इस प्रकार ये दोनों अन्न ही अन्नमें प्रतिष्ठित हैं । जो इस प्रकार अन्नको अन्नमें स्थित जानता है वह प्रतिष्ठित होता है, अन्नवान् और अन्नाद होता है, प्रजा, पशु और ब्रह्मतेजके कारण महान् होता है तथा कीर्तिके कारण भी महान होता है ॥ १॥ अप्सु ज्योतिरित्यज्योति- पूर्वोक्त 'अप्सु ज्योतिः' आदि
| मन्त्रके अनुसार जल और ज्योतिकी पोरन्नान्नादगुणत्वेनोपासकस्या- | अन्न और अन्नाद गुणसे उपासना
करनेवालेके लिये 'अन्नको बढ़ाना नस्य बहुकरणं व्रतम् ॥१॥
व्रत है' [ -यह बात इस मन्त्रमें कही गयी है 1॥१॥
इति भृगुवल्ल्यां नवमोऽनुवाकः ॥९॥
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इस अनुकाक गृहागत अतिथिको आश्रय और अन्न देनेका विधान एवं उससे प्राप्त होनेवाला फल; तथा प्रकारान्तरसे
नसकी उपासनाका वर्णन न कंचन वसतौ प्रत्याचक्षीत । तद्वतम्। तस्माद्यया कया च विधया बबन्न प्राप्नुयात् । आराध्यस्मा अन्नमित्याचक्षते । एतद्वै मुखतोऽन्नश्राद्धम् । मुखतोऽस्मा अन्नभाध्यते । एतद्वै मध्यतोऽन्नराद्धम् । मध्यतोऽस्मा अन्नराध्यते । एतद्वा अन्ततोऽन्न राद्धम् । अन्ततोऽस्मा अन्नाध्यते ॥१॥
य एवं वेद । क्षेम इति वाचि । योगक्षेम इति प्राणापानयोः। कर्मेति हस्तयोः । गतिरिति पादयोः । विमुक्तिरिति पायौ । इति मानुषीः समाज्ञाः । अथ दैवीः। तृप्तिरिति वृष्टौ । बलमिति विद्युति ॥२॥ ___ यश इति पशुषु ज्योतिरिति नक्षत्रेषु । प्रजातिरमृतमानन्द इत्युपस्थे । सर्वमित्याकाशे । तत्प्रतिष्ठेत्युपासीत । प्रतिष्ठावान् भवति । तन्मह इत्युपासीत । महान् भवति । तन्मन इत्युपासीत । मानवान् भवति ॥३॥
तन्नम इत्युपासीत । नम्यन्तेऽस्मै कामाः । . तब्रह्मेत्युपासीत । ब्रह्मवान् भवति । तद्ब्रह्मणः परिमर
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अनु०१०]
शाङ्करभाष्यार्थ
२१९
इत्युपासीत । पर्येणं म्रियन्ते द्विषन्तः सपत्नाः। परि
येऽप्रिया भ्रातृव्याः । स यश्चायं पुरुषे यश्वासावादित्ये । स एकः ॥ ४ ॥
अपने यहाँ रहने के लिये आये हुए किसीका भी परित्याग न करे । यह व्रत है । अतः किसी-न-किसी प्रकारसे बहुत-सा अन्न प्राप्त करे, क्योंकि वह ( अन्नोपासक ) उस (गृहागत अतिथि ) से 'मैंने अन्न तैयार किया है' ऐसा कहता है । जो पुरुप मुखतः (प्रथम अवस्थामें अथवा मुख्यवृत्तिसे यानी सत्कारपूर्वक ) सिद्ध किया हुआ अन्न देता है उसे मुख्यवृत्तिसे ही अन्नकी प्राप्ति होती है । जो मध्यतः (मध्यम आयुमें अथवा मध्यम वृत्तिसे) सिद्ध किया हुआ अन्न देता है उसे मध्यम वृत्तिसे ही अन्नकी प्राप्ति होती है । तथा जो अन्ततः ( अन्तिम अवस्थामें अथवा निकृष्ट वृत्तिसे ) सिद्ध किया हुआ अन्न देता है उसे निकृष्ट वृत्तिसे ही अन्न प्राप्त होता है |॥ १॥ जो इस प्रकार जानता है [ उसे पूर्वोक्त फल प्राप्त होता है । अब आगे प्रकारान्तरसे ब्रह्मकी उपासनाका वर्णन किया जाता है- ब्रह्म वाणीमें क्षेम ( प्राप्त वस्तुके परिरक्षण ) रूपसे [ स्थित है-इस प्रकार उपासनीय है ], योग-क्षेमरूपसे प्राण और अपानमें, कर्मरूपसे हाथोंमें, गतिरूपसे चरणोंमें और त्यागरूपसे पायुमें [ उपासनीय है ] यह मनुष्यसम्बन्धिनी उपासना है। अब देवताओंसे सम्बन्धित उपासना कही जाती है-तृप्तिरूपसे वृष्टिमें, बलरूपसे विद्युत्में ॥२॥ यशरूपसे पशुओंमें, ज्योतिरूपसे नक्षत्रोंमें, पुत्रादि प्रजा, अमृतत्व और आनन्दरूपसे उपस्थमें तथा सर्वरूपसे आकाशमें [ ब्रह्मकी उपासना करे] । वह ब्रह्म सबका प्रतिष्ठा ( आधार ) है इस भावसे उसकी उपासना करे । इससे उपासक प्रतिष्ठावान् होता है । वह महः [नामक व्याहृति अथवा तेज] है-इस भावसे उसकी उपासना करे। इससे उपासक महान् होता है । वह मन है-इस प्रकार उपासना करे। इससे उपासक मानवान् ( मनन करनेमें समर्थ ) होता है ॥ ३॥ वह नमः है-इस
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली ३
भावसे उसकी उपासना करे । इससे सम्पूर्ण काम्य पदार्थ उसके प्रति विनम्र हो जाते हैं । वह ब्रह्म है— इस प्रकार उसकी उपासना करे | इससे वह ब्रह्मनिष्ठ होता है । वह ब्रह्मका परिमर ( आकाश ) है - इस प्रकार उसकी उपासना करे । इससे उससे द्वेष करनेवाले उसके प्रतिपक्षी मर जाते हैं, तथा जो अप्रिय भ्रातृव्य ( भाईके पुत्र ) होते हैं वे भी मर जाते हैं । वह, जो कि इस पुरुषमें है और वह जो इस आदित्य में है, एक है ॥ ४ ॥
तथा पृथिव्याकाशोपासकस्य
तथा पृथिवी और आकाशकी वसतौ वसतिनि- | [ अन्न एवं अन्नादरूपसे ] उपासना मित्तं कंचन कंचि- करनेवालेके यहाँ रहनेके लिये कोई भी आये उसे उसका परित्याग नहीं करना चाहिये । अर्थात् अपने यहाँ निवास करनेके लिये आये हुए किसी भी व्यक्तिका वह निवारण न करे । जब किसीको रहनेका स्थान दिया जाय तो उसे भोजन भी विधया येन केन च प्रकारेण | अवश्य देना चाहिये । अतः जिस
दपि न प्रत्याचक्षीत वसत्यर्थ मागतं न निवारयेदित्यर्थः ।
वासे च दत्तेऽवश्यं द्यशनं दात
व्यम् । तस्माद्यया कया च
प्राप्नुयाद्रह्वन्नसंग्रहं
बह्वन्नं कुर्यादित्यर्थः ।
किसी भी विधिसे यानी किसी-नकिसी प्रकार बहुत-सा अन्न प्राप्त करे; अर्थात् खूब अन्न-संग्रह करे ।
आतिथ्योपदेशः
यस्मादन्नवन्तो विद्वांसोऽभ्या- क्योंकि अन्नवान् उपासकगण गतायान्नार्थिनेऽराधि संसिद्ध- अपने यहाँ आये हुए अन्नार्थीसे मस्मा अन्नमित्याचक्षते न 'अन्न तैयार है' ऐसा कहते हैं
नास्तीति प्रत्याख्यानं कुर्वन्ति । परित्याग नहीं करते । इसलिये भी 'अन्न नहीं है' ऐसा कहकर उसका तस्माच्च हेतोर्बह्वन्नं प्राप्नुयादिति | बहुत-सा अन्न उपार्जन करे - इस पूर्वेण संवन्धः । अपि चान्नदा- | प्रकार इसका पूर्ववाक्यसे सम्बन्ध
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अनु०१०]
शाङ्करभाष्यार्थ
२२१
नस्य माहात्म्यमुच्यते । यथा है । अब अन्नदानका माहात्म्य कहा
जाता है जो पुरुष जिस प्रकार यत्कालं प्रयच्छत्यन्नं तथा
और जिस समय अन्न-दान करता तत्कालमेव प्रत्युपनमते । कथ- है उसे उसी प्रकार और उसी समय
उसकी प्राप्ति होती है। ऐसा किस मिति तदेतदाह
प्रकार होता है ? सो बतलाते हैंएतद्वा अन्नं मुखतो मुख्ये | जो पुरुप मुखतः-मुख्य-प्रथम वृत्तिभेदेनान- प्रथमे वयसि मु-अवस्थाम अथवा मुख्य वृत्तिसे यानी दानस्य फलभेदः ख्यया वा वृत्त्या
सत्कारपूर्वक राद्ध अर्थात् सिद्ध
पक) अन्नको अपने यहाँ आये पूजापुरःसरमभ्यागतायान्नार्थिने हुए अन्नार्थी अतिथिको देता हैराद्धं संसिद्ध प्रयच्छतीति वाक्य- यहाँ प्रयच्छति ( देता है) यह शेषः । तस्य किं फलं स्यादि
क्रियापद वाक्यशेष (अनुक्त अंश)
है-उसे क्या फल मिलता है, सो त्युच्यते-मुखतः पूर्व वयसि
बतलाया जाता है-इस अन्नदाताको मुख्यया वा वृत्त्यास्मा अन्नादा- मुखतः-प्रथम अवस्थामें अथवा यानं राध्यते यथादत्तमुपतिष्ठत | मुख्य वृत्तिसे अन्न प्राप्त होता है।
| अर्थात् जिस प्रकार दिया जाता है इत्यर्थः । एवं मध्यतो मध्यमे |
॥ भव्य उसी प्रकार प्राप्त होता है। इसी वयसि मध्यमेन चोपचारेण । प्रकार मध्यतः-मध्यम आयुमें अथवा . तथाऽन्ततोऽन्ते वयसि जघन्येन मध्यम वृत्तिसे तथा अन्ततः-अन्तिम चोपचारेण परिभवेन तथैवास्मै आयुमें अथवा निकृष्ट वृत्तिसे यानी
तिरस्कारपूर्वक देनेसे इसे उसी राध्यते संसिध्यत्यन्नम् ॥१॥
प्रकार अन्नकी प्राप्ति होती है ॥१॥ य एवं वेद य एवमन्नस्य - जो इस प्रकार जानता है-जो यथोक्तं माहात्म्यं वेद तदानस्य | इस प्रकार अन्नका पूर्वोक्त माहात्म्य च फलम् , तस्य यथोक्तं फल- और उसके दानका फल जानता है मुपनमते।
| उसे पूर्वोक्त फलकी प्राप्ति होती है।
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२२२
तैत्तिरीयोपनिपद्
[ वल्ली३
इदानी ब्रह्मण उपासनप्रकार अब ब्रह्मकी उपासनाका [ एक सोपालन- उज्यते--क्षेस इति । और ] प्रकार बतलाया जाता है
'क्षेम है' इस प्रकार वाणीमें । प्राप्त प्रकारान्तराणि वाचि । क्षेमो ना
पदार्थकी रक्षा करनेका नाम क्षेम' , 'मानुपी तमाश' मोपात्तपरिरक्षणम्। है। वाणीमें ब्रह्म क्षेमरूपसे स्थित ब्रह्म वाचि क्षेमरूपेण प्रतिष्ठित- है-इस प्रकार उसकी उपासना मित्युपास्यम् । योगक्षेम इति, !
करनी चाहिये । 'योगक्षेम'-अप्राप्त
वस्तुका प्राप्त करना 'योग' कहलाता योगोऽनुपात्तस्योपादानम् , तो है। वे योग और क्षेम यद्यपि हि योगक्षेमी प्राणापानयोः सतो- बलवान् प्राण और अपानके रहते र्भवतो यद्यपि तथापि न प्राणा
हुए ही होते हैं, तो भी उनका
कारण प्राण एवं अपान ही नहीं पाननिमित्तावेव किं तर्हि ब्रह्म- है। तो उनका कारण क्या है ? निमित्तौ । तस्साहा योगक्षेमा- वे ब्रह्मके कारण ही होते हैं । अतः स्मना प्राणापानयोः प्रतिष्ठित
योगक्षेमरूपसे ब्रह्म प्राण और अपान
में स्थित है-इस प्रकार उसकी मित्युपास्यम् ।
उपासना करनी चाहिये । एवमुत्तरेष्वन्येषु तेन तेना- इसी प्रकार आगेके अन्य पर्यायोंस्मना ब्रह्मैवोपास्यम् । कर्मणो
में भी उन-उनके रूपसे ब्रह्मकी ही
उपासना करनी चाहिये । कर्म ब्रह्मनिर्वय॑त्वाद्धस्तयोः कर्मा- | ब्रह्मकी ही प्रेरणासे निप्पन होता त्मना ब्रह्म प्रतिष्ठितमित्युपा
है; अतः हाथोंमें ब्रह्म कर्मरूपसे स्थित
है-इस प्रकार उसकी उपासना. स्यम् । गतिरिति पादयोः। करनी चाहिये । चरणोंमें गतिरूपसे विमुक्तिरिति पायो ।. इत्येता
और पायुमें विसर्जनरूपसे [प्रतिष्ठित
समझकर उसकी उपासना करे। - मानुपीमनुष्येषु भवा मांनुष्य इस प्रकार यह मानुषी-मनुष्योंमें
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अनु० १०J
शाङ्करभाष्यार्थ
२२३
'देवी समास भवाः समाज्ञा उ
समाज्ञाः, आध्यात्मिक्यः समाज्ञा रहनेवाली समाज्ञा है, अर्थात् यह ज्ञानानि विज्ञानान्युपासनानी
| आध्यात्मिक समाज्ञा-ज्ञान-विज्ञान
" यानी उपासना है-यह इसका त्यर्थः।
| तात्पर्य है। अथानन्तरं दैवीर्दैव्यो देवेषु अब इसके पश्चात् दैवी-देव
। सम्बन्धिनी अर्थात् देवताओंमें होने
वाली समाज्ञा कही जाती है । तृप्ति _ च्यन्ते । तृप्तिरिति इस भावसे वृष्टिमें [ब्रह्मकी उपासना वृष्टौ। वृष्टेरन्नादिद्वारेण वृप्ति- | करे ] । अन्नादिके द्वारा वृष्टि तृप्ति
का कारण है। अतः तृप्तिरूपसे हेतुत्वाबींव तृप्त्यात्मना वृष्टो ब्रह्म ही वृष्टिमें स्थित है-इस प्रकार व्यवस्थितमित्युपास्यम्। तथान्येषु उसकी उपासना करनी चाहिये ।
इसी प्रकार अन्य पर्यायोंमें भी उनतेन तेनात्मना ब्रह्मैवोपास्यम् ।
उनके रूपसे ब्रह्मकी ही उपासना तथा वलरूपेण विद्युति ॥२॥ करनी चाहिये । अर्थात् बलरूपसे
विद्युत् में ॥२॥ यशरूपसे पशुओंमें, यशोरूपेण पशुपु । ज्योतीरूपेण
" | ज्योतिरूपसे नक्षत्रोंमें, प्रजाति नक्षत्रेषु । प्रजातिरमृतममृतत्व- (पुत्रादि प्रजा) अमृत-अर्थात् पुत्रेप्राप्तिः पुत्रेण ऋणविमोक्षद्वारेणा
द्वारा पितृऋणसे मुक्त होनेके द्वारा
अमृतत्वकी प्राप्ति औरआनन्द-सुख नन्दः सुखमित्येतत्सर्वमुपस्थनि- ये सत्र उपस्थके निमित्तसे हो मित्तं ब्रह्मैवानेनात्मनोपस्थे प्रति- | होनेवाले हैं; अतः इनके रूपसे
ब्रह्म ही उपस्थमें स्थित है-इस प्रकार ष्ठितमित्युपास्यम् ।
उसकी उपासना करनी चाहिये । - सर्वं ह्याकाशे प्रतिष्ठितमतो। सब कुछ आकाशमें ही स्थित
है। अतः आकाशमें जो कुछ है यत्सर्वमाकाशे तौवेत्युपास्यम्। वह सब ब्रह्म ही है-इस प्रकार
उसकी उपासना करनी चाहिये । तच्चाकाशं ब्रह्मैव । तसात्तत् । तथा वह आकाश भी ब्रह्म ही है ।
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ चली ३
सर्वस्य प्रतिष्ठेत्युपासीत । प्रतिष्ठा | अतः वह सबकी प्रतिष्ठा ( आश्रय ) हैं - इस प्रकार उसकी उपासना करे । गुणोपासनात्प्रतिष्ठावान्भवति । प्रतिष्ठा गुणवान् ब्रह्मकी उपासना करनेसे उपासक प्रतिष्टावान् होता एवं पूर्वेष्वपि यद्यत्तदधीनं फलं । हैं । ऐसा ही पूर्व सब पर्यायाम समझना चाहिये । जो-जो उसके ही है।
तद्ब्रह्मैव
तदुपासनात्तद्वान्भवनीति | अधीन फल है यह
उसकी उपासना से पुरुष उसी फलसे द्रष्टव्यम् । श्रुत्यन्तराच - "तं युक्त होता है - ऐसा जानना चाहिये । यही बात "जिस-जिस प्रकार उसकी उपासना करता है वह (उपासक) वही हो जाता है" इस एक दूसरी श्रुतिसे प्रमाणित होती है ।
यथा यथोपासते तदेव भवति"
इति ।
૨૪
वह मह: है - इस प्रकार उसकी उपासना करें | महः अर्थात् महत्त्व गुणवाला है - ऐसे भावसे उसकी उपासना करे । इससे उपासक महान् हो जाता है । वह मन है - मननं मनः । मानवान्भवति | इस प्रकार उसकी उपासना करे ।
मननसमर्थो भवति ॥ ३ ॥ तन्नम इत्युपासीत । नमनं नमो नमन - गुणवत्तदुपासीत । नम्यन्ते प्रह्णीभवन्त्यमा उपासित्रे कामाः
मननका नाम मन है । इससे वह मानवान्-मनन में समर्थ हो जाता है ॥३॥ वह नमः है - इस प्रकार उसकी उपासना करे। नमनका नाम 'नमः' कर उपासना करे । इससे उस है अर्थात् उसे नमन - गुणवान् समझ
काम्यन्त इति भोग्या विषया | उपासकके प्रति सम्पूर्ण काम - जिनकी कामना की जाय वे भोग्य विषय नत अर्थात् विनम्र हो जाते हैं ।
इत्यर्थः ।
तन्मह इत्युपासीत । महो
महत्त्वगुणवत्तदुपासीत । महान् भवति । तन्मन इत्युपासीत ।
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अनु० १०]
शाङ्करभाप्यार्थ
२२५
तब्रह्मेत्युपासीत । ब्रह्म परि- वह ब्रह्म है-इस प्रकार उसकी वटतममित्यणासीत । ब्रह्मांत- उपासना करे । ब्रह्म यानी सबसे
वढ़ा हुआ है-इस प्रकार उपासना गुणो भवति । तद्ब्रह्मणः परिमर |
| करे । इससे वह ब्रह्मवान्-ब्रह्मके से इत्युपासीत । ब्रह्मणः परिमरः | गुणवाला हो जाता है। वह ब्रह्मका
परिमर है-इस प्रकार उसकी परिम्रियन्तेऽस्मिन्पश्च देवता उपासना करे । ब्रह्मका परिमरविद्युदृष्टिश्चन्द्रमा आदि- जिसमें विद्युत् ,वृष्टि, चन्द्रमा,आदित्य
और अग्नि-ये पाँच देवता मृत्युको त्योऽग्निरित्येताः। अतो वायुः ।
प्राप्त होते हैं उसे परिमर कहते हैं; परिमरः श्रुत्यन्तरप्रसिद्धः । स अतः वायु ही परिमर है, जैसा कि एप एवायं वायुराकाशेनानन्य [ "वायुव संवर्गः” इस ] एक
| अन्य श्रुतिसे सिद्ध होता है । वही इत्याकाशो ब्रह्मणः परिमरः,
यह वायु आकाशसे अभिन्न है,इसलिये तमाकाशं वाय्वात्मानं ब्रह्मणः | आकाश ही ब्रह्मका परिमर है । अतः परिमर इत्युपासीत ।
वायुरूप आकाशकी 'यह ब्रह्मका
परिमर है' इस भावसे उपासना करे। एनमेवंविदं प्रतिस्पर्धिनो| इस प्रकार जाननेवाले इस द्विपन्तोऽद्विपन्तोऽपि सपना यतो उपासकके द्वेप करनेवाले प्रतिपक्षीभवन्त्यतो विशेष्यन्ते द्विपन्तः |
.. क्योंकि प्रतिपक्षी द्वेप न करनेवाले
भी होते हैं इसलिये यहाँ 'द्वप सपना इति, एनं द्विपन्तः
करनेवाले' यह विशेपण दिया गया सपत्नास्ते परिम्रियन्ते प्राणाज-है-मर जाते हैं अर्थात् प्राण त्याग हति । किं च ये चाप्रिया अस्य देते हैं। तथा इसके जो अप्रिय भ्रातृव्या अद्विपन्तोऽपि ते च भ्रातृव्य होते हैं वे, द्वेप करनेवाले परिम्रियन्ते ।
न होनेपर भी, मर जाते हैं। २९-३०
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तैत्तिरीयोपनिषद्
[वल्ली ३
'प्राणो वा अन्नं शरीरमन्ना- 'प्राण ही अन्न है और शरीर भालनोऽसंता- दस्' इत्यारस्याका- अन्नाद है यहाँसे लेकर आकाशपर्यन्त रित्वस्थापनम् शान्तस्य कार्यस्यै- कार्यवर्गका ही अन्न और अन्नादत्व वान्नान्नादत्वमुक्त। प्रतिपादन किया गया है। . । उक्तं नाम किं तेन ? पूर्व०कहा गया है सो इससे
क्या हुआ ? तेनैतसिद्धं भवति-कार्य- सिद्धान्ती-इससे यह सिद्ध
.. होता है कि भोज्य और भोक्ताके विषय एच भोज्यभोहत्वकृतः
"कारण होनेवाला संसार कार्यवर्गसे संसारो नत्वात्मनीति । आत्मनि ही सम्बन्धित है, वह आत्मामें नहीं तु भ्रान्त्योपचर्यते।
है; आत्मामें तो भ्रान्तिवश उसका
उपचार किया जाता है। नन्वात्मापि परमात्मनः कार्य पूर्व०-परन्तु आत्मा भी तो ततो युक्तस्तस्य संसार इति ।
! परमात्माका कार्य है । इसलिये उसे
संसारकी प्राप्ति होना उचित ही है ? न; असंसारिण एव प्रवेश- सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि प्रवेशश्रुतेः । “तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्रावि- श्रुति असंसारीका ही प्रवेश प्रति
पादन करती है । "उसे रचकर वह शत्" (तै० उ० २।६।१)
पीछेसे उसीमें प्रविष्ट हो गया" इस इत्याकाशादिकारणस्य ह्यसंसा- श्रुतिद्वारा आकाशादिके कारणरूप रिण एव परमात्मनः कार्येष्वनु- असंसारी परमात्माका ही कार्योमें प्रवेशः श्रूयते । तस्मात्कार्यान- अनुप्रवेश सुना गया है। अतः प्रविष्टो जीव आत्मा पर एव
कार्यमें अनुप्रविष्ट जीवात्मा असंसारी असंसारी। सृष्ट्वानुप्राविशदिति प्रविष्ट हो गया' इस वाक्यसे एक
| परमात्मा ही है। 'रचकर पीछेसे समानककत्वोपपत्तेश्च । सर्ग-1 ही कर्ता होना सिद्ध होता है । यदि
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अनु० १०]
शाकरभाज्यार्थ
૨૨૭
प्रवेशक्रिययोश्चैकश्चेत्कर्ता ततः सृष्टि और प्रवेशक्रियाका एक ही
कर्ता होगा तभी 'क्वा' प्रत्यय होना क्वाप्रत्ययो युक्तः।
युक्त होगा। । प्रविष्टस्य तु भावान्तरापत्ति- पूर्व०-प्रवेश कर लेनेपर उसे
दूसरे भावकी प्राप्ति हो जाती हैरिति चेत् ?
ऐसा माने तो? ना प्रवेशस्यान्यार्थत्वेन सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि प्रवेश
का प्रयोजन दूसरा ही है-ऐसा प्रत्याख्यातत्वात् । “अनेनजीवे
| कहकर हम इसका • पहले ही नात्मना" (छा० उ०६।३।
निराकरण कर चुके हैं ।* यदि
कहो कि "अनेन जीवेन आत्मना" २) इति विशेपश्रुतेधर्मान्तरेणा- इत्यादि विशेष श्रुति होनेके कारण
उसका धर्मान्तररूपसे ही प्रवेश नुप्रवेशइतिचेत् ? न, "तत्वमसि" होता है तो ऐसा कहना ठीक नहीं,
| क्योंकि "वह तू है" इस श्रुतिद्वारा इति पुनस्तद्भावोक्तः । भावा- पुनः उसकी तपताका वर्णन किया न्तरापन्नस्यैव तदपोहार्था संप
गया है। और यदि कहो कि भावान्तर
को प्राप्त हुए ब्रह्मके उस भावका दिति चेत् ? न; "तत्सत्यं स | निषेध करनेके लिये ही वह केवल
दृष्टिमात्र कही गयी है तो ऐसी बात आत्मा तत्त्वमसि" (छा० उ० भी नहीं है, क्योंकि "वह सत्य है, ६१८-१६) इति सामानाधि
वह आत्मा है, वह तू है" इत्यादि
श्रुतिसे उसका परमात्माके साथ करण्यात् ।
| सामानाधिकरण्य सिद्ध होता है। दृष्टं जीवस्य संसारित्वमिति पूर्व-जीवका संसारित्व तो चेत् ?
स्पष्ट देखा है।
* देखिये ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवाक ६ का भाष्य ।
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૨૨
रियोपनिपद
[चल्ली ३
ना उपलब्धुरनुपलस्पत्याए सिद्धान्ती-नहीं, क्योंकि जो
| (जीव) सबका द्रष्टा है वह देखा
नहीं जा सकता। संसारधर्मविशिष्ट आत्मोप- पूर्व०-सांसारिक धर्मोसे युक्त , लम्यत इति गर?
आत्मा तो उपलब्ध होता ही है ? । ना धर्माणां धर्मिणोऽव्यति- सिद्धान्ती-ऐसी बात नहीं है।
क्योंकि धर्म अपने धर्मीसे अभिन्न रेकारकत्वानुपपत्ते, उष्णप्र- होते हैं अतः वे उसके कर्म नहीं
हो सकते, जिस प्रकार कि [ सूर्यके काशयोदशप्रकाश्यत्वानुपपत्ति-धर्म उष्ण और प्रकाशका दाह्यत्व
और प्रकाश्यत्व सम्भव नहीं है। वत् ।त्रासादिदशेनान्तुःखित्वा- यदि कहो कि भय आदि देखनेसे धनसीयत इति चेताया- आत्माके दुःखित्व आदिका अनुमान
होता ही है तो ऐसा कहना भी देर्दुःखस्य चोपलभ्यमानत्वानो-ठीक नहीं, क्योंकि भय आदि दुःख
उपलब्ध होनेवाले होनेके कारण पलब्धृधर्मत्वम् ।
उपलब्ध करनेवाले [आत्मा के
धर्म नहीं हो सकते। कापिलकाणादादितर्कशास्त्र- पूर्व-परन्तु ऐसा माननेसे तो विरोध इति चेत् ?
कपिल और कणाद आदिके तर्क
शास्त्रसे विरोध आता है। ना तेषां मूलाभावे वेद- सिद्धान्ती-ऐसा कहना ठीक विरोधे च भ्रान्तत्वोपपत्तेः । न होनेसे और वेदसे विरोध होनेसे
नहीं, क्योंकि उनका कोई आधार
भ्रान्तिमय होना उचित ही है। श्रुति श्रुत्युपपत्तिभ्यां च सिद्धमात्म- और युक्तिसे आत्माका असंसारित्व नोऽसंसारित्वमेकत्वाच्च
सिद्ध होता है तथा एक होनेके ।। कारण भी ऐसा ही जान पड़ता है।
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अनु० १० ]
शाङ्करभाष्यार्थ
कथमेकत्वमित्युच्यते - स यश्चायं उसका एकत्व कैसे है ? सो सत्रका
सत्र पूर्ववत् 'वह जो कि इस
पुरुपमें है और जो यह आदित्यमें
वाक्यद्वारा
पुरुषे यथासाचादित्ये
इत्येवमादि पूर्ववत् हूँ एक है' इस
बतलाया गया है ॥ ४ ॥
एक
सर्वम् ॥ ४ ॥
आदित्य और देहोपाधिक चेतनकी एकता जाननेवाले उपासकको मिलनेवाला फल
२२९
स य एवंवित् । अस्माल्लोकात्प्रेत्य । एतमन्नमयमात्मानमुपसंक्रम्य । एतं प्राणमयमात्मानमुपसंक्रम्य । एतं मनोमयमात्मानमुपसंक्रम्य । एतं विज्ञानमयमात्मानसुपसंक्रम्य । एतमानन्दमयमात्मानमुपसंक्रम्य । इमाँल्लोकान्कामान्नी कामरूप्यनुसंचरन् । एतत्साम गायन्नास्ते । हा ३ वु हा ३ वु हा ३ वु ॥ ५ ॥
वह जो इस प्रकार जाननेवाला है इस लोक ( दृष्ट और अदृष्ट विषय - समूह ) से निवृत्त होकर इस अन्नमय आत्माके प्रति संक्रमण कर, इस प्राणमय आत्माके प्रति संक्रमण कर, इस मनोमय आत्माके प्रति संक्रमण कर, इस विज्ञानमय आत्माके प्रति संक्रमण कर, तथा इस आनन्दमय आत्माके प्रति संक्रमण कर इन लोकोंमें कामानी ( इच्छानुसार भोग भोगता हुआ ) और कामरूपी होकर ( इच्छानुसार रूप धारण कर) विचरता हुआ यह सामगान करता रहता है - हा ३ वु हा ३ वु हा ३ वु ॥ ५ ॥
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[ चली ३
अनमय आदिके क्रमले आनन्द
अन्नमयादिक्रमेणानन्दमचमात्मानमुपसंक्रम्यैतत्साम गाय मय आत्माके प्रति संक्रमण कर वह
नास्ते ।
यह सामगान करता रहता है ।
२३०
तैत्तिरीयोपनिषद्
'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म' इस चाके अर्थकी, इसकी विवरणभूता सोऽश्नुते व्याख्यातो विस्तब्रह्मानन्दवल्लीके द्वारा विस्तारपूर्वक सर्वान्कामानिति रेण तद्विवरणभूत - | व्याख्या कर दी गयी थी । किन्तु
मीमांस्यते
यानन्दवथा || उसके फलका निरूपण करनेवाले "सोऽनुते सर्वान्कामान् | " वह सर्वज्ञ ब्रह्मखरूपसे एक साथ ब्रह्मणा विपश्चिता" ( तै० उ० | इस वचनके अर्थका विस्तारपूर्वक सम्पूर्ण भोगोंको प्राप्त कर लेता है"
२ । १ ) इति तस्य फलवचन
वर्णन नहीं किया गया था । वे स्यार्थविस्तारो नोक्तः । के ते विषयोंसे सम्बन्ध है ? और किस भोग क्या हैं ? उनका किन किंविपया वा सर्वे कामाः कथं | प्रकार वह उन्हें ब्रह्मरूपसे एक साथ ही प्राप्त कर लेता है ? -यह सब बतलाना है, अतः अत्र इसीका विचार आरम्भ किया जाता है
या ब्रह्मणा सह समश्नुत इत्येतद्वक्तव्यमितीदमिदानीमारम्यते -
सत्यं ज्ञानमित्यस्या ऋचोsa
तत्र पितापुत्राख्यायिकायां पूर्वविद्याशेपभूतायां तपो ब्रह्मविद्यासाधनमुक्तम् । प्राणादेरा
तहाँ पूर्वोक्त विद्याकी शेपभूत पितापुत्र सम्वन्धिनी आख्यायिकामें तप ब्रह्मविद्याकी प्राप्तिका साधन बतलाया गया है; तथा भाकाशपर्यन्त काशान्तस्य च कार्यस्यान्नान्ना - अन्नादरूपसे विनियोग एवं ब्रह्मप्राणादि कार्यवर्गका अन्न और
दवेन विनियोगश्रोक्तः, ब्रह्मसम्बन्धिनी उपासनाओं का प्रतिपादन किया गया विषयोपासनानि च । ये च सर्वे | आकाशादि कार्यभेदसे सम्बन्धित है । इसी प्रकार
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अनु०१०]
शाकरभाष्यार्थ
२३१
भेदजातस्य सर्वस्थात्मभूतत्त्वात् ।
कामाः प्रतिनियतानेकसाधन- एवं प्रत्येकके लिये नियत अनेक
साधनोंसे सिद्ध होनेवाले जो सम्पूर्ण साध्या आकाशादिकार्यभेद- भोग हैं वे भी दिखला दिये गये हैं।
परन्तु यदि आत्माका एकत्व स्वीकार विपया एते दर्शिताः । एकत्वे किया जाय तब तो काम और
कामित्वका होना ही असम्भव होगा, पुनः कामकामित्वानुपपत्तिः ।
क्योंकि सम्पूर्ण भेदजात आत्मस्वरूप ही है । ऐसी अवस्थामें इस प्रकार
| जाननेवाला उपासक ब्रह्मरूपसे तत्र कथं युगपद्ब्रह्मस्वरूपेण
किस प्रकार एक ही साथ सम्पूर्ण
| भोगोंको प्राप्त कर लेता है ? सो सन्किामानेवं वित्समश्नुत इत्यु
वतलाया जाता है-उसका सर्वात्म
भाव सम्भव होनेके कारण ऐसा हो च्यते-सर्वात्मत्वोपपत्तेः। सकता है।* कथंसर्वात्मत्वोपपत्तिरित्याह- उसका सर्वात्मत्व किस प्रकार
सम्भव है ? सो बतलाते हैं-पुरुप पुरुषादित्यस्थात्मकत्वविज्ञानेना- और आदित्यमें स्थित आत्माके पोह्योत्कर्षापकर्पावन्नमयाद्यात्मनो
एकत्वज्ञानसे उनके उत्कर्ष और
अपकर्षका निराकरण कर आत्माके विद्याकल्पितान्क्रमेण संक्रम्या
अज्ञानसे कल्पना किये हुए अन्नमयसे
लेकर आनन्दमयपर्यन्त सम्पूर्ण नन्दमयान्तान्सत्यं ज्ञानमनन्तं कोशोंके प्रति संक्रमण कर जो सबका
फलखरूप है उस अदृश्यादि धर्मब्रह्मादृश्यादिधर्मकं स्वाभाविक
माविक | वाले स्वाभाविक आनन्दवरूप
* तात्पर्य यह है कि जो ब्रह्मकी अमेदोपासना करते-करते उससे तादात्म्य अनुभव करने लगता है वह सबका अन्तरात्मा ही हो जाता है; इसलिये सबके अन्तरात्मस्वरूपसे वह सम्पूर्ण भोगोंको भोगता है।
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રરર
तैत्तिरीयोपनिषद्
[घल्ली ३
मानन्दमजममृतमभयमहतं फल- अजन्ना, अमृत, अभय, अद्वैत एवं
सत्य, ज्ञान और अनन्त ब्रह्मको भृतमापन्न इमल्होकान्भूरादीन- प्राप्त हो इन भूः आदि लोकॉम
..: सद्धार करता हुआ-इस प्रकार इन दुसंचरनिति व्यवहितन संबन्धः
। व्यवधानयुक्त पदोंसे इन वाक्यका कथमनुसंचरन् ? कामानी सम्बन्ध है-किस प्रकार सवार
करता हुआ ? कानान्नी-जिसको कामतोऽन्नमस्येति कामान्नी । इन्छासे ही अन्न प्राप्त हो जाय उसे
कामानी कहते हैं, तथा जिसे इच्छासे तथा कामतो रूपाण्यस्येति । ही [इष्ट] रूपोंकी प्राप्ति हो कामरूपी । अनुरांचरन्सर्वात्मने-जाय ऐसा कामरूपी होकर सञ्चार
करता हुआ अर्थात् सर्वात्मभावले माँल्लोकानात्मत्वेनानुभवन्- इन लोकोंको अपने आत्मारूपसे किम् ? एतत्साम गायनास्ते ।
| अनुभव करता हुआ क्या करता है ?
इस सामका गान करता रहता है । समत्वाद्ब्रह्मैव साम सर्वा- समरूप होनेके कारण ब्रह्म ही ब्रह्मविदः नाम- नन्यरूपं गायश
साम है। उस सबसे अभिन्नरूप गानाभिप्रायः व्दयन्नात्मकत्वं प्र- अर्थात लोकपर अनुग्रह करनेके लिये
सामका गान-उच्चारण करता हुआ ख्यापर्यंल्लोकानुग्रहार्थ तद्विज्ञान
आत्माकी एकताको प्रकट करता
| हुआ और उसकी उपासनाके फल फलं चातीव कृतार्थत्वं गायन्ना- अत्यन्त कृतार्थत्वका गान करता
हुआ स्थित रहता है । किस प्रकार स्ते तिष्ठति । कथम् ? हा ३ वु!
। कथम् ' हा २ वु गान करता है-हा ३ वु ! हा हा३वु! हाश्वु! अहो इत्येतसिन- ३ वु! हा ३ वु ! ये तीन शब्द
'अहो !' इस अर्थमें अत्यन्त विस्मय र्थेऽत्यन्तविसयख्यापनार्थम् ॥५॥ प्रकट करनेके लिये हैं ॥ ५॥
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अनु० १०]
शाङ्करभाष्यार्थ
२३३
.. ब्रह्मवेत्ताद्वारा गाया जानेवाला साम। ' . का पुनरसौ विलयः ? किन्तु वह विस्मय क्या है ? सो इत्युच्यते
बतलाया जाता है- . . अहमन्नमहमन्नमहमन्नम् । अहमन्नादो३ ऽहमन्नादो३ ऽहमन्नादः । अह श्लोककृदह श्लोककृदह श्लोककृत् । अहमस्मि प्रथमजा ऋतारस्य । पूर्व देवेभ्योऽमृतस्य ना३ भायि । यो मा ददाति स इदेव माश्वाः । अहमन्नमन्नमदन्तमाझि । अहं विश्वं भुवनमभ्यभवायम् । सुवर्न ज्योतीः य एवं वेद । इत्युपनिषत् ॥ ६॥ . मैं अन्न (भोग्य ) हूँ, मैं अन्न हूँ, मैं अन्न हूँ, मैं ही अन्नाद (भोक्ता) हूँ, मैं ही अन्नाद हूँ, मैं ही अन्नाद हूँ; मैं ही श्लोककृत ( अन्न और अन्नादके संघातका कर्ता) हूँ, मैं ही श्लोककृत् हूँ, मैं ही श्लोककृत हूँ। मैं ही इस सत्यासत्यरूप जगत्के पहले उत्पन्न हुआ [ हिरण्यगर्भ ] हूँ । मैं ही देवताओंसे पूर्ववर्ती बिराट् एवं अमृतत्वका केन्द्रखरूप हूँ। जो [अन्नखरूप ] मुझे [अन्नार्थियोंको ] देता है वह इस प्रकार मेरी रक्षा करता है, किन्तु [जो मुझ अन्नस्वरूपको दान न करता हुआ खयं भोगता है उस ] अन्न भक्षण करनेवालेको मैं अन्नरूपसे भक्षण करता हूँ। मैं इस सम्पूर्ण भुवनका पराभव करता हूँ, हमारी ज्योति सूर्यके समान नित्यप्रकाशखरूप है । ऐसी यह उपनिषद् [ब्रह्मविद्या ] है । जो इसे इस प्रकार जानता है [ उसे पूर्वोक्त फल प्राप्त होता है॥६॥ . अद्वैत आत्मा निरञ्जनोऽपि निर्मल अद्वैत आत्मा होनेपर भी सन्नहमेवानमन्नादश्च । किं चाह- | मैं ही अन्न और अन्नाद हूँ, तथा मैं मेव श्लोककृत् । श्लोको नामा- ही श्लोककृत् हूँ। 'श्लोक' अन्न और नानादयोः संघातस्तस्य कर्ता अन्नादके संघातको कहते हैं उसका
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२३४
तैत्तिरीयोपनिषद्
[बल्ली ३
चेतनावात् । अन्नस्यैव वा परा- ' चेतनावान् शर्ता हुँ । अथवा परार्थ र्थस्यान्नादार्थस्य सतोऽनेकात्म- यानी अन्नादके लिये होनेवाले अन्नका, कस्य पारार्थेन हेतुना संपात-जा
अनेकारमक है, मैं संवात करनेवाला कृत् । निरुक्तिर्विसायत्वख्याप
है। मूलमें जो तीन बार कहा गया है नार्थी।
| यह विस्मयत्व प्रकट करने के लिये है। अहससि भवामि । प्रथमजाः मैं इस ऋत-सत्य यानी मृतप्रथमजः प्रथमोत्पन्न जातस्य मूर्तरूप जगत्का 'प्रथमजा--प्रथम सत्यस्य मूर्तामूर्तस्वास जगतः। उत्पन्न होनेवाला (हिरण्यगर्भ) हूँ। देवेभ्यश्च पूर्वम् । अमृतस्य नाभि
मैं देवताओंसे पहले होनेवाला और
| अमृतका नाभि यानी अमरत्वका रमृतत्वस्थ नाभिर्मध्यं मत्संस्थ
मध्य (केन्द्रस्थान ) हूँ, अर्थात् समृतत्व प्राणिनामत्यर्थः। प्राणियोंका अमृतत्व मेरेमें स्थित है।
यः कश्चिन्मा मामन्त्रमन्नार्थि- जो कोई अन्नरूप मुझे अन्नार्थियोंभ्यो ददाति प्रयच्छत्यन्नात्मता को दान करता है अर्थात् अन्नात्म
भावसे मेरा वर्णन करता है वह ब्रवीति स इदित्थमेवमविनष्टं ।
इस प्रकार अविनष्ट और यथार्थ यथाभूतमावा अवतीत्यर्थः । यः अन्नखरूप मेरी रक्षा करता है। पुनरन्यो मामदत्वार्थिभ्यः काले किन्तु जो समय उपस्थित होनेपर प्राप्तेऽन्नमत्ति तमन्नमदन्तं भक्ष
अन्नार्थियोंको मेरा दान न कर
खयं ही अन्न भक्षण करता है उस यन्तं पुरुषमहमन्नमेव संप्रत्यझि
अन्न भक्षण करनेवाले पुरुषको मैं भक्षयामि।
अन्न ही खा जाता हूँ। अत्राहैवं तर्हि विभेमि सर्वा- इसपर कोई वादी कहता है
| यदि ऐसी बात है तब तो मैं त्मत्वप्राप्तेर्मोक्षादस्तु संसार एव सर्वात्मत्वप्राप्तिरूप मोक्षसे डरता हूँ।
इससे तो मुझे संसारहीकी प्राप्ति
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अनु० १०]
शाकरभाष्यार्थ
२३५
यतो मुक्तोऽप्यहमनभूत आद्यः हो [ यही अच्छा है ], क्योंकि सामन्नस्य।
मुक्त होनेपर मैं भी अन्नभूत होकर
अन्नका भक्ष्य होऊँगा। एवं मा भैपीः संव्यवहार- सिद्धान्ती-ऐसे मत डरो, क्योंकि विषयत्वात्सर्वकामाशनस्य अती
सब प्रकारके भोगोंको भोगना यह
तो व्यावहारिक ही है । विद्वान् तो त्यायं संव्यवहारविषयमन्नान्ना- ब्रह्मविद्याके द्वारा इस अविद्याकृत दादिलक्षणमविद्याकृतं विद्यया अन्न-अन्नादरूप व्यावहारिक विषय
का उल्लघन कर ब्रह्मत्वको प्राप्त हो ब्रह्मत्वमापन्नो विद्वांस्तस्स नैव जाता है । उसके लिये कोई दूसरी द्वितीयं वस्त्वन्तरमस्ति यती वस्तु ही नहीं रहती, जिससे कि
| उसे भय हो । इसलिये तुझे मोक्षसे विभेत्यतो न भेतव्यं मोक्षात् ।
नहीं डरना चाहिये। एवं तहि किमिदमाह-अह- यदि ऐसी बात है तो 'मैं अन्न मनमानिने मोहूँ, मैं अन्नाद हूँ ऐसा क्यों कहा
है-~-ऐसा प्रश्न होनेपर कहा जाता ऽयमन्नान्नादादिलक्षणः संव्यव-यह जो अन्न और अनादरूप हारः कार्यभृतः स संव्यवहार- | कार्यभूत व्यवहार है वह व्यवहार
मात्र हो है-परमार्थवस्तु नहीं है। मात्रमेव न परमार्थवस्तु । स
| वह ऐसा होनेपर भी ब्रह्मका कार्य एवंभृतोऽपि ब्रह्मनिमित्तो ब्रह्म- होनेके कारण ब्रह्मसे पृथक् असत् व्यतिरेकेणासन्निति कृत्वा ब्रह्म
ही है-इस आशयको लेकर ही
| ब्रह्मविद्याके कार्यभूत ब्रह्मभावकी विद्याकार्यस्य ब्रह्मभावस्य स्तुत्य- स्तुतिके लिये 'मैं अन्न हूँ, मैं अन्न थंमुच्यते । अहमन्नमहमन्नमह
हूँ, मैं अन्न हूँ; मैं अन्नाद हूँ, मैं
| अन्नाद हूँ, मैं अन्नाद हूँ' इत्यादि कहा मन्नम् । अहमन्नादोऽहमन्नादो
जाता है। इस प्रकार अविद्याका ऽहमन्नाद इत्यादि । अतो भया- नाश हो जानेके कारण ब्रह्मभूत
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२३६
तैत्तिरीयोपनिषद्
[चल्ली ३
दिदोपगन्धोऽप्यविधानिमित्तो- विद्वान्को अविद्याके कारण होनेवाले विधोच्छेदारभूतस्य नास्तीति। मय
सो भय आदि दोएका गन्ध भी नहीं
होता। अहं विश्वं समस्तं भुवनं भूतः मैं अपने श्रेष्ठ ईश्वररूपसे विश्व । संसजनीयं ब्रह्मादिभिर्मवन्तीति । यानी सम्पूर्ण मुवनका पराभव
(उपसंहार) करता हूँ। जो वारिपन्थूतानीति भुवनमस्यभरा-प्रामादि भूतों (प्राणियों) के द्वारा ममियतासि परेणेश्वरेण स्वरू
संभजनीय (भोगे जाने योग्य) है
अथवा जिसमें भूत (प्राणी ) होते पेण । सुवर्न ज्योतीः नुवरा- है उसका नाम भुवन है । 'सुवर्न दित्यो नकार उपमार्थे । आदित्य ज्योतिः'-'सुवः' आदित्यका नाम
है और न उपमाके लिये है। अर्थात् इन सद्विभातगणदीयं ज्योती
हमारी ज्योति-हमारा प्रकाश ब्योतिः प्रकाश इत्यर्थः ।
आदित्यके समान प्रकाशमान है। शत पल्लाद्वयोवाहतोपानप- इस प्रकार इन दो वल्लियोंमें कही स्परमात्मज्ञानं तामेतां यथोक्ता- हुई उपनिपत् परमात्माका ज्ञान है । सुपनिपदं शान्तो दान्त उपरत- इस उपर्युक्त उपनिपत्को जो भृगुस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वा भृगु-|
| के समान शान्त, दान्त, उपरत, वत्तपो. महदास्थाय य एवं
तितिक्षु और समाहित होकर महान्
न तपस्या करके इस प्रकार जानता है वेद तस्येदं फलं यथोक्तमोक्ष | उसे यह उपर्युक्त मोक्षरूप फल इति ॥६॥.. .
प्राप्त होता है ॥६॥ " . . -*. . .. इति भृगुवल्ल्यां दशमोऽनुवाकः ॥ १० ॥
इति श्रीयनपुरमहंसपरिव्राजकाचार्यगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यश्रीमच्छ कर
मात कृतौ तैत्तिरीयोपनिपद्भाष्ये भृगुवल्ली समाप्ता ॥
' समान्य कष्णयजुर्वेदीया तैत्तिरीयोपनिपत् ॥
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P
शान्तिपाठ
ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः । शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः । शं नो विष्णुरुरुक्रमः । नमो ब्रह्मणे । नमस्ते वायो । त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि । त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्मावादिषम् । ऋतमवादिषम् । सत्यमवादिषम् । तन्मामावीत् । तद्वक्तारमावीत् ।
आवीन्माम् । आवीद्वक्तारम् ॥
ॐ शान्तिः ! शान्तिः !! शान्ति ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
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श्रीहरिः । मन्त्राणां वर्णानुक्रम ।
वहीं अनु० म०
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मन्त्रप्रतीकानि
पृ०
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अथाध्यात्मम् अन्तेवात्युत्तररूपम् अन्नं न निन्द्यात् अन्न न परिचक्षीत अन्नं बहु कुर्वीत अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात् अन्नाह प्रजाः प्रजायन्ते असद्वा इदमग्र आसीत् असन्नेव स भवति अहं वृक्षस्य रेरिवा अहमन्नमहमन्नम् आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात् मतं च स्वाध्यायप्रवचने च ओमिति ब्रह्म ॐ शं नो मित्रः कुर्वाणाचीरमात्मनः तन्नम इत्युपासीत देवपितृकार्याभ्याम् न कञ्चन वसतौ नो इतराणि पृथिव्यन्तरिक्षम् प्राणं देवा अनु प्राणन्ति प्राणो ब्रह्मेति व्यजानात् ब्रह्मविदाप्नोति परम् भीषासाद्वातः पवते भूर्भुवः सुवरिति
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भृगु वारुणिः
मनो ब्रह्मेति व्यजानात्. मह इति ब्रह्म
मह इत्यादित्यः
य एवं वेद
यतो वाचो निवर्तन्ते
यतो वाचो निवर्तन्ते
यश इति पशुपु
यशो जनेऽसानि स्वाहा यश्छन्दसामृषभो विश्वरूपः ' ये तत्र ब्राह्मणाः संमर्शिनः
वायुः संघानम्
विज्ञानं ब्रह्मेति व्यजानात्
विज्ञानं यज्ञं तनुते वेदमनूच्याचार्यो
शं नो मित्रः
शीक्षां व्याख्यास्यामः श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य
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स एको मनुष्यगन्धर्वाणाम्
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सह नौ यशः सुवरित्यादित्ये
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