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________________ अनु०५] शाङ्करभाष्यार्थ १३७ तदेव च सर्वसाविद्यापरि- अविद्याद्वारा कल्पना किये हुए कल्पितस्य द्वैतस्यावसानभत- सम्पूर्ण द्वैतका निषेधावधिभूत वह मद्वैतं ब्रह्म प्रतिष्ठा आनन्द अद्वैत ब्रह्म ही उसकी प्रतिष्ठा है, मयस्य । एकत्वावसानत्वात् । क्योंकि आनन्दमयका पर्यवसान भी एकत्वमें ही होता है । अविद्याअस्ति तदेकमविद्याकल्पितस्य परिकल्पित द्वैतका अवसानभूत वह द्वैतस्यावसानभूतमद्वैतं ब्रह्म एक और अद्वितीय ब्रह्म उसकी प्रतिष्ठा पुच्छम् । तदेतसिन्नप्यर्थे । प्रतिष्ठा यानी पुच्छ है । उस इसी एप श्लोको भवति ॥१॥ अर्थमें यह श्लोक है ॥ १ ॥ इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यां पञ्चमोऽनुवाकः ॥५॥ LAYI
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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