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तैत्तिरीयोपनिपद्
[चल्लो ?
त्यधिलोकाधिदेवतपाक्तद्वयोप- अधिदेवत-इन दो पातोंका भी लक्षणार्थम् । लोकदेवतापाङक्त- उपलक्षण करानेके लिये है, क्योंकि
इनमें लोक और देवतासम्बन्धी दो योश्चाभिहितत्वात् । पातोंका भी वर्णन किया गया है ।
अथानन्तरमध्यात्मं पाक्त- अत्र आगे तीन अध्यात्मपातोंविविधाध्यान- त्रयमुच्यते-प्राणा- का वर्णन किया जाता है-प्राणादि पाटन् दि वायुपाङक्तम। वायुपात, व आदि इन्द्रियपाङ्गत
और चर्मादि धातुपाक्त-बस ये चक्षुरादीन्द्रियपाङ्क्तम्चमादि इतने ही अध्यात्म और बाहा पाक्त धातुपातम् । एतावद्धीदं हैं। इनका इस प्रकार विधान अर्थात् सर्वमध्यात्मम्, बाह्यं च कल्पना करके ऋषि-वेद अथवा पाङ्क्तमेवेत्येतदेवमधिविधाय इस दृष्टिसे सम्पन्न किती ऋपिने परिकल्प्यपिर्वेद एतदर्शनसंपन्नो कहा । क्या कहा ? तो बतलाते वा कश्चिदपिरवोचदुक्तवान् ।
. . हैं-निश्चय ही यह सब पात ही .
है । आध्यात्मिक पातसे ही, किमित्याह-पाङ्क्तं वा इदं सर्व संख्याने समानता होनेके कारण पातेनैवाध्यात्मिकेन संख्या- · उपासक बाहपातको बल्यान्सामान्यात्पातं बाह्यं स्पृणोति पूरित करता है अर्थात् उसके साथ बलयति परतिको एकल्पसे उपलब्ध करता है । इस पलभ्यत इत्येतत् । एवं पातजो पुरुष जानता है वह प्रजापति
प्रकार 'यह सब पाङ्क्त है ऐसा मिदं सर्वमिति यो चेद स प्रजा- ' स्वरूप ही हो जाता है-ऐसा इसका पत्यात्मैव भवतीत्यर्थः ॥ १॥ तात्पर्य है ॥ १ ॥
इति शीक्षावल्ल्यां सप्तमोऽनुवाकः ॥ ७ ॥