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अनु० १ ]
शाङ्करभाष्यार्थ
उपक्रमः
नित्यान्यधिगतानि कर्माण्यु
सचित पापका क्षय ही जिनका
पात्तदुरितक्षयार्था- | मुख्य प्रयोजन है ऐसे नित्यकर्मोका तथा सकाम पुरुषोंके लिये विहित काम्यकर्मो का इससे पूर्ववर्ती ग्रन्थ में
नि, काम्यानि च
फलार्थिनां पूर्वस्मिन्ग्रन्थे । इदानीं कर्मोपादान हेतुपरिहाराय ब्रह्म -
विद्या प्रस्तूयते ।
कर्महेतुः कामः स्यात् । आत्मविदेवाप्त- प्रवर्तकत्वात् । आ कामो भवति तकामानां हि कामा
भावे स्वात्मन्यवस्थानात् प्रवृत्य - नुपपत्तिः । आत्मकामित्वे चास
कामता; आत्मा हि ब्रह्म; तद्विदो हि परप्राप्तिं वक्ष्यति ।
अतोऽविद्यानिवृत्तौ स्वात्मन्य
वस्थानं परप्राप्तिः । " अभयं ।
प्रतिष्ठां विन्दते" ( तै० उ० २
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७ । १) “ एतमानन्दमयमात्मा -
नमुपसंक्रामति" ( तै० उ० २।
८ । १२ ) इत्यादिश्रुतेः ।
[
अर्थात् कर्मकाण्डमें ] परिज्ञान हो चुका है । अब कर्मानुष्ठानके
कारणकी निवृत्तिके लिये ब्रह्मविद्याका आरम्भ किया जाता है ।
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कामना ही कर्मकी कारण हो सकती है, क्योंकि वही उसकी प्रवर्तक है । जो लोग पूर्णकाम हैं T उनकी कामनाओं का अभाव होनेपर खरूपमें स्थिति हो जानेसे कर्ममें प्रवृत्ति होना असम्भव है । आत्मदर्शनकी कामना पूर्ण होनेपर ही पूर्णकामता [ की सिद्धि] होती है; क्योंकि आत्मा ही ब्रह्म है और ब्रह्मवेत्ताको ही परमात्माकी प्राप्ति होती है ऐसा आगे [ श्रुति ] बतलायेगी । अतः अविद्याकी निवृत्ति होनेपर अपने आत्मामें स्थित हो जाना ही परमात्माकी प्राप्ति है; जैसा कि “ अभय पद प्राप्त करं लेता है” “[ उस समय ] इस आनन्दमय आत्माको प्राप्त हो जाता है" इत्यादि श्रुतियोंसे प्रमाणित होता है ।