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[६] इस प्रकार हम देखते हैं कि इस उपनिपद्का प्रधान लक्ष्य ब्रह्मज्ञान ही है। इसकी वर्णन-शैली बड़ी ही मर्मस्पर्शिनी और शृङ्गलाबद्ध है । भगवान् शङ्कराचार्यने इसके ऊपर जो भाप्य लिखा है वह भी बहुत विचारपूर्ण है। आशा है, विज्ञजन उससे यथेष्ट लाभ उठानेका प्रयत्न करेंगे।
इस उपनिषद्के प्रकाशनके साथ प्रथम आठ उपनिपदोंके प्रकाशनका कार्य समाप्त हो जाता है। हमें इनके अनुवादमें श्रीविष्णुवापटशास्त्रीकृत मराठी-अनुवाद, श्रीदुर्गाचरण मजूमदारकृत बँगलाअनुवाद, ब्रह्मनिष्ठ पं० श्रीपीताम्बरजीकृत हिन्दी-अनुवाद और महामहोपाध्याय डा० श्रीगंगानाथजी झा एवं पं० श्रीसीतारामजी शास्त्रीकृत अंग्रेजी अनुवादसे यथेष्ट सहायता मिली है । अतः हम इन सभी महानुभावोंके अत्यन्त कृतज्ञ हैं। फिर भी हमारी अल्पज्ञताके कारण इनमें बहुत-सी त्रुटियाँ रह जानी खाभाविक हैं । उनके लिये हम कृपालु पाठकोंसे सविनय क्षमाप्रार्थना करते हैं और आशा करते हैं कि वे उनकी सूचना देकर हमें अनुगृहीत करेंगे, जिससे कि हम अगले संस्करणमें उनके संशोधनका प्रयत्न कर सकें। हमारी इच्छा है कि हम शीघ्र ही छान्दोग्य और बृहदारण्यक भी हिन्दीसंसारके सामने रख सकें। यदि विचारशील वाचकवृन्दने हमें प्रोत्साहित किया तो बहुत सम्भव है कि हम इस सेवामें शीघ्र ही सफल हो सकें।
अनुवादक