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________________ पिता वरुणके पास जाता है और उससे प्रश्न करता है कि जिससे ये सब भूत उत्पन्न हुए हैं, जिससे उत्पन्न होकर, जीवित रहते हैं और अन्तमें जिसमें ये लीन हो जाते हैं उस तत्त्वका मुझे उपदेश कीजिये । इसपर वरुणने अन्न, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, मन और वाणी ये ब्रह्मोपलब्धिके छ: मार्ग बतलाकर उसे तप करनेका आदेश किया और कहा कि 'तपसा ब्रह्म विजिज्ञास्व । तपो ब्रह्म'-तपसे ब्रह्मको जाननेकी इच्छा कर, तप ही ब्रह्म है। भूगुने जाकर मनःसमाधानरूप तप किया और इन सबमें अन्नको ही ब्रह्म जाना । किन्तु फिर उसमें सन्देह हो जानेपर उसने फिर वरुणके पास आकर वही प्रश्न किया और वरुणने भी फिर वही उत्तर दिया। इसके पश्चात् उसने प्राणको ब्रह्म जाना और इसी प्रकार पुनः-पुनः सन्देह होने और पुनः-पुनः वरुणके वही आदेश देनेपर अन्तमें उसने आनन्दको हो ब्रह्म निश्चय किया । यहाँ ब्रह्मज्ञानका प्रथम द्वार अन्न था। इसीसे श्रुति यह आदेश करती है कि अन्नकी निन्दा न करे-यह नियम है, अन्नका तिरस्कार न करे-यह नियम है और खूब अन्नसंग्रह करे—यह भी नियम है । यदि कोई अपने निवासस्थानपर आवे तो उसकी उपेक्षा न करे सामर्थ्यानुसार अन्न, जल एवं आसनादिसे उसका अवश्य सत्कार करे । ऐसा करनेसे वह अन्नवान्, कीर्तिमान् तथा प्रजा, पशु और ब्रह्मतेजसे सम्पन्न होता है। इस प्रकार अन्नकी महिमाका वर्णन कर भिन्न-भिन्न आश्रयोंमें भिन्न-भिन्नरूपसे उसकी उपासनाका विधान किया गया है। उस उपासनाके द्वारा जब उसे अपने सात्म्यिका अनुभव होता है उस समय उस लोकोत्तर आनन्दसे उन्मत्त होकर वह अपनी कृतकृत्यताको व्यक्त करते हुए अत्यन्त विस्मयपूर्वक गा उठता है.--'अहमन्नमहमनमहमन्नम् । अहमन्नादोऽहमन्नादो३ऽहमन्त्रादः ! अहर श्लोककृदहश्लोककृदह श्लोककृत्' इत्यादि । उसकी यह उन्मत्तोक्ति उसके कृतकृत्य हृदयका उद्गार है, यह उसका अनुभव है, और यही है उसके आध्यात्मिक संग्रामके अयत्नसाध्य भगवत्कृपालभ्य विजयका उद्घोष ।
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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