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________________ शाङ्करभाष्यार्थं अनु० १. ] रात्मैव ब्रह्म । " एतमानन्दमयमा किया त्मानमुपसंक्रामति" ( तै० उ० २।८।५)इति चात्मतां दर्शयति । तत्प्रवेशाचः " तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्” (तै० उ० २।६।१) इति च तस्यैव जीवरूपेण शरीर प्रवेशं दर्शयति । अतो वेदितुः स्वरूपं ब्रह्म । एवं तर्ह्यत्मत्वाज्ज्ञानकर्तृ त्वम् । आत्मा ज्ञातेति हि प्रसिद्धम् । " सोऽकामयत" ( तै० उ० २।६।१) इति च कामिनो । अनित्यत्वप्रसङ्गाच्च । यदि नाम ज्ञप्तिर्ज्ञानमिति भावरूपता ब्रह्मणस्तथाप्यनित्यत्वं प्रसज्येत पारतन्त्र्यं च । धात्वर्थानां • ९७ कारकापेक्षत्वात् । ज्ञानं च १३-१४ जानेके कारण ब्रह्म जाननेवालेका आत्मा ही है । " इस आनन्दमय आत्माको प्राप्त हो जाता है" इस वाक्यसे श्रुति उसकी, आत्मता दिखलाती है तथा उसके प्रवेश करनेसे भी [ उसका आत्मत्व सिद्ध होता है ] | " उसे रचकर वह उसीमें प्रविष्ट हो गया " ऐसा कहकर श्रुति उसीका जीवरूपसे शरीर में प्रवेश होना दिखलाती है । अतः ब्रह्म जाननेवालेका स्वरूप ही है । ज्ञानकर्तृत्वाज्ज्ञप्तिर्ब्रह्मेत्ययुक्तम् । कारण 'ब्रह्म ज्ञप्तिमात्र है' ऐसा कहना 1 अनुचित है । इस प्रकार आत्मा होनेसे तो उसे ज्ञानका कर्तृत्व सिद्ध होता है । 'आत्मा ज्ञाता है' यह बात तो प्रसिद्ध ही है । " उसने कामना की " इस श्रुतिसे कामना करनेवालेके ज्ञान कर्तृत्य की सिद्धि होती है । अतः ब्रह्मका ज्ञानकर्तृत्व निश्चित होनेके इसके सिवा ऐसा माननेसे अनित्यत्वका प्रसङ्ग भी उपस्थित होता है। यदि 'ज्ञान इप्तिको कहते हैं' इस व्युत्पत्ति के अनुसार ब्रह्मकी भावरूपता मानी जाय तो भी उसके अनित्यत्य और पारतन्त्र्यका प्रसङ्ग उपस्थित हो जाता है, क्योंकि धातुओंके अर्थ कारकोंकी अपेक्षावाले
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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