________________
૬૮
तैत्तिरीयोपनिपद्
[ वल्ली २
योग--युक्ति अर्थात् समाधान ही आत्मा के समान उसका आत्मा है । युक्त अर्थात् समाधानसम्पन्न आत्मवान् पुरुपके ही अङ्गादिके समान श्रद्धा आदि साधन यथार्थ ज्ञानकी प्राप्तिमें समर्थ होते हैं । अतः समाधान यानी योग हो विज्ञानमय कोशका आत्मा है और नहः उसकी पुच्छ — प्रतिष्ठा है ।
समाधानम्,
आत्मेवात्मा ।
आत्मवतो हि युक्तस्य समाधानतोऽङ्गानीव श्रद्धादीनि यथार्थ - प्रतिपत्तिक्षमाणि भवन्ति । तसात्समाधानं योग आत्मा विज्ञानमयस्य । महः पुच्छं प्रतिष्ठा ।
मह इति महत्तत्त्वं प्रथमजम् । “महद्यक्षं प्रथमजं वेद” ( वृ०ड०
५ । ४ । १ ) इति श्रुत्यन्तरात् | यह महत्तत्त्वका
"
" प्रथम उत्पन्न हुए महान् चक्ष
जानता है" इस अनुसार 'मह : ' नाम है । वही कारण होनेसे .
1
।
1 [विज्ञानमयका ] उसकी पुच्छ-- प्रतिष्ठा है, क्योंकि कारण ही कार्यवर्गकी प्रतिष्ठा (आश्रय ) हुआ करता है, जैसे कि वृक्ष और लता - गुल्मादिकी प्रतिष्टा पृथिवी है । महत्तत्व ही बुद्धिके सम्पूर्ण विज्ञानोंका कारण है । इसलिये वह विज्ञानमय आत्माकी प्रतिष्ठा है । पूर्ववत् उसके विपयमें ही यह श्लोक - है अर्थात् जैसे पहले श्लोक ब्राह्मणोक्त अन्नमय आदिके प्रकाशक हैं उसी प्रकार यह विज्ञानमयका भी प्रकाशक श्लोक है ॥ १ ॥
पुच्छं प्रतिष्ठा कारणत्वात् कारणं हि कार्याणां प्रतिष्ठा । यथा वृक्षवीरुधां पृथिवी । सर्वबुद्धिविज्ञानानां च महत्तत्त्वं
( पूजनीय ) को एक अन्य श्रुतिके
कारणम् । तेन तद्विज्ञानमयस्या -
:
त्मनः प्रतिष्ठा । तदप्येष श्लोको
भवति पूर्ववत् । यथान्नमयादी -
नां ब्राह्मणोक्तानां प्रकाशकाः
श्लोका एवं विज्ञानमयस्यापि ॥१॥
इति ब्रह्मानन्दवल्ल्यां चतुर्थोऽनुवाकः ॥ ४ ॥
కితా