SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९४ तैत्तिरीयोपनिपद् [वल्ली२ स्वात्मानमेवोपसंक्रामतीति वि-प्रकरणका आरम्भ करके अब 'मनो मय अथवा विज्ञानमय अपनेको रोधः स्यात् । तथा नानन्दमय- ही प्राप्त होता है' ऐसा कहनेमें स्यात्मसंक्रमणमुपपद्यते । तस्मान्न उससे विरोध आता है। इसी प्रकार आनन्दमयका भी अपनेको प्राप्त प्राप्तिः संक्रमणं नाप्यन्नमयादी होना सम्भव नहीं है। अतः प्राप्तिका नामन्यतसकर्तृकम् । पारिशेष्याद- नाम संक्रमण नहीं है और न वह अन्नमयादिमेंसे किसीके द्वारा किया नमयाद्यानन्दमयान्तात्मव्यति-जाता है । फलतः आत्मासे भिन्न रिक्तकर्वकं ज्ञानमात्रं च संक्रमण अन्नमयसे लेकर आनन्दमय कोश पर्यन्त जिसका कर्ता है वह ज्ञानमात्र मुपपद्यते। ही संक्रमण होना सम्भव है। ज्ञानमात्रत्वे चानन्दमयान्त:- इस प्रकार 'संक्रमण' शब्दका अर्थ ज्ञानमात्र होनेपर ही आनन्दमय स्थस्यैव सर्वान्तरस्याकाशाद्यन्न । कोशके भीतर स्थित सर्वान्तर तथा मयान्तं कार्य सृष्ट्वानुप्रविष्टस्य ! आकाशसे लेकर अन्नमयकोशपर्यन्त कार्यवर्गको रचकर उसमें अनुप्रविष्ट हृदयगुहाभिसंवन्धादन्नमयादि- हुए आत्माका जो हृदयगुहाके वनात्मस्वात्मविभ्रमः संक्रमणे- सम्बन्धसे अन्नमय आदि अनात्माओं में आत्मत्वका भ्रम है वह संक्रमणनात्मविवेकविज्ञानोत्पत्त्या विन-खरूप विवेक ज्ञानकी उत्पत्तिसे नष्ट श्यति । तदेतस्मिन्नविद्याविभ्रम- हो जाता है । अतः इस अविद्यारूप | भ्रमके नाशमें ही संक्रमण शब्दका नाशे संक्रमणशब्द उपचर्यते न उपचार (गौणरूप) से प्रयोग ह्यन्यथा सर्वगतस्यात्मनः संक्र किया गया है। इसके सिवा किसी और . प्रकार सर्वगत आत्माका संक्रमण -- मणमुपपद्यते । | होना सम्भव नहीं है।
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy