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स्वयम चतुवाक
पाकरूपसे ब्रसकी उपासना यदेतद्व्याहत्यात्मकं ब्रह्मो-। यह जो व्यातिय उपाय
ब्रह्म बतलाया गया है अब पृथिवी पास्यमुक्तं तस्यैवेदानीं पृथिव्या
" आदि पाक्तरूपसे उत्तीकी उपासनादिपाङ्क्तस्त्ररूपेणोपासनमुच्यते। का वर्णन किया जाता है-[ पृथिवी पञ्चसंख्यायोगात्पङ्क्तिच्छन्द:
आदि पाँच-पाँच संख्यावाले पदार्थ हैं
नया पङ्क्ति छन्द भी पाँच पदोंवाला संपत्तिः । ततः पाङ्क्तत्वं है,अतः] 'पाँच' संख्याका योग होनेसे सर्वस्य । पाक्तश्च यज्ञः ।
[उन पृथिवी आदिसे ] पङ्क्तिछन्द
सम्पन्न होता है। इसीसे उन सबका "पञ्चपदा पङ्क्तिः पाक्तो पाक्तत्व है। यज्ञ भी पाङ्क्त है,जैसा यज्ञः" इति श्रुतेः । तेन यत्सर्व कि “पङ्क्तिछन्द पाँच पदोबाला है,
यज्ञ पाक्त है" इस श्रुतिले ज्ञात लोकाद्यात्मान्तं च पाक्तं परि
होता है । अतः जो लोकसे लेकर कल्पयति यज्ञमेव तत्परिकल्प- आत्मापर्यन्त सबको पाङ्क्तरूपसे
कल्पना करता है वह यज्ञकी ही यति । तेन यज्ञेन परिकल्पितेन
कल्पना करता है। उस कल्पना पाङ्क्तात्मकं प्रजापतिमभि- | किये हुए यज्ञसे वह पाक्तस्वरूप
प्रजापतिको प्राप्त हो जाता है। संपद्यते । तत्कथं पाङ्क्तमिदं
अच्छा तो यह सब किस प्रकार सर्वमित्यत आह- पाक्त है ? सो अब बतलाते हैं
पृथिव्यन्तरिक्षं द्यौर्दिशोऽवान्तरदिशः। अग्निर्वायुरादित्यश्चन्द्रमा नक्षत्राणि । आप ओषधयो वनस्पतय