SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनु०६] মােস্তাঘ राम आक्रीडा यस्य तत्प्राणा- प्राणोंमें जिसका रमण अर्थात् क्रीडा रामम् । प्राणानां वारामो यस्मि- है अथवा जिसमें प्राणों का आरमण है उसे प्राणाराम कहते हैं । मनस्तत्प्राणारामम् । मनआनन्दम् ; आनन्दन्-जिसका मन आनन्दभूत आनन्दभूतं सुखदेव यस अर्थात् सुखकारी ही है वह मनमनस्तन्मनआनन्दम् । शान्ति-: आनन्द कहलाता है । शान्तिसमृद्धम् " ! --शान्ति उपशमको कहते हैं, जो समृद्धं शान्तिरुपशमः, शान्तिश्च शान्ति भी है और समृद्ध भी वह तत्समृद्धं च शान्तिसमृद्धम् । शान्तिसमृद्ध है अथवा शान्तिके शान्त्या या समृद्धं नदुपलभ्यत द्वारा उस समृद्ध ब्रह्मकी उपलब्धि | होती है, इसलिये उसे शान्तिसमृद्ध इति शान्तिसमृट्टम् । अमृतम- कहते हैं । अमृत-अमरणधर्मी । ये मरणधर्मि । एतचाधिकरण- अधिकरणमें आये हुए विशेषण उस विशेपणं तत्रैव मनोमय इत्यादी मनोमय आदिमें ही जानने चाहिये। इस प्रकार मनोमयत्य आदि धर्मोसे द्रष्टव्यमिति । एवं मनोमयत्वा-विशिष्ट उपर्युक्त ब्रह्मकी, हे प्राचीनदिधर्मविशिष्टं यथोक्तं ब्रह्म हे योग्य ! तू उपासना कर-यह प्राचीनयोग्य, उपास्स्वेत्याचार्य आचार्यकी उक्ति [ उपासनाके ] आदरके. लिये है। 'उपासना' वचनोक्तिरादरार्था । उक्तस्तू- शब्दका अर्थ तो पहले बतलाया ही पासनाशब्दार्थः ॥ १-२॥ जा चुका है ॥ १-२ ॥ इति शीक्षावल्ल्यां पष्टोऽनुवाकः ॥ ६ ॥
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy