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________________ अनु०४] शाङ्करभाष्यार्थ २७ स त्वमपि मा मां भग भगवन् हो जाऊँ तथा तू भी, हे भगसालाना भगवन् ! मुझमें प्रवेश कर । अर्थात् हम दोनोंकी एकता ही हो जाय । हे तसिंस्त्वयि सहस्रशाखे बहु- भगवन् ! उस सहस्रशाख-अनेकों *शाखाभेदे हे भगवन् , निमजे शाखाभेदवाले तुझमें मैं अपने पापशोधयाम्यहं पापकृत्याम् । कर्मोका शोधन करता हूँ। यथा लोक आपः अवता) लोकमें जिस प्रकार जल प्रवण वान्-निम्नतायुक्त देशकी ओर जाते प्रवणवता निम्नवता देशेन यन्ति । हैं और महीने जिस प्रकार अहर्जरमें गच्छन्ति । यथा च मासा | अन्तहित होते हैं। अहर्जर संवत्सरअहर्जरं संवत्सरोहर्जरः । को कहते हैं, क्योंकि वह अहःअहोभिः परिवर्तमानो लोकाञ्जर- दिनाक रूप | लोकोंको जीर्ण करता है अथवा यतीत्यहानि वासिञ्जीर्यन्त्यन्त उसमें अहः-दिन जीर्ण यानी भवन्तीत्यहर्जरः। तं च यथा अन्तर्भूत होते हैं इसलिये वह मासा यन्त्येवं मां ब्रह्मचारिणो अहर्जर है । उस संवत्सरमें जिस माता प्रकार महीने जाते हैं उसी प्रकार हे धातः ! मेरे पास सब ओरसेयन्त्वागच्छन्तु सर्वतः सर्व सम्पूर्ण दिशाओंसे ब्रह्मचारीलोग दिग्भ्यः। | आवें। ५ प्रतिवेश-श्रमापनयनस्थान- 'प्रतिवेश' श्रमनिवृत्ति के स्थान मासनगृहमित्यर्थः । एवं त्वं अर्थात् समीपवर्ती गृहको कहते हैं । प्रतिवेश इव प्रतिवेशस्त्वच्छी- इस प्रकार त प्रतिवेशके समान प्रति वेश यानी अपना अनुशीलन करनेलिनां सर्वपापदुःखापनयनस्था- वालोंका दुःखनिवृत्तिका स्थान है । नमसि, अतोमा मां प्रति प्रभाहि अतः तू मेरे प्रति अपनेको प्रकाशित प्रकाशयात्मानं प्रपद्यस्व च । । कर और मुझे प्राप्त हो; अर्थात्
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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