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________________ ૨૮ तैत्तिरीयोपनिपद [चल्ली १ मां रसविद्धमिव लोहं त्वन्मयं पारदसंयुक्त लोहेके समान त, मुझे त्वदात्मानं कुर्वित्यर्थः। अपनेसे अभिन्न कर ले। श्रीकामोऽसिन्विद्याप्रकरणे- इस ज्ञानके प्रकरणमें जो लक्ष्मीवियोपलब्धी अभिधीयमानोधना- की कामना कही जाती है वह धनके धनस्योपयोगः ह लिये है, धन कर्मके लिये होता है, थम् । कर्म चोपात्तदुरितक्षयाय। और कर्म प्राप्त हुए पापोंके क्षयके लिये है। उनके क्षीण होनेपर ही तत्क्षये हि विद्या प्रकाशते । तथा ज्ञानका प्रकाश होता है; जैसा कि च स्मृतिः "ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां यह स्मृति भी कहती है-“पापक्षयात्पापस्य कर्मणः । यथादर्श- कर्मोका क्षय हो जानेपर ही पुरुप को ज्ञान होता है । जिस प्रकार तले प्रख्ये पश्यन्त्यात्मान दर्पणके स्वच्छ हो जानेपर उसमें मात्मनि" (महा० शा० २०४ मुख देखा जा सकता है उसी ८, गरुड० १ । २३७ । ६) प्रकार शुद्ध अन्तःकरणमें आत्माका इति ॥३॥ साक्षात्कार होता है" ॥ ३ ॥ इति शीक्षावल्ल्यां चतुर्थोऽनुवाकः ॥ ४॥
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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