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अनु० १०]
शाङ्करभाप्यार्थ
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तब्रह्मेत्युपासीत । ब्रह्म परि- वह ब्रह्म है-इस प्रकार उसकी वटतममित्यणासीत । ब्रह्मांत- उपासना करे । ब्रह्म यानी सबसे
वढ़ा हुआ है-इस प्रकार उपासना गुणो भवति । तद्ब्रह्मणः परिमर |
| करे । इससे वह ब्रह्मवान्-ब्रह्मके से इत्युपासीत । ब्रह्मणः परिमरः | गुणवाला हो जाता है। वह ब्रह्मका
परिमर है-इस प्रकार उसकी परिम्रियन्तेऽस्मिन्पश्च देवता उपासना करे । ब्रह्मका परिमरविद्युदृष्टिश्चन्द्रमा आदि- जिसमें विद्युत् ,वृष्टि, चन्द्रमा,आदित्य
और अग्नि-ये पाँच देवता मृत्युको त्योऽग्निरित्येताः। अतो वायुः ।
प्राप्त होते हैं उसे परिमर कहते हैं; परिमरः श्रुत्यन्तरप्रसिद्धः । स अतः वायु ही परिमर है, जैसा कि एप एवायं वायुराकाशेनानन्य [ "वायुव संवर्गः” इस ] एक
| अन्य श्रुतिसे सिद्ध होता है । वही इत्याकाशो ब्रह्मणः परिमरः,
यह वायु आकाशसे अभिन्न है,इसलिये तमाकाशं वाय्वात्मानं ब्रह्मणः | आकाश ही ब्रह्मका परिमर है । अतः परिमर इत्युपासीत ।
वायुरूप आकाशकी 'यह ब्रह्मका
परिमर है' इस भावसे उपासना करे। एनमेवंविदं प्रतिस्पर्धिनो| इस प्रकार जाननेवाले इस द्विपन्तोऽद्विपन्तोऽपि सपना यतो उपासकके द्वेप करनेवाले प्रतिपक्षीभवन्त्यतो विशेष्यन्ते द्विपन्तः |
.. क्योंकि प्रतिपक्षी द्वेप न करनेवाले
भी होते हैं इसलिये यहाँ 'द्वप सपना इति, एनं द्विपन्तः
करनेवाले' यह विशेपण दिया गया सपत्नास्ते परिम्रियन्ते प्राणाज-है-मर जाते हैं अर्थात् प्राण त्याग हति । किं च ये चाप्रिया अस्य देते हैं। तथा इसके जो अप्रिय भ्रातृव्या अद्विपन्तोऽपि ते च भ्रातृव्य होते हैं वे, द्वेप करनेवाले परिम्रियन्ते ।
न होनेपर भी, मर जाते हैं। २९-३०