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________________ अनु० ३] शाङ्करभाष्यार्थ १२३ इत्युच्यते । एवमृगेवं साम | वही 'यजुः' कही जाती है। इसी प्रकार 'ऋ' और ऐसे ही 'साम' को भी समझना चाहिये ।* एवं च मनोवृत्तित्वे मन्त्राणां इस प्रकार मन्त्रोंके मनोवृत्तिरूप होनेपर ही उस वृत्तिका आवर्तन वृत्तिरेवावर्त्यत इति मानसो जप करनेसे उनका मानसिक जप किया | जाना ठीक हो सकता है । अन्यथा उपपद्यते । अन्यथाविपयत्वान्म-घटादिके समान मनके विपय न न्त्रो नावर्तयितुं शक्यो घटादि होनेके कारण तो मन्त्रोंकी आवृत्ति भी नहीं की जा सकती थी और उस अवस्थामें मानसिक जप होना वदिति मानसो जपो नोपपद्यते । सम्भव ही नहीं था। किन्तु मन्त्रोंकी मन्त्रावृत्तिश्च चोद्यते बहुशः! आवृत्तिका तो बहुत-से कोंमें विधान किया ही गया है [ इससे उसकी | असम्भावना तो सिद्ध हो नहीं कर्मसु । सकती ] । . ___* 'यजुः' आदि शब्दोंसे यजुर्वेद आदि ही समझे जाते हैं । परन्तु यहाँ जो उन्हें मनोमय कोशके शिर आदि रूपसे बतलाया गया है उसमें यह शंका होती है कि उनका उससे ऐसा क्या सम्बन्ध है जो वे उसके अङ्गरूपसे बतलाये गये हैं ? इस वाक्यमें भगवान् माष्यकारने उसी बातको स्पष्ट किया है । इसका तात्पर्य यह है कि यजुः, साम अथवा ऋक् आदि मन्त्रोंके उच्चारणमें सबसे पहले अन्यान्य शब्दोंके उच्चारणके समान मनका ही व्यापार होता है। पहले कण्ठ अथवा तालु आदि स्थानोंसे जठरामिद्वारा प्रेरित वायुका आघात होता है, उससे प्रस्फुट नादकी उत्पत्ति होती है। फिर क्रमशः खर और अकारादि वर्ण अभिध्यक्त होते हैं । वाँके संयोगसे पद और पदसमूहसे वाक्यकी रचना होती है। स प्रकार मानसिक सङ्कल्प और भावसे ही यजुः आदि मन्त्र अभिव्यक्त होकर गोत्रेन्द्रियसे ग्रहण किये जाते हैं । अतः मनोवृत्तिसे उत्पन्न होनेवाले होनेके गरण ही यहाँ यजुर्विषयक मनोवृत्तिको 'यजुः', ऋग्विषयक वृत्तिको 'ऋक्, नौर सामविषयक वृत्तिको 'साम' कहा गया है तथा इस प्रकारकी यजुःवृत्ति । मनोमय कोशकी शीर्षस्थानीय है।
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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