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मृचही
प्रथम अनुवाक
भृगुका अपने पिता वरुणके पास जाकर ब्रह्मविद्याविषयक
प्रश्न करना तथा वरुणका ब्रह्मोपदेश
क्योंकि सत्य, ज्ञान और अनन्त ब्रह्म ही आकाशसे लेकर अन्नमयपर्यन्त कार्यवर्गको रचकर उसमें सृष्ट्वा तदेवानुप्रविष्टं अनुप्रविष्ट हो सविशेष-सा उपलब्ध
दिकार्यमन्नमयान्तं
विशेषवदिवोपलभ्यमानं यस्मातस्मात्सर्वकार्यविलक्षणमदृश्यादि -
हो रहा है इसलिये वह सम्पूर्ण कार्यवर्गसे विलक्षण अश्यादि धर्मवाला आनन्द ही है; और वही मैं धर्मकमेवानन्दं तदेवाहमिति हूँ - ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि विजानीयादनुप्रवेशस्य तदर्थत्वा - उसके अनुप्रवेशका यही उद्देश्य है । इस प्रकार जाननेवाले उस तस्यैवं विजानतः शुभाशुभे साधक के शुभाशुभ कर्म जन्मान्तरका कर्मणी जन्मान्तरारम्भके न आरम्भ करनेवाले नहीं होते । आनन्दवल्लीमें यही विपय कहना भवत इत्येवमानन्दवल्ल्यां विव- | अभीष्ट था । अब ब्रह्मविद्या तो समाप्त हो चुकी । यहाँसे आगे ब्रह्मविद्या साधन तपका निरूपण करना है तथा जिनका पहले निरूपण नहीं किया गया है उन अन्नादिविषयक उपासनाओंका भी
याणि चोपासनान्यनुक्तानीत्यत वर्णन करना है; इसीलिये इस
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्माकाशा
उपक्रमः
क्षितोऽर्थः परिसमाप्ता च ब्रह्मविद्या | अतः परं ब्रह्मविद्या
साधनं तपो वक्तव्यमन्नादिविप
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