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तैत्तिरीयोपनिषद्
[ वल्ली ३
इदमारस्यते--
प्रकरणका आरम्भ किया जाता हैभृगुर्वै वारुणिः वरुणं पितरमुपससार अधीहि भगवो ब्रह्मेति । तस्मा एतत्प्रोवाच । अन्नं प्राणं चक्षुः श्रोत्रं मनो वाचमिति । त होवाच । यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते । येन जातानि जीवन्ति । यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति । तद्विजिज्ञासस्व । तद् ब्रह्मेति । स तपोऽतप्यत । स तपस्तप्त्वा ॥१॥
मुझे ब्रह्मान और बाद ही ये सबर अन्तम
वरुणका सुप्रसिद्ध पुत्र भृगु अपने पिता वरुणके पास गया [ और बोला---] 'भगवन् ! मुझे ब्रह्मका बोध कराइये ।' उससे वरुणने यह कहा-'अन्न, प्राण, नेत्र, श्रोत्र, मन और वाक् [ये ब्रह्मकी उपलब्धिके द्वार हैं] ।' फिर उससे कहा-'जिससे निश्चय ही ये सब भूत उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होनेपर जिसके आश्रयसे ये जीवित रहते हैं और अन्तमें विनाशोन्मुख होकर जिसमें ये लीन होते हैं उसे विशेपरूपसे जाननेकी इच्छा कर वही ब्रह्म है।' तब उस (भृगु ) ने तप किया और उसने तप करके-॥१॥ आख्यायिका विद्यास्तुतये, पिताने अपने प्रिय पुत्रको इस
(विद्या ) का उपदेश किया थाप्रियाय पुत्राय पित्रोक्तेति--
इस दृष्टिसे यह आख्यायिका विद्याकी भृगु वारुणिः । वैशब्दः प्रसि- स्तुतिके लिये है । 'भृगुः वारुणिः'
इसमें 'वै' शब्द प्रसिद्धका स्मरण द्धानुसारको भृगुरित्येवंनामा
करानेवाला है। इससे 'भूगु' इस प्रसिद्धोऽनुस्मार्यते । वारुणिर्वस- नामसे प्रसिद्ध ऋषिका अनुस्मरण
कराया जाता है जो वारुणि अर्थात् णस्यापत्यं वारुणिर्वरुणं पितरं । वरुणका पुत्र था । वह ब्रह्मको