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________________ अनु०१] शाकरभाष्यार्थ २०३ ब्रह्म विजिज्ञासुरुपससारोपगत- जाननेकी इच्छावाला होकर अपने पिता वरुणके पास गया । अर्थात् वान् , अधीहि भगवो ब्रहोत्य 'हे भगवन् ! आप मुझे ब्रह्मका नेन मन्त्रेण । अधीहि अध्यापय | उपदेश कीजिये' इस मन्त्रके द्वारा कथय । स च पिता विधिवदुप-अधीहि' शब्दका अर्थ अध्यापन [ उसने गुरूपसदन किया ] । सन्नाय तस्मै पुत्रायैतद्वचनं ( उपदेश ) कीजिये-कहिये ऐसा समझना चाहिये । उस पिताने प्रोवाच । अन्नं प्राणं चक्षुः श्रोत्रं अपने पास विधिपूर्वक आये हुए मनो वाचमिति । | उस पुत्रसे यह वाक्य कहा-'अन्नं प्राणं चक्षुः श्रोत्रं मनः वाचम् ।' अन्नं शरीरं तदभ्यन्तरं च 'अन्न अर्थात् शरीर उसके भीतर वरुणोपदिष्ट- प्राणमत्तारमुपल- | अन्न भक्षण करनेवाला प्राण, प्राशप्राप्तिशाराणि न तदनन्तर विषयोंकी उपलब्धिके साधनभूत चक्षु, श्रोत्र, मन और श्रोत्रं मनोवाचमित्येतानि ब्रह्मो वाक ये ब्रह्मकी उपलब्धिमें द्वाररूप पलब्धो द्वाराण्युक्तवान् । उक्त्वा हैं'-ऐसा उसने कहा । इस च द्वारभूतान्येतान्यन्नादीनि तं, वाला प्रकार इन द्वारभूत अन्नादिको वतलाकर उसने उस भृगुको ब्रह्मका भृगु होवाच ब्रह्मणो लक्षणम् ।। लक्षणम् लक्षण बतलाया । वह क्या है ? कि तत् ? [सो बतलाते हैं-] यतो यसाद्वा इमानि ब्रह्मा- जिससे ब्रह्मासे लेकर स्तम्बपर्यन्त दीनिस्तम्बपर्यन्तानि ये सम्पूर्ण प्राणी उत्पन्न होते हैं, | जिसके आश्रयसे ये जन्म लेनेके 'भूतानि जायन्ते । अनन्तर जीवित रहते-प्राण धारण येन जातानि जीवन्ति प्राणा- करते अर्थात् वृद्धिको प्राप्त होते हैं धारयन्ति वर्धन्ते । विनाशकाले । तथा विनाशकाल उपस्थित होनेपर स ब्रहालक्षणम् ।
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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