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________________ SAnulu. अनु०८] शाङ्करभाप्यार्थ १७७ - JA-- -- सुखोत्कर्पोपलब्धेरकामहतत्वस्य सुखका सौगुना उत्कर्ष देखा जाता है। अतः अकामहतत्वको परमानन्दपरमानन्दप्राप्तिसाधनत्वविधाना की प्राप्तिका साधन बतलानेके लिये 'अकामहत' विशेषण ग्रहण किया है । और सबकी व्याख्या पहले की थम् । व्याख्यातमन्यत् । म्यायातमन्यत् जा चुकी है। देवगन्धर्वा जातित एच ।। देवगन्धर्व-जो जन्मसे ही गन्धर्व चिरलोकलोकानामिति पितृणां हों 'चिरलोकटोकानाम्' (चिरस्थायी लोकमें रहनेवाले ) यह पितृगणका विशेषणम् । चिरकालस्थायी विशेषण है । जिन पितृगणका लोको येषां पितणां ते चिर- चिरस्थायी लोक है वे चिरलोक लोक कहे जाते हैं। 'आजान' लोकलोका इति । आजान इति | देवलोकका नाम है, उस आजानमें देवलोकरतसिन्नाजाने जाता आ-जो उत्पन्न हुए हैं वे देवगण जानजा देवाः सातकर्मविशेपतो। 'आजानज' हैं, जो कि स्मार्त कर्म विशेपके कारण देवस्थानमें उत्पन्न देवस्थानेषु जाता। __ कर्मदवा ये वैदिकेन कर्मणा- जो केवल अग्निहोत्रादि वैदिक ग्निहोत्रादिना केवलेन देवान-1 कर्मले देवभावको प्राप्त हुए हैं वे 'कर्मदेव' कहलाते हैं । जो तैंतीस पियन्ति । देवा इति त्रयस्त्रिंश- देवगण यज्ञमें हविर्भाग लेनेवाले हैं द्धविर्भुजः । इन्द्रस्तेपां खामी | वे ही यहाँ 'देव' शब्दसे कहे गये हैं। तस्साचार्यों बृहस्पतिः । प्रजा उनका खामी इन्द्र है और इन्द्रका गुरु बृहस्पति है । 'प्रजापति' का पतिविराट् | त्रैलोक्यशरीरो ब्रह्मा | अर्थ विराट है, तथा त्रैलोक्यशरीरसमष्टिव्यष्टिरूपः संसारमण्डल- धारी ब्रह्मा है जो समष्टि-व्यष्टिरूप व्यापी। और समस्त संसारमण्डलमें व्याप्त है। - यत्रैत आनन्दभेदा एकतां जहाँ ये आनन्दके भेद एकताको प्राप्त होते हैं [अर्थात् एक गच्छन्ति धर्मश्च तनिमित्तो ज्ञानं ही गिने जाते हैं ] तथा जहाँ २३-२४ हुए हैं।
SR No.034106
Book TitleTaittiriyo Pnishad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGeeta Press
PublisherGeeta Press
Publication Year1937
Total Pages255
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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